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'खन-कला के सम्बन्ध _में कुछ, ल्लाब्क बातें

श्चात्‌ यदि आवश्यक समझ ता अपन ज्ञान सशाषन कर | लेखक को अपनी कल्पना से पूरा पूरा काम लेना चाहिए. निरीक्षित वस्तु को कल्पना में उलट फेर कर इस दृष्टि से देखना चाहिए, कि उसके साहित्यिक वर्णन में केतनी काट-छाँट वा नमक-मिच की आवश्यकता होगी हम जिसके संपक में "व उसकी विशेषताएँ, उसका उठना-बैठना, उसकी रहन-सहन, उसकी प्रसन्नता »र नाराज़गी की बातों को नोट करना अपना कतंव्य समभें ऐसा करना हमें यवहारकुशल बना देगा हमें सांसारिक ज्ञान से अनभिज्ञ रहना चाहिए 'णंतया शिक्षित होने के लिए, दूसरे देशों के रैति-रिवाज़ जानना भी स्पृहणीय है साथ ही यह जानना भी आवश्यक है कि कोन चीज़ कहाँ ओर किस समय उत्पन्न होती है। ऐसा करने से हमारी रचनाओं में देश ओर काल-सम्बन्धी विरोध के दूषण रह जाना संभव है। जानवरों की विशेषताएँ जानना भी एक उपादेय गुण है। जिन पोधों ओर जिन वृक्षों का साहित्य में वर्णन आता है, श्रदि उनका निजी परिचय प्राप्त कर लिया जाय तो बहुत अच्छा है | तीसरी बात जो लेखक बनने के लिए आवश्यक है वह अभ्यास है . श्रिना पानीं में पैर दिये तैरना नहीं आता लेख ठीक कराने का चाहे अवसर मित्ले या मिले, लेख लिखना उपयोगी है। यदि स्वयं अपने अभ्यास विचार हों तो किसी दूसरे के विचारों को अपनी भाषा में लिखने का अभ्यास डाला जाय विद्रार्थियों को चाहिए के लेख लिख कर उन्हें स्वयं दो तीन बार पढ़ें, उनमें स्वयं ही आवश्यक ।रिवतन और संशोधन करें ओर स्वयं ही उनकी शुद्ध लिपि तैयार करें यदि केसी को दिखा कर सम्मति प्राप्त करने या संशोधन कराने का अवसर मिले तो पहुत ही श्रच्छा है और यदि नहीं तो भी अ्रभ्यास के लिए. लिखना अवश्य ५हिए। ऐसा हो कि निबन्ध-लेखन का पहला अभ्यास परीक्षा-भवन में ही कया जाय जो संशोधन किया जाय उनको याद रखना उचित है एक-एक "कार के कई लेख लिखे जाने वाच्छुनीय हैं पहले छोटे लेख लिखे जायें फिर मशः बड़े लिखे जायँ जो कुछ लिखा जाय उसमें पूर्ण. सावधानी रखनी ग्राहिए, असावधानी से लेखन-शैली बिगड़ जाती है |

डं अनन्ध-प्रभाकर

यद्यपि विषयों की अनन्तता के कारण प्रबन्धों के कई प्रकार हैं तथापि उनमें चार भेद मुख्य हैं--( ) विवरणात्मक ( पिज्ञा।8- 0५८ ), (२) बणनात्मक ( ८5८790४९८ ), (३) विवे- चनात्मक ( रिश्षी०८/४८ ), (४) भावात्मक ( 70009 ) विवरणात्मक लेखों में किसी काल में बीती हुई बात का विवरण रहता है | कथाओं का कहना, घटनाओं, लड़ाइयों, यात्राओं, सम्मेलनों, राजाओं के शासनकाल आदि का विवरण देना, ऐसे लेखों का मुख्य विपय रहता है वर्णनात्मक लेखों में नगरों, ग्रामों, नदियों, पवतों, प्राकृतिक दृश्यों, कारखानीं, योजनाओं, वस्तुओं की निर्माणविधि आदि का स्पष्ट और व्योरेवार वन रहता है विवरणात्मक लेखों में कालक्रम की ओर वर्णनात्मक अधिक ध्यान दिया जाता है वणनात्मक में वस्तु को ल्लीती हुईं बता कर वह सामने घटित होती हुईं-सी या स्थित-सी वर्णित की जाती है दोनों प्रकार के नित्रन्धों के बीच की रेखा बड़ी कज्ञीण है ओर प्रायः लेखों में विवरण ओर वणन दोनों के ही तत्त्व रहते हैं विवेचनात्मक लेखों में विवादास्पद विषयों का पक्ष-प्रतिपक्ष प्रतिपादन, किसी वस्तु वा प्रथा के गुण-दोष-विवेचन, किसी पुस्तक वा कवि की समता- लोचनाएँ तथा सिद्धान्तों का उद्घाटन आदि रहता है। विवेचनात्मक्‌_ इसमें बुद्धि की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है। आचाय शुक्कनी के निब्रन्ध विचारात्मक निबन्धों के परसमोत्कृष्ट उदाहरण हैं। उनमें एक » खलाबद्ध विचार-परम्परा रहती है किसी व्यवस्था- प्रिय शौकीन व्यक्ति के ट्रक में व्यवस्था के साथ रक्खे हुए; वस्त्रों की भाँति एक विचार के पश्चात्‌ दूसरा विचार एक स्वाभाविक तारतम्य में निकलता आता है। वर्णनात्मक और विवरणात्मक लेखों में कल्पना के सामने चित्र उपस्थित किया जाता है। कुछ लेख भावात्मक भी होते हैं; उनमें बुद्धि की अपेक्षा हृदय से अधिक काम लिया जाता है। इस प्रकार के लेख प्रायः गद्यकाबव्य के अ्रन्तग्गंत रबखे जाते हैं श्री वियोगी हरि के निबरन्ध इस कोटि के निनंधों

प्रबन्धों के प्रकार

विवरणात्मक

लेखन-कला के सम्बन्ध में कुछु शातव्य बातें प्‌

का सुन्दर उदाहरण उपस्थित करते हैं

लेख लिखने से पूव हमको अपने विषय के सम्बन्ध में पूथ विचार कर लेना चाहिए | जो विचार आयें उनको लिख कर उनमें क्रम स्थावित कर लेना स्संग्रह और * "मे है। जो विचार एक साथ रक्‍्खे जा सकते हैं कब कर * उनको एक संदर्भ वा परिच्छेद (29989/0॥) के लिए रख लेना वांछुनीय है। उन संदर्भों में एक स्वाभाविक आनुपूर्यों स्थापित कर लेना लेख में संगति और तार्किकता उत्पन्न कर देगा। लेख की थोड़ीसी भूमिका दे कर उसके पत्ष वा विपक्ष में जो कुछ विचारणीय बातें हों वे अलग-अलग आनी चाहिए। तदनन्तर उसके व्यावद्वारिक पहलू पर ( यदि उसका व्यावहारिक पहलू हे तो ) विचार कर लेना भी श्रेयस्कर होगा अन्त में उसके फल-स्वरूप दो चार ऐसे ओर सारगर्भित सुन्दर वाक्य लिखना

वांछुनीय होगा जो बहुत देर तक पाठक के ऊपर अपना प्रभाव बनाये रहें लेख का आरम्म आकषक रूप से करना चाहिए. जिससे पाठक की उत्सुकता बढ़ जाय | कहीं पर एक साधारण सिद्धान्त बतला कर लेख आरम्भ किया जाता है; जेसे दुख के पीछे सुख मिलता है, यह आरम्भ नियम अटल है! अथवा 'कवि स्वभाव से ही उच्छ छल होते हैं।' कहीं पर समस्या उपस्थित कर दी जाती है और कहीं पर परिभाषा से शुरू कर देते हैं; जेसे साहित्य जीवन की आलोचना है! अथवा राष्ट्र समाज की सुब्यवध्थित राजनीतिक इकाई है!। किन्तु परिभाषा देना अधिक अच्छा नहीं समझा जाता परिभाषा की अपेज्ञा तुलना द्वारा या और प्रकार से समभाना अच्छा होता है; जैसे आचाय शुक्नजी क्रोध! शीर्षक लेख के आरम्भ में लिखते हैं:-- दुख की कोटि में जो स्थान भय का है आनन्द की कोटि में वी स्थान उत्साह का हे! | लेख के प्रारम्भ करने के और भी कई प्रकार हैं। कोई तो पूव पक्ष दे कर आरम्म करते हैं और फिर उसपर विवेचन करते हूँ। कुछ लेखक कोई संध्मरण दे कर निबन्ध का प्रारम्भ कर देते हैं; जैसे पंडित बनारसीदास जी चतुवेदी का साहित्य और जीवन! लेख इस प्रकार शुरू होता है कुछ पहले की बात है। उत्तर भारत के एक प्रसिद्ध नगर में

| प्रबन्ध प्रभाकर

प्लेग फैलने की आशड्ढा थी | चूहे मर रहे थे /॥/ कभी-कभी लेख का प्रारम्म विषय की महत्ता बतला कर किया जाता है; जैसे क्षमा धमं का दूसरा लक्षण है', जिससे उस विषय के प्रति प्राक५ण बढ़े ओर कमी-वार्तात्ताप के बीच के एक वाक्य को उद्ध कर निबन्ध में प्रवेश कराया जाता है। आरम्म प्रश्नात्मक भी होते हैं; जैसे, 'घर प्यारा घरों शीषरक लेख का आरम्म इस प्रकार होता है-- आखिर यह इतना प्यारा क्‍यों है ? जिसे देखिए पेर बढ़ाये घर का रास्ता नाप रहा है ।! कभी सन्दर वातावरण उपस्थित कर नित्रन्ध का प्रारम्भ किया जाता है। आचाय महावीरप्रसाद द्विवेदी गोपियों की भगवद्धक्ति शीषक लेख का प्रारम्भ इस प्रकार करते हैं-- शरत्‌काल है। धरातल पर धूल का नाम नहीं मार्ग रजरहित है। नदियों का श्रोद्धत्य जाता रहा है।” कभी-कभी निबन्ध का आरंभ उपयुक्त उद्धरण दे कर किया जाता है; जेसे प्रस्तुत पुस्तक में इसका कोई नियम नहीं स्थापित किया जा सकता | विषय ओर अवसर के अनुकूल अपनी-अपनी स्फूर्त से काम लेना उचित होगा वशनात्मक वा विवरणात्मक लेखों में स्वाभाविक क्रम रखना चाहिए.। यात्रा में घर से चलने के पूव अभीश्ट स्थान पर पहुँचने का वणन देना असंगत होगा | कहानी को भी क्रम से ही कहना पड़ता है उसमें काल का क्रम रहता है। इमारत आदि के वर्णन में देश का क्रम रहता है। पहले अ्रड़ोस-पड़ोस की स्थिति का, फिर दरवाजे का, उसके पीछे भीतर की कारीगरी इत्यादि का वणन होना चाहिए विचारों में संगति रखना परम आवश्यक है। यह संगति तब ही सकती है जब विचार स्पष्ट हों यदि विचार स्पष्ट नहीं हैं तो उतने ही विचार आर रखे जावे जितने कि स्पष्ट हों। विचारों की अस्पष्टता भाषा संगति ओर. -. पल कस ले कुछ लिखा निताई म॑ भी अस्पष्टता उत्पन्न कर देती है जो कुछ लिखा गीय उसका पूरा निवांह करना लेखकों को अपना प्रथम कतव्य समभना चाहिए | विषय के प्रतिपादन में किसी प्रकार की असावधानी की जावे। एक अधिकरण में एक ही प्रधान विचार से संबंध रखने वाले पोषक विचार रकक्‍्खे जावे | जहाँ तक हो विचार इधर उधर घूमें | ऐसा हो कि कभी एक विचार जावे ओर कभी दूसरा; अथवा एक के पूरे होने

लेखन-कला के सम्बन्ध म॑ कुछ शातव्य बाते

से पूर्व दूसरा बीच में ही कूद पड़े विचारों के सम्बन्ध में जहाँ तक हो संगति रखना आवश्यक है | जिस दृष्टिकोण से हम वस्तु को देखें, उसी दृष्टिकोण की बातें लिखें। यदि दृष्टिकोश दूसरा बनावें तो उसे स्पष्टतया बतला देव विचारात्मक ओर भावात्मक नित्रन्धों मं बुद्धि ओर भावात्मक तत्तों का अनुपात घटता-बढ़ता रहता है। विचारात्मक निब्रन्धों में भावात्मक निबन्धों की अपेक्ता बुद्धि तत्त्व का प्राधान्य रहता है। विचारात्मक निन्रन्धों में प्रतिपाद्य विषय की ( पक्ष ओर वियज्ञ की युक्तियों द्वारा ) उपादेयता पर प्रकाश डाला जाता है। उसको उदाहरणों द्वारा पुष्ठ किया जाता है और कभी-कभी दूमरों के मतों का उल्लेख करके अ्वने मत का समथन किया जाता है। किन्तु विद्यार्थियों को एकाज्लिता से सदा दूर रहना चाहिए। भावात्मक निन्रन्धों में बुद्धि का पलला नहीं छोड़ा जाता किन्तु भावना का पुट अधिक रहता है। वर्णनात्मक् ओर विवरणात्मक नित्रन्धों में कल्पना का पुट अधिक रहता है भाषा थ्रोर शैली की उत्तमता उतनी ही आवश्यक है जितनी कि विचारों की उत्तम भाषा ओर शैली से लेखक के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है ओर पाठकों के हृदय की ग्राहकता बढ़ जाती है अशुद्ध भाषा और शैली ओर अस्पष्ट भाषा सुन्दर से सुन्दर विचारों की आकपकता को नष्ट कर देती है ओर वे विचार मरुभूमि में पड़े बीजों की भाँति अनुत्पादक रह जाते हैं भाषा में सत्र से पहले इस बात की ज़रूरत है कि वह सब-साधारण के समभने योग्य हो यत्रपि क्लिष्ट विषय के लिए, क्लिष्ट ओर पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है तथापि साधारण विचार को अ्रलंकारों के आवरण में छिपा देना अथवा पाणिड्त्य प्रदर्शन के हेतु पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग करना उचित नहीं शब्दों में ग्रथ की उपयुक्तता के साथ ध्वनि की मधुरता भी वांछुनीय है | यद्यपि ध्वनि के लिए अ्रथ का बलिदान करना श्रेयस्कर नहीं है तथापि जहाँ पर निभ सके एक स्थान से उच्चारण किये जाने वाले वर्णों का एक साथ आना श्रवण-सुखद होता है। छोटे शब्दों के बाद बड़े शब्दों का रखना श्रेयस्कर होगा; जेसे--अ्रनुगामी ओर सेवक के स्थान में सेवक और अनुगामी अधिक

ट् प्रत्रत्थ-ग्रभाकर

श्रुति-मधुर है। लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि शब्दों का तार्किक क्रम त्रिगड़े जहाँ उतार का क्रम हो वहाँ उतार का रहे ओर जहाँ चढ़ाव का क्रम हो वहाँ चढ़ाव का रहे 'ऊख, मयूख, पियूख' में चढ़ाव का क्रम है यथासम्भव शब्दों को उपयुक्तता का ध्यान रखते हुए उनकी पुनरा्त्ति से बचना चाहिए, जेसे चाहिए चाहिए! की पुनराजृत्ति अच्छी नहीं लगती उसके स्थान पर कहीं वांछुनीय' लिखना ओर कहीं पर आवश्यक या 'उचित होगा से काम लेना श्रेयस्कर होगा विषय के अनुकूल ही माधुय ओर झऔज गुणों का समावेश करने के लिए उन गुणों के अनुकूल ही वर्णों ओर शब्दों का प्रयोग करना चाहिए |

अनुप्रास शैली का गुण है किन्तु उसका बाहुल्‍प शैली का दोष हो जाता है। एक से शब्दों की पुनरावृत्ति एकतानता ( शैएणा000५ ) उत्यन्न कर देती है। इसी प्रकार गद्य में तुकबन्दी के शब्द अ्रग्राह्म हो उठते हैं

मुहावरों का प्रयोग भाषा की शक्ति को बढ़ा देता है चिरकाल से प्रयुक्त होने के कारण उनके व्यवहार में आत्मीय के मिलन का सा आनन्द प्राप्त होता है किन्तु मुहावरों को सप्रयास जमा-जमा कर बैठालना उचित नहीं है

अपने विपय का प्रतिपादन करते हुए. जोश में आना चाहिए बहुत भावोत्तेजक शब्द लिखना शिक्षा की कमी का द्योतक होता है | हा ! अहो, भाइयो, पाठकों आदि शब्दों का प्रयोग करना उचित नहीं है बिना भावोत्तेजक शब्दों का व्यवह्यर किये भी भाषा ज़ोरदार बनाई जा सकती है गांभीय रखते हुए कहीं-कहीं हास्य का पुट था जाना सोने में सुगंध का काम करता है। उससे पढ़नेवाले पर अच्छा प्रभाव पड़ता है ओर वह ऊबने नहीं पता हास्य जहाँ तक साहित्यिक हो वहाँ तक अच्छा है कभी-कभी बड़े लेखकों या कवियों के प्रसिद्ध वाक्यों में थोड़ा बहुत परिवतन कर देना बड़ा शिष्ट हास्य उत्पन्न कर देता है; जेसे रघुबंश के योगेनान्ते तनुत्यजाम के स्थान में 'गेगेणान्ते तनुत्यजाम!ं लिप देना ग्रथवा 'उमा दासु्योपित की नाई सबहिं नचावे राम गुसाई” तुलसीदास जी की इस चोपाई में राम गुसाई! के स्थान

लेखन-कला के सम्बन्ध में कुछ ज्ञातव्य बातें &

में दाम ( धन ) गुसाई” लिख देने से बात बढ़ी रोचक बन जाती है |

शब्दों के चुनाव में बहुत सावधानी की आवश्यकता है | सब पर्याय- वाची शब्द एक ही अ्रथ नहीं रखते; जैसे-- भय अधिकतर वर्तमान का ओर कभी-कभी भविष्य का भी होता है, आशंका” केवल भविष्य को ही होती है आशंका में अनिश्रय की मात्रा अधिक रहती है लज्जा दूसरों से होती है, ग्लानि के लिए दूसरे की अपेक्षा नहीं होती साधारण प्रेम शोर प्रणय में भी अन्तर है। प्रणय प्रायः दाम्पत्य प्रेम को ही कहते हैं। जहाँ तक हो बहुत समासवाले या कणकटु शब्दों का व्यवह्ार होना चाहिए संस्कृत के जो शब्द रक्‍खे जावे शुद्ध रूप में रकखे जावे, विक्ृत रूप में रक्‍्खे जावें। फारसी अंग्रेजी से भी तत्सम शब्द रक्खे जायें, किन्तु उनमें विभक्तियाँ बहुबचन के रूप आदि हिन्दी के लगाना उप्युक्त होगा ओर अनत्र फारसी की तत्समता निभाने के लिए. कया के नीचे भिन्‍्दी लगाना वांछुनीय नहीं समका जाता खुराक ही लिखंगे ख़॒राक नहीं हिन्दी में फुट का बहुवचन फुटों लिखना ठीक होगा कि फीट | इस प्रकार लफ्ज का बअहुवचन अ्रलफाज़ लिख कर लफ्जों लिखना उचित होगा

विदेशी भाषाओं के शब्दों के प्रयोग के सम्बन्ध में कुछ लोगों का तो यह कथन है कि दूसरी भाषा का एक भी शब्द लाने की आ्रावश्यकता नहीं है थर्मामीयर की तापमापक, फोटोग्राफी को छायाचित्रण आदि संश्कृत शब्दों से पुकारा जाथ इसके विपरीत कुछ लोग बेबड़क अंगरेज़ी, फारसी, अरबी आदि भाषाओं के शब्दों के पक्ष में हैं। अन्य भाषाओं के जो शब्द प्रचार में गये हैं उनके स्थान में अ्रप्रचलित शब्द रखना अधिक युक्ति-संगत नहीं है। यद्रपि अन्य भाषाओं के शब्दों की अपेक्षा संस्कृत के शब्द अधिक ग्राह्मय समझे जाते हैं, तथापि केवल पांडित्य प्रदशन के लिए, संश्कृत शब्दों का प्रयोग उचित नहीं शब्दों का अक्षर-विन्यास ( हिज्जे ) एक सा ही होना वांछुनीय है। यदि संस्कृत के ढंग से अनुस्वार के स्थान में पंचम वर्ण का प्रयोग किया जाय तो वैसा ही सब स्थानों में करना उचित होगा

उपर्युक्त शब्द-योजना के अतिरिक्त अच्छे लेखक को वाक्य-संगठन की ओर

१० प्रचन्ध प्रभाकर

ध्यान देता आवश्यक है। प्रायः वे वाक्य अच्छे समझे जाते हैं जिनका ग्राशय अन्त में पूरा हो जिससे वाक्य के खतम करने तक आकांक्षा और कोतूइल बना रहे | ऐसे वाक्‍्यों को वाक्योच्रय ( 7८०00 ) कहते हैं। नीचे का वाक्य देखिए, :

सभ्यता की वृद्धि के साथ-साथ ज्यों-ज्यों मनुष्य के व्यापार बहुरूपी और ओर जटिल होते गये त्यों-्यों उनके मूल-रूप बहुत-कुछ आचछुन्न होते गये। ( आचाय रामचन्द्र शुक्ल )

शाथिल ( 005८ ) वाकक्‍्य--ऐसे वाक्‍्यों में श्रनुचित विस्तार दोष हो जाता है। एक विशेषण वाक्य में दूसरा विशेषण वाक्य लगाना भी अच्छा नहीं समझा जाता

कभी-कभी एक से संगठन के वाक्यों का तारतम्य उपस्थित करना कथन की प्रभावोत्यादकता को बढ़ा देता है। ऐसे वाक्यों को समीकृत ( 3७|4॥८८०0 ) वाक्य कहते हैं। नीचे का वाक्य इसका उदाहरण हैः--

उसने निश्चय किया कि वह उस भावुकता को आमूल नष्ट कर डालेगी, जिसका आश्रय ले कर पुरुष उसे रमणी समभता है, उस गृहतन्धन को छिन्न- भिन्न कर देगी जिसकी सीमा ने उसे पुरुष की भागा बना दिया है ओर उस कोमलता का नाम भी रहने देगी जिसके कारण उसे बाह्य जगत्‌ के कठोर संप्रप से बचने के लिए पुरुष के निकट रक्तणीय होना पड़ता है ।--श्रीमती महादेवी वर्मा

इस शब्दावली में मिन्नता होते हुए भी शब्दों का संगठन एक सा है। इससे वाक्यों का सामूहिक प्रभाव पड़ता हे |

वाक्य प्रायः छोटे अच्छे होते हैं किन्तु विषय के अनुकूल वाक्यों का बड़ा हो जाना बुरा नहीं, किन्तु उनमें स्पष्ठता का ध्यान रखना चाहिए.। बड़े वाक्‍्यों में स्पष्टता लाने के लिए विराम-चिह् बड़े सहायक होते हैं। शेलियाँ दोनों तरह की होती हैं कद्दी-कहीं थोड़े में बहुत-से भाव भर दिये जाते हैं जिस शैली में भाव ठसे हुए रहते हैँ उसे समास शैली कहते हैं ओर जिसमें फैले रहते हैं. उसे व्यास शैली कहते हैं। विचारात्मक नित्रन्धों के लिए समास शैली अच्छी रहती

लेखन-कला के सम्बन्ध में कुछ शातव्य बातें ११

है ओर भावात्मक के लिए व्यास शैली | समास शैली इतनी कठिन होनी चाहिए, कि रचना पढ़ने वाले के लिए लोहे के चनों का रूप धारण कर ले

अच्छी रचना में बुद्धि, कल्यना ओर रागात्मक तत्त्तों का सुखद संतुलन रहता है। कल्पना पर प्रभाव डालने के लिए भाषा में चित्रोपमता लाना आवश्यक होता है सूद्म सिद्धान्त की अपेज्ञा स्थूल चित्र कल्पना को अधिक ग्राह्म होते हैं इसी लिए. रूपक भाषा को सजीवता प्रदान करने में समथ होते हैं। मनकामना पूण हुई! की अपेक्षा 'फेलीभूत हुई! अधिक भाव-व्यज्ञक होता है। भूखा है! कह कर पेट में चूहे कलाबाजी कर रहे हैं! या पेट पीठ चिपक गये हैं”--कहना अधिक प्रभावोत्यादक है आनन्द लूठना, सौरभ बिखेरना, रूप सुधा का पान करना, कार्य भार से दबना, काय सञ्बालन करना आदि प्रयोग कल्पना को चित्रों द्वारा प्रभावित करने के उदाहरण हैं | ऐसे प्रयोगों में भापा की लक्षणा शक्ति से काम लिया जाता है लक्षणा ओर व्यज्ञना के सफल प्रयोग से गद्य में भी काव्य का सा आनन्द ओर चमत्कार जाता है। अन्घे का दुख गूंगा हो कर आया', 'बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है! आदि वाक्यों पर मुग्ध हो जाना पड़ता है

विद्यार्थियों को चाहिए कि प्रशस्त लेखकों की शेली का अध्ययन कर देखें कि वे कोनससे साधनों को काम में लाये हैं। उन साधनों को जान कर उन से लाभ उठाते हुए विद्यार्थियों को अपनी स्वतंत्र शैली का निर्माण करना चाहिए,

यह लेखमाला विद्यार्थियों के मानसिक विस्तार के लिए लिखी गई है। इसमें उनको बहुत से स्वतंत्र लेखों के लिए सामग्री मिलेगी; किन्तु इनको पट कर ही उनके काय की इति-श्री नहीं हो जाती जिन विचारों को इन लेखों द्वारा उत्त जना मिले उनकी अन्य ग्रन्थों से पुष्टि करना परम आवश्यक है विद्यार्थियों को चाहिए कि इनसे मिलते-जुलते ओर भी विषयों पर लेख लिखें एक विषय के लेख के लिए उससे सम्बद्ध दूसरे लेखों से भी सामग्री का चयन करें एक उदाहरण लीजिए; क्या विज्ञान का कविता ओर घम के साथ विरोत्र है ?! इस शीषक के निबन्ध के साथ, वर्तमान वैज्ञानिक आविष्कारों का महत्त्व भी पढ़ कर ध्यान में रखना अच्छा होगा | विज्ञान ओर धम का एक स्वतनत्र

१२ प्रबन्ध -प्रभाकर

लेख तैयार किया जा सकता है जहाँ तक सम्भव हुआ है सम्बद्ध विषय एक साथ रखे गये हैं विद्यार्थियों के लाभ के लिए इस संस्करण में कुछ लेख ओर बढ़ा दिये गये हैं

विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए, हिन्दी में पर्याप्त साहित्य है भरे घर का चोर क्‍या उठाये ओर क्या छोड़े फिर भी डाक्टर श्यामसुन्दरदास का हिन्दी भाषा ओर साहित्य तथा साहित्यालोचन, पं० रामचन्द्र शुक्ल का हिन्दी साहित्य का इतिहास, चिन्तामणि तथा तुलसीदास, प्रो” सूथकान्त शास्त्री की साहित्य-मीमांसा तथा हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास, मिश्रबंघुओ्रों का हिन्दी नवरत्न, प्रोफेसर रामकुमार वर्मा का हिन्दी साहित्य का आलोचनाव्मक इतिहास ओर साहित्य-समालोचना, पं० पद्मसिंह शर्मा लिखित बिहारी सतसई की भूमिका ओर पद्म-पराग पं० क्ृष्ण॒त्रिहारी मिश्र का देव ओर बिहारी रसाल का साहित्य परिचय, बख्शी जी का हिन्दी साहित्य विमश और साहित्य शिक्षा, श्रीमती महादेदी वर्मा का विवेचनात्मक गद्य, ग्राचाय द्विवेदी जी का रसज्ञ- रंजन, पंडित नन्ददुलारे वाजपेयी का आधुनिक हिन्दी साहित्य, श्रीं नगेन्द्रजी का साकेत का एक अध्ययन ओर सुमित्रानन्दन पन्‍्त, प्रोफेसर सत्येन्द्र की साहित्य की झाँकी ओर गुप्तनी की कला, धीरेन्द्र बर्मा का हिन्दी भाषा का इतिहास, हिन्दी भाषा ओर लिपि तथा विचारधारा, कृष्णशंकर शुक्ल का आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास, पं० जयचन्द्र विद्यालंकार की भारतीय इतिहास की रूपरेखा, भारतभूमि ओर उसके निवासी, भारतीय वाड मय के अमर रत्न तथा इतिहास प्रवेश आदि, डा० सुनीतिकुमार चटर्जो की भारत की भाषाएँ ओर भाषा संबंधी समस्याएँ, लेखक के नवरस, हिन्दी नाम्य विमश, सिद्धान्त ओर अध्ययन, काव्य के रूप इत्यादि ग्रन्थ विद्यार्थियों का साहित्यक शान परिपक्व करने में बढ़े सहायक होंगे | वैज्ञानिक विषयों पर नित्रन्ध लिखने में श्री रामदास गोड का विज्ञान हृस्तामलक तथा लेखक की विज्ञानवातों पढ़ना उपयोगी होगा इन ग्न्यों के अध्ययन से उच्चक्रोटि के नित्रन्ध लिखने में बहुत- कुछ सहायता मिलेगी | लेखक ने भी इन ग्रन्थों में से बहुत से ग्रन्थों से लाभ उठाया है। उनके सुयोग्य लेखकों के प्रति क्ृतशता प्रकाशित करता हुश्रा लेखक

काव्य का लक्षण ओर उसका मानव-जीवन से सम्बन्ध १३

इस लेखमाला को विद्यार्थियों के हाथ सोंपता है। आशा है कि वे अपने मान- सिक विकास में सहायता ले कर यथोचित लाभ उठायेंगे ओर उसके परिश्रम को सफल करंगे |

१, काव्य का लक्षण ओर उसका मानव-जीवन से सम्बन्ध

यद्यपि काव्य की यथाथ परिमापा देना कठिन है, क्योंकि इसके सम्बन्ध में आचायों में बहुत मतभेद है, तथापि इतनी बात अवश्य कही जा सकती है कि उसका उदय मानव हृदय में होता है ओर वह मानव-दृदय को प्रभावित कर आनन्द का उत्पादक होता है। काव्य क्या है ? इसके उत्तर म॑ केवल इतना कहना पर्याप्त होगा कि मनुष्य के शेष सृष्टि से भावात्मक सम्बन्ध रखनेवाले अनुभवों की आनन्दप्रदायिनी सुन्दर शब्द-मयी अभिव्यक्ति को काव्य कहते हैं। काव्य में भाव का प्राधान्य रहता है। थोड़ी सामग्री में बहुत से भावों को ब्यंजित कर देना काव्य का बाहरी लक्षण है

कविता का मानव-जीवन से विशेष सम्बन्ध है। उसका दृष्टिकोण ही मानवीय है काव्य उन्हीं अनुभवों को लेता है जिनका कि मनुष्य से भावात्मक संत्रंध है। यह बात काव्य ओर विज्ञान का दृष्टिकोणमेद बतला देने से ओर भी स्पष्ट हो जायगी। विज्ञान जिस वस्तु को देखता है उसको वैसा ही कहता है। उसके लिए सुन्दर और असुन्दर कुछ नहीं जल ओषजन ( (0.0/6०॥ ) ओर उदजन ( ।99082ा ) से मिल कर बनता है, इसमें उसको हप है, विषाद फूल के लिए वह बता देगा कि उसमें इतनी पंखुड़ियाँ हैं, इतने तन्तु हैं, वह कार्बन ( (95०॥ ) और उदजन ( 9008० ) आदि से बना है। किन्तु कवि फूल को अपने हृदय के नेत्रों से देखेगा फूल के देखने से कवि के हृदय पर जो प्रभाव पड़ता है, वह उसको बतलायेगा कवि फूल में सोन्दय देखता है। फूल उसके लिए हँसता ओर खिलखिलाता है। वह प्रकृति देवी की प्रसन्नता का सूचक है | वह उसके प्रियतम भगवान के प्रेम-संदेश का वाहक

१४ प्रबन्ध-ग्रभाकर

है | कवि के लिए शिथिल पत्रांक में सोतीं हुई सुद्गभरी जुही की कल्ली मलया- निल से प्रेमालाप करती है

कवि सारी सृष्टि को मानत्रीय रूप में देखता है ओर उसमें मानवीय भावों को आरोपित कर अपनी सहानुभूति के क्षेत्र को विघ्तृत कर लेता है। वैज्ञानिक वस्तु की सचाई को बतलाता है | कवि अपने हृदय पर पड़े हुए प्रभाव को सच्चे रूप में बतलाता है। वैज्ञानिक के लिए मनुष्य भी भौतिक तत्वों का संब्रात है ओर भोतिक नियमों से शासित होता है, किन्तु कबि के लिए मनुष्य ईश्वर का अंश है; उसमें जीते-जागते भाव हैँ जो उसके हृदय को प्रभावित करते हैं; मनुष्य उसके लिए. एक कत्तंब्य और लक्ष्य रखने वाला जीव है | कवि की दृष्टि से मनुष्य स्वतन्त्र है; उसकी आत्मा भोतिक नियमों के बन्धन से परे है; उसके भाव सरिता की स्वच्छुन्द गति से बहते हैं; मनुष्य स्वयं सुन्दर हे ओर वह सोन्दय का उत्पादक भी है

इस विवेचना से प्रकट होता है कि वैज्ञानिक के लिए मनुष्य भी प्रकृति का एक अंग है, उसमें कोई विशेषता नहीं, ओर कवि के लिए प्रकृति भी मानवीय रूप धारण कर लेती है। यद्यपि वैज्ञानिक भी प्रकृति को मनुष्य जाति की अनुचरी बना कर उसका उपयोग मानवीय हित के लिए. करता है, तथापि उसकी दृष्टि म॑ प्रकृति का प्राधान्य है। वह मनुष्य को भी प्राकृतिक नियमों के बन्धन में रखता है ओर उसको प्राकृतिक दृष्टिकोण से देखता है कबि इसके विपरीत प्रकृति को भी मानवीय दृष्टिकोण से देखता है। इसलिए काव्य का विशेष रूप से मानव-जीवन से सम्बन्ध है

यह तो रही साधारण सिद्धान्त ओर दृष्टिकोण की बात। काव्य का मनुष्य-जीवन से कई अन्य प्रकारों से भी सम्बन्ध है। सबसे पहले तो काव्य आनन्द देता है ओर आनन्द मनुष्य का मुख्य ध्येय है। काव्य के आनन्द को ब्रह्मानन्द-सहोदर अथांत्‌ ब्रह्मानन्द का भाई बतलाया गया है। मनुष्य जब अपने जीवन में चारों ओर संघप पाता है तत्र काव्य ही उसके जीवन में साम्य उपस्थित कर उसके जीवन-भार को हलका करता है। काव्य के द्वारा मनुष्य-जाति की सहानुभूति बढ़ती है। मनुष्य अपने संकुचित घेरे से बाहर जाता है।

काव्य-कला ओर चित्र-कला १७

इस प्रकार काव्य का अनुशीलन जीवन को सफल, साम्यमय ओर सरल बनाने में सहायक होता है। वह बेकार को भी खाली नहीं रखता, उसको प्रसन्नता दे कर मानव-जाति के प्रति घ्रुणा के भावों को कम कर देता है | काव्य का अध्ययन निरापत्तिजनक व्यसन है | वह जीवन को जोवन के योग्य बनाता हे | इसीलिए कहा है कि-- काव्यशासत्रविनोदिन कालो गच्छुति धीमताम्‌। व्यसनेन मूख्खांणां निद्रया कलहेन वा॥

२, काठ्य-कला ओर चित्र-कला

कला आनन्द से उद्बेलित झ्ात्मा का अभिव्यंजन है। जब आत्मा आननन्‍्द-विभोर हो कर भीतर से बाहर प्रकट होना चाहती है, तभी कला वीं उत्पत्ति होती है | जब मीग आनन्द मग्न हो कर गा उठती है कि>मेरे तो गिरघर गोपाल दूसरो कोई! तब उसकी आत्मा संगीत में प्रकट होने लगती है यही सच्चो कला है। मनुष्य अपनी आत्मा का, कहीं तो स्थूल प्रस्तरमूर्तियों द्वारा, कहीं चित्रों द्वारा ओर कहीं लेखों ओर काव्य द्वारा प्रकटीकरण करता है कहीं पर उसका आनन्द नृत्य का रूप धारण कर लेता है ओर कहीं पर उसकी आपन्तरिक-स्फूर्ति अपने शरीर को अ्लंकृत करने में प्रस्फृटित होती है, ये सच कला के रूप हैं। भारतवप में ६४ कलाएँ मानी गई हैं। वास्तव में कलाएँ अनन्त हैँ यह आत्मा का अ्रभिव्यंजन भोतिक सामग्री द्वारा होता है। आत्मा भौतिक साम्गग्री पर अपनी छाप डाल देती है। कई कलाओं में भौतिक सामग्री का प्राचुय रहता है ओर कई में कमी | वे हो कलाएँ श्रेष्ठ या उच्च गिनीं जाती हैं; जिनमें भोतिक सामग्री का आश्रय कम हो और आत्मा की छाप अधिक इसी कसौटी पर कलाएँ कसी जा कर ऊँची ओर नीची ठहराई जाती हैं स्थापत्य को सामग्री के बाहुलय के कारण सब्र से नीचा स्थान दिया जाता है। संगीत ओर काव्य का सम्बन्ध ध्वनि से है। संगीत केवल ध्वनि को प्रधानता देता है, इसलिए उसमें इतनी सम्पन्नता नहीं आती जितनी काव्य में, जो कि शब्द

हर

श्ष्य प्रबन्ध-प्र भाकर

( ध्वनि ) ओर अथ दोनों को मुख्यता देता है ओर दोनों में परस्परानुकूजता देखता है |

चित्र-कला ओर काव्य-कला दो प्रधान कलाएँ हैं; पहली का सम्बन्ध रंग ओर रेखाओं से है, दूसरी का शब्दों से भारतवष में इनका आदि-काल से आदर चला आया है। साहित्य के रीतियंथों में चित्र-दशन भी पूर्बानुराग ( जो वास्तविक मिलन से पूव हो ) का एक कारण माना गया है। पुराणों में चित्रलेखा आदि कुशल चित्रकर्त्रियों का उल्लेख पाया जाता है। चित्रों के आधार पर ही दूर देश के विवाह निश्चित होते थे हम नाठकों में पढ़ते हैं कि नायक लोग अपने आनन्द ओर प्रेम के प्रकाशनाथ अपनी प्रेयसियों के चित्र बनाया करते थे ओर उन्हें अपनी पटरानियों से छिपा कर रखते थे। शकुन्तला नाटक के घीर-ललित नायक महाराज दुष्यन्त बड़े ही कुशल चित्रकार थे। मुद्रिका के मिल जाने पर परित्यक्ता शकुन्तला की स्मृति जाग्रत हो गई थी विरह-विहल दुष्यन्त ने उसका एक ऐसा सुन्द्र चित्र बनाया था कि उसे देख कर शकुन्तला की सखी मिश्रकेशी अ्रप्सरा भी धोखे में पड़ गई, भोंरे का धोखा खा जाना तो कोई बात ही नहीं | इसी प्रकार काव्य का भी आदर वैदिक काल से चला आता है। गीता में स्वयं परमात्मा का वर्णन कवि कह कर किया गया है-- कवि पुराणमनुशासितार्म” हमारे देश की काब्य-कला तो और भी बदी-चटी थी | कालिदास और भवभूति की कविताएँ आज भी अद्वितीय हैं

अब यह देखना है कि चित्र-कला ओर काव्य-कला में श्रोर कलाओओं से क्या विशेषता है, ओर यह एक दूसरे से किस प्रकार भिन्न हैं। स्थापत्य (भवन- निर्माण-कला ) ओर मूर्ति-तक्षण कला से चित्र कला में भोतिक सामग्री बहुत कम लगती है ओर आत्मा की अभिव्यक्ति अधिक रहती है। मूर्ति में तो लम्बाई, चोड़ाई, मोटाई रहती है; चित्र केवल लम्बाई-चोड़ाई वाले धरातल पर बनाये जाते हैं | समानभूमि में ही ऊँचाई, निचाई, गहराई दिखा दी जाती है काव्य में तो भोतिक सामग्री का प्रायः श्रभाव-सा हो जाता है ओर श्रात्मा ही आत्मा का खेल रहता है। इस दृष्टि से काव्य-कला सर्वॉपरि है |

चित्रकला ओर काव्य-कला में इस भेद के श्रतिरिक्त ओर भी कई भेद

काव्य-कला ओर चित्र-कला १६

हैं, ओर भेदों के साथ समानताएँ भी हैं समानता के बिना कोई भेद नहीं रह सकता काव्य में जहाँ तक वर्णन रहता है, वहाँ तक वह चित्र-कला की भाँति है चित्र-कला रेखाओं ओर रंगों से काम लेती है, काव्य-कला शब्दों से। काव्य में जो चित्र-कार्व्य के नाम से प्रख्यात है, वह तो एक प्रकार की चित्र-कला ही है, काव्य नहीं शब्दों द्वारा कल्पनापट पर अ्रड्धित काव्य के एक चित्र का उदाहरण देखिए--- फिर-फिर सुन्दर ग्रीवा मोरत, देखत रथ पाछे जो घोरत | कबहुँक डरपि बानि मति लागे, पिछले गात समेटत आगे। अध-रोंथी मग दास गिरावत, थकित खुले मुख ते ब्रिखरावत | लेत कुलाँच लखो तुम अब ही, घरत पॉँव धरती जन्च तब ही। यह भागते हुए मृग का कितना सजीव श्रोर गतिमय चित्र है? रंग ओर स्याही की रेखाओं में इस चित्र का लाना थोड़ा कठिन अवश्य है, किन्तु चित्रकार की कला से बाहर नहीं एक चित्र ओर देखिए “त्तर-रामचरित!' से तापस-कुमार-वेश-घारी लव की वेश-भूषा का वर्णन सुनिए-- दोऊ बगलन ओर पीठ पै निषंग राजे, तिन के त्रिसिख सिखा चुम्बति सुहावे है। अलप विभूति उर पावन रमाये मंजु, धारे रु मृग-छाला, छुटा छिति छावे है मोरवी लता की बनी कोंघनी कलित कटि, कोपीन मजीठी-रंग रंगी सरसावै है। कर में धनुष, तथा पीपर को दंड चारु, आहछी रुदराछ्ली माला मोद उपजावे है। यहाँ तक तो इसका रंगीन चित्र भी अच्छा बन सकता हे। चित्र-कला

२० प्रअन्च-म्भाकर

श्रौर काव्य-कला का साथ है | किन्तु आगे चल कर काव्य इससे आगे बद जाता है | चित्र-कला का विषय वही पदाथ हो सकते हैं, जो नेत्रों के विषय हैं काव्य गन्ध ओर शब्दों के भी चित्र खींच सकता है। पंतजी ने सरसों की तेलाभ गन्ध का बड़ा सुन्दर वणन किया है। चित्र केवल भौतिक दृश्यों का ही होता है उसमें आध्यात्मिकता रहती अवश्य है, किन्तु वह भौतिक पदार्थों द्वारा प्रकट होती है | चित्र-कला में भी वास्तविकता के साथ आदश-वाद रहता है, जैसा कि बंगाल के चित्रों में अथवा पुरानी बोद्ध-कला में विष्णुधर्मोत्तर में चित्रकला में भी वे ही रस माने गये हैं जो काव्य के हैं। किन्तु शुद्ध आध्यात्मिक भावों के चित्रण में चि३कला अ्रसफल रहती है | प्रेम का यदि चित्र खींचना है, तो चित्र- कार लम्बी, खिंची, एकटक आँखें बना देगा, मुख पर प्रसन्नता का भाव भी ले आवेगा, शायद रोमांच ओर स्वेद का भी भाव प्रकट कर देगा, कुछ वस्तरों की लापरवाही दिखा देगा, किन्तु ये सब बाहरी व्यजक हैं। भवभूति ने जिस प्रकार प्रेम का वणन किया है वह चित्रकार के कोशल से बाहर है | देखिए-- सुख दुख में नित एक, हृदय को प्रिय विराम-थल सब बिधि सो अग्रनुकूल विषद्‌ लच्छुनमथ अविचल जासु सरलता सके हरि कबहूँ जरठाई॥ ज्यों ज्यों बाढत, सघन-सघन सुन्दर सुखदाई |। जो अवसर पे संकोच तजि परनत हृढ अनुराग सत | जग दुलभ सज्जन-प्रेम अ्रस बड़भागी कोऊ लहत॥ प्रसाद जी द्वारा किया हुआ अमूत चिन्ता का वर्णन भी इसी प्रकार का है | उन्होंने उसे ग्रभाव की चपल बालिके' कह कर संबोधित किया है| चित्रकार के वशुन-सम्बन्धी चित्रों में यद्यपि स्पष्य्ता अधिक रहती है तथापि वह एक देश ओर काल विशेष की स्थिति को अंकित कर देता है। एक चित्र एक ऋण का ही हो सकता है। संसार में स्थिरता नहीं, प्रवाह है। इस कमी को चल-चित्रों ने पूर करना चाहा है। चल-चित्रों में क्षण-क्षण के कई चित्र ले कर एक चित्र बनाया जाता है ओर उसमें वास्तविक वस्तुओ्रों की गतिशीलता जाती है। यह होते हुए भी वह सीमित है। पलाशी के

काव्य-कला ओर चिन्रन-कला २१

युद्ध की किसी घटना का चित्र बना सकते हैं। वह चित्र हमारे सामने दृश्य को ध्थिर करके रख देगा और उस दृश्य का ज्ञान हमको काव्य के वणन से अधिक होगा किन्तु वह सब्च बाहरी होगा कवि का वन एक साथ ही भीतरी ओर बाहरी हो सकता है संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं, जिसके अनन्त सम्बन्ध हों | चित्रकला उन अनन्त सरबन्धों को प्रकट करने में असम रहती है। चित्र में भावोत्पादन शक्ति रहती है, किन्तु वह उन भावों के वर्णन करने में असमथ रहता है। तारागणों का आप चित्र बना दीजिये। चित्र श्वेत बिन्दुश्रों के अतिरिक्त ओर कुछ नहीं रहेगा | तारागणों से हमारे जिन भावों की उत्पत्ति होगी उनके वरणन में यह चित्र नितांत असमर्थ है। कवि के लिए. कोई सीमा नहीं रहती | वह अपनी मावलहरी का धारा-प्रवाह वर्णन करता चला जाता है। कविवर सुमित्रानन्दन ने तारागणों का क्या ही उत्तम वणुन किया है ! चित्रकार इन भावों को नहीं ला सकता देखिए-- अज्ञात देश के नाविक | अनन्त के हत्कंपन | नव प्रभात के अस्फुट अंकुर ! निद्रा के रहत्य-कानन ! ऐ, शाश्वत-स्मिति | ऐ. ज्योतित स्मृति ! सस्‍्प्नों के गतिहीन विमान |! गानों हे, हाँ, व्योम-विव्ष से, गाशी खग! निज नीरब गान | ऐ. असंख्य भाग्यों के शासक | ऐ. असीम छुवि के सावन ! ऐ. अरण्य निशि के आश्वासन ! विश्व-सुकवि के सजग नयन ! सुदूरता के सम्मोहन ! ऐ. निजनता के आह्वान !

२२ प्रशन्ध-प्रभाकर

काल-कुह; मेरा दुर्गम-मग ! दीपित कर दो, हे चुतिमान ! नक्षत्रों के मनुष्य से जो भिन्न-भिन्न सम्बन्ध हैं, उनका यहाँ पर द्योतन कर दिया गया है कुछ कवि ने अपनी कल्पना से भी रच लिये हैं नक्षत्रों में जो कंपन दिखाई पड़ता है, उसको अनन्त का हृत्कंपप बतला कर सजीवता दे दी है | उनमें मुसकराहट भी है, ओर वह मुसकराहट ज्योतिमयी है उनकी गति में नियम हे, क्रम है, वही उनका नीरव-गान है ज्योतिष शास्त्र उनको भाग्यों का शासक बताता ही है रात्रि में वन के विपथ पुरुष के लिए वे सहचर-का-सा आश्वासन देते हैं अनेक सम्बन्धों में कवि उनको देखता है ओर उनका कुशलता से वणन कर देता है यही चित्रकार से अ्रधिक कवि की विशेषता है चित्रकार ने जो एक कलम चला दी, उसके ऊपर दूसरी कलम नहीं सकती वह देश- कृत बन्धनों से बँध जाता है। एक देश में दो रेखाओ्रों के लिए स्थान नहीं कवि के लिए. यह बात नहीं, वह परमात्मा की भाँति देश ओर काल के बन्धनों से परे है वस्तु अनन्त है, चित्र सांत है; वस्तु घटती-बढ़ती है ओर चित्र स्थिर रहता है चित्रकार की इसी कमी को देख कर कविवर बिहारीलाल ने क्‍या ही सुन्दर ओर अ्रमर शब्दों में अपने भावों की थ्रभिव्यक्ति की है-- लिखन बैठि जाकी सत्रिहि, गहि गहि गरब गरूर | भये केते जगत के चतुर चितेरे कूर। चतुर चितेरे बेचारे क्या करें यदि उनका चिर संचित गरब गरूरौ चूर हो जाता है यह बात तो चित्र-कला के क्षेत्र से ही बाहर है कवि भी उसका वणन करता है, किंतु वह सिवाय इसके कुछ नहीं कह सकता कि-- अंग अंग छवि की लपट उपटत जाति अछेह खरी पातरी हू मनो लगति भरी सी देह॥ कवि सौंदय की अनंतता को बतला देता है | कवि ज्ञण-द्षण की नवीनता का द्योतन कर देता है, इसलिए वह चित्रकार से एक कदम आगे अवश्य बढ़ गया है, किन्तु वास्तविकता के वर्णन में वह भी बहुत दूर रह जाता है नेत्रों

समाज पर साहित्य का प्रभाव २३

का अवश्य बड़ा महत्त्व है, किंतु सौंदय के सागर के अवगाहन करने के लिए नयन भी लघु मान-स्वरूप हैं वे पार नहीं पा सकते | इसीलिए. कवि लोग अपलक-नयन ओर अनिमेष दृष्टि बतना कर अपना कतंव्य पालन करते हैं यदि नेत्र थोड़ा बहुत पार पा भी जावे, तो भी गोस्वामीजी के चिरस्मरणीय शब्दों में यही कहना पड़ता है कि--

“गिरा अनयन नयन ब्रिनु बानी

३, समाज पर साहित्य का प्रभाव

मनुष्य मननशील है मनुष्य शब्द ही इस बात की सब्र से बड़ी गवाही देता है, क्योंकि यह मन्‌ धातु से, जिसका श्रथ चिन्तन अ्रथांत्‌ विचार करना है, चना है। विचारशील होने के ही कारण मनुष्य उन्नतिशील है शेर ओर हाथी जेसे सहस्रों पूव रहते थे, वैसे ही श्रबर भी रहते हैं उनके रहन-सहन में कोई भी अन्तर नहीं पड़ा यदि थोढ़ा-बहुत पढ़ा है तो वह मनुष्य के संपक से। उसमें उनका कोई श्रेय नहीं किन्तु मनुष्य में ऐसा नहीं है उसका शारीरिक विकास यद्यपि बन्द-सा है, तथापि उसका मानसिक ओर सामाजिक विकास पर्योप्त रूप से चल रहा है। मनुष्य प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति कर रहा है मनुष्य ने प्रकृति का अध्ययन कर उस पर विजय पा ली है। वह उसकी शक्तियों को अपने उपयोग में लाता है पहले जो भोतिक सुख बादशाहों को नसीज्र नहीं थे आज सबको सुलभ हो रहे हैं जो शक्तियां बड़ी तक्‍्स्या से प्राप्त होती थीं, वे आज पेसा खच करने पर ही मिल जाती हैं पहले ज़माने में जो ज्ञान सौमाग्यशाली जन ही प्राप्त कर सकते थे, आज वह सवसाधारण को प्राप्त हो रहा है। इस सब का एकमात्र कारण यही है कि मनुष्य विचारशील है उन्नति विचार की अनुगामिनी है |

ये विचार किस प्रकार पालवान होते हैँ ? विचार मानव-मस्तिष्क की अन्धकारमयी कन्दरा में नदीं रहना चाहते वे सदा प्रकाश चाहते हैं। वे भाषा का परिधान पहन, अ्रथवा यों कहिए की भाषा में मूर्तिमान हो, समाज में आते

२४ प्रबन्ध-प्रभाकर

हैं ओर सक्रिय हो समाज की गति-विधि निश्चित करते हैं। भाषा में अ्रवतरित हो विचार अमरत्व प्राप्त कर लेते हैं। उत्तम भाषा में प्रकट किये हुए. मानव समाज के उत्तमोत्तम विचार संग्रहीत हो कर साहित्य का रूप धारण करते हैं। सहित अशथांत संग्रह के भाव को दी साहित्य कहते हैं। साहित्य का घेरा बड़ा व्यापक है | धर्म, दर्शन ओर विज्ञान, काव्य (जिसमें गद्य, पद्म, नाटक, उपन्यास, आख्यायिका सब ही सम्मिलित हैं ), इतिहास, राजनीति ओर अथशासत्र आदि जितना सरस्वती देवी का भंडार है, जितना वाडसय है, सत्र साहित्य के भीतर आरा जाता है | संकुचित अथ में साहित्य काव्य का पर्याय है

साहित्य विचारों का समूह है ओर विचार ही समाज में काम करते हैं साहित्य का रूप धारण किये हुए विचारों में एक प्रकार की संक्रामकता विशेष रहती है। जहाँ एक विचार प्रकट हुआ, वहीं वह सारे देश में अग्नि की माँति फैल गया विचारों की गति ओर संक्रामकृता भाषा पर ही निमर है। बिना भाषा के विचार चाहे जितने सुन्दर ओर मूल्यवान हों, ऊसर में पड़े हुए. बीज की भाँति अनुत्यादक होते हैं | भाषा द्वारा ही विचार एक मनुष्य से दूसरे तक पहुँच कर व्यापकता धारण कर लेते हैं। साहित्य के कल्षेवर में सुरक्षित विचार नये विचारों पर अपना प्रभाव डालते रहते हूँ। इस प्रकार विचारों की धारा अविच्छिन्न रूप से बहती रहती है ओर उसी के साथ मनुष्य उन्नति के मार्ग में अग्रसर होता है। यदि साहित्य होता तो हमारे विचार बुद्बुद के समान क्णिक ओर अस्थायी ही जाते साहित्य ही विचारों को अमर बना कर उनको गति वा शक्ति देता है। आ्राजकल का संसार विचारों का ही संधार है जो. कोई परिवर्तन वा विप्लव होता है उसका मूल स्रोत किसी विचार-घारा में ही है। वट-बीज के समान विचारों की बड़ी संभावनाएँ हैं। वतमान सच्च राजनीतिक आन्दोलन विचारों के ही फल हैं। साहित्य द्वारा ही हमारा ज्ञान विस्तृत हो कर हमको वतमान से असंतुष्ट बनाता है। साहित्य हमारी हीन अवस्था की दूसरों को उन्नत अवस्था से तुलना कर इमाय नेत्रोन्‍्मीलन कर, हममें शक्ति का संचार करता है। वतमान निष्किय-प्रतिरोध बौद्धकालीन विचारों एवं टाल्स्टाय के विचारों का फल है। रूसी राजविप्लव वहां के साम्यवाद-सम्बन्धी विचारों का ही

समाज पर साहित्य का प्रभाव २५.

परिणाम है | फ्रांस की राज्य-क्रांति बोलतेर ओर रूसो के विचारों का ही प्रतित्रि है। नित्शे आदि दाशं॑निकों के विचार, जिन्होंने जमन जाति में शक्ति की उपासना तथा अपनी सभ्यता के विस्तार के भाव उत्न्न किये थे, गत महासमर के लिए उत्तरदायी हैं

जिस प्रकार साहित्य मार-काट ओर क्रान्ति के लिए उत्तरदायीं है उसी प्रकार साहित्य सुख, शान्ति ओर स्वातन्त्रय के भावों का भी कारण है महात्मा तुलसीदासजी के 'रामचरितमानस' ने कितने अ्रन्धकारमय ह्ृदयों को आलोकित नहीं किया, कितने घरों में सन्‍्तोष ओर शान्ति का सन्देश नहीं पहुँचाया ? जिन खोजा तिन पाइयाँ' वाले कबीर के उत्साह भरे शब्दों ने कितने हताश पुरुषों में प्राण का संचार नहीं किया ? हिन्दू जाति की ग्राध्यात्मिक संस्कृति घमंभीरुता ओर अहिंसावाद में भारतीय साहित्य की ही भकलक मिलती है। समथ रामदास आदि महाराष्ट्र सन्‍्तों के उपदेश ओर भूषण आदि कवियों की उत्तेजनामयी रचनाएं महाराष्ट्र के उत्थान में बहुत-कुछ सहायक हुईं। वीर- गाथाश्रों ने उस काल में वीर भावों का संचार किया ग्राज कल किसानों को दशा के सुधार की जिमीदारी उन्मूलन आदि की जो योजनाएँ चल रही हैं उनका बहुत-कुछ श्रेय मुंशी प्रेमचन्द जी की कहानियों ओर उपन्यासों को है

साहित्य हमारे अबव्यक्त भावों को व्यक्त कर हमको प्रभावित करता है हमारे ही विचार साहित्य के रूप में मूर्तिमान हो हमारा नेतृत्व करते हैं साहित्य ही विचारों की गुप्त शक्ति को केन््स्थ कर उसे कायकारिणी बना देता है। साहित्य हमारे देश के भावों को जीवित रख कर हमारे जातीय व्यक्तित्व को स्थिर रखता है वतमान भारतवष में जो परिवर्तन हुआ है ओर जो घर्म में अश्रद्धा उत्पन्न हुई है वह अधिकांश में विदेशी साहित्य का ही फल है |

साहित्य द्वारा जो समाज में परिवतन होता है वह तलवार द्वारा किये हुए. परिवर्तन से कहीं अधिक स्थायी होता है आ्राज हमारे सोन्दय-सम्बन्धी विचार, हमारी कला का आदश, हमारा शिष्टाचार सच विदेशी साहित्य से प्रभावित हो रहे हूँ रोम ने यूनान पर राजनीतिक विजय प्राप्त की थी, किन्तु यूनान ने अपने साहित्य के द्वारा रोम पर मानसिक विजय प्राप्त कर सारे यूरोप:

२६ प्रअन्ध-प्र भा कर

पर अपने विचारों ओर संघ्कृति की छाप डाल दी प्राचीन यूनान का सामाजिक संस्थान वहाँ के तत्कालीन साहित्य के प्रभाव को ज्वलन्त रूप से प्रमाणित करता है यूरोप की जितनी कला है वह प्रायः यूनानी आदर्शा पर ही चल रही है इन सब बातों के अतिरिक्त हमारा साहित्य हमारे सामने हमारे जीवन को उपस्थित कर हमारे जीवन को सुधारता है | हम एक आदश पर चलना सीखते हैं साहित्य हमारा मनोविनोद कर हमारे जीवन का भार भी हलका करता है जहाँ साहित्य का अ्रभाव है वहाँ जीवन इतना रम्य नहीं रहता

साहित्य गुप्त रूप से सामाजिक संगठन ओर जातीय जीवन का भी वधक होता है हम अपने विचारों को अपनी अमूल्य सम्पत्ति समभते हैं, उनका हम गौरव करते हैं अपनी किसी सम्मिलित वस्तु पर गौरव करना जातीय जीवन ओर सामाजिक संगठन का प्राण है अदज्भरेजों को शेक्सपीञ्रर पर बड़ा भारी गव है। एक अज्भरेज साहित्यिक का कथन है कि वे लोग शेवस- पीर पर अपना सारा साम्राज्य न्योह्वावर कर सकते हैं

हमारा साहित्य हमको एक-संस्कृति ओर एक-जातीयता के सूत्र में बाँधता है जेसा हमारा साहितल होता है वैसी ही हमारी मनोवृत्तियाँ हो जाती हैं ओर हमारी मनोबृत्तियों के अनुकूल हमारा काय होने लगता है इसीलिए कहा गया है कि---

निज भाषा उन्नति गअहे, सब्र उन्नति को मूल |

४. साहित्य में आपने समय के जातीय भावों की छाप होती हे

कवि या लेखक अपने समय का प्रतिनिधि होता है उसको जैसा मानसिक खाद्य मिल जाता है वैसी ही उसकी कृति होती है जिस प्रकार बेतार के तार का ग्राहक ( रिट्टशश्ट ) आकाश-मंडल में विचरती हुईं विद्युत्‌-तरंगों को पकड़ कर उनको भाषित शब्द का आकार देता है, ठीक उसी प्रकार कवि

साहित्य में अपने समय के जातीय भावों की छाप होती है २७

वा लेखक अपने समय के वायुमंडल में घूमते हुए विचारों को पकड़ कर मुखरित कर देता है। कवि वह बात कहता है जिसका सब्र लोग श्रनुभव करते हैँ किन्तु जिसको सब लोग कह नहीं सकते | सहृदयता के कारण उसकी अनुभव- शक्ति ओरों से बढ़ी-चढी होती है जहाँ उसको किसी बात की क्षीण से क्षीण रेखा दिखाई पड़ी, वहीं वह उसके आधार पर पूरा चित्र खींच लेता है। प्रायः उसका चित्र ठीक भी उतरता है |

कवि वा लेखकगणु अपने समाज के मस्तिष्क ओर मुख दोनों होते हैं कवि की पुकार समाज की पुकार होती हे कवि समाज के भावों को व्यक्त कर सजीव आर शक्तिशाली बना देता है | कवि की बनाई हुई सामाजिक भावों की मूर्ति समाज की नेत्री बन जाती है। इस प्रकार कवि और लेखक-गण समाज के उन्नायक और इतिहास के विधायक अवश्य होते हैं, किन्तु उनकी भाषा में हमको समाज के भावों की कलक मिलती रहती है। कवि द्वारा हम समाज के हृदय तक पहुँच जाते हैं। केवल इतना ही नहीं, वरन हमको उन परिस्थितियों का भी पता लग जाता है जो समाज को प्रभावित कर वायुमंडल में एक नई लहर उत्तन्न कर देती हैं। समाज के प्रतिनिधि-स्वरूप कवियों ओर लेखकों के विचार ही संग्रहीत हो साहित्य बनाते हैं

प्रत्येक जाति के साहित्य का एक व्यक्तित है। यद्यपि मानव-हृदय एक सा ही है तथापि जाति के साहित्य को विशेषता होती है केवल इतना ही नहीं वरन एक जाति के ही साहित्य में उसके विकास के अनुकूल समय-समय पर अन्तर पड़ता रहता है। जो त्याग और आत्मा का विस्तार हम उपनिषदों में पाते हैं वढ् हम अन्य जातियों के धार्मिक साहित्य में नहीं देखते। हमारी विचार- धारा तपोवनों की विचारधारा है। कवीद्ध रवीन्द्र ने उच्च स्वर से गाया है-- प्र थम सामरब तव तपोवने भारत के स्तच्छु, उन्मुक्त, उज्ज्वल, ज्योत्त्नामय तपोवनों ने भारतीय हृदय में जो अ्रनन्तता के भाव उत्पन्न किये थे, उनकी भलक हम को उपनिषद्‌ साहित्य में ही मिलती है। परिस्थितियों के आवतंन-परिबतन, राज्यों के उलट-पुलट और बिचारों के संघर्ष के कारण वे भाव दत्र जाते हें, किन्तु समय पा कर फिर उदय हो जाते हैं। शेक्सपीअर ओर कालिदास की तुलना

श्ष् प्रबन्च-प्रभाकर

की जाती है किन्तु इन महाकवियों की कृतियों में अपने देश की छाप लगी हुई हैं कम ओर आवागमन के माव हिन्दू जाति की विशेषताश्रों में से हैं। कालिदास में इन सिद्धान्तों की कलक समय-समय पर मिलती है; शेक्सपीअ्रर में यह बात नहीं है देखिए---

कल्याणुबुद्ध रथवा तवायं कामचारी मयि शंकनीयः

ममैव जन्मान्तरपातकानां विपाकविस्फूजथुरप्रसह्यः

रे नि

साह॑ तपः सूयनिविष्दष्टिरुथ्व॑प्रसूतेश्चरितुयतिष्ये

भूयों यथा मे जननान्तरेषपि त्वमेव भता नच विप्रयोगः

श्रीसीताजी निवाँसित होने पर भी श्रीलदृंमणजी से कहती हैं कि “राप्तचन्द्रजी के सम्बन्ध में में यह शंका भी नहों कर सकती कि यह काम उन्होने स्वेच्छाचार से किया, वरन्‌ मेरे ही जन्मान्तर के किये पापों का फल है ओर मुझको वज्र के समान असह्य हो रहा है? | “जत्र मैं इस प्रसूतिकाय से निवृत्त हो जाऊँगी तब सूय की ओर दृष्टि लगा कर मैं तप करूँगी और प्राथना करू गी कि जन्मान्तर में भी वे ही पति मिलें ओर कभी वियोग हो।” दोनों ही श्लोकों में हिन्दू धम में माने हुए सूर्थ के तप ओर आवागमन के सिद्धान्तों कीं छाप है मुसलमानी साहित्य में नाटकों का अभाव उनके मूर्तिपूजाविरोधी

विचारों का ही फल है उनके विचारों में भाग्यवाद अवश्य है किन्तु कमंवाद नहीं ( हिन्दुओं में उनके कर्म ही भाग्य के विधायक माने जाते हैं, मुसलमानों में ईश्वर की मर्जी ही प्रधान मानी गई है )। सम्मिलित परिवार का जैसा चित्र हिन्दू साहित्य में मिलता है वैसा ओर कहीं नहीं शेक्सपीअर लाख कोशिश करने पर भी रामचरितमानस की कल्पना नहीं कर सकते थे इसी प्रकार तुलसी- दासजी मिल्टन ( |/॥६०ा ) के पेराडाईज़ लोस्ट ( ?2905८ |०5६ ) को विचार में भी नहीं ला सकते थे, क्योंकि पेराडाईज़ लोस्ट में ईश्वर के विरुद्ध शैतान की बगावत का वणन है | पहले तो हिन्दू साहित्य में ईश्वर की कोई प्रतिद्वन्द्रिनी शक्ति है ही नहीं, फिर तुलसीदास जैसे मयांदावादी अ्रधिकारों के

साहित्य में अपने समय के जातीय भावों की छाप होती है २६

मानने वाले इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे | हिन्दुओं में देवता ओर दानवों का विरोध रहा है। ईश्वर के साथ भी हिरण्यकशिपु आदि का बेर रहा है, किन्तु वह शैतान की तरह स्व में रहता था, ओर उसका शैतान का सा व्यापक प्रभाव था मिल्‍्टन ने जिस समय यह ग्रन्थ लिखा, उस समय इंगलैंड में अधिकारों के खिलाफ आवाज़ उठ रही थी। हमारे यहाँ राजाओं के विरोध में राजा वेशु की कथा अवश्य है; किन्तु वह बड़ा अत्याचारी था। हिन्दू लोग स्वभाव से अधिकारों के मानने वाले होते हें

हिन्दू जाति में वाग ओर अहिंसा के भावों का प्राधान्य रहा है, इसीलिए यहाँ के साहित्य में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरमचन्द्र, त्यागी बुद्धदेव, सत्यपरायण हरिश्चन्द्र, दानियों में शिरोमणि शिवि ओर दघीचि के वणनों का प्राधान्य रहता है। उदू कवियों के प्रेम-बणन में जितना हत्याकांड है ( सीख ओर कवाब का वर्णन ) उतना हिन्दी कवियों में नहीं | भारत में तो नाठकों में हत्या का दिखाना निषिद्ध माना गया है। भारतवप में घी दूध का बहुत आदर रहा है यहाँ के देहात्मवादी चार्वाक लोग भी ऋणं कृत्वा घ॒तं॑ पिबेत' ही कहते हैं सुरां पिबेत्‌' नहीं कहते

पूर्वों देशों में पश्चिम की अपेक्षा अलंकारप्रियता अ्रधिक है जिस तरह भारतीय नारियाँ आभूषणों को हमेशा पसंद करती आई हैं, वैसे ही कविगण भी कविता को अलंकारों से सजाने का प्रयत्न करते रहे हैं अ्रतएव जितने भाषा के अलंकार पूर्वी साहित्य में मिलते हैं उतने पश्चिमी साहित्य में नहीं प्रत्येक जाति के भाव, चाहे वे भले हों चाहे बुरे, उसके साहित्य में भंलक उठते हैं

जिस प्रकार हम जातियों के साहित्य म॑ भेद देखते हैं उसी प्रकार हम एक जाति के साहित्य में समय समय की परिस्थितियों के अनुकूल भेद पाते हैं साहित्य का इतिहास जाति के इतिहास के साथ समानान्तर रेखाओं में चलता है संत कबीरदास के समय में कविवर बिहारीलाल नहीं हो सकते थे ओर बिहारी के समय में कबीर का उदय नहीं हो सकता था भूषण में जो मुसलमानों के प्रति घुणा के भाव मिलते हैं, सूर ओर तुलसी में नहीं हैं, क्योंकि उनके

३० प्रबन्ध-प्रभाकर

समय में मुसलमानी शासकगण हिन्दुओं को अपनाना चाहते थे उस समय हिन्दुओं में जाग्रति की प्रतिक्रिया का आरम्भ नहीं हुआ था ओरंगजेत्र के मुसलमानी कट्दरपन ने हिन्दुओं में एक प्रकार की जाग्रति उत्पन्न कर दी थी और महाराज शिवाजी उस जाग्रति के मूर्तिमान स्वरूप थे | वतमान साहित्य में जो एक अन्तर्वेदूना और हृदय की कसक सुनाई

पड़ती है, वह जातीय भावों का ही प्रतित्रिंब है जाति में दुःख की समवेदना व्यापक-सी बन गई है ओर उसी से दुःख का महत्त्व बढ़ गया है दुश्खी का आदर होने लगा है, दुःख पवित्र माना जाता है। दुःख की पवित्र काँकी आज- कल के कवियों में, विशेष कर प्रसादजी, महादेवी वर्मा, भगवतीचरण वर्मा ओर पन्‍न्तजी में, खूब मिलती है। देखिए, पन्‍तजी अश्रुओ्रों के सम्बन्ध में क्‍या कहते हैंः--

आह, यह मेरा गीला गान

वण वर्ण में उर की कंपन ,

शब्द शब्द है सुधि कौ दंशन ,

चरण चरण. है आह,

कथा है कण कण करुण अथाह ,

बूद में है बाड़व का दाह!

विश है अथवा यह वरदान !

कल्पना में है कसकती वेदना ,

अश्रु में जीता सिसकता गान हे;

शून्य आहों में सुरीले छुन्द हैं,

मधुर लय का क्या कहीं अवसान है।

यद्यपि इन कवियों में राष्ट्रीयता व्यक्त नहीं है तथापि यह परिस्थितियों

के प्रभाव से खाली नहीं हैं आजकल जितना साहित्य रचा जा रहा है, वह प्रायः राष्ट्रीय भावों से रंजित है | श्ंगारी कवियों के अनुकरण करने वाले रज्ञाकर जी में भी राष्ट्रीय भावों की कलक जाती है | मेथिलीशरण जी की रचनाएँ इन भावों से ओत-प्रोत हैं पं" माखनलाल चतुर्वेदी ओर श्रीमती सुमद्रा-

काव्य का लक्षण और उसका मानव-जीवन से संत्रंध 38

वह भावों की समता के कारण सारी मानव-जाति को एक परिवार के रूप में देखने लगता है। अच्छे साहित्यिक के लिए कोई जातिभेद नहीं रहता। जो भाव वह कालिदास में देखता है, वही वह शेक्सपीयर में पाता है वह टेंपेस्‍्ट की एकान्तवासिनी नायिका मिरेंडा में तपोवन-विद्य रिणी शकुन्तला का रूप देखता है | यदि जातियों के भेद-भाव दूर होने की संभावना है तो साहित्य का उसमें बहुत बड़ा भाग होगा कविन्सम्राट रवीन्द्रनाथ ठाकुर की विश्वभारती इसी लक्ष्य को सामने रख कर काम कर रही दे

काव्य का अनु रीलन मानव-हृदय को विस्तृत बना देता है। मनुष्य सारे संसार में ओर सब काल में मानव-ह्वदय की समस्याश्रों की एकता पाता है काव्य के वर्णन देश-काल विशेष से घिरे हुए, नहीं होते शकुन्तला की विदा का दृश्य प्रत्येक ग्हस्थ की कन्या के पतिग्रह-गमन का दृश्य बन जाता है। मालती और माधव का प्रेम मालती ओर माधव का प्रेम नहीं रहता, वरन्‌ उस स्थिति के प्रेमी और प्रेमिका मात्र का प्रेम बन जाता है। इसी को काव्य शास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली म॑ साधारणीकरण कहते हैं

सहानुभूति के अतिरिक्त काव्य के अनुशीलन से व्यवह्र-कुशलता भी बढ़ जाती है| काव्यों में मानवजाति का अनुभव घनीभूत हो कर चिरस्थायी बन जाता है | हम दूसरों की असफलता और सफलता से लाभ उठा सकते हैं। काव्य मानव जाति की सामूहिक स्मृति है। जो स्थान व्यक्ति के जीवन में स्मृति का है वही स्थान समाज के जीवन म॑ काव्य का है। प्राचीनों की सत्कृतियों का स्मरण दिला कर काव्य हमारे हृदय में उत्साह ओर कमण्यता का संचार कर देता है। काव्य हम में थ्रात्मगोरव ओर स्वाभिमान की उत्पत्ति करता है। काव्य के द्वारा हमें भिन्न-मिन्न देशों ओर भिन्न-भिन्न काल के व्यवहारों का ज्ञान होता है, उससे हमको परस्पर व्यवद्यार में सहायता मिलती है। जो श्रनुभव मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन में नहीं प्राप्त कर सकता वह अनुभव उसको नाटक ओर उपन्यासों से मिल जाता है। वह मानवजाति के मनोविज्ञान को समभने लग जाता है ओर उसमें कुछ व्यवहार-कुशलता प्राप्त कर लेता है |

काव्य से हमारे भाव ओर मनोवेगों की शुद्धि, पुष्टि और परिमाजन होता

१६ सनन्ध-प्रभाकर

है | यदि हमारी भावना-शक्ति को सामग्री मिले तो उसका हास हो जाता है। प्रत्येक इन्द्रिय और शक्ति को व्यायाम की आवश्यकता है। हमारी भावना शक्ति को काव्य में एक प्रकार का सुलभ व्यायाम मिल जाता है। बिना वास्तविक दुःखों के अनुभव किये दुःख से जो हमारे मन का पवितन्रीकरण होता है वह सुलभतया प्राप्त हो जाता है। हमारे व्यक्तिगत अनुभव में सत्र प्रकार के भावों की पुष्टि का अवसर नहीं होता, किन्तु काव्य में सब प्रकार के भावों की पुष्टि हो सकती है | इसके अतिरिक्त काव्य और रीति-अन्थों के पढ़ने से भावों के बाह्य व्यंजकों का भी ज्ञान हो जाता है। हम जानते हैं कि गुस्से म॑ नथुने फूल जाते हैं, मुँह लाल हो जाता है, हाथ काँपने लगते हैं भौहें चढू जाती हैं. माखे लखन भ्कुटि भई ठेदी हम इन चिह्नों को देख लेने से मानव-हृदय के आपन्तरिक भावों के समभने की पटुता प्राप्त कर लेते हैं ओर क्रोध के अ्रवसर को बचा कर अपना काम निकाल सकते हैं | आ्राकृति के परिवतनों द्वारा मानवीय भावों के जान लेने का विशान हमारी समझ में जाता है ओर अपने भायों से व्यवहार करने में कुशलता प्राप्त कर लेते हैँ | इसके अतिरिक्त हमको शब्दों का ठीक प्रयोग भी ञ्रा जाता है। हमको ज्ञात हो जाता है कि कैसे समय में कैसे शब्दों का व्यवहार करना चाहिए कहाँ हास्य या व्यंग्य काम लेना चाहिए ओर कहाँ गांभीय से

समाज में बहुत से लड़ाई झगड़े अपने भावों को पूर्णतया व्यक्त कर सकने के कारण अ्रथवा दूसरों के भावों को समभने के कारण होते हैं। काव्य के अनुशीलन से इन दोनों बातों में सुलभता प्राप्त हो जाती है। एक मित्र के श्रम को दूर कर देना सहज काय नहीं बात के हेर-फेर के कारण ही बहुत से समभोते रुके रहते हैं। काव्य का अ्नुशीलन करने वाला शब्दों की शक्ति को जानता है। वह यह भी जानता है कि कोन अथ किस शब्द से समझा जा सकता है। वह दूसरों की बात को भी भली प्रकार समक सकता है, क्‍योंकि उसका मानव-हृदय से परिचय रहता है| वह अपने को दूसरे की स्थिति में रख सकता है | उसका दृष्टिकोण विस्तृत हो जाता है, क्‍योंकि वह जानता है कि एक वस्तु कई दृष्टियों से देखी जा सकती है

साहित्य में अपने समय के जातीय भावों की छाप द्वोती है ३१

कुमारी चौहान की कविता में राष्ट्रीय भेरीनाद सुनाई पड़ता है राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ राष्ट्रीय भावों की बाद आई थी उपन्यासों और आख्या- यिकाओरं में भी उसकी छाप थी खीन्द्रनाथ ठाकुर के गोरा नामक उपन्यास का नायक गोरमोहन भी स्वेच्छा से जेल जाने में अपना गौरव समभता है म॒शी पेमचन्द के उपन्यास रंगभूमि में आधुनिक राजनीतिक युद्ध का सजीव प्रदशन है ओर प्रेमाश्रम' के उपन्यास-पट पर सामने तो १६२१ के भारतीय समाज का स्पष्ट चित्र है ओर पीछे किसी भावी भारत की छाया है। आजकल के हरिजन-अआन्दोलन की ध्वनि भी भारतीय साहित्य में गूजने लगी है | युद्धकाल में जो साहित्य रचा गया उसमें, विशेष कर कहानियों में, देश-भक्ति आर वीरता की छाप है। युद्ध की शान्तिमयी प्रतिक्रिया भी हम श्रीसियाराम- शरणजी के उन्म्रक्त' ओर डाक्टर बलदेवप्रसाद मिश्र के साकेत-संत” में देखते हैं। युद्धकालीन कंट्रोलों आदि का उल्लेख कम से कम हास्यप्रघान साहित्य में, जैसे न्यास जी की कविताश्रों में, होने लगा है। आ्राजकल के उपन्यासों में बदले हुए नेतिक मान-दण्डों की भकलक है, श्रोर राहुलजी, अंचलजी, यशपालजी प्रभ्गति लेखकों के उपन्यासों में साम्यवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन हुआ है | सारांश यह है कि साहित्य की गति से हम देश की गति को जान सकते हैं। जातीय साहित्य किसी देश अथवा जाति के तातक्कालिक भावों का दपण है, उस काल के जातीय भावों का प्रतिबंत्र-स्वरूप है

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५. गद्य ओर पद्म का सापेक्षित महत्त्त

साहित्य के दो मुख्य आकार हैं। एक गद्यात्मक ओर दूसरा पद्मात्मक जो बोल-चाल की भाषा में लिखा जावे, ओर जिसमें वाक्यों की कोई नापतोल तथा शब्दों ओर वाक्यों का कोई क्रम निश्चित हो, वह गद्यात्मक कहलाता है ओर जहाँ वाक्यों की नापतोल हो ओर वण किसी क्रम वा नियम के अनुकूल एक विशेष बहाव वा गति के साथ चलते हों, वर्हा साहित्य का आकार पद्मात्मक होता है प्रायः सभी देशों में, विशेष कर भारतवर्ष में, कालक्रम से पद्म का

३२ प्रबन्ध-प्रभाकर

स्‍थान पहला है। पहलेपहल हृदय का हर्षोल्लास वा शोकोह्नेग एक संगीतमयी भाषा में प्रस्फुटित हो उठता है। मारतवप में वेदों के अतिरिक्त जो काव्य का उदय हुआ है वह भी शोकोढ के द्वी कारण हुआ है। क्रोंचों की जोड़ी में से एक का वध देख कर महर्षि वाल्मीकिजी के हृदयगत भाव निम्नलिखित श्लोक में उमड़ पड़े थे --

मा निषाद प्रतिष्ठां वमगमः शाश्वतीः समा;

यक्रोश्वमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्‌ | इसी का स्वर्गीय सत्यनारायणजी ने इस प्रकार पद्मानुवाद किया है--

रति-विलास की चाह सों, मदमाती सानन्द

क्रॉंचन की जोड़ी फिरत, विहरत जो स्वच्छुन्द

हनि तिन में सों एक की, कियो परम श्रपराध |

जुग जुग लों तोहि मिलहि, कबहुँ बड़ाई व्याध

मनुष्य के मानसिक विकास में भावों का उदय पहले होता है, विवेचना पीछे आती है! आजकल जीवन की प्रतिद्दन्द्िता के बदू जाने से भावों का प्राबल्‍्य कम होता जाता है। पहले पेट भरने की सूझतो है, पीछे ओर कुछ | प्रत्येक वस्तु का मूल्य आना पाई में आँका जाता है। भावों की तुष्टि के लिए और मान-मर्यादा की रक्षा के अथ अत्र लोग सहज में जीवन का बलिदान नहीं कर देते और लोगों को हृदय की भावनाओं की ओर ध्यान देने को अधिक अवकाश ही है इसीलिए, अत्र पद्म के स्थान में गद्य अपना आरधिपत्प जमाता जा रहा है | पहले से परिस्थिति में एक बात का श्रोर भी अन्तर हो गया है। पहले

ज़माने में लेखन-सामग्री की न्यूनता ओर प्रेस के अभाव के कारण साहित्य की रक्षा उसको मुखस्थ रखने में ही थी--भारतवष में ज्ञान या तो सूत्रों में आबद्ध कर कंठस्थ किया जाता था या छुन्दोबद्ध करके ज्योतिष, वैद्यक, दशन, इतिहास, पुराण सभी ग्रन्थ पद्म में लिखे जाते थे, क्योंकि वर्णों की नियमित आवृत्ति और शब्दों का गतिमय प्रवाह उनको कंठस्थ रखने में विशेष सहायक होता था। पद्म में शब्दों की अविकल रूप से रक्षा हो सकती थी। पद्म में जो शब्द जहाँ रक्वा

गद्य ओर पद्म का सापेक्षित महत्् ३३

गया है, वहीं रह सकता है ओर उसका पयाय भी काम नहीं देता। पत्र में आपबद्ध कंठस्थ ज्ञान प्राचीन-काल के लोगों को पठनन्याठन ओर वाद-विवाद में विशेष सहायक होता था ओर उसका भगेसा रहता था। पुस्तकस्थ विद्या का इतना महत्त्व नहीं था, क्योंकि कभी कभी काय पड़ने पर पुस्तक नहीं मिलती थी पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्ते गत॑ घनम्‌। काय-काले समुत्पन्ने नसा विद्या तद्धनम अत्र यह परिस्थिति बदल गई है। अ्रव॒ कम से कम केवल आकार के

लिए पत्र का लिखा जाना नितान्त आवश्यक नहीं रहा | यद्यपि अत्र गद्य का युग है तथापि साहित्य गद्य ओर पद्म दोनों ही में लिखा जाता है क्योंकि दोनों ही में अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। दोनों ही का सापेक्षित महत्त्व है

गद्य युक्तिवाद ओर दुकानदारी की भाषा है। यद्रपि गद्य में भी भाषा के सोष्ठव का ध्यान रखना पड़ता है तथापि भाषा विचार की आवश्यकताओं के अधीन रहती है, भाषा के लिए विचारों का संकोच नहीं किया जाता गद्य में भाषा की नाप तोल नहीं रहती, विचारों की आवश्यकता के अनुकूल उसमें संकोच और विस्तार के लिए गुजायश रहती है। आकार के लिए. शब्द का रूप भी नहीं बदलना पड़ता और अपने चुने हुए उपयुक्त शब्दों का परित्याग करना पड़ता है। भावों की अ्रभिव्यक्ति के लिए हमको जैसे शब्दों की आवश्य- कता होती है वेसे ही शब्द रख सकते हैं

इन बातों के अतिरिक्त कुछ विषय ऐसे हैं जो गद्य के लिए विशेष रूप से उपयुक्त हैं भापा भावों का परिधान ( पोशाक ) स्वरूप मानी गईं है प्रत्येक अवसर पर एक ही पोशाक काम नहीं देती। फुय्भाल की पोशाक भोजन के समय काम नहीं देती मनुष्य के काय और पेशे के साथ भी पोशाक बदलती है जज की पोशाक पहन कर लोहार लोहे को ठोक-पीट नहीं सकता ओर लोहार की पोशाक जज को शोभा नहीं देती मल्लाह की पोशाक प्रोफेसर के उपयुक्त नहीं होती और प्रोफेसर का लंबा गाउन मल्लाहइ के काम में सकता है। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए. गद्य और पद्म की भाषा का प्रयोग किया जाता है। पद् में शुष्क नीरस बातों का लिखा जाना शोभा नहीं देता केवल

इ्‌

रेड प्रबन्ध-प्रभा कर

तुक मिलाना पद्म नहीं है | साधारण बात को पद्म में कहना हास्यास्पद हो जाता है। श्री अन्नपूर्णा नन्द-रचित महाकवि चच्चा' में ऐसे पद्म-मक्तों की खूतब्र हँसी उड़ाई गई है। बिल्ली पंडित जी के पालतू तोते को ले जाती है ओर पंडित जी अपने नोकर को पद्म में बुलाते हैं -- अरे पनरस््रा दोड़ बिलरिया ले गई सुग्गा। तू मन मारे खड़ा निहारे जेसे भुग्गा॥

राजनीतिक कार्यो में जहाँ उत्तेजना देनी हो वहाँ तो पद्च का प्रयोग उपयुक्त होता है, किन्तु जहाँ गणना-चक्रों के आधार पर किसी बात को प्रमाणित करना हो, या मान-चित्र दिखा कर किसी गाँव की सीमा निश्चित करनी हो, अथवा किसी को फाँसी की आजा देनी हो, वहाँ पद्म का प्रयोग हास्यास्यद हो जावेगा इसी लिए आजकल नाटकों में पद्म का प्रयोग कम होता है। अब पतद्ममयी भाषा राजाओं श्रोर मन्त्रियों की स्वाभाविक भाषा नहीं समझी जाती आजकल की व्यवस्थापिका सभाश्रों में गद्य ही बोला जावेगा, पद्म के उद्धरण चाहे दे दिये जायें कानून गद्य में ही बनाया जावेगा क्‍योंकि पद्म की अपेक्षा गद्य की भाषा निश्चित समभी जाती है। उसमें यह विश्वास रहता है कि जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है, विचार के अनुरोध से किया गया है, छुन्द की गति वा लय की आवश्यकता से नहीं। गद्य में व्याकरण के नियमों का पूरी तोर से पालन किया जाता है, पद्म में वेता पालन नहीं हो सकता | पर इसका यह अ्रथ नहीं कि पद्म में व्याकरण की हृत्या की जाती है। व्याकरणु- विरुद्ध होना च्युतिसंस्कृति दोष माना जाता है खड़ी बोली की कविता में शब्दों की तोड़ -मरोड़ भी नहीं की जाती

वैज्ञानिक विषयों के लिए. भी गद्य ही उययुक्त भाषा है; क्योंकि विज्ञान में अलंकारों की आवश्यकता नहीं वैज्ञानिक श्रुव सत्य--घोर कठोर सत्य-- चाहता है; जिसके लिए, प्रिय ओर अप्रिय का प्रश्न नहीं। वह एक शब्द भी कम या ज्यादा नहीं चाहता विज्ञान की शोभा सरसता में नहीं है यथाथता में है, ओर यथाथता की रक्षा जैसी गद्य में हो सकती हे वैसी पद्य में नहीं

यद्रपि साधारण जीवन की आवश्यकताश्रों के लिए. गद्य ही उपयुक्त

गद्य ओर पद्म का सापेत्षित महत्त्व ३५

भाषा है तथापि मनुष्य का जीवन भोजन-सामग्री जुटाने में ही संकुचित नहीं उसके जीवन में कला ओर सौंदय का भी स्थान है। गद्य का युग होते हुए भी भावों का नितान्त हास नहीं हो गया है हमारे जीवन में थोड़ी सरसता आवश्यक है| नीरस जीवन अ्रसह्मय हो जाता है। सौन्दय और सरसता के लिए, पद्म ग्रावश्यक है। श्षोत वेज्ञानिक गद्य में नहीं रक्खा जा सकता | रात्रि की निस्तब्घता में नदी तट से गाया हुआ मधुर संगीत अब भी लोगों के द्ृृदय को आकर्षित कर लेता है | विवाह्मदि के निमंत्र॒णों में पद्म अन्न भी गोरब की भाषा समभी जाती है। पद्म के बिना धरम का बहुत-सा सामाजिक भाग अ्रपूर्ण-सा रहता ॥। पद्म के नपे-तुले वाक्य, वृत्तों का सरस बहाव, हमारे मन में एक अपूव साम्य ओर आनन्द की उत्पत्ति कर देता है, जो गद्य में कठिनाई के साथ आ! सकता है पद्म में भाव ओर भाषा की एकाकारिता हो जाती है। हमारे भाव जेसे उमड़ कर बाहर आना चाहते हैं, वैसे ही सरिता की भाँति हमारी भाषा भी बहने लगती है | गीत-लहरी में हृदय की गति का स्पन्दन प्रतिबिम्बित होने लगता है। कोमल भाव कोमल-कान्त-पदावली चाहते हैं। शब्दों की घ्वनि, त्रिना अथ-बोध के ही परिस्थिति के अनुकूल हमारे मन में भाव उत्पन्न कर देती है। मस्तिष्क का भार हलका हो जाता है। वीर रस के भावों की भाषा ओजपूर्ण होती है ओर श्टंगार की माधुयमयी। इन्हीं रसों के अनुकूल कोमला ओर परुषा वृत्तियों के अल्प ओर अधिक प्रयास वाले वण रहते हैं कविता के बृत्तों में एक अपूर्व साम्य रहता है, जो हमारे मन में तदनु- कूल साम्य की जाग्रति कर देता है। वृत्त द्वारा अनेकता में एकता स्थापित हो जाती है, क्योंकि अक्षुर्भेद होते हुए भी उनकी संख्या, उनकी मात्राएँ, उनके गुरु लघु होने का क्रम, विशेष कर अन्त्यानुप्रास में, एक सा रहता है ( अठ॒- कान्‍्त कविता या मुक्त छुंद की दूसरी बात है। किन्तु उसमें भी संगीत की ताल ओर लय रहती है |) हमारे मुख को उच्चारण में ओर कानों को श्रवण में एक विशेष सुख मिलता है। हमारा मन भी उस बहाव में पड़ जाता है ओर उस बहाव के अनुकूल शब्दों की एक सी आइत्ति में एक अपूव आनन्द का अनुभव होने लगता है। थोड़ी देर के लिए. जीवन का भार हलका हो

३५ प्रबन्ध-प्रभाकर

जाता है | कविता का बाह्य ओर आपन्‍्तरिक सोन्दय मिल कर हमारे मन में सौन्दर्य की एक भावना जागरित कर रस की उत्पत्ति कर देता है। वह एक लोकोत्तर आनन्द का विधायक बन हमारे जीवन के संकुचित बन्धनों को शिथिल कर देता है ओर हम काव्य के स्वग में विहार करने लग जाते हैं। जो लोग अपने जीवन को सरस ओर जीवन योग्य बनाना चाहते हैं" उनको कविता का भी अ्नुशीलन करना आवश्यक है

सारांश यह है कि भौतिक आवश्यकताश्ों का प्रकाश तथा शुष्क वैज्ञानिक विषयों पर विचार गद्य में ही प्रकट किये जा सकते हैं, परन्तु मानसिक लोकोत्तर आनन्द ओर जीवन की सरसता पद्म से ही सुलभतया प्राप्त हो सकती है| गद्य यथार्थवाद के अधिक उपयुक्त है ओर पद्म आदशवाद के। गद्य विचारों की भाषा है तो पद्म भात्रों की ओर जिस प्रकार हमारे उन्नति-विधान में विचार और भावों का सहयोग रदता है उसी प्रकार हमारे साहित्य में गद्य ओर पद्म का स्थान है |

'पाअधकरतदार पा फा+आ०पउाा रत. (कजकमन्‍-ानमपरपाएए...मरअविजानातरी जी.

६. सत्यं शिव सुन्दरम

किसी वस्तु के प्रचार पा जाने पर लोग उसकी उत्पत्ति वा इतिहास के संबंध में प्रायः उदासीन हो जाते हैं नवीनता ही कोवृहल उत्पन्न करती है जिससे घनिष्टता हो जाती है, उसके कुल ओर जाति की ओर ध्यान नहीं दिया जाता सत्यं शिवं सुन्दरम' आजकल कला ओर साहित्य के क्षेत्र में आदश- वाक्य-सा बन गया है सब लोग इसी की दुह्ाई देते हैं ओर इसको वेद-वाक्य नहीं तो उपनिषद्‌-वाक्य अवश्य समभते हैं, क्योंकि इसका प्रचार अधिकतर ब्रह्म समाज से ही हुआ है वास्तव में यह यूनानी दाशनिक अफ्लातून ( 90७ ) के ॥॥6 ॥06, ॥#८ (०000, ॥॥८ 3८27४ का अनुवाद है| अनुवाद इतना सुन्दर ओर फबता हुआ है कि यह वाक्य हमारे यहाँ की देशी भाषाओं में घुल-मिल गया है वास्तव में बात यह है कि विचारत्षेत्र में, देशी-विदेशी का झगड़ा नहीं रहता उसमें विश्वात्मकता रहती है

सत्यं शिवं सुन्दरम्‌ ३७

भारतवष के लिए यह विचार नितान्त नवीन भी नहीं है सत्य और आनन्द का तो समन्वय सच्चिदानन्द में ही होता है शिवं सुन्दरं का भाव हमको किराताजु नीय आदि काव्यों और नीति ग्रन्थों में मिलता है; 'हित॑ मनोहारि दुलभं वचः भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में वाणी के रूप को बतलाते हुए सत्य प्रियं और हितं तीन विशेषणों का प्रयोग किया है, अनुद् गकरं वाक्य सत्यं प्रियहितं यत्‌ः यही हमारे यहाँ सत्य शिवं॑ और सुन्दरम्‌ का रूप है। हितं शिवं का पर्याय है ओर प्रियं सुन्दरम्‌ का गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी साहित्य में हित को प्राधान्य दिया है; देखिए--- 'कीरति भणित भूति भलि सोई। सुरसरि सम सत्र कहूँ हित होई कुछ लोगों ने साहित्य की व्युतत्ति सहित के भाव ( हितेन सह सहित, तस्य भावः साहित्यं ) अर्थात्‌ हित के साथ होने के भाव” से की है ओर काव्य में जो रस या आनन्द का प्राधान्य है वह सुन्दर का रुपान्तर है सत्य ओर सौंदय का समन्वय करते हुए कवीन्द्र खीन्द्र दादू” नामक बैंगला ग्रन्थ की भूमिका में कहते हैँ--- सत्य की पूजा सौंदय में है विष्णु की पूजा नारद की वीणा में है ।” साहित्य और कला की अधिष्ठात्री देवी हस-वाहिनी-शारदा का »४गार त्रिना वीणा के पूरा नहीं होता, इसीलिए, उसके स्तवन में उन्हें 'वीणापुस्तक- धारिणी' कहा है नीर-च्ञीर-विवेकी हंस सत्य का प्रतीक है वीणा में सौन्दय- भावना की प्रतिष्ठा है। काव्य के उद्देश्यों में सद्यः परनिद्द त्तये! ( तुरन्त उत्कृष्ट आनन्द देना ) के साथ शिवेतरक्षतये' ( अ्रमंगल का नाश ) ओर ान्‍न्ता- सम्मिततयोपदेशयुजे' ( प्रिया का सा मधुर उपदेश ) में हित ओर सौंदय दोनों दी बातें जाती हैं सत्यं शिवं सुन्दर! की उत्पत्ति चाहे जिस देश ओर काल में हुई हो, उसमें हमें एक सत्य के दशन होते हैं सत्यं शिव सुन्दर विज्ञान, धम ओर काव्य के परस्पर संबंध का सूत्र है विशान केवल सत्य की ओर जाता है शिवं उसके लिए गोण है ओर सुन्दरं उसकी उपेक्षा की वस्तु है। विज्ञान में सत्य के आगे शिवं और सुन्दर को दत्र जाना पड़ता है वैज्ञानिक नग्न सत्य का, वह चाहे जितना भयावह

शेष प्रबन्ध-प्रभाकर

क्यों हो, एकान्त उपासक है। वह बावन तोले पाव रत्ती सत्य चाहता है उसके लिए. बीमत्सता कुछ अर्थ नहीं रखती उसने केवल 'सत्यं ब्रयात्‌ पढ़ा है; प्रियं ब्रयात्‌ को वह नहीं जानता आलंकारिकता यदि सत्य के स्वरूप को रेखा मात्र भी नबिगाड़ दे तो उसके लिए वह दोषी हो जाती है | वह सत्य के रूप ओर प्राण दोनों की रक्षा करता है।

धार्मिक शिवं की ओर जाता है शिवं में ही उसके लिए सत्य की प्रतिष्ठा है वह लक्ष्मी का मांगलिक घटों से अभिषेक कराता है; क्योंकि जल जीवन है, कृषि का प्राण है, मानव-मांगल्य का संकेत है। जिस प्रकार सरस्वती में सत्यं ओर सुन्दर का समन््य है उसी प्रकार लक्ष्मी में शिव॑ श्रोर सुन्दर का सम्मिश्रण है शिव कल्याण या हित करने वाले के नाते ही महादेव कहलाते हैं। वेदों में शिवसड्डल्पमस्तु' का पाठ पढ़ाया जाता है। धार्मिक कोरे सत्य का उपासक नहीं, उसके लिए सत्य मांगलिक रूप धारण करता है। धार्मिक इहलोक की ही रक्षा नहीं करता, वरन्‌ परलोक की भी चिंता करता है। वह आत्मा को परम श्रेयस की ओर ले जाता है

साहित्यिक सत्यं शिवं सुन्दरं तीनों की उपासना करता हुआ सुन्दरं को प्राधान्य देता है | वह 'सत्य॑ ब्रयात्‌, प्रिय॑ त्रयात्‌ , मा ब्रयात्‌ सत्यमप्रियम्‌ का पाठ पढ़ाता है। वह हित को मनोहर रूप देता है ओर सब्चिदानन्द के 'रूप में सत्‌ , चित्‌ , आनन्द तीनों का आदर करता हुआ रस वा आनन्द को अपना जीवन प्राण समझता है। उसके द्वृदय में रसात्मक वाक्य का ही मान है |

साहित्यिक के लिए सत्यं शिव सुन्दरं में एक-एक विचार की यथाक्रम महत्ता बढ़ती गई है अब हमको यह देखना है कि वह इन विचारों की किस रूप में पूजा करता है। वह सत्यं को वैज्ञानिक की भाँति अपना घम नहीं मानता वह सत्यं के बाह्य रूप की परवाह नहीं करता, वरन्‌ सत्य की आत्मा की रक्षा करता है। वह शाब्दिक सत्य की रक्षा के लिए उत्सुक नहीं रहता, घटना के सत्य को वह अपनाना अवश्य चाहता है; किन्तु उसे सुन्दर के शासन में रखना उसको अभीष्ट है। गोस्वामी तुलसीदासजी लक्ष्मण को शक्ति लगने पर मयांदा पुरुषोत्तम राम से विलाप में कहलाते हैँ “निज जननी के एक कुमारा', मिलहि

सत्यं शिव॑ सुन्दरम्‌ ३६

जगत सहोदर भ्राता', पिता बचन मनतों नहिं श्रोहू!। इनमें कोई भी वाक्य इतिहास की कसौटी पर कसने से ठीक नहीं उतरता, किन्तु काब्य में इनका महत्त्व वास्तविक सत्य से भी अधिक है। इनके द्वारा श्रीरमजी के हृढटय का भाव स्वयं मुखरित हो उठता है| राम का शोकावेग तथा उनके भाई के प्रति भाव और लक्ष्मण के महत्व की अभिव्यंजना करने के लिए इससे अच्छा साधन था | इंगलेंड के श्रमर कवि शेक्सपीअथर की 'डेज़डीमोना' मिथ्याभाषण में ही अपने हृदय के सत्य का उद्घाटन करती है| वह अपने भाई से यह कह कर कि मेंने स्वयं अपने को मार डाला है अपने दाम्पत्य प्रेम का परिचय देती है कभी-कभी काव्य के लिए सत्य मिथ्या का रूप धारण कर सुन्दरम' का मान रखता है। जिस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास अपनी अनन्यता में तुलसी मस्तक तब नव धनुष बाण लेहु हाथ' कह कर कृष्ण को राम के रूप में देखना चाहते थे, उसी प्रकार कवि सत्यों को भी सुन्दरम' के रूप में देखना अपना ध्येय मानता है। इसमें सत्य की अप्रतिष्ठा नहीं। वह सत्य की अवहेलना नहीं करता, वरन्‌ उसको ग्राह्म रूप में देखना पसन्द करता है। ग्राह्य रूप देने की प्रक्रिया में सत्य की यदि कुछ का>-छाँट हो जाय तो वह अपने आदश की पूति के अथ सत्य की उतनी हानि को शिरोधाय समभेगा कवि यद्यपि स्वतंत्र है, तथापि वह सत्य की नितान्त अवहेलना नहीं कर सक्रता। उसकी कल्पना से रचे हुए महल चाहे हवाई किले कहलाव किन्तु उनकी आधार-शिला हृढ वास्तविकता में ही रहती है। वह सत्यं को सुन्दरं का रूप देने में सीमा से बाहर नहीं जाता | मूल घटना का बह आदर करता है, किन्तु उसकी व्याख्या ओर कारणों में अन्तर करने कीं स्वतंत्रता रखता है। यह केवल इसलिए कि उसके द्वारा वह सेद्धान्तिक सत्य का उद्घाटन करना चाहता है। 'शकुन्तला' में अंगूठी ओर शाप की कथा कवि-कल्पना है। किन्तु उससे इस सत्य की रक्षा होती है कि दुष्यन्त का सा प्रेमी हृदय बिना किसी देवी कारण के अपनी प्रियतमा की केवल लोकापवाद के राजनीतिक कारणों से अवहेलना नहीं कर सकता कवि लोग मुह में सोना डाल कर नहीं बैठते वे विश्वामित्र

४० प्रबन्ध-प्र भाकर

की सी नई सृष्टि रचने में भी संकोच नहीं करेंगे; किन्तु वे संगति ओर संभाव्य का अवश्य ध्यान रक्खेंगे | वे कल्पना के घोड़े को अज्ञात के ज्षेत्र में भी दोड़ायेंगे पर वे उसका सदा संगति की लगाम से नियन्त्रण करते रहेंगे

यद्यपि आजकल कलावाद अथांत्‌ कला कला के लिए ही है (>( लि ध(5 59५८) की भोंक में कुछु कविगण सत्यं गर शिवं की अवहेलना कर कहते हैं कि काव्य का नीति से कोई संबंध नहीं, तथापि यह बात जनता को मान्य नहीं हुई जनता सुन्दर की उपासक है, किन्तु सुन्दरं को सत्यं ओर शिवं के अलंकारों से अलंकृत देवना चाहती है यह बात टीक है कि सुन्दरं किसी दूसरे के शासन में नहीं रह सकता और उस पर उसके ही नियम लागू होंगे तथापि वह मनुष्यों की मनोवृत्तियों में विद्रोह नहीं उत्सन्न करेगा। साम्य ही सुन्दर का मुख्य लक्षण है नीति की रक्षा में सुन्दरं की भी रक्षा है। गज्ञाजल की भांति काव्य में पवित्रता ओर प्यास बुझाने तथा नीरोगता प्रदान करने का गुण एक साथ होना चाहिए। सत्काव्य माता के दूध की भाँति तुष्टि ओर पुष्टि दोनों का विधायक और प्रेम का प्रतीक होता है |

काव्य के उद्द श्य में कहा गया है कि काब्य का उपदेश प्रिया के उपदेश का सा माधुय-मंडित होता है यदि कविवर त्रिहारीलाल मिर्जा राजा जयशाह को लय॒ठमार उपदेश देते तो शायद वे उपदेश देने में असफल तो रहते ही, दरबार से भी अनादर के साथ निकाले जाते। किन्तु उनके नहिं पराग नहिं मघुर मधु, नहिं विकास इहि काल” वाले दोहे ने जादू का काम किया साहित्य सुन्दर को इसीलिए प्राघान्य देता है कि कला में विचार के साथ प्रेषणीयता ((अगधधधां८४०0) का भी भाव लगा रहता है। कवि अपने भाव को संसार तक पहुँचाना चाहता है। उसके पास लोगों के हंदय- द्वार खोलने के लिए, सोंदय की ही कुंजी है। वह सोंदय का आवेष्टन चढ़ा कर कटु से कट्ठ सत्य को ग्राह्म बना देता है रवि बाबू की चित्रांगदा' की भाँति कवि की वाणी सौंदय के प्रभाव से मानव रूपी अजु के हृदय में प्रवेश कर उसको अपने गुणों से मुग्ध कर लेती है इसलिए कवि सौंदय का उपासक है| सौंदर्य में साम्य और समन्वय की भावना निहित रहती है। सौंदय के

कला कला के लिए शअ्रथवा जीवन के लिए ४१

साम्य में सत्य ओर शिव दोनों का सन्नरिविश हे सोंदय जितना ह्वी सत्याश्रित ओर मज्जलमय होता है उतना ही वह दिव्य कहलाता हैं। सत्य, शिव ओर सुन्दर के इसी समन्वय के कारण काव्य देवत्व से प्रतिष्ठित हो कर ब्रह्मानन्द सहोदर रस का स्रष्टा ओर प्रसारक होता है

+अराकद-ा2 मय 2ाह३..+पक०-०८-॥००००० (लॉकसलका दाग जमे

७. कला कला के लिए अथवा जीवन के लिए

ब्छ / <५

यद्यपि हमारे यहाँ निष्कामता की महिमा गाई गई है ओर काव्य की सृष्टि भी स्वान्तः सुखाय' हुई है तथापि यह मानना पड़ेगा कि व्यवहार में कोई काम निष्प्रयोजन नहीं होता। प्रयोजनमनुद्दिश्य मूहोडपि प्रवतते! हमारे यहाँ मम्मट आदि आचाययों ने काव्य के हेतु बतलाये हैं ओर यूरोप के विद्वानों ने भी कला के प्रयोजन की विवेचना को है कुछ लोग तो कल्ना को नीति, उपयोगिता आदि प्रयोजनों के परे बतला कर कला कला के अथ (श( णि ४(5 5४८८) की दुढ्ाई देते हैं ओर कुछ लोग उसे जीवन के अथ बतलाते हैं। कला के ओर कई प्रयोजन माने गये हैं। जैसे कला जीवन से पलायन के लिए, कला जीवन में प्रवेश के लिए, कला मन बढलाने के लिए, कला सुजन को आवश्यकता-पूर्ति के लिए, कला प्रसन्नता के लिए, आदि किंतु वे सब इन दो प्रमुख वादों से सम्बन्ध रखते हैं ओर उनके अन्तगत किये. जा सकते हैं

कला कला के लिए इस वाद का जन्म फ्रांस में हुआ | वाल्टर पेटर, ग्रोस्कर वाइल्ड आदि इसके प्रमुख समथक हैं। आजकल ब्रेडले साहब इसका पत्त ले रहे हैं | इसके मानने वालों का कथन है कि कला का प्रयोजन उसकी उपयोगिता में नहीं है ओर उसका मूल्य आथिक या नैतिक मान से निश्चित करना उसके साथ अन्याय करना है | कला के परे ओर किसी बाह्य वस्तु को उसका प्रयोजन रूप से नियामक मानना उसके स्वायत्त शासन में अवि- श्वास प्रकट करना है ओर उसको स्वाधीनता के स्वग से घसीट कर पराधीनता के अ्न्धकारतम गत॑ में ठकेलना है। जब शव-परीक्षा करते हुए आन्‍्तरिक

४२ प्रबन्ध-प्र भाकर

अवयवों की दु्गन्ध-पूर्ण बीभत्सता के उद्घाटन के लिए. यमराज सहोदर नहीं शद्धराज सहोदर डाक्टरों को ओर कोयले के रूप में प्रस्तरीभूत कालिमा का भक्षण कर अजख धूमप्र वमन करने वाली मिलों के कर्ण-कुहर-भेदी ककश-नाद के विस्तारक और प्रचारक वैज्ञानिक आ्राविष्कारकों ओर मिल-मालिकों को सोन्दय- बोध ओर संवेदनशीलता प्राप्त करने के लिए कलाविदों की चट्साल में नहीं भेजा जाता तो बिचारे कलाकार पर धर्म ओर नीति का अंकुश क्‍यों ) निरंकुशा हि कवयः ।' कला की मनोमुग्धकारिणी सुन्दरता ही उसकी चरम उपयोगिता है।

ऐसी ही विचारधारा का पोषण करते हुए श्रास्कर वाइल्ड ने ( (05८ ९४/१0 ), जिन्होंने खुद अपनी कृतियों में सदाचार की अवहेलना की है, कहा है समालोचना में सबसे पहली बात यह है कि समालोचक को यह परख हो कि कला ओर आचार के क्षेत्र प्रथक्‌-प्रथक्‌ हैं।! जे, ई. स्विनगान ( |. 2 9शी- €थ॥ ) ने इसी बात को कुछ हास्पोत्ते जक रूप दिया है। उनका कथन कुछ कुछ इस प्रकार का है कि शुद्ध काव्य के भीतर सदाचार या दुराचार हूढना ऐसा ही है जैसा कि रेखागरित में समत्रिकोण त्रिभुन को सदाचारपूण कहना ओर समद्विबाहु त्रिभुज को दुराचारपूण कहना | जिस प्रकार पुल बनाने वाले इंजीनियर से इस बात की अपेत्ता करना कि उसके द्वारा एसप्रांटों ( यूरोप की प्रस्तावित एक सावजनिक भाष/) का प्रचार हो सकेगा या नहीं या किसी रसोइए. से यह पूछना कि वह गोमी का शाक बनाने के साथ बीजगणित या त्रिकोश:मरति के सवाल निकाल सकता है श्रथवा अ्रथशासत्र वा भौतिक शास्त्र के किसी नियम की व्यख्या करने में सम है, अ्रसंगत होगा, उसी प्रकार कलाकार से यह अपेक्षा करना कि वह नीति ओर सदाचार का प्रचार करेगा असंगत आर तकविरुद्ध होगा

जो लोग कलावाद के पक्ष में ऐसी युक्तियाँ पेश करते हैं वे भूल जाते हूं कि इंजीनियर और रसोइए के क्षेत्र सीमित हैं | कला का सम्बन्ध मनुष्य के पूण जीवन से है। किसी मनुष्य, संस्था वा सिद्धान्त का प्रभाव जितना व्यापक होगा उतना ही उसको दूसरों के साथ साम्य ओर समन्वय की भावना रखनी पढ़ेगी | “सर्वे पदा हस्तिपदे निममझाः हाथी के पैर में सब्र के पैर समा जाते हैं कला को

कला कला के लिए श्रथवा जीवन के लिए, ४३

केवल कला के लिए मानने वाले उसका क्षेत्र सीमित करके उसको अपने उच्च सिंहासन से घसींटने का प्रयत्न करते हैं ओर अपने को नादान दोस्‍त की संज्ञा में रखते हैं | कला का सम्बन्ध जब्न मनुष्य के पूण जीवन से है तत्र वह नीति, सदाचार और उपयोगिता की अ्रवहेलना नहीं करती

हमारे हिन्दी लेखकों पर भी इस मत का 4 भाव पड़ा है। श्री इलाचंद्र जोशी इसके प्रमुख समथकों में से हैं इन्होंने ए. जगह कहा है कि विश्व की इस अनन्त सूष्टि की तरह कला भी आनन्द का ही प्रकाश है। उसके भीतर नोति अ्रथवा शिक्षा का स्थान नहीं | उसके माया-चक्र से हमारे हृदय की तंत्री आनन्द की मंकार से बज उठती है, यही हमारे लिए. परम लाभ है। उच्च अंग की कला के भीतर किसी तत्त्व की खोज करना सोन्दय देवी के मन्दिर को कलुषित करना है | डाक्टर रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी इसी सम्प्रदाय के हैं, किन्तु उनके विचार बड़े संयत हैं | वे कला को प्रयोजन से परे मानते हुए भी उसे मंगलमय देखना चाहते हैं | सौन्दय-मूर्ति ही मंगल की पूर्ण मूर्ति है ओर मंगल- मूति ही सौन्दय का पूर्ण स्वरूप है |”

कलावाद के सम्बन्ध में मूल प्रश्न यह उपस्थित हो जाता है कि कला- कार को तीन लोक से न्यारी किसी काल्पनिक मथुरापुरी में बसना हे या उसको इस संत्रषमय संसार में रह कर नागरिक के भी कतंव्य पालन करना है। इस प्रश्न को ले कर प्रोफेसर ए. ती, ब्रे डले ( 2. ९. 990॥०५ ) ने काव्य- काव्य के लिए! शीषक श्रपने एक लेख में यह माना है कि शुद्ध कला के दृष्टिकोण से कला के मूल्य को कला के ही माप दण्ड से, जो सौन्दय का है, नापना चाहिए. लेकिन नागरिक के दृष्टिकोश से आवश्यक नहीं कि कलाकार की सभी कृतियाँ प्रकाश में आय ब्रेडले साहब ने इस सम्बन्ध में यह बतलाया है कि रूजेटी ( २०५5६८(( ) ने अपनी एक कविता को जिसे परम मर्यादावादी टेनीसन ने भी पसन्द किया था, लोकमयांदा के भंग होने के भय से प्रकाश में नहीं आने दिया क्रोचे ( (0८७ ) का भी करीत्र-करीत्र ऐसा ही मत है | उसका कथन है कि कला, जिसका मूल अभिव्यक्ति में है, कलाकार के मन में ही रूप धारण कर लेती है। कलाकार के मन में उत्पन्न होने वाला रूप ही सच्ची

डीड प्रबन्ध-प्र भाकर

कला है वह नीति, सदाचार और उपयोगिता के नियंत्रण से परे है किन्तु जब वह कलाकृति ( १/०/८ए्ण ४६ ) के रूप में कलाकार के लिए, स्थूल रूप धारण करती हैं तत्र वह नीति के शासन में जाती है

भारतीय लोकमत कला ओर नीति के विच्छेद के विरद्ध है। कालिदास का कुमारसम्भव शुद्ध कला की दृष्टि से बड़ी ऊँची कृति हे किन्तु आचार की दृष्टि से शंकायोग्य है इसीलिए लोगों का विश्वास है कि कालिदास को शिव- पावती का श्वज्ञार वर्णन करने के कारण कुष्ठ हो गया था मारतीय लोकमत ने इस देवी निर्यय पर अपने अनुमोदन की मुहर लगाई है यद्यपि भारतीय साहित्य शास्त्र में अश्लीलता ओर ग्रामीणता को जो दोष माना हे उसका सम्बन्ध अधिकतर शब्दों से है तथापि इन दोषों के मानने से यह विदित होता है कि उन आचार्यों का ध्यान इस प्रश्न की ओर गया था और वे कला का नीति से विच्छेद करने के पक्ष में थे आजकल यह प्रश्न कुछ व्यावहारिक होता जा रह्य है कुछ लोग तो नीति और आचार की घुन में त्रिहारी सतसई जैसे उच्च काव्य ग्रन्थ को समुद्र में डुवा देना चाहते हें ओर कुछ लोग ऐसे सदाशय लोगों की हँसी उड़ाते हुए, उद्याम श्ज्ञार के वणन करने वाले ग्रन्थों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं यत्रपि नीति ओर सदाचार का दिखावा करना उतना ही बुरा है जितना कि अवहेलना करना, फिर भी यह कहना पड़ेगा कि नीति ओर मर्यादा की उपेक्षा नहीं की जा सकती ओर इस सम्बन्ध में भी बीच के मार्ग का अनुसरण करना उचित होगा अभिव्यञ्जननावाद ( :(/८$४०- ॥5॥ ) के नाम पर, जो काव्य की वस्तु को गौण रख कर शैली ही को मुख्यता देता है, अथवा यथाथवाद की मोक में, जो बुरे ओर भक्ते दोनों का मिश्रण करना अपना कतव्य समझता है, अनीति और वासनाओं के उत्तेजक साहित्य की आश्रय नहीं दिया जा सकता |

काव्य के लिए. वस्तु ओर आकार दोनों ही महत्त्व रखते हैं वस्तु के बिना आकार खोखला है और सुन्दर आकार के बिना वस्तु श्री्दीन रह कर अपने उचित मूल्य से वश्चित रहतीहे मनुष्य के लिए. जिस प्रकार अन्तर ओर बाह्य सौन्दर्य दोनों ही अपेक्षित हैं उसी प्रकार काव्य के लिए. विषय ओर

फला कला के लिए श्रथवा जीवन के लिए ४फ

शैली दोनों का हीं सौन्दय आवश्यक है और सच्चा सौंदर्य वही है जिसका मंगल से समन्वय हो यूरोप में भी रस्किन, ठालस्टाय, आइ. ए. रिचिडस आदि शैली के साथ वस्तु को मद्दत्ता देते हुए कला ओर सदाचार का समन्वय चाहते हैं | वह अभिव्यञ्ञना सच्ची अ्रभिव्यश्चना नहीं हे जो वस्तु की अवहेलना करती हुई विघभरे कनक घट के समान केवल शैली को महत्त्व दे ओर सारहीन साहित्य की पोषक बने। बिना पौष्टिक भोजन के मेज के हिम-घवल आवरण, परि- शुद्ध भोजन-पात्र और चमचमाते छुरी काँटे आदि खाने के उपकरण व्यथ हैं

मेथ्यू आनल्ड ने काव्य को जीवन की आलोचना कहा है | यह ग्रालोचना जीवन से बाहर की वस्तु नहीं काव्य जीवन का थआत्मचिन्तनमय मुखरिति रूप है उसमें पोषक सामग्री के आत्मसात्‌ करने, बढ़ने तथा सश्चालन की शक्तियाँ, जो जीवन के प्रधान लक्षणों में मानी जाती हैं, वतमान रहती हैं। जीवन की रक्षा ओर अ्रभिवृद्धि उस आ्रात्म-चिन्तन का व्यावहारिक रूप है। जीवन नहीं तो आलोचना किस की ? और फिर उसकी आलोचना का भी कुछ लक्ष्य होना चाहिए। वह आलोचना भी उसकी शोभा-सम्पन्नता ओर साथकता बढ़ाने के लिए ही है। काव्य ओर साहित्य जीवन की गति- विधि का अध्ययन करा कर उसको मजड्जलमय बनाने में सहायक होता है। मम्मगाचाय ने जो काव्य के हेतु बतलाये हैं वे पूर्णतया जीवन से सम्बन्ध रखते हैं। उन्होंने काव्य का निर्माण यश के अर्थ (यशसे), धन के लिए (अ्रथंकृते), व्यवह्ार जानने के लिए ( व्यवहारविदे ), अमड्गल के नाश के लिए ( शिवे- तरक्षतये ), तुर्त आनन्द देने के लिए. (सद्यः परनिइ त्तये ) ओर प्रेयसी का सा मधुर उपदेश देने के लिए ( कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ) बतलाया है

काव्य यशसे5थंकृते व्यवह्रविदे शिवेतरक्षतये सद्मः. परनिवृ त्ये.. कान्तासम्मितयोपदेशयुजे

इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत के आचार्यों ने व्यवहार-ज्ञान, गमंगल नाश ( उस समय तो अ्रमद्गल का नाश प्रायः देवताओं के स्तोत्र बना कर होता था किन्तु श्राज-कल वही काम वीरों के स्तवन से हो सकता है)

४५९ अबन्ध-प्रभाकर

ओर मधुर उपदेश को काव्य के क्षेत्र से बाहर नहीं माना। कुछ लोगों का कहना है कि हम उपदेश के लिए काव्य क्‍यों पढ़े, उपदेश ही ग्रहण करना है तो धमंशात्र ओर आचारशासत्र का क्‍यों अध्ययन करें? इसीलिए आचार्यों ने उसके साथ कान्ता-सम्मिततयोपदेशयुजे' का विशेषण लगा दिया है। काव्य का उपदेश कान्‍्ता का सा मधुर और प्रेमपूर्ण होता है। बिहारी के एक दोहे ने जो काम कर दिखाया वह सैकड़ों सूखे उपदेश नहीं कर सकते थे काव्य केवल काम का ही साधक नहीं वरन्‌ धर्म अथ काम ओर मोक्ष चारों का विधायक है धर्माथंकाममोक्षाणां वेचक्षएणयं कलासु करोति प्रीति कीर्ति साधुकाव्यनित्रन्धनम्‌ --भामह

हमारे देश में प्राचीन काल से ही काव्य का जीवन से सम्बन्ध रहा है |

भारतीय परम्परा में तो काव्य का जन्म ही लोकह्ताय हुआ है महर्षि वाल्मीकि

का करुणापूण हृदय क्रोश्ववध के दृश्य से द्रवित हो कर रामायण की सुरसरिता के रूप में बह निकला था। तभी तो ध्वन्यालोक में कहा है क्रोश्चद्वन्द्रवियोगोत्थः शोकः श्लोकल्वमागतः क्रोश्व के जोड़े के विच्छेद से उठा हुआ शोक श्लोक

बन गया भारतीय विचारधारा में काव्य सदा लोकहित से समन्वित रहता है।

हमारे देश का काव्य साहित्य लोकपक्ष को ले कर अग्रसर हुआ है। रघुवंश

्रादि महाकाव्य सवभूतहित को ही उद्देश्य कर लिखे गये ये हिन्दी का वीर-

गाथा काव्य यद्यपि अधिकांश में आश्रयदाताओं का यशोगान है ( उसमें आपस की मारकाट को आश्रय मिला है ) फिर भी उसका जीवन से सम्पक होने के कारण वह लोकहित से सम्बद्ध है। उन काव्यों में नीति को भी प्रमुख स्थान मिला है | भक्ति-काल की सभी रचनाओं में इस प्रथ्वी की पावनी गंध मिलती है जशञानाश्रयी शाखा में हिन्दू-मुसलिम एकता और साधारण धर्मनीति का प्रबल पक्ष है | प्र ममार्गी शाखा भी अपने लोक-पक्ष से अछुती नहीं हे। तुलसी में तो लोक-संग्रह का भाव कूट-कूट कर भरा है। उनकी नीति ने शक्ति- समन्वित शील ओर मानवता के भावों का विस्तार किया है। यद्यपि उन्होंने अपना राम-चरित-मानस स्वान्तः सुखाय' लिखा है तथाप्रि वे उसी काव्य को

कला कला के लिए श्रथवा जीवन के लिए ४७

श्रेष्ठ मानते हैं जो सुरसरिता की भाँति सबके लिए. हितकर हो-- कीरति भणित भूति भलि सोई सुरसरि सम सब्न कहेँ हित होई

महात्मा सूरदास ने यद्यपि नीति की अ्रवहेलना की है तथापि उन्होंने बाल्य ओर योवन सम्बन्धी जीवन के मधुमय पत्तों की ओर ध्यान आकर्षित कर जीवन के प्रति आस्था बढ़ाई हैं। रीति-काव्य विशेष रूप से कलापतक्ष की और ही अ्रधिक क्रुका है किन्तु उसमें भी लाल, सूदन, भूषण आदि ने देश ओर जाति-हित से प्रेरित हो कर लिखा है

वर्तमान काल का उदय ही लोक-पक्त को ले कर हुआ दसिश्रिन्द्र युग में देशोद्वार की भेरवी का मन्द स्वर सुनाई पड़ा था। द्विवेदी युग में गुतजी और उपाध्यायजी ने राम-भक्ति ओर क्ृष्ण-भक्ति में मी देश-सेवा की भावना भर दी। गुप्तजी के साकेत के राम देवताओं के हित के लिए नहीं वरन्‌ आर्यों के आदणश को फैलाने के लिए, अवतरित हुए उन्होंने प्रथ्वी को ही स्वग बनाया | गुप्तजी श्रीयमजी द्वारा घन को अपेज्ञा जन को महत्ता दिला कर प्रगति के श्रग्न- दूत बने हैं। मुंशी प्रेमचन्द ने तो भूखे किसानों की जी खोल कर वकालत की है | छायावाद में तज कोलाहल की अवनी' का पलायनवाद ( <इटक्चूशंशा ) रहा है किन्तु उसके दुःखवाद में लोक-करुणा की ज्ञीण छाया श्रवश्य है | इसके अतिरिक्त प्रायः सभी छायावादी कवियों ने लोकहित के प्रवृत्तिममा्ग को अपनाया है। कामायनी' मनु कीं जीवन से उदासीनता छुड़ाती है पंतजी बंधन को ही मुक्ति मानते हैं प्रगतिवाद तो लोक-हित का बीड़ा उठा कर ही आया है किंतु उसका दृष्टिकोण कुछ संकृचित ओर अधिक संघषमय है फिर भी उसने हमारे कवियों में से पलायनबृत्ति को हटाने में बहुत कुछ सहायता दी है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि कला ओर काव्य का ध्येय आदि काल से मानव-हित दी रहा है। कबि लोग जीवन से चाहे जितना दूर भाग कर ख्वम्न- लोक में विचरण करें किन्तु भोतिक आवश्यकताओं का तिरस्कार नहीं कर सकते | पलायनवाद भी यदि थके हुए, सैनिक को किसी एकांत सोरभमय काव्यो- द्यान में क्षणिक विश्राम दे कर जीवन-संग्राम के लिए, तैयार करावे तो वह लोक-

है. 4० प्रअन्ध-प्र भाकर

पक्ष का साधक ही होगा, बाधक नहीं |

सच्ची कला ओर कविता जीवन का तिरस्कार नहीं कर सकती | जीवन के बाहर उसको स्थान कहाँ ? मनुष्य अपने जीते जी 'कोलाहल की अवनी' छोड़ कर उससे बाहर नहीं जा सकता चिर शान्ति मृत्यु का ही पयोय है। कलावाद और पलायनवाद में जो सत्य है वह यह कि मनुष्य के लिए छ्ुधा ओर पिपासा की शान्ति सब्र कुछ नहीं है। 'ै॥ (0९5 ॥0६ ॥५८ ०५ ७८०१ 2०ा८< अर्थात्‌ मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं जीता है। उसके जीवन को सरस ओर जीवन योग्य बनाने के लिए सोंदय और रागात्मकता भी अपेक्षित हैं, किन्तु यह मी ध्रुव सत्य है कि मनुष्य रोटी के बिना भी नहीं जी सकता |

कला कला के लिए है! यह वाद सौंदर्य को महत्ता देता है किंतु सौंदय की साथकता जीवन से है ओर जीवन की साथकता उसको सुसम्पन्न सतत प्रयत्नशील ओर चिरमज्भलमय बनाने में है। जो कला आन्तरिक ओर बाह्य सौंदर्य का सम्पादन कर जीवन को साथकता प्रदान करने में सहायक होती है, वही जन समाज में मान पायगी |

कलावाद के पक्ष में इतना अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि कलाकार को किसी प्रोपेगेंडा का साधन बनने के लिए बाध्य करना कला की हत्या करना होगा कलाकार अपनी स्फूति ओर स्वेच्छा से ही जीवन का हित-साधन कर सकता है। वह यद्यपि अ्रथ के प्रयोजन से परे नहीं हो सकता फिर भी अथ उसका मुख्य ध्येय नहीं होना चाहिए | आथिक लोभ के कारण कला को विक्ृृत करना उसे आदश से गिरना होगा सौंदय कलाकार का मुख्य ध्येय है किन्तु नीति, आचार ओर उपयोगिता को अपना कर उसको सुसम्पन्नता प्रदान करना भी उसके पुनीत कतव्यों में है सौंदय को मज्ञलमय बनाना उसकी प्राण प्रतिष्ठा करना है। यह प्राण-प्रतिष्ठा दक्षिणा के लिए नहीं होनी चाहिए वरन्‌ श्रद्धा-भक्ति से प्रेरित हो कर सच्चा दाक्षिण्य प्राप्त करने के हेतु। कलाकार को प्रयत्शील होना बाञ्छुनीय है श्रेय ओर प्रेय का समन्वय ही सच्ची कला है।

८. एको रसः करुण एव!

रस नो माने गये हैं किन्तु मनुष्य की आत्मा स्वभाव से एकीकरण की ओर अग्रसर होती है। अनेकता के मूल में जब तक वह एकता के दशन न॒करे ले तत्र तक उप्तको सनन्‍्तोष नहीं होता इसी नैसर्गिक प्रवृत्ति से प्रेरित हो आचार्यों ने रसों में एकता स्थापित करने का उद्योग किया है | शास्रों में श्ज्भार को रसराज तो कहा ही हैं; हिन्दी के आचाय कवि देव ने तो उसे सब रसों का मूल माना है-- निमल सुद्ध सिंगाररसु देव अकास अनन्त उड़ि उड़ि खग ज्यों और रस बित्रस पावत अंत मह्ामति घमदत्तजी ने अद्भुतरस को मूल रस के स्थान में प्रतिष्ठित किया है | उनका कथन हैं-- रसे सारश्रमत्कारः सर्वत्राप्यनुभूयते तन्चमत्कारसारत्वे सर्वत्राप्यद्भुतो रसः॥ आचाय शुक्नजी ने सूक्ति और अद्भुत रस का अन्तर बतला कर इस मत का खशडन अवश्य किया है ओर वास्तव में सूक्तियाँ (जैसे--किसीं रमणी को रोते हुए, देख कर यदि कोई कवि कद्दे कि कमल नदी में उत्पन्न होता हैं किन्तु यहाँ कमलों से दो नदियाँ बहती हैं ) अद्भुत रस की उदाहरण नहीं बन सकतीं, फिर भी यह कथन सत्य के अंश से खाली नहीं है; क्योंकि प्रत्येक रस में कुछ अलौकिकता और उदात्त मावना रहती है। इसी प्रकार शान्त के समथक मुनीन्द्र का कथन है सर्वेषु भावेषु शमः प्रधान भवभूति ने करुण रस को ही शीषस्थान का अधिकारी समभा हैं और उन्होंने सत्र रसों को उसी प्रकार करुण रस का रूपान्तर बतलाया हैं जिस प्रकार आवतं, बुदुबुद और तरजक्ञ जल के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं उनके मूल श्लोक का कविवर सत्यनारायण जी कृत भाषा- अनुवाद इस प्रकार हे-- एक करुण ही मुख्य रस, निमित भेद सों सोइ। पृथक प्रथक परिणाम में, भासत बहु ब्रिधि होइ

प्रअन्ध मर भाकर

बुदुबुद॒भैंवर तरंग जिमि, होत प्रतीत अनेक | पै यथाथ में सबनि को, हेतु रू जल एक॥ कविवर भवभूति ने अपनी मान्यता के अनुसार ही अ्रपने उत्तररामचरित में करुण रस को ( उसके व्यापक अ्रथ में ) मुख्यता दी और अन्य रसों का उसके सहारे अज्भ रूप से वणन किया करुण रस में विशेषता प्राप्त करने के ही कारण उसके सम्बन्ध में कह्द गया है कि उनकी लेखनी के चमत्कार के कारण पत्थर रो उठता है श्रोर वज् का हृदय पिघल जाता है; अ्रपि आवा रोदित्यपि दलति वज्ध्य हृदयम; ओर इसी हेतु उनकी कविता देवी भारती का श्रक्भार बनी | प्रायः सभी देशों और कालों में करुणा का प्राधान्य रहा है भारतवर्ष में तो काव्य का उद्गम ही करुणा के गम्भीर स्रोत से हुआ है। महृषि वाल्मीकि का करुणा-कलित कोमल हृदय काम-विहल क्रोश्व के जोड़े में से एक के नशंस वध के कारण पिघल कर काव्य के रूप में बह उठा था--क्रोअद्वन्द्वियोगोत्थः शोकः श्लोकत्वमागतः शोकावेश-वश ऋषि के मुख से जो पहला श्लोक निकला था उसका भाषानुवाद इस प्रकार हैः-- रति-विलास की चाह सों, मदमाती सानन्द। क्रोंचन की जोड़ी फिरत बिहरत जो स्वच्छुन्द || हनि तिन में सों एक को कियो परम अपराध | जुग-जुग लों तोहि मिलहि, कबहूँ बढ़ाई व्याघ जिस करुणा में वाल्मीकीः रामायण का उदय हुआ हैं उसका अन्तःखोत विजयोल्लास के भीतर भी बहता हुआ परिलक्षित होता है। राम- वनवास, सीता-दरण, लक्ष्मणजी का शक्ति से आहत होना, वैसे ही सीता- परित्याग आदि सभी मामिक प्रसद्भ करुणा की स्निग्ध धारा से रखाद्र हैं। महाभारत में यद्यपि रण क्षेत्र का भैरव-गजन सुनाई पड़ता है तथापि उसमें विजित ओर विजेताओं की उभयपत्ञषी करुणा का साम्राज्य है वीरवर अजुन के हृदय की मानवी कोमलता का खोत भगवान कृष्ण के कतव्योपदेश की सिकता के आवरण से सूखा नहीं धरमंराज युधिष्ठटिः और उनके भाई उस

“एको रसः करुण एवं ५१

रुधिरप्रदग्ध साम्राज्य का उपभोग कर सके। महाभारत का अन्त पाण्डवों के शरीरपात में ही होता है |

यूनान के महाकाव्य इलियड ओर उडेसी में भी यही बात है | वहाँ के सोफोक्लीज़, युरिपिडस आदि प्रमुख कवियों की प्रतिभा दुश्खांत नाटकों के लिखने में ही अधिक रमी महाकवि कालिदास की शकुन्तला यद्यपि सुखान्त है तथापि उसमें शापवश पतिपरित्यक्ता नारी-हृदय की गवंमयी वेदना से भरे एक दीर्घ निःश्वास का उष्ण स्पश मिलता है भवभूति की कविता तो पत्थर को पिघलाने वाली करुणा के ही कारण संस्कृत साहित्य की विभूति बनी है शेक्सपीश्रर के श्रोयेलो, हैमलेट आदि नाटकों में मानव-हृदय की विषादमयी छाया गहरी हो कर दिखाई पड़ती है ग्येटे, डांटे आदि यूरोप के प्रमुख कवि अपनी श्रान्तरिक वेदना के कारण, जो उनके काव्य में प्रस्फुटित हुई है, विश्व- ख्याति के भाजन बने हैं

हिन्दी साहित्य-गगगन के रवि ओर शशि सूर और ठुलसी की कविता करुणा से ओत-प्रोत है सूर का गोपी-विरह वियोग श्वज्ञार का अमूल्यतम रल है 'सँदेसो देवकी सों कहियो', 'त्रिनु गोपाल बैरिन भई कुल्ञें', 'नाथ अनाथिन की सुधि लीजें, 'निसि-दिन बरसत नेन हमारे! आदि पद किसी भी साहित्य को गोरव-प्रदान कर सकते है तुलसी ने अपने काव्य में वाल्मीकि की करुणा को पूर्णतया अवतारित किया है। कोमल चित कृपालु रघुराई, कपि केहि हेतु घरी निद्धराई! में सीता का हृदय बोलता हुआ सुनाई पड़ता है

हिन्दी की आधुनिक काव्य-घारा में दुःखवाद का गहरा पुट हैं। प्रसाद जी के मस्तिष्क की घनीभूत पीड़ा अ्रसू के रूप में बरसी है | पंतजी मेघ मारुत के मायाजाल से घिरे हुए. विश्व के निष्ठुर परिवतन से प्रभावित हो कर कुछ उन्मत्त हो जाते हैं ओर उनकी वैयक्तिक करुणा शोषित-पीड़ित मानवता के पत्त- समथन में अपने को भूल जाती है महादेवी वर्मा तो नीर भरी दुख की बदरी” बन कर दुख के आँसू बहाने में ही सुख का अनुभव किया करती हैं साकेत, प्रिय-प्रवास श्रोर कामायनी, जो आधुनिक युग के महाकाव्य कह्दे जा सकते हैं, वियोग के आँसुञ्रों से गीले हो रहे हैं

है प्रअन्ध-प्रभाकर

दुःख का साम्राज्य जैसा साहित्य में हें वैसा ही घम में भी हैं हिन्दू धर्म यद्यपि आनन्द-प्रधान है तथापि उसकी संस्कृति के रक्षक और परिचायक रामायण ओर महाभारत आदि गौरव-प्रन्थ करुणा में आप्लावित हैं। भगवान कृष्ण दुःखातों की पीड़ा का नाश करना स्वर्ग और अपवर्ग से भी अधिक वांछुनीय समभते हैं बोद धर्म ने तो संसार के दुःखों को ही अपनी आ्राधार- शिला बनाया है ईसाई धम उसके आराध्य देव के शूली पर चढाये जाने के कारण करुणाप्रधान है | मुसलमान धर्म को भी कब्रला की घटना विधाद- मय बना देती है। उसका प्रभाव हमारे राष्ट्रीय कवि श्रीमैथिलीशरणजी गुप्त पर गहरा पड़ा हैं उन के काबा और कबला नाम के काव्य में हम हज़रत हुसैन की श्लाघनीय कष्ट-सहिष्णुता का परिचय पाते हैं। जब्न वे अपने विद्रोहियों से अपने तृषात भतीजे के सम्बन्ध में निम्नलिखित वाक्य कहते हैं तब करुणा स्वयं मुखरित सी हो उठती है--

निज हिंसा को, लो, हुसैन का मांस खिलाओ, मेरे रुधिर-पिपासु ! इसे तो नीर पिलाओ।

कारुण्य का यह साम्राज्य हम एक आकस्मिक धटना के रूप में नहीं'ले सकते इसका कोई आ्रान्तरिक कारण भी खोजना होगा संसार में सुख-दुख का इन्द्र तो चलता ही रहता है, किन्तु सुख की अपेक्षा दुःख का अधिक महत्त्व है। दुख के बिना सुख नीरस हो जाता है दुख के कारण ही सुख की महत्ता है। अमिश्रित सुख हमारे मन में ऊबन उत्पन्न कर देता है। सुख से हम को संतोष ओर प्रसन्नता अवश्य होती है, किंठु साथ ही मद ओर विलासिता भी उत्पन्न होती हे। दुख में हमारे द्ृदय के कोमल भाव जाग्रत हो उठते हैं। हम अपने को तो अपना समभते ही हैं किंतु किसी श्रंश में पराये के प्रति भी हम में आत्मीयता के भाव उलन्न हो जाते हैं। द्वोपदी ने भगवान कृष्ण से कहा था कि आपत्तियाँ बार-बार आर्य क्‍योंकि आपक्तियों में उनके दशन होते हैं | वास्तव में दुख हम को सालिकता और सन्माग की ओर अग्रसर करता है दुख के द्वारा इमारे द्वदय की कोमलता ह्टी निखार में नहीं आती वरन हम में थेय की भावना भी पुष्ट होती है। उससे हम अपमे

“एको ससः करुण एवं ५२

हितू और मित्रों के अधिक निकट जाते हैं। 'संपति से विपदा भली जो थोड़े दिन होय' दुख चाहे अपने को हो चाददे दूसरे को उसका आत्मा पर बढ़ा सात्विक प्रभाव पड़ता है। यदि वह हम को होता हैं तब तो वह हमको अपनी न्यूनताश्रों की खोज में प्रबृत्त कर हममें पश्चात्ताप ओर सुधार की भावना जाग्रत करता है | इसके साथ उससे हम में घेय और कष्ट-सहिष्णुता की मात्रा बढ़ती है दुख अगर दूसरे को हो तत्र हममें सहानुभूति की भावना उत्पन्न होती है

दुख की सहानुभूति ही करुणा को मुख्यता प्रदान करती है। करुणा वास्तव में दूसरों के प्रति होती है करुणा के कारण हम उस उच्च भाव भूमि में पहुँच जाते हैं जो कि रस-निष्पत्ति के लिए आवश्यक होती हैं। रसानुभूति के लिए मनुष्य को व्यक्ति के संकुचित कटघरे से बाहर निकल कर उस लोक- सामान्य भावभूमि में पहुँचना पड़ता है जहाँ वह अपने अ्रनुभव को संसार के अनुभ से मिला देता है भाव की अभिव्यक्ति के लिए अनुभूति से अधिक सहानुभूति की आवश्यकता है| इसी सहानुभूति को पारिमार्नित करने तथा परिपक्वता प्रदान करने के हेतु ककण रस को मुख्यता दी गई हैं। करुणा में हमारी आत्मा वास्तविक रूप से विस्तारोन्मुख होती है; जिसके प्रति हमारी करुणा जाग्रत होती है उसको हम अपना ही अ्रंग मानने लगते हैं। आत्मा के इस विस्तार से हमको वास्तविक आनन्द मिलता है। यही आनन्द रस का मूल है | हमारे यहाँ काव्य की आत्मा रस को माना है जो स्वयं आनन्द-स्वरूप है | करुणा का दुख अपनी साल्विकता तथा आत्मा के विघ्तार के कारण आनन्द का विधायक होता हैं। करुणा का हास्य के सिवाय प्रायः सभी रसों के साथ मेल हो जाता हैं, इससे उसकी व्यापकता भी बढ़ी चढ़ी हैं। करुणा माधुय को बढ़ाती ही नहीं वरन्‌ वह स्वयं माधुयमयी हैं। (000 $७८८(८५६ 5085 क्ञाट 005८ 09६ (2 [| 0८ ५७००९५९ '०प४॥५ | दुःख की महत्ता के कारण ही करुणा की महत्ता है।

करुण रस की महत्ता अवश्य बहुत बढ़ी-चढ़ी है किन्तु हम को उसे अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्य समझना चाहिए. जिस प्रकार अभमिश्रित

प्रबन्ध-प्रभाकर

सुख ऊब पैदा करता है उसी प्रकार अमिश्रित दुख असह्य भार बन जाता है। हमारे जीवन का पठ सुख-दुख के ताने-बाने से बना हुआ है। उसमें दोनों का ही महत्व है | करुणा के पुट से सुख उभार में आता है किन्तु यदि निरा पुठ ही पुट हो ओर रंग का अभाव हो तो उस पुण का भी कुछ मूल्य नहीं रहता इसीलिए, हमारे यहाँ नाटकों को दुःखान्त बना कर करुणात्मक ही कहा हैं।

हमारे कवियों ने हम को दुःख के गम्भीर गत॑ में नहीं छोड़ा है वर्न्‌ उसके मद्जलमय पक्ष की ओर भी संकेत किया है दुःख हमारे सुख विधान में सहायक होता हैं ओर हमारी मनोद्धत्तियों को परिमार्जित कर कोमलता प्रदान करता है। करुणा हम को मनुष्यत्व से उठा कर देवत्व की ओर ले जाती है। किन्तु संसार में केवल करुणा ही करुणा नहीं है | जीवन में रुदन के साथ मुस- कान भी है। जीवन में धूप ओर छाँह दोनों ही अपना-अपना स्थान रखती हैं

६, सामाजिक उन्नति में दृश्य काव्य तथा सिनेमा का स्थान

लोकोपदेशजनन नास्यमेतद्‌ मविष्यति --नास्य शाख्र

काव्य के दो विभाग किये गये हैँं--एक श्रव्य, दूसरा दृश्य श्रव्य काव्य की अपेत्षा दृश्य काव्य की कुछ विशेषताएँ हैं श्रव्य काव्य में शब्दों के माध्यम द्वारा समाज का चित्र उपस्थित किया जाता है। उसमें शब्द ही कल्पना को जाग्रत कर हमारे मानस पटल पर चित्र अंकित करते हैं। ये चित्र कभी घँधले ओर कभी स्पष्ट ओर कभी-कभी श्रतिरंजित भी हो जाते हैं। इन चित्रों की अस्पष्टता पाठक श्रोता के संस्कारों तथा सहानुभूति पर निभर रहती है। पाठक के थके हुए या व्यस्त होने के कारण कभी-कभी उसकी कल्पना के कुंठित हो जाने का भय रहता है। ऐसी अवस्था में काव्य अपने को आकषक नहीं बना सकता |

दृश्य काव्य में उपयुक्त कठिनाइयाँ न्यूनातिन्यून रूप में रह जाती हैं नाटक में, तथा आजकल के उसके प्रतिनिधि सिनेमा में, वास्तविकता ' सजीव

सामाजिक उन्नति में दृश्यकाव्य तथा सिनेमा का स्थान पूपू

चित्र हमारे सामने आता है। हमारे सामने केवल शब्द ही नहीं आते वरन्‌ उसके साथ उनके बोलने वाले की भावभंगी की व्याख्यात्मक टिप्पणियाँ भी रहती हैं | नाटक में जीवन की प्रति-लिपि उतार ली जाती है उसमें सिनेमा को अपेत्ञा भी अधिक वास्तविकता रहती है। क्योंकि भाव-व्यंजना के माध्यम केवल शब्द और चित्र रह कर जीते-जागते मनुष्य हो जाते हैं ओर कल्पना को अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता हमारे मन का आकर्षण जितना वास्त- विक घटना से होता है उतना ही नाठक या सिनेमा से | श्रव्य काव्य के लिए मन को एक साम्यावस्था में लाना पड़ता है। दृश्य काव्य स्वयं ही इस अवस्था को प्राप्त कया देता है। इसी कारण भरत मुनि ने नाटक-रूप पाँचवे वेद का निर्माण किया जिसमें कि शुद्रों तथा अशिक्षितों को भी अधिकार रहे ओर उनकी कल्पना को परिश्रम करना पड़े तथा मनोरंजन के साथ शिक्षा भी हो जाय। मत्यलोक के दुःख ही को देख कर नास्य-वेद की कल्पना की गई थी।

नाटक का प्रभाव हृदय पर स्थायी होता है यदि हम किसी बच्चे के मोटर से दब कर मरने का वृत्तान्त पढ़े तो हमारी सहानुभूति श्रवश्य जाग्रत होगी; किन्तु यदि इसी को हम रंगमंच पर घटित होते देखें तो उसका प्रभाव देर तक रहेगा हम सत्य के लिए शहीदों के बलिदान की कथा पढ़ते हैं, किन्तु यदि हम प्रह्माद को पहाड़ से गिरते हुए देखें, खुदा की बादशाहइत को जमीन पर लाने वाले ईसा ओर अनलदहक! कहने वाले मंसूर को सूली पर लटका देखें, हकीकतराय का वध होते अ्रवल्लोकन करें, तो हम पर कुछ ओर ही प्रभाव पड़ेगा नरोत्तमदास का सुदामा-चरित्र बड़ी सुन्दर कविता है; किन्तु हमारे सामने विप्र सुदामा अपने फटे हाल में उपस्थित हो जायें श्रोर हम उस समय की राजनीति के सूत्रधार भगवान कृष्ण को उनके चरणों को प्रत्यक्ष रूप से धोते देखें तो उसका प्रभाव पानि परात को हाथ छुओ नहिं नेनन के जल सों पग घोये से भी अधिक पड़ेगा महाराणा प्रताप की कथा हम पढ़ते हैं, किन्तु यदि हम प्रताप को अपने सामने रंगमंच पर देखें तो घैय, सहन-शीलता ओर वीरता की त्रिवेणी हमारे सामने बहने लगेगी |

यदि हम श्रत्याचारियों का अत्याचार स्टेज पर घटित होते देख लें तो

प६ प्रबन्ध-प्रभाकर

उनके प्रति घणा ओर पीड़ित के प्रति सह्यानुभूति जाग्रत हो उठेगी यूनान ओर रोम में रंगमंच ही बहुत अंश में राजनीतिक मंच का काम देता था हमारे यहाँ बड़े-बड़े उत्सवों पर दशकों के मनोबिनोद ओर उनकी शिक्षा के लिए नाटक खेलने जाते थे नाटक में वीर-चरित्रों के अभिनय से बालकों में वीरता के भावों का संचार

होता है | युधिष्ठिर, राम ओर हरिश्चन्द्र जैसे सत्य-संध महात्माओं के अनुकरण से हमारे द्वृदय में सत्य की प्रतिष्ठा होती है मोरध्वज, शिवि, दधीचि, बुद्ध ओर जीमूतवाहन आदि चरित्रों के दर्शन से हममें त्याग की भावना जाग्रत होती है

ऐतिहासिक नाटकों तथा सिनेमा फिल्मों में भूतकाल हमारे लिए वतमान का रूप धारण कर लेता है ओर उसका चित्र हमारे मन पर अंकित हो जाता है। फिर हमको इतिद्वास की शुष्क भाषा की तोतारटंत की आवश्यकता नहीं रहती

समाज-सुधार के सम्बन्ध में नाठकों ने बहुत काम किया है। बालविवाह तथा बृद्ध-विवाह के दुष्परिणाम, अ्रछूतों की दयनीय दशा और दहेज प्रथा के कारण होने वाली दुघटनाओं को दिखा कर समाज के दृष्टिकोण को बदलने में नाटकों का बहुत कुछ भाग है। उपदेशक का उपदेश इस कान से कर उस कान से निकल जाता है। वह हृदय पर प्रभाव नहीं डाल सकता जब हम सामाजिक कु रीतियों का दुष्परिणाम अपनी श्राँखों के सामने प्रत्यक्ष रूप में घटित होते देखते हैँ तमी हमारा नेत्रोन्मीलन होता है ओर सामाजिक अत्याचार से पीड़ित लोगों के प्रति हमारी सहानुभूति उत्पन्न होती है तभी उनके उद्धार के लिए हम बड़े मनोयोग के साथ यत्नवान हो जाते हैं

श्रव्य-काव्य की शिक्षा साधारण शिक्षा की अपेक्षा मृुदुलतर और अधिक प्रभावशाली होती है। राजा जयसिंह के दरबार में 'नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल' वाले दोहे ने जो काम कर दिखाया वह बड़े-बड़े प्रकांड धर्मापदेशकों का उपदेश नहीं कर सकता था दृश्य-काव्य द्वारा जो उपदेश होता दे वह इससे भी कहीं अ्रधिक प्रभावशाली होता है उत्तर-राम- चरित में एक दूसरा रंगमंच उपस्थित कर सीता के निर्वासन के उपरान्त की कथा का उद्घाटन कर श्रीरामचन्द्र के द्वदय में सीता के प्रति सहानुभूति की

सामाजिक उन्नति में हृश्य काव्य तथा सिनेमा का स्थान पूछ

भावना को और भी तीज किया गया था नाटकों के भीतर नाटक दिखलाने को प्रथा प्रत्यक्ष के प्रभाव को प्रमाणित करने के लिए ह्वी थी

जब मनुष्य अपनी शोचनीय दशा का अनुभव कर लेता है तभी वह सुधार की ओर प्रवृत्त होता है। उसका ज्ञान कराने के लिए. नाठक से उत्तम दूसरा कोई साधन नहीं | इसीलिए सभी सम्य देशों में उसका मान है इंगलेंड में सिनेमा का प्रचार हो जाने पर भी नाटक-गणद्दों में हफ्तों पहले स्थान सुरक्षित करना पड़ता है

नाटकों से उपदेश के अतिरिक्त कला में भी उन्नति होती ढ/। ऐसी कोई कला नहीं जिसका नाटक से कोई सम्बन्ध नहीं नाटक में चित्र-कला, वास्तु कला, रंगों का मिश्रण, आदि सभी कलाएँ था जाती हैं। तभी तो नास्य-शास्त्र में कहा गया है-- तज्ज्ञानं तच्छिल्प॑ सा विद्या सा कला। योगो तत्कम नास्येऊस्मिन्‌ यजत्न दृश्यते॥

नायक द्वारा कलाओं की उन्नति हो कर जाति की समृद्धि होती है। यद्यपि सिनेमा भी नाटक का प्रतिरूप है (वाघ्तव में वतेमान सिनेमा हमारे यहाँ के छाया-नाठकों के, जिनमें चमड़े की पुतलियों की छाया पट पर डाली जाती थीं, विकसित रूप हैं ), तथापि सिनेमा आजकल के शीघ्रता-प्रिय संसार के लिए. अधिक उपयुक्त हैँ उनमें भारी सीन-सीनरी के स्थानान्तरित करने का खटराग नहीं रहता, ओर उनके देखने में समय भी थोड़ा लगता है। इसी लिए, वे शिक्षा के अच्छे साधन हैं। प्रत्येक गाँव में फिल्म दिखलाये जा सकते हैं। सिनेमा के द्वारा देश-विदेश के लोगों की रहन-सहन, उनकी क्रिया-पद्धति आर उनके रीति-रिवाजों का परिचय कराया जा सकता है। बड़े वीरों के साहसिक कार्यों से जनता में साइस की भावना जगाई जा सकती है। सिनेमा के द्वारा खेती के नये-नये प्रयोग तथा शिल्प ओर व्यवसाय के नये चमत्कार ओर बहुत सी वस्तुओं की निर्माण-विधि भी सिखलाई जा सकती है। जहाँ तक यंत्र-सम्बन्धी काय है, वहां तक सिनेमा नाटक से विशेषता रखता है; किन्तु जहाँ तक कला का सम्बन्ध है, कोमल भावों की जाग्रति का प्रश्न है, वहाँ

पद प्रबन्ध-प्र भाकर

नाटक की हो प्रधानता है। सिनेमा के अभिनय में नाटक की सी उत्तरोत्तर उन्नति की गुजायश नहीं रहती एक फिल्म जो बनी वह पत्थर की लकीर हो जाती है। उसमें वास्तविकता का चित्र पूरा नहीं उतरता। हम भूल नहीं सकते कि हम पट पर चित्र देख रहे हैं। सिनेमा का प्रचार होते हुए भी कोमल भावों की जाग्रति तथा समाज का पूर्ण सजीवता के साथ चित्र खींचने के लिए. नाठक की चिरकाल तक आवश्यकता रहेगी। इसलिए कुछ लोग नाटक ओर सिनेमा के सहयोग की बात सोच रहे हैं। सीन सीनरी का काम सिनेमा से लिया जाय ओर अभिनय का काय जीवित पात्र करें। किन्तु इसमें कठिनाई तो इस बात की है कि सिनेमा के लिए. अ्रन्धकार अपेक्षित है ओर नायक के लिए आलोक “नाटकों में त्रिजली की रंग-भिरंगी रोशनी से बड़े प्रभा- वोतादक दृश्य तो दिखाये ही जाते हैं | सम्भव है कि उन्नतिशील विज्ञान प्रकाश ओर अन्धकार के सामझस्य की कठिनाई को भी हल कर दे।

१०, भारतीय नाटकों में शोकान्त नाटक का अभाव

प्रत्येक देश के साहित्य पर उसकी मानसिक संस्कृति का प्रभाव पड़ता है| साहित्य जातीय चरित्र की कुंजी है। जो साहित्य जिस देश में उत्पन्न होता है, उसमें उस देश के लोगों के जातीय विचारों की छाप रहती है। नाटक प्रायः सभी सभ्य देशों में लिखे गये, किन्तु सत्र में अपनी-अपनी जातीय विलक्षणता है | यूनानियों के नाटक में शोकांत नाटकों का मदहत्त है। भारतीय नाटकों में उसका नितान्त अभाव है; केवल 'उरुभंग' नाटक इसका अपवाद है।

यद्यवि यह बात ठीक है कि शोकान्त नाटक अपने गाम्भीयपूर्ण वातावरण द्वारा मन पर अच्छा प्रभाव डालते हैं ओर उनके द्वारा हमारी सहानुभूति जाग्रत होती है तथा मनुष्य जाति की सहनशीलता ओर उसके चरित्र-बल के लिए आदर-माव उत्पन्न होता है तथापि यह प्रश्न रह जाता है कि यदि सजनों का अन्त दुःखमय हो, (दुजनों को दुश्ख में देख कर उन उत्तम भावों की जाग्रति नहीं होती ) _तो ईश्वरीय न्याय कहाँ रहता

मारतीय नाठकों में शोकान्त नाटक का अभाव प्‌

है। दशकों की आत्म-शुद्धि के लिए महापुरुषों का बलिदान क्‍यों किया जाय ओर ईश्वरीय न्याय में क्‍यों कलंक लगाया जाय ? एक उभयतशाश ( [भ|८॥॥9 ) उपस्थित हो जाता है, इधर कुआ्माँ तो उधर खाई। सुखान्त नाटकों में वह गांभीय नहीं रहता, वह चित्त की शुद्धि और आत्मा का विकास नहीं होता जो दुः्बान्त नाटकों में होता है। दुःखान्त नाठकों में इन बातों की जाग्रति के लिए सजनों ओर महापुरुषों को दुःख का शिकार बनना पड़ता है। पाठकों ओर दशकों के हृदय पर दुःख का पुनीत प्रभाव तभी पड़ता है जब्र वे किसी महान आत्मा को संकट में देखते हैं। तभी उनकी सहानुभूति का खोत खुलता है

मामूली चोर-डकेत यदि अदालत में आवे तो उससे किसी विशेष भाव की जाग्रति नहीं होती, किन्तु यदि हम किसी संग्रांत व्यक्ति को अदालत में आते देखें तो एक साथ सहानुभूति का उद्रेक हो जाता है। दशरथ की मृत्यु पर हम आँसू बहाते हैँ, रावण की मृत्यु पर नहीं लक्ष्मण की मूछो हम में एक विशेष कोमलता के भाव नाग्रत करती है, मेघनाद की मृत्यु नहीं यदि करती है तो सुलोचना के कारण डेज़डीयोना की मृत्यु ही हममें सहानुभूति का उद्रेक करती है, इयागो की नहीं | उद्दंड आदमी को यदि पिटते देखें तो कोई मानसिक आधात नहीं होता, चित्त में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होता यदि होता है तो प्रसन्नता का; उस प्रसन्नता के लिए. किसी को गव नहीं हो सकता उसमें हलका- पन है, गांभीय नहीं | इतना ही नहीं, वरन्‌ वह परिवतन प्रतिकार की दुगन्‍्ध से दूषित रहता है। बुरे आदमी के मरने से संतोष होता है, ईश्वरीय न्याय देख कर प्रसन्नता भी होती है, किन्तु उसमें जातीय प्रतिकार का भाव छिपा रहता है। अच्छा हुश्रा', खूब्र बदला मिला' अपने जाल में आप ही फँस गया, उसमें ऐसे भावों की जाग्रति होती है इनसे शिक्षा अवश्य मिलती है किन्तु उसके साथ घणा बढ़ती है और सहानुभूति कम होती है। जो शिक्षा दुजन के दंड से मिलती है वह सजन के सुख ओर वैभव से भी मिलती है। उसमें इस प्रकार से पुरस्कार का प्रोत्साहन रहता है। समस्या यह होती है कि या तो नाटक को दुःखान्त बना कर भावों की शुद्धि ओर सहानुभूति की जाग्रति

६० प्रबन्ध-प्रभाकर

कर लीजिए या ईश्वरीय न्याय की रक्षा कीजिए |

इस समस्या को हल करने के लिए भारतीय नाटकाचार्यों ने ईश्वरीय न्याय की रक्षा के निमित्त नाटक को सुखान्त बनाने का नियम बना दिया ओर भावों की शुद्धि ओर जाग्रति के लिए. कहीं-कहीं उनको करुणात्मक बना दिया; जैसे उत्तररामचरित नाटक में इसमें गांभीय श्रोर ईश्वरीय न्याय दोनों की रक्षा हो जाती है | हिन्दू लोग भाग्यवादी चाहे हों ( उनका भाग्यवाद अन्ध भाग्यवाद नहीं, उसमें भी कम के आधार पर ईश्वर का न्याय लगा हुआ है) किन्तु दुःखवादी नहीं उनके लिए संसार दुःखमय नहीं | संसार में चाहे दुःख हों, आपत्तियाँ आये, संकट उपस्थित हों, किन्तु उन सब्र का अन्त अच्छा है। संसार सुखान्त नायक है

नाटकों को सुखान्त रखने में जातीय भावों का पता चलता है। भार- तीय सुखान्त नाटक भी इस बात के प्रमाण हैं कि भारतीय नाटक दूसरों के अनुकरण नहीं | उनमें हिन्दुश्रों का जो ईश्वरीय न्याय में आराग्नह ओर विश्वास हे वह प्रतित्रिंषित है | हिन्दुय्ों में हिंता ओर प्रतिकार के भावों का यद्यपि अभाव तो नहीं रहा, तथापि ये भाव उनके जातीय-स्वभाव नहीं कहे जा सकते, उनका जातीय स्वभाव अहिंसात्मक है। वे लोग मनुष्य को गाजर-मूली की भाँति नष्ट होते नहीं देख सकते वे दशकों के चित्त को आघात नहीं पहुँचाना चाहते इसलिए: उन्होंने कविता में वास्तविक मरण का वर्णन करना श्लाध्य नहीं माना ओर नाठकों में रंगमंच पर मृत्यु दिखाना निषिद्ध समझा

नाटक का उदय भी मनुष्य जाति की प्रसन्नता के लिए हुआ है। वास्तविक संसार में दुःख काफी है, उसकी मात्रा को कम करने के लिए ही नाटकों का जन्‍म हुआ है ओषध कड़वीं रहे, यहाँ तक तो कुछ ह्वानि नहीं, किन्तु उसको विष बनाना चाहिए.। जिस दुःख की निवृत्ति अथवा कम करने के लिए नाटकों का जन्म हुआ, रचनाश्रों में उस दुःख की वृद्धि करना उचित नहीं | दुःख की जितनी मात्रा आवश्यक हो उसको रख कर अन्त में सुख उत्पक्त कर देना ह्दी नाटक का मुख्य ध्येय रकखा गया है |

यह सब होते हुए, भी भारतीय नाठकों में ककणा ओर शोक की मात्रा

भारतीय नाटकों में शोकान्त नाटक का श्रभाव ६१

की कमी नहीं 'उत्तर-राम-चरित' तो साज्षात्‌ करुणा की शब्दमूर्ति है महाकवि भवभूति ने उत्तर-राम-चरित में करुण रस ही को प्रधानता दी है, और सब रसों को करुण रस का भेद माना है। जिस प्रकार बुदूबुदे, भँवर और तरंग सत्र भिन्न-भिन्न नाम रखते हुए भी जल के ही रूप हैं, उसी प्रकार भिन्न-मिन्न नाम रखते हुए भी सब्र रस करुण रस के ही रूप हैं-- एक करुण ही मुख्य रस, निमित भेद सों सोइ। प्रथक प्रथक परिणाम में, भासत बहु बिधि होइ बुदबुद भवर तरंग जिमि, होत प्रतीत अनेक | पै यथाथ में सत्रनि को, होत रू जल एक हिन्दू कविता का आरंभ ही करुण रस से हुआ है। महर्षि वाल्मीकि को क्रोंच पत्तियों के जोड़े में से बहेलिया द्वारा एक की मृत्यु देख कर जो शोक हुआ वही हिन्दू-काव्य का उद्गम-स्थान बना शोकान्त नाटकों के अभाव से यह समभना चाहिए कि हिन्दुओ्ों के मानसिक संस्थान में शोकजन्य गांभीय के लिए स्थान ही नहीं है। यह बात संध्कृत नाटक उत्तरराम-चरित के अनुवाद के ओर हिन्दी के सत्यहरिश्चन्द्र नाठक के दो एक अ्रवतरणों से स्पष्ट हो जायगी। शंबूक-वध के लिए जन-स्थान में दुबारा आये हुए श्री रामचन्द्र की तीव्र मानसिक वेदना पढ़ने योग्य है-- कैधों चिर-सन्तापज, अ्रति तीत्र विष रस फेलि सत्र तन मार्दिं रोम-रोम छायो है। कैधों घाय कितहूँ ते शल्य को सकल यह बेग सों दवुदय मधि सुददद समायो है॥ केधों कोऊ पूरित मरम घाय खाय चोट तिरकि भयंकर विमल दरित्रायो है। होइ बिरह सोक, घनीभूत कोउ दुख करि जाने विकल मो चेतहू भुलायो है। महाराज रामचन्द्रजी को ऐ,ा दुःख ! यह दुःख उनके सीता-निर्वासन के अपराध को धो कर दशकों के द्ृदय में सहानुभूति के भाव भर देता है।

६२ प्रचन्ध-प्रभाकर

सत्य-हरिश्चन्द्रोे नाटक करुणरस से आज्ञावित हो रहा है। कहाँ महाराज हरिश्चन्द्र ओर कहाँ चाण्डाल-बृत्ति ! कहाँ महारानी शैव्या ओर कहाँ दासी कम ! कहाँ सूय-वंश का अंकुर रोहिताश्व और कहाँ उसके लिए कफन का अभाव | नाटक को पढ़ कर हृदय द्रवित हो जाता है शैव्या का विलाप रोमांच उत्पन्न कर देता है--

“हाय | खेलते-खेलते कर मेरे गले से कोन लिपट जायगा ओर माँ-पाँ कह कर तनिक-तनिकन्सी बातों पर कौन हठ करेगा ? हाय ! में अचच किसको अपने आँचल से मुँह की धूल पोंछ कर गले लगाऊँगी ? ओर किसके ग्रभिमान से विपत्ति में भी फूली-फूली फिरू गी ? हाय ! बिन हाथों से ठोंक-ठोंक कर रोज़ सुलाती थी उन्हीं हाथों से ग्राज चिता पर कैसे रक्खूँगी ? जिसको मुँह में छाला पड़ने के भय से मैंने गरम दूध भी नहीं पिलाया उसे......... |!

देखिए, कैसे ममभेदी शब्द हैं ! किन्तु यदि यहीं पर नाठक समाप्त हो जाता तो हरिश्चन्द्र की महत्ता तो प्रमाणित हो जाती किन्तु हृदय में एक कसक बनी रहती, सत्य के प्रति शायद श्रद्धाभाव में भी धक्का लगता। नाग्क के सुखान्त होने से जी हलका हो जाता है, धर्म में श्रद्धा बदती है, ओर सत्य के के लिए प्रोत्साहन मिलता है कसम खाने के लिए भारतीय-साहित्य में शोकान्त नाटक का नितान्‍्त अभाव भी नहीं है। भास कवि का 'उदुभंग” नाटक शोकान्त नाटक है उसमें दुर्योधन की मृत्यु दिखाई गई है दुष्ट की मृत्यु से ईश्वरीय न्याय की रक्षा तो हो जाती है इसके अतिरिक्त भास ने बढ़े कोशल से दुर्योधन से पश्चात्ताप करा कर एक प्रकार से शान्तिमय वातावरण उपस्थित कर दिया है ओर नाटक में शोक के भाव का शमन हो जाता है आधुनिक हिन्दी नाटकों में यह नियम कुछ शिथिल हो गया है मृत्यु का दृश्य दिखाना निन्दनीय नहीं समझा जाता मिलिंदजी का प्रताप-प्रतिशा नाटक इसका उदाहरण है। प्रातःस्मरणीय महाराणा प्रताप की प्रतिशा अ्रपू्ण रह गई है उनकी मृत्यु के साथ ही नाटक की समाप्ति होती है यह ऐतिहासिक सत्य है कवि ने महाराणा के मुह से अंतिम शब्द कहलाये हैँ---

मैं क्या चाहता हूँ, जानते हो सामन्‍्त ? मैं चाहता हूँ कि इस पीड़ित

भारतीय नाटकों में शोकान्त नाटक का अ्रभाव ६३

भारत वसुन्धरा पर कभी कोई ऐसा माई का लाल पैदा हो, जिसके ह्ृदय-रक्त की अंतिम बूंद इसके स्वाधीनता-यज्ञ में पूर्याहुति दें, इसे सदा के लिए स्वाधीन कर दें; जिसके इंगित पर, बरसों के बिछुड़े हुए कोटि-कोटि भारतीय एक सूत्र में बँध कर सवस्व बलिदान करने मातृ-मन्दिर की ओर दोड़ पढ़े मेरी प्रतिशा तो अधूरी रह गई सामनन्‍्त * हृदय में अतृप्ति की एक आग छिपाये जा रहा हूँ | उफ !”

इसमें समय की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। स्वाधीनता-संग्राम में एक महापुरुष की मृत्यु दिखाई गई है। आत्म-बलिदान के भाव की खूत्र पुष्टि होती है, किन्तु इसमें भी न्याय के भाव में धक्का लगते हुए भी महाराणा के अन्तिम शब्द द्वारा एक शुभ-कामना की मज़्लमयी भकलक उत्पन्न हो जाती है। इसी प्रकार प्रसादजी कृत अजातशत्रु में भी एक कल्याणमयी भावना के साथ महाराज बिम्बसार का अन्त हो कर भारतीय विधान की रक्षा होती है तिंतसार की मृत्यु अवश्य हो जाती है किन्तु वातावरण शांत ओर मज्ञलमय बन जाता है। अजातशत्र का हृदय-परिवतन हो जाता है उसके हृदय में पश्चात्ताप को भावना जाग्रत हो जाती है उस स्थल पर भगवान्‌ की शुभ उपध्थिति सारे वातावरण को मदड्जलमय बना देती है | बिंदसार की भोतिक मृत्यु के साथ उसकी नेतिक विजय होती है अस्तु, भारतीय नाटककारों ने शोकांत नाटक का अभाव रख ईश्वरीय न्याय की रक्षा की है ओर नाठकों में करुणा का पुट दे कर भावों की शुद्धि कर उनमें कोमलता उत्तन्न की है|

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११, एकांकी नाटक, उसका स्वरूप ओर महत्त्त

यद्यपि आजकाल का जीवन संघ ओर प्रतिद्वन्द्धिता-पूण होने के कारण इतिकृत्तात्मक हो गया है, ओर वह अधिकांश में उपयोगितावाद के सिद्धान्तों से शासित रहता है तथापि उसका मार हलका करने के लिए कुछ मनोरज्न अवश्य वांछुनीय समझा जाता है। समय के अभाव के कारण दिल- बहलाव के साथ सामाजिकता, शिक्षाप्रदता, विचारोत्तेजकता, प्रचारात्मकता,

<४ प्रचन्ध-प्र भाकर

ओर जाने किन-किन बातों की माँग रहती है। आजकल के लोग थोड़े समय में अधिक से श्रधिक लाभ चाहते हैं

वैसे तो हम लोगों को ताश, कैरम, शतरंज और क्रास वड पज़ल में समय की सुध-बुध भूल जाते हुए देखते हैं, किन्तु यह अधिकांश लोगों की प्रवृत्ति नहीं इन खेलों को प्रायः वे ही लोग पसन्द करते हैं जो जीवन की घुड़दोड़ से कुछु बच कर चलना चाहते हैं इनमें तो योग की-सी एकान्त साधना है ओर सामाजिकता का अ्रपेन्षाकृत अ्रभाव रहता है टेनिस, फुटबॉल, क्रिकेट, वॉलीबाल आदि में सामाजिकता अवश्य रहती है किन्तु ये दिवालोक में साध्य होते हँ वे कमल की भाँति दिन में ही शोभा देते हैं। आजकल का मनुष्य रात्रि में अवकाश पाता है, सो भी बहुत कम रात्रि में मनोरञ्षन ओर शिक्षा के बहुत से सम्मिलित साधन हैं। उनमें पूरे नाटक, सिनेमा, रेडियो, रेडियोनाटक ओर एकांकी नाटक मुख्य हैं। दिल बहलाने के लिए उपन्यास ओर नाटक भी पढ़े जाते हैं किन्तु उनमें उतनी सामाजिकता नहीं ओर वे कभी-कभी घर की मुर्गी का स्वाद सा देने लगते हैं

उपयेक्त साधनों में पहले हम पूरे नाटक ओर सिनेमा को लेते हैं। नाटक कला की वस्तु है किन्तु चंदन घिसने की माँति इसमें ददसर भी पर्यात्त मात्रा में रहता है। सीन-सीनरी को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना बड़ा कष्ट-प्रद होता है ओर पात्रों के बाहुल्य को सँमालना भी मामूली समस्या नहीं |

पूरे नाटक में पात्रों की भावमंगी, वेशभूषा, चाल-दठाल ओर उछुलकूद जीवन की सजीवता उत्तन्न कर देती है; उसमें अ्रनुकृति नहीं, वरन्‌ सृष्टि का भी आनन्द आता है ओर सामाजिकता भी पर्याप्त मात्रा में रहती है। किन्तु ऐसे नाटकों को खेलने के लिए, तो पर्याप्त साधन हैं और उनके देखने के लिए अवकाश सिनेमा में सीन-सीनरी की चामत्कारिक सुविधा है। नायक में जो सीन स्वप्त में भी संभव नहीं हो सकते, सिनेमा में फोटोग्राफर और चित्रकार की कला से नितान्त सुलभ हो जाते हैँ। किन्तु उसमें हम यह नहीं भूल सकते कि हम वास्तविकता से दो दर्ज हटे हुए हैं। ओर हम ठोस संसार को छोड़ कर पट के

एकांकी नाटक, उसका स्वरूप ओर महत्त्व ६५

छायालोक में विचर रहे हूँ। सिनेमा में समय की बचत अवश्य रहती दे किन्तु उसमें इतनी सामाजिकता नहीं है | उसकी सामाजिकता तो बस इंटवल में ही रहती है अथवा आरम्म की प्रतीक्षा में। इसके श्रतरिक्त उसकी छायात्मकता ओर क्त्रिमता उसको आजकल के मनोरज्ञनों में शीषेस्थान दिलाने में बाधक होती है। उसमें पात्रों ओर दर्शकों का प्रत्यक्ष सम्पक भी नहीं रहता जो ग्रमिनय में एक विशेष गति उत्पन्न कर देता ऐ। सिनेमा का जबरदस्त प्रतिद्वन्द्री है रेडियो आलस्य- भक्तों के लिए. वह देवी वरदान है। उसमें सामाजिकता की अपेज्ञा पारिवारिकता बअ्धिक है; किन्तु जब तक टेलीविज़न ( शै८शंञंणा ) सुलभ हो जाय उसमें केवल भ्रठणु-सुख ही रहेगा | दृश्य को भी श्रव्य बनाने में कुछ कत्रिमता का भी सहारा लेना पड़ता है। रेडियो नाटक ओर फीचर्स सिनेमा की अपेक्षा अधिक व्यापक हो सकते हैं उसकी आवाज़ घर-घर ( जहाँ रेडियो हो ) सुनी जा सकती है श्रोर उसके द्वारा समाज-सुधार भी किया जा सकता है। नव भारत शीषक नाटक-्ड्खला में विष्णु प्रभाकर के जो रूपक सुनाये जाते हैं वे बड़े ही शिक्षा- प्रद ओर मनोवैज्ञानिक हैं। किन्तु उसमें भी सिनेमा की भाँति अभिनेता और सामाजिकों के प्रतिस्पन्दन-पूण सम्पक द्वारा कला की उन्नति की सम्भावना नहीं इसमें तो अभिनेतागण अनुमेय मात्र रहते हैं। नेत्र और श्रवण, दोनों इन्द्रियों के सुख, दर्शक और अभिनेता के प्रतिदान-पूण सहयोग द्वारा कला की उन्नति, अभिनय की अपेक्षाकृत सुलभता, कल्पना के विश्रामदायक आनन्द, सामाजिकता ओर समय की बचत के लिए एकांकी नाटक मनोरञ्लन के साधनों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इनमें सिनेमा ओर रेडियो की श्रपेक्षा साहित्यिकता कुछ अधिक मात्रा में लाई जा सकती है |

साहित्यिक-दृष्टि से भी एकांकी नाटक का कुछु कम महत्त्व नहीं है। एकांकी नाटक कहानी की भाँति जीवन की एक भरलक दिखाता है किन्तु कुछ अधिक सजीवता के साथ। कहानीकार की भाँति एकांकीकार भी अभ्रपने लक्ष्य पर भी निगाह रखता है। वह वीर अजु की भाँति चिड़िया को नहीं देखता, वह केवल उसकी आँख को ही देखता है। आँख के आधार-स्वरूप चिड़िया के सर को चाहे वह देख ले किन्तु उसके आगे नहीं | इन समानताओ्रों के होते हुए

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६६ प्रबन्ध-प्रभाकर

भी एकांकी नाटक कहानी का संवादात्मक रूप नहीं है ओर जैसा चन्द्रगुप्त जी विद्यालंकार ने उसका खाका उड़ाया है, वह प्रश्नोत्तरों द्वारा गलियों में विशापन करने वाले चाचा-भतीजा की सी बात-चीत है। संवाद एकांकी नाटक का मुख्य अज्ग है, किन्तु वह सब कुछ नहीं है। वह उसके अलावा कुछ और भी हे। इसी कारण सभी उपन्पासों या कहानियों का नाटकी-करण सहज में नहीं हो जाता

कहानी ओर एकांकी में केवल संवाद का ही अन्तर नहीं है, संगठन का भी भेद है। कहानियाँ भी घटनाओं ओर पात्रों की आश्रित होती हैं किन्तु उनकी रूप-रेखा की स्वष्टता जितनी नाटक में अपेक्षित है उतनी कहानी में नहीं नाटक में कार्य की प्रधानता रहती है | उसमें पात्रों का व्यक्तित्व श्रधिक निखरा हुआ और घटनाओं की गति अधिक समयानुकूल चलती है | इसलिए उसमें अधिक वास्तविकता रहती है। कहानी में किसी घटना की सूचनामात्र उतनी नहीं अखरती जितनी कि नाटक में। नाटक वास्तविकता की सजीव अनुकृति है

जिस प्रकार कहानी उपन्यास का छोटा रूप नहीं है उसी प्रकार एकाड़ीं भी बढ़े नाटक का लघु संस्करण नहीं है। एकाछ्छी में आकार की सूच्रमता पर उतनी चोट नहीं है जितनी की लक्ष्य की एकता और संगठन की सुधघरता पर साम्य और संगठन की सुधरता का सम्पादन घटना-बाहुल्‍य में भी हो सकता है, किन्तु एकांकी नाठक में वह सुघरता जिस सरलता से लाई जा सकती है वह बढ़े नाटक में नहीं बहुत से साज-सामान से भी कमरा सजाया जा सकता है किन्तु थोड़े से सामान में जो सरलता का सोन्दय रहता है वह सामान के बाहुलय में नहीं उसमें प्रत्येक वस्तु अपने अ्रस्तित्व की साथकता प्रकाशित करने लग जाती है घटनाएँ स्वयं मुखरित हो उठती हैं

एकाड़ी नाटक का कोशल घटनाओं की संख्या मात्र को कम कर देना नहीं वरन्‌ उनके ऐसे चारू चयन में है कि वे सीधा लक्ष्य की ओर ले जाये और अपनी व्याख्या के लिए उनको दूसरी घटनाओं का मुखापेक्षी होना पड़े एकाड्लीकार जीवन की एक भलक ही देता है किन्तु वह कलक द्वॉंडी के चावल की भांति सारे जीवन की तो नहीं किन्तु उतकी विशिष्ठता की अवश्य

एकांकी नाटक, उसका स्वरूप ओर मददत्त् ६७

परिचायक होती है एकाड्ीकार जीवन का जो पहलू प्रकाश में लाता है उसमें व्यक्ति के जीवन की शिक्षा-दीज्ञा ओर व्यक्तित्व की रेच्राएँ एक स्थान में केन्द्री- भूत-सी दिखाई देती हैं बड़ा नाटककार उस चिकित्सक की भाँति है जो नित्य समय पर ऐसी ओषध देता रहता है जिसका इकदठा प्रभाव पड़ता है किन्तु एकांकीकार उस कुशल वैद्य की भाँति है जिसकी स्वल्प मात्रा की पुढ़िया बहुगुणशाली एवं सत्रः फलवती होती है एकांकी में, जेमा कुछ लोग कहते हैं कि चरित्र-चिन्रण की गु जाइश ही नहीं ऐसी बात नहीं, किन्तु उसमें चरित्र क्रमशः गढ़े जाते हुए नहीं दिखाई देते वरन्‌ उसमें गढ़े-गढ़ाये चरित्रों को ऐसे स्थान पर ला कर खड़ा कर दिया जाता है जहाँ पर कि उन पर अच्छे से अच्छा प्रकाश पड़ सके ओर वे पाठक या द्रष्णटा के सामने अपनी स्पष्ट रूप- रेखा में चमक उठें।

एकांकी नाटक में चरित्र परिवतन भी दिखाया जाता है जैसा कि डाक्टर रामकुमार वर्मा के अ्रय्ठारद जुलाई की शाम या रेशमी टाई में। पहले में पत्नी का परिबतन है ओर दूसर में पति का, किंतु वह ऐसी चोट से होता है जो होती तो दे सुनार की तरह धीमी लेकिन काम लोहार की चोट से भी अधिक करती है कभी-कभी एकांकी नाटंककार की सचलाइट ऊपर की भद्दी तहों को भेदती हुई भीतर की किसी सुन्दर तह पर भी प्रकाश डालती है जैसा कि भुवनेश्वर जी के शैतान में हुआ है बुरे आदमियों में भी बुराई की राख के भीतर कहीं मानवता की चिनगारी मिल जाती है एकांकी में केवल चरित्र का विश्लेषण ही नहीं होता वरन्‌ उसके सद्दारे सुधार की भी व्यञ्ञना कर दी जाती है; जेसे अश्कजी के लक्ष्मी का स्वागत में दिखाया गया है कि सेवा के अभि- लाषी माता-पिता एक बहू के बदले दूसरी बहू के स्वागत करने की लालसा में बीमार नाती की भी परवाह नहों करते एकांकी नाटक प्रायः वतमान समाज से सम्बन्ध रखते हैं ओर इसलिए उनकी समस्याएँ हमारे बहुत निकट की ही होती हैं पं० गणेशप्रसाद द्विवेदी का सुहाग की निन्दी नाम का नाटक हमारे सामने वेवाहिक जीवम और प्रेम की समस्या उपस्थित करता है। सेठ गोविन्द- दास जो का स्पद़ों नाम का नाटक हमारे सामने यह प्रश्न उपस्थित करता

ध्प प्रबन्ध-ग्रभाकर

है कि जो र्त्रियाँ पुरुषों के साथ बराबरी का दावा कर उनके क्षेत्रों में स्पद्धा करती हैं, वे कहाँ तक परित्राणशूरता ( (7५४७॥५ ) की अधिकारिणी हैं |

इस प्रकार हम देखते हैं कि-साहित्य-त्षेत्र में एकांकी का अ्रस्तित्व निरथक नहीं इतना ही नहीं वरन्‌ उसके छोटे आकार के कारण उसमें कवित्व आर व्यज्ना की अधिक गुजाइश रहती है। वह कहानी की भांति अपने छोटे मुह से बड़ी बात कह जाता है। एकांकी नाटक में आकार की सूहुमता के कारण संकलन त्रय ( «८८ था८७) का भी अच्छा निर्वाह हो सकता है |

यह मानना पड़ेगा कि यद्यपि प्राचीन काल में हमारे यहाँ (भाण, व्यायोग, अंक, वीथी, गोष्ठी नाव्यरयासक, आदि ) कई प्रकार के एकांकी नाटक थे तथापि वर्तमान नाटकों की मूल प्रेरणा इमको पश्चिम से मिली है। वे अधिकांश में पश्चिमी एकांकी नाटकों के शिल्प-विधान ( €टाएंवृप्र८ ) का अनुसरण करते हैं| इससे एकांकी नाटकों का महत्व घट नहीं जाता है। अन्धानुकरण नहीं होना चाहिए | यह बात नहीं कि पश्चिम की सभी बातें निन्दनीय हैं। एकांकी के मंच-संबंधी संकेतों के विषय में श्री जैनेन्द्र जी का मत है कि जत्र हिन्दी में रंगमंच ही नहीं तो संकेतों की क्या आ्रावश्यकता ? पहले तो यह बात नहीं कि हिन्दी में रंगमंच का नितांत अ्रभाव हो एकांकी नाटकों का तो प्रायः कालेजों में सफलता-पूवक अभिनय हुआ है | उनके लिए, सादे मंच से भी काम चल जाता है। नायक लिखा तो मंच के लिए ही जाता है किन्तु यदि कमरे की चहारदीवारी के भीतर भी पढ़ा जाय तो कहानी की अपेज्ञा हम एकांकी की कथावस्तु को उन संकेतों के सहारे अपनी कल्पना में अधिक जीते-जागते रूप में देख सकते हैँ संकेतों को पढ़ कर हमारी कल्पना उन रेखाओं को मूर्त ओर मांसल बना लेती है ये संकेत यदि नाटक के अभिनय में सद्यायता देते रहें तो पात्रों के चरित्र-चित्रण ओर परिस्थिति के समभाने में भी पर्याप्त सहायक होते हैं क्‍योंकि बाह्य वातावरण चरित्र पर प्रकाश डालता है। कहानी में जो स्थान वातावरण के वर्णन का है वही एकांकी में इन संकेतों का है। एकांकी नाटक समय की आवश्यकताओं की देन है। उसका अलग विशेषत्द

उपन्यासों के अ्रध्ययन से हानि-लाभ ६६

ओर व्यक्तित्र है जो उसे वतमान युग की साहित्यिक कृतियों में स्वतन्त्र ओर विशिष्ट स्थान दिलाता है

१२, उपन्यासों के अध्ययन से हानि-लाभ

मनुष्य स्वाभाव से ही कथा-कहानियों में रझचि रखता है। ब्राल्यकाल में हम राजा ओर रानियों की कथाएँ कितने चाब से सुनते थे! उस समय हमारा मन कल्पना लोक के निवासियों में ही रहता था उन दिनों हमारे लिए कल्पना ओर वास्तविकता में कुछ अंतर था। इमारे समाज का बृत्त भी खून्र विस्तृत था | स्वगलोक की परियों से खेकर स्थार ओर लोमड़ी तक सब उसमें शामिल थे | वे भी हमारी तरह बोलते थे। उस समय हमारी कल्पना- कपोती के पर तक की केंची से कटे थे ओर वह खूब उड़ान लेती थी हमारे किए, यह ध्रुव सत्य था कि एक राजा था ( उसके नाम घाम ओर समय से कुछ प्रयोजन नहीं ), उसके सात लड़कियाँ थीं, इत्यादि

हमारी यही रुचि ओरे प्रत्ृत्ति आजकल के कथा-साहित्य की नननी है अन्तर केवल इतना है कि आजकल बंदर-वँदरिया, लोभड़ी, ऊँट श्रोर श्गाल से हट कर हमारी रुचि मनुष्य समाज में केन्द्रित हो गई है और उसको पूरा विस्तार दे दिया गया है। राजा-रानी की अपेक्षा होरी' किसान में मानवता के दशन कुछ अधिक मात्रा में होने लगे हैं। समाज की सभी श्रेणियों के लोग हमारे कथा-साहित्य के नायक ओर नायिकाएँ बनने का अबाधित अधिकार रखते हैं | इसके अतिरिक्त हम अपनी कथाओं को वाध्तविकता का रूप देने के लिए अधिक प्रयत्नशील रद्दते हैँ। कभी-कभी उसे इतना वास्तविक रूप दे देते हैं कि शहर, गाँव वा व्यक्तिविशेष का नाम ही केवल कल्पित होता है। इस तरह मानव-जीवन का पूरा चित्र हम अपने कथा साहित्य में देखते हैं

यद्यपि प्राचीन समय में उपन्यास एक प्रकार के गद्य का नाम था। तथापि आजकल हम -इस शब्द का अगरेजी के नॉवल (४०४८) शब्द के पर्याय रूप से व्यवहार करते हैं। इसमें प्रायः एक व्यक्ति को केन्द्रस्थ कर उससे

3० प्रबन्ध-प्रभाकर

सम्बन्ध रखने वाले मानव-समाज का चित्रण रहता है। यह चित्रण स्थायी नहीं होता, वरन्‌ प्रगति-शील होता हैं। इसमें विकास, उत्थान, पतन, आवतंन, परिवर्तन, अन्तद्वन्द्द, रुदन, पीड़ा, करुणा-क्रन्दन, हास-विलास, अ्श्रु ओर उच्छु वास, प्रतिद्वन्द्विता, सफलता, असफलता सभी बातें रहती हैं | नाटक की भाँति उपन्यास भी समाज का चित्र है; अन्तर केवल इतना ही है कि नाटक में लेखक का व्यक्तित्व अन्तर्निहित रहता है, इसमें नहीं। लोगों ने इसको जेबी थियेटर कहा है। यद तो स्पष्ट ही है कि उपन्यास मनुष्य की रुचि की वस्तु है | इसका अस्तित्व मनुष्य की अनुकरणात्मक स्वाभाविक प्रवृत्ति में हे इससे मनुष्य का मनोरंजन होता हैं। समय मारी नहीं मालूम होता ओर बेकारी नहीं अखरती

काल-यापन ओर मनोरंजन बहुत साधारण लाभ हैं ! इनके अतिरिक्त जो बड़ा लाभ है वह हमारी सहानुभूति के विस्तृत दो जाने का है। वास्तविक जीवन में सब प्रकार के लोगों के साथ हमारा संपक नहीं होने पाता। गाँव के लोग शहर के जीवन से अ्रपरिचित रहते हैं ओर शहर वाले गाँव के लोगों से विद्य तआलोक से जगमगाती हुईं सब प्रकार की सुखन्सामग्री से सुसज्जित गगन-चुम्बी अ्रद्यालिकाश्रों के निवासी धन-कुबेरों का निविड़ अन्धक्रारमय फूस की भोंपड़ी के निवासी एक गठठे पयाल और काठ की कठोती में सीमित संपत्ति वाले एकाहारी निरीह भिखारी के जीवन से क्या सम्बन्ध ? यदि सम्बन्ध भी होता है तो वह बहुत ऊपरी | बुभुक्षा रूपी दानव के साथ गरीब के बीची- बच्चों के देनिक संघय का हाल धनकुबेर नहीं जानता उपन्यासकार कवि की भाँति जहाँ रवि की भी गति नहीं होती वहाँ पहुँच कर अन्धकार-पूण गुफाओओरों का हाल लिख देता है। वह भोतिक गुफाओं में ही प्रवेश नहीं करता वरन्‌ हृदय-मन्दिर की गंभीर गुफाओं में भी प्रवेश कर हमको विभिन्‍न परिस्थितियों के लोगों के मनोविज्ञान से परिचित करा देता है। हमारा मन थोड़ी देर के लिए उनके मन के साथ एकस्वर हो जाता है। हम कथा के तटयध्थ दशक ही नहीं रहते वरन्‌ किसी एक पात्र के साथ अपना तादात्म्य कर कथा के प्रवाह में बहने लगते हैं। हमारी दया और सहानुभूति की कोमल मभावनाएँ जागरित ओर

उपन्यासों के अध्ययन से हानि-लाभ ७१

जीवित हो जाती हैँ | हममें मानवता का संचार होने लगता है। यदि उपन्यात्त का पात्र हम को वास्तविक जीवन में मिलता है तो उसको हम अपने चिर- परिचित मित्र की भाँति पहचान लेते हैं ओर उसकी कठिनाइयों को समक कर उसके साथ सहृदयता का व्यवहार करने लग जाते हैं। जो लोग मुशी प्रेमचन्द के उपन्यास पढ़ चुके हैं वे किसान के साथ सद्दृदयता का व्यवहार अवश्य करंगे | वे एक सहृदय ग्रामीण कीं भाँति उसकी कठिनाइयों से परिचित हो जाते हैं| गरीब आदमियों की करण पुकार सुनाने में मुशी प्रेमचन्द जेसे उपन्यासकारों ने राजनीतिशों के सभा-मंचीय व्याख्यानों से अधिक उपकार किया है

उपन्यासकार यद्यपि धर्मोपदेशक नहीं होता, तथापि उसका प्रभाव लोगों की नीति ओर आचार-पद्धति पर पड़े त्रिना नहीं रहता उसका उपदेश जीवन की घटनाओरों से प्रमाणित ओर पुष्ट हो कर कोरे सिद्धान्तवाद ओर शास्त्रीय-विवेचन से अधिक प्रभावशाली होता है उपन्यासों में धूर्तीं' ओर पाखंडियों के ब्रिडंबनापूण व्यवहारों का उद्घाटन पढ़ कर हम को ऐसे व्यवहारों के प्रति घरणा हो जाती है | हम स्वयं उनसे बचने का प्रयत्न करते हैं पुलिस के तथा ज़मींदार श्रादि अन्य सत्ताघारियों के अत्याचार का वन पढ़ कर हमकी ऐसे व्यवहार से दूर रहने की प्रेरणा होती है |

उपन्यासों के अध्ययन से जो देश-विदेश का ज्ञान होता है उसते हमारी व्यवह्ार-कु शलता बढती है हम दूसरे लोगों की सफलताओं ओर अ्रसफलताशों से लाभ उठा सकते हैं। कभी-कभी हम उपन्यासों में कुछ सामाजिक समस्याश्रों के हल करने को सामग्री भी पाते हैँ समाज में हम एक दम नई परिस्थिति को उपस्थित कर उसका लाभालाभ नहीं देख सकते, किंतु उपन्यासकार सदा किसी किसी रूप में सामाजिक प्रयोग करता रहता है; जेसे प्रेमचन्दजी के सेवासदन! में वेश्याओं के सुधार की, रवीन्द्र बाबू के गोरमोइन' में संस्कार की श्रपेज्ञा जाति की प्रबलता की तथा रूसी उपन्यास गन्ना कार्नीना' में दाम्पत्य ओर वात्सल्य प्रेम की समास्याओं पर नई परिस्थितियाँ उपस्थित कर प्रकाश डाला गया दै। इस प्रकार उपन्यासकार समाज का पथ-प्रदशक भी बन

७२ प्रबन्ध-प्रभाकर

जाता है। हम उसके पथ-प्रदशन से लाभ उठा सकते हैं

उपन्यास समाज को कुप्रथाश्रों को दूर करने में बहुत-कुछ सद्दायक हुए. हैं। बंगाल के उपन्यासों में ( जेसे शरदूबाबू के अ्रक्षणीया नाम के उपन्यास में ) दहेज की प्रथा के विरुद्ध बहुत आन्दोलन रहा है आज कल के हिन्दी उपन्थासों और कहानियों ने श्रछुतोद्धार में भी थोड़ा बहुत हाथ बँँठाया है। आज-कल के बहुत से उपन्यासों में नारी खतंत्रता को समस्या चल रही है उपन्यासों द्वारा प्रभावशाली आन्दोलन हो सकता है ओर हुआ भी है उनसे जनता की रुचि बहुत-कुछ परिमारजित हुई है

उपन्यास यथाथवादी ( रि८३5६ ) तथा आदशवादी (0८2#5६ ) दोनों प्रकार के होते हैं। यथाथवादी उपन्यासों के विरुद्ध यह कहा जाता है कि वे समाज की कमज़ोरियों का नग्न-चित्र खींचते हैं; जेसा कि जयशंकर प्रसाद! के कंकाल में है उससे पाठक के मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है मानव जाति के प्रति घणा होने लगती है कभी-क्रमी पाठक स्वयं भी वासनाओं की लहर में आन्दोलित होने लगता है हत्या ओर मृत्यु के उपन्यास पट कर बदला लेने की प्रवृत्ति तथा घुणा का भाव बढ़ता है जहाँ अच्छे उपन्यासों से सहानुभूति बढ़ती है वहाँ बुरे उपन्यासों से कठोर वृत्ति का पोषण होता है

इस दोष के परिहार-स्वरूप कई विद्वानों ने कहा है कि मनुष्य में हिंसा ओर घुणा की प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक हैं | ऐसे उपन्यासों के पढ़ने से बिना वास्तविक हत्या हुए. हिंसा-वृत्ति-संबंधी हृदय का उब्नाल निकल जाता है वास्तविक दृत्या से काल्पनिक हत्या निरापद है | यह बात कुछ आअंशों में ठीक भी है, किन्तु ऐसे उपन्यासों को सावधानी के साथ पढ़ना चाहिए हमको उनके बहाव में पड़ कर अस्तित्व को भूल जाने की अ्रपेज्ञा अपनी विवेक-बुद्धि से काम लेना अधिक श्रेयस्कर होगा कहीं-कहीं वासनाश्रों के दुष्परिणाम दिखलाने के बहाने वासनाओं का उच्छ छल वणन होने लगता है | लेखक-गण मनुष्यों की कुरनि से लाभ उठाना चाहते हैं। ऐसे उपन्यासों का प्रचार अवश्य हानिकारक होता हे

यद्यपि कोई भी वासनाओं के जाल से मुक्त नहीं है, तथापि किताबों

उपन्यासों के श्रध्ययन से हानि-लाभ ७३

की त्रिक्री के हेतु उन बातों का आक्षक रूप से वर्णन करना नीति के विरुद्ध है कुछ लोग सुधार का नाम ले कर वासनाश्रों के निराकरण के हेतु उसका ऐसा सजीव वणन करते हैं कि लोग सुधार की बात को भूल कर उन वासनाओरों के वर्णन में अपना चित्त रमाने लग जाते हैं आजकल के युग में शरदत्ाबू, जैनेन्द्रकुमार (सुनीता में ) तथा मगवतीचरण वर्मा ( चित्रलेखा में ) प्रद्नति लेखक समाज के माने हुए पातित्रत सम्बन्धी आदर्शों को टीला करना नीति विरुद्ध नहीं समझते, वरन वे नीति ओर पाप-पुर्य की दूसरे ही रूप से व्याख्या करते हैं शरद्‌ बाबू की स्वामी' नाम की कहानी में पति की क्षमादत्ति का बहुत अच्छा उदाहरण मिलता है, किन्तु उसमें पाप-पुण्य के बीच की रेखा गिराने की चेष्टा नहीं की गई है। यद्याति इसमें इतना सत्य अवश्य है कि समाज के वतमान आदर्शों के कारण अब्नलाओं पर अधिक अत्याचार हुआ है, तथापि इस प्रवृत्ति को इतना बढ़ाना चाहिए कि आपद्‌ घम कतंव्य बन जाय | इस प्रवृत्ति से सामाजिक संगठन को बहुत हानि पहुँचेगी।

आजकल के विश्लेषणवादी उपन्यासकार मनोविज्ञान के नाप्त पर वासना का ही नहीं दमित वासनाओश्ों का भी उन्मुक्त वर्णन करते हैं। यह प्रवृत्ति सुलके हुए लोगों के लिए, तो ह्वनिकारक नहीं कही जा सकती, किन्तु अपरिपक्क बुद्धि वाले लोगों पर इनका बुरा प्रभाव पड़ सकता है

उपन्यासों के अध्ययन से जहाँ समय कटता है ओर मनोरंजन होता है वहाँ ठोस अध्ययन की ओर रुचि कम होती है! लोग आ्रासान की ओर ही अधिक कुत्ते हैं। हमारे अध्ययन में गंभीर ओर साधारण का एक सुखद संतुलन रहना चाहिए | मनोरंजन यदि हमारे मन को गंभीर अध्ययन के लिए तैयार करे तब तो उसकी साथक्रता है और यदि वह हमारे गंभीर अध्ययन का स्थान ले कर उसका बहिष्कार कर दे तो वह अवश्य हानिकारक होगा। हमारे अध्ययन में उपन्यासों का स्थान अवश्य होना चाहिए, किन्तु उसको ऐसा विस्तार देना चाहिए कि ओर किसी बात के लिए स्थान ही रहे। यदि ऐसा होगा तो हमारा मानसिक विकास संकुचित हो जायगा

साका+सतहशूय यार, भेमदाल-सवटसााा8॥ >पार+९५०दप्र-१४+ (ाएचाउडाड-मऋयका

१३, सभ्यता के विकास के साथ कविता का हास होता हे

हम बहुत से शब्दों का प्रयोग उनके अथ पर पूण विवेचन किये बिना ही एक अन्धरूदि से प्रेरित हो करने लगते हैँ सम्यता शब्द भी ऐसा ही है। इसका अथ बड़ा भ्रामक है। इसका कोई निश्चित मापदण्ड नहीं है यूरोप के देशों में सभ्यता का माप मनुष्य की भोतिक शक्ति ओर सम्पन्नता से किया जाता है। कई लोग तो इसकी व्यावहारिक नाप-जोख गन्घकाम्ल (57णापा८ 3८0) की खपत से ओर कई साबुन के उपयोग के आधार पर करते हैं। गगनचुम्बी अद्यलिकाएँ, विद्य॒ त्‌-प्रकाश से जगमगाते हुए विशाल कक्न, शारीरिक सोन्दय को ञ्धिक उभार में लानेवाले कटे-छुंटे वस्र, हिमहास सी अमल-घवल चादरों से आच्छादित रंग-बिरंगे सोरभमय सुमनों से सुसज्जित एवं चमकते-दमकते छुरी- काँटे ओर स्वच्छ प्लेटों से सुसम्पन्न खाने की मेजें, वायु-वेग-विनिन्दित वायुयान, विपुल्ल जनसंह्वारक तोपें ओर विस्फोटक पदाथ, काँटे को काँटे से नहीं वरन्‌ सुई आर तलवार से दूर करने वाली न्याय-व्यवस्था ओर एक दूसरे का गला कायने वाला प्रतिद्वन्द्िता-प्रधान ब्यापार, ये ही यूगेपीय सभ्यता के आधार-स्तम्म हैं

सभ्यता का एक पूर्वी ग्रादश भी है। जो प्रायः जीओ झोर जीने दो' की संतोप-प्रधान नीति पर अवलम्बित है आर जिसमे भोतिक सुख ओर सम्पन्नता की अपेक्षा आदर-सत्कार ओर प्रेम-पूण व्यवहार को अधिक महत्ता दी जाती है। उसके अनुकूल सभ्यता मानवता का पर्याय बन जाती है

लाड मेकाले ने जब सम्यता के साथ कविता के हास की बात कही तत्र उसके ध्यान में पहले प्रकार की भौतिक सम्पन्नता-प्रधान सभ्यता का ही आदश होगा सभ्यता के भौतिक अथ में ही इस लेख का शीषक अधिक साथक होता है।

विज्ञान भौतिक सम्यता का प्रधान साधक ओर विधायक है। इसका भव्य-मवन बुद्धिवाद पर अवलम्बित है विज्ञान में कल्पना ओर बुद्धि है, किन्तु उसमें भावों को स्थान नहीं है। उसके लिए घोर कठोर नियम ही सब्न कुछ हें;

सभ्यता के विकास के साथ कविता का हास होता है ७५.

उनके लोह-चक्र से कोई नहीं बच सकता | विज्ञान ने हमको प्रकृति पर विजयी अवश्य बनाया है किन्तु साथ ही उसने हमारा वह सुखद सम्पक, जो हमारे दासोल्लास का कारण बनता था, बहुत अंश में कम कर दिया है। सूय के स्वास्थ्य ओर स्फूर्ति-वधक प्राकृतिक प्रकाश से वश्चित रह कर हम दिन में भी बिजली की रोशनी जला कर दफ्तरों ओर कारखानों में काम करते रहते हैं प्राकृतिक शीतल मन्द-सुगन्ध समीर का स्थान ब्रिजली के पंखों की वायु ने ले लिया है | हमारे भोजन और हाथों के बीच में भी छुरी-काँटों का कृत्रिम व्यव- धान गया है बफ के बिना हमारो तृपा-शांति नहीं होती विज्ञान ने नई- नई आवश्यकताओं को जन्म दे कर हमको उनका दास बना दिया है। उसकी विश्व-व्यापिनी माया ने हमको यन्त्रारूढ कर स्त्रयं यन्त्र बना दिया है | नई सभ्यता में जीवन को सुखमय बनाने के साधन सुलभ हो जाने पर भी संताग्-यात्रा के प्रारम्भिक उपकरण दुलभ हो गये हैं | विश्रान्तिहीन जीवन की घुड़दोड़ में अपना स्थान सँभाले रखना कठिन प्रतीत होने लगा है। समय की चत करने वाले यन्त्रों के होते हुए भी लोगों के पास समय का अभाव है | काव्य को स्फूर्ति देने वाले प्रकृति-निरीज्षण के लिए. हमारे पास समय है ओर थ्रच॒ प्रकृति के साथ वह सीधा सम्पक है। सम्पक हो भी कहाँ से? नई सभ्यता उपयोगितावाद की मोंक में प्रकृति के ऊपर दिन-दहाड़े आक्रमण कर रही है | मिलों के घुश्रों ने गगन की नीलिमा को आच्छादित कर रक्‍खा है। भोपुश्रों की कण कु दर-भेदी ककश-ध्वनि में पक्षियों का कोमल कलरव विज्ञीन हो गया है नदियों का उन्सरुक्त प्रवाह बन्धनग्रस्त कर दिया गया है। शैल्-श्रंगों पर मोन तपस्वी-से खड़े हुए विशालकाय देवदारु वृक्ष काटे जा कर रेल के सलीपर बनते हैं। प्रथम प्रभात उदय तत्र गगने, प्रथम सामरव तब तपोवने' वाली कवीन्द्र रवीन्द्र की भारत-प्रशस्ति अब अतीत का ही स्वप्न बन गई है। जब प्रकति के साथ सम्बन्ध ही मिटता जाता है तत्र कविता के लिए परमापेत्षित शेष सृष्टि के साथ रागात्मक सम्बन्ध की सम्भावना कहाँ ? जो ब्रात जड प्रकृति के लिए हे वही बात चेतन प्रकृति के लिए भी है बढती हुई प्रतिद्वन्द्विता ओर जीवन की पेचीदगी के कारण मित्र भी शत्रु

9६ प्रअन्ध-प्रभाकर

बनते जा रहे हैँ | उदर की भीषण ज्वाला अन्न भावों के खोतों को सुखा रही है। पैसे के अभाव में आरठेदाल का भाव याद आने लगता है फिर अतिथि- सेवा ओर आदर सत्कार कहाँ ? बुद्धिबाद शआ्रोर प्रतिद्वन्द्रिता के साथ व्यक्तिवाद ओर स्वाथपरायणता बढ़ती जाती है, फिर कविता की उदात्त भावनाएँ कहाँ स्थान पा सकती हैं ? जहाँ सत्र चीज़ों का मूल्य आने पाई में श्रॉका जाय यहाँ भावुकता की पूछ मुश्किल से ही हो सकती है। इसलिए, इस लोहयुग की कठिन भूमि में रसमयी कविता की बेल का पनपना कठिन है

मेकाले के उपयु क्त वाक्य भौतिक सम्यता के सम्बन्ध में कहे गये हैं। सम्यता के आध्यात्मिक अ्रथ में इन वाक्यों की सत्यता प्रमाणित करना दुष्कर होगा, किन्तु भोतिक सम्यता के सम्बन्ध में भी इनको प्रव सत्य मानना कठिन है। पहले सम्यता के विकास और कविता के हास का कोई निश्चित अनुपात नहीं है | फिर नई सभ्यता की हवा से सब लोग एक से प्रभावित नहीं होते हैं। प्रकृति-मेद के कारण कुछ लोग उससे अछूते ही रहते हैं। तुलसी ओर केशव प्रायः समकालीन कहे जाते हैं किन्तु तत्कालीन परिस्थितियों का उन दोनों पर एक सा प्रभाव नहीं पड़ा | आज-कल भी भारत में शुष्क ओर सरस दोनों ही प्रकार के लोग हैं | इंगलिस्तान के वरतमान युग में यदि शेक्सपीयर नहीं पैदा हो सके तो बर्नांडशा, गाल्सवर्दी ओर एच. जी. वेल्स तो हुए, ही हैं। वतमान हिन्दी जगत में यदि सूर ओर तुलसी नहीं हुए तो उनकी छाया ग्रहण करने वाले उपाध्याय और गुप्त तो हुए ही हैं | इस युग ने भी 'कामायनी और 'साकेत! की सृष्टि की है विश्व में अपनी कविता की धाक जमाने वाले कवीन्द्र रीन्द्र आधुनिक काल की ही उपज हैं। मुक्तक ओर गीत के क्षेत्र में महादेवी, पंत ओर निराला अपने काव्य से हमारा अनुरंजन कर रहे हैं

इन सत्र बातों के अतिरिक्त एक बात का हमको स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य जन्र तक मनुष्य है तब्र तक भावों का नितांत हांस नहीं हो सकता, उनके आलम्बन चाहे बदल जायें। छायावादी युग में प्रकृति भावों का आलम्बन रही | अन्न प्रगतिवादी युग में मजदूर ओर किसान कविता के विषय बने हैँ जनता में प्रचार के लिए. नई समस्याएँ अपनी भावात्मक अभि-

हिन्दी कविता में प्रकृति-चित्रण (६6७

व्यक्ति चाहती हैं। केवल बुद्धिवाद के आधार पर जनता कार्योन्‍्मुखी नहीं होती | यदि जाति-याँति के बन्धन छूटते जाते हूँ तो संध्थाओं, संघों, परिषदों ओर क्लबों का सम्बन्ध दृदतर होता जा रहा है प्रकृति से हमारा संपक अवश्य कम हो गया है किन्तु जिन यांत्रिक जड चीज़ों से हमारा सम्बन्ध होता है उनके प्रति हमारा मोह बढ़ता जा रहा है। एक अंग्रेज कवि तो चदरों ओर कम्बलों से भी रागात्मक सम्बन्ध स्थापित कर रहा है--॥6८ ८00| ता0॥॥९55 र् 5९८(5 09९ 50 ४70०05$ 3७४५४ (0०एर/८ इस प्रकार हमको मानना पढ़ेगा कि सभ्यता के विकास के साथ कविता का हांस होता है, इस वाक्य की सत्यता प्र-ति रूप से ही प्रमाणित की जा सकती है किंतु इसको एक ध्रुव सत्य मानना भूल होगी जन्म तक मनुष्य मनुष्य रहेगा तनत्र तक उसके हृदय में किसी किसी प्रकार की कविता के लिए स्थान रहेगा |

१४. हिन्दी कविता में प्रकृति-चित्रण

यद्यवि साहित्य में मानव की अपेक्षा प्रकृति का स्थान गोण है तथापि उसका महत्त्व नगण्य नहीं है मनुष्य प्रकृति की गोद में पला है, वह उसके सुख-दुःख की चिरसंगिनी रही है ओर इस नाते उसके प्रति हमारा सहज आकषण रहता है। यद्यपि उसमें मनुष्य का-सा भावों का प्रतिस्पन्दन नहीं दिखाई देता, तो भी वह हृष-विषादमय प्रभाव से हमारे सुख-दुःख को गहरा या इलका बनाने की सामथ्य रखती है। प्रकृति मनुष्य के क्रीडा-कलाप की चित्रमयी रंग-स्थली है। इसके त्रिना मानव-जीवन का नाटक अधूरा रह जाता है

प्राकृतिक दृश्य अपने शक्ति-सम्पन्न प्रभाव से हमारे सुख-दुःख, हृष- विधाद को हुगुना-चोगुना कर देते हैं। कविवर नन्ददासजी ने अपनी रास- पंचाध्यायी में उड़राज चन्द्रमा को रसराज का सहायक बतलाया है। बिना यप्ुना-पुलिन, घचनद्र-ज्योत्स्मा, मलय-समीर ओर गीत-वाद्य के बृन्दारण्य-विहारी भगवान कृष्ण के दिव्यरास की शोभा फीकी पड़ जाती हे बीहड़ वन, अ्रधेरी

प्रबन्ध-प्रभाकर

रात ओर बादल की गरज हमारे भय को तीव्रता प्रदान कर देती है। विरहिणी ब्रजांगनाओं को कृष्ण के वियोग में सावन की रातें वामन के डगों की भाँति लंबी बन जाती हैं। रात्रि में विरह-व्यथित हृदय के लिए तारागण अपने मिल- मिल प्रकाश से मौन सहानुभूति प्रकाशित करते हैं। चित्र की पृष्ठभूमि की भाँति प्रकृति जब हमारे भावों को तीव्रता प्रदान करने में सहायक होती है तब उस सम्बन्ध के बर्णनों को हम उद्दीपन रूप के वणन कहते हैं। उस समय प्रकृति हमारे राग का मूल विषय नहीं होती वरन्‌ उस राग को गहरा करने का साधन मात्र रह जाती है |

प्रकृति की गोद में पला हुआ मनुष्य अपने अंगों की सोन्दर्य-सुषमा की तुलना के लिए प्रकृति के व्यापक क्षेत्र से उपमान ग्रहण करता है। सारे विश्व में प्रकृति श्रोर मनुष्य के अतिरिक्त है हीं क्‍या ? फिर वह उपमानों की खोज कहाँ करे ? उपमान तो अपने से भिन्न ही होगा इस खोज में वह प्रकृति के साथ एक नया तादात्म्य स्थापित कर लेता है

प्रकृति ओर मनुष्य का सम्बन्ध इतने में ही सीमित नहीं है। प्रकृति अपने नाना व्यापारों द्वारा मनुष्य को कुछ उपदेश दे कर उसके गुरु का भी काम करती है विज्-पुरुष प्रकृति के मोन सन्देश को अपनी भाषा में श्रनुवादित कर उससे प्रेरणा ग्रहण करता है कवि अपनी कल्पना में इससे भी एक पग आगे जाता है। वह प्रकृति में मानवी भावों का श्रारोप कर उससे पूर तादात्म्य प्राप्त कर लेता है। प्रकृति-प्रंयसी को वह अपना ही रूप प्रदान कर अ्रपने रंग में रंग लेता है। छायावाद ने इसी दृष्टिकोण को श्रपनाया है। इमारे कविगण छायावाद से आगे बढ़ कर रइस्यवाद की ओर भी जाते हैं रहस्यवादी कवि प्रकृति में मानवी रूप ही नहीं देखता वरन्‌ उसमें औोर अ्रपने में एक ही आत्मा का आभास पाता है। एकात्मवाद की आधार-शिला पर ही प्रकृति और मनुष्य का तादात्म्य सम्भव होता है। प्रकृति में परमात्मा के दशन होने लगते हैं इस प्रकार साहित्य में प्रकृति-चित्रण के जितने रूप हैं उनमें हम प्रकृति के विषयगत अ्रध्ययन से आरम्म कर उसको नाना रूपों से श्राध्यात्मिकता प्रदान 'करते रहते हैं

हिन्दी कविता में प्रकृति-चित्रण ७६,

हिन्दी-साहित्य में प्रकृति के आलम्बन-रूप से वर्णन बहुत कम हुए हैं वास्तव में संस्क्ृत में भी जो वणन आलम्बन-रूप से हुए हैं उनमें भी मानवी सम्पक है ही मनुष्य अपने बाहर नहीं जा सकता साहित्य में पूर्ण विषयगतता नहीं श्रा सकती; इसलिए आचाय रामचन्द्र शुक्कजी ने भी प्रकृति का जहाँ कवि के निजी उत्साह के साथ संश्लिष्ट वणन देखा है वहाँ उसको आलम्बन- रूप से मान लिया है। आचाय शुक्लजी ने स्वयं प्रकृति का नो वर्णन किया है उसमें आलम्बनत्व अधिक दिखाई देता है :-- भूरी हरी भरी घास, आस-पास फूली सरसों है, पीली-पीलीं बिन्दियों का, चारों ओर है प्रसार कुछ दूर, विरल, सघन फिर और आगे, एक रंग मिला चला गया पीत पारावार पंतजी ने भी शुक्लजी का-सा ही नहीं वरन्‌ उससे कुछु अधिक कलामय रूप से अपनी ग्राम-श्री' कविता में पीली सरसों का वणुन किया है :-- उड़ती भीनी तैलावत गंध, फूली सरसों पीली लो हरित धरा से कॉक रही, नीलम की कलि, तोसी नीली सेनापति आदि कवियों ने यद्यत्रि प्रकृति-चित्रण उद्दीपन-रूप में ही किया है तथापि उनके वणन इतने सजीव और वास्तविकता लिये हुए हैं कि कहीं-कहीं उनमें आलम्पनत्व की कलक जाती है+-- वृष को तरनि तेज सहसो किरन करि, ज्वालन के जाल विकराल बरसत हैं। तचति घरनि, जग जरत भरनि, सीरी, छाँंहि को पकरि पंथी पंछी तभिरमत हं। सेनापति नेक दुपहरी के दढरत, दोत धमका विषम, ज्यों पात खरकत हैं। मेरे जान पोनों सीरी ठोर को पकरि कोनो . घरी एक बैठि कहूँ घामे बितवत हैं॥ प्रसाद ने भवभूति की भाँति प्रकृति के सोम्य श्रोर विकयल दोनों रूपों

८० प्रबन्ध-प्रभाकर

का वर्णन किया है। प्रकृति के रम्य रूप हृदय में उत्साह उतन्न करते हैं श्रोर कराल रूप भय और आतंक | प्रकृति के सौम्य रूपों का वणन तो प्रायः सभी प्रकृति-प्रेमी कवियों ने किया है किन्तु विकराल रूप के चित्रण में विस्‍्ले ही कोशल प्राप्त कर सके हैं | संस्कृत साहित्य में इस काय में भवभूति अधिक सफल हुए हैं। हिन्दी के कवियों में प्रसादजी की कामायनी' में ऐसे बहुत से चित्रण मिलते हैं उधर गरजतीं सिंधु लहददरियाँ, कुयिल काल के जालोंससी , चली रहीं फेन उगलती, फन फेलाये व्यालों-सी धँसती घरा, धघकती ज्वाला, ज्वालामृुखियों के निश्वास , ओर संकुचित क्रमशः उसके, अवयव का होता था ह्ास। हिन्दी के कवियों ने प्रकृति का उद्दीपन-रूप से वणन चिरकाल से किया है रस-रास में चाँदनी ओर मलय-समीर का तथा विरह में ऋतुश्रों तथा बारहमासा का वर्शन इसी प्रवृचि का फल है उद्दीपनन्हूप में प्रकृति की सुरम्य छुटाएँ. सुख की अनुभूति को तीव्र कर देती हैं ओर वियोग में वे ही दृश्य पूर्वानुभूत सुखों की याद दिला कर विरह वेदना को और भी विषमता प्रदान कर देते हैं। प्रसादजी ने मनु ओर कामायनी के मिलने के समय का भावानुरूप प्राकृतिक रूप से अंकित किया हैः-- सश्टि हंतने लगी, आँखों में खिला अनुराग राग रज्जित चन्द्रिका थी, उड़ा सुमन पराग। और हँसता था श्रतिथि मनु का पकड़ कर हाथ चले दोनों, स्वप्न पथ में स्नेह सम्बल साथ। वियोग के दृश्यों से तो भक्तिकाल ओर रीतिकाल का काव्य भरा ही पड़ा है। प्रकृति पूर्वानुभूत सुखों की साक्ञी बन कर हमारी स्मृति को सजीवता प्रदान करती है। स्मृति विरह पर एक प्रकार से सान चढ़ा देती है। विरद् की दशा में सुखद वस्तुएं भी दुःखद लगने लगती हैंः--- “ब्रिनु गुपाल बैरिन भई कुंजें। तब ये लता लगति श्रति शीतल , अब भइ विषम ज्वाल की पुंजें।”

हिन्दी कविता में प्रकृति-चित्रण ष्रश

सूर की गोपियाँ वर्षा-ऋतु के उद्दीपनों पर इतना विश्वास करती हैं कि कृष्ण के लोट आने के कारण उन्हें यह संदेह होने लगता है कि उस देश में वर्षा नहीं होती, मेंढक तथा बक-पाँति आदि वर्षा के चिह्न द्वी वहाँ दिखाई देते हैं | इस पद में गोपियों की विरह भरी खीर प्रकट होती है :-- किधों घन गरजत नहिं उन देसनि किधों वहि इन्द्र हृठिह हर बरज्यों, दादुर खाये शेषनि | किधों वहि देश बकन मग छाँड़थो, घर बूड़ति प्रवेसनि | किधों वह देस मोर, चातक, पिक, बघिकन बचे विशेषनि | वर्षा के घनश्याम को देख कर सादश्य के कारण गोपियों को अपने घनश्याम का स्मरण हो आता है, यह स्मृति उनके विरह को ओर भी उद्दौतत कर देती है, उत्प्रेज्ञा के सहारे बादलों में कृष्ण के सत्र अ्रंग उतर आते हैं।-- ग्राज घनश्याम की अ्रनुहारि | उन आए, साँवरे, सखि री ! लेहि रूप निह्ारि। इन्द्र-घनुष मनो पीत बसन छुत्रि, दामिनि दसन विचारि। जनु बगपाँत मालमोतिन की चितवत चित्त लेत हैं हारि | इस प्रकार स्मृति को जाग्रत करना भी उद्दयीपन का एक रूप हे उपमानों के रूप में प्रकृति का प्रयोग तो साधारण भाषा में भी करना पड़ता है। चरण-कमल, हिम-घवल, भवर-काले, कोकिल-कंठ आदि शब्द इसके प्रमाण हैँ कवि का प्रकृति से जितना गाढ़ा प्रेम होता है उतने द्वी सुन्दर वह उपमान खोज कर निकाल लेता है कवि के उपमान जातीय संस्कृति तथा उसके निजी उत्साह के परिचायक होते हैं। कुछ कवि बंघेबंघाये उपमानों का प्रयोग करते हैं, कुछ नवीन उपमानों से काम लेते हैं ओर कुछ पुरानों में ही नवीनता उत्पन्न कर देते हें बँधे-बंघाये उपमानों में मुख के लिए चन्द्रमा; नेत्रों के लिए. मृग-शावक के से नेत्र, मीन या खंजन; नासिका के लिए तोता; श्रोष्टों के लिए मूंगा, ब्रिम्बाफल ( कुन्दरू ), अन्धूक या दुपह्दरिया का फूल; दाँतों के लिए श्रनार के दाने, कुन्दकली या मोती; बालों के लिए. भौरे, साँप या अन्धकार; सारे शेरीर के लिए, बिजली इत्यादि उपमान श्राते हूँ। सूर ने तो ध्‌

व्र्‌ प्रबन्ध-प्रभाकर

रूपकातिशयोक्ति के सहारे उपमानों का एक बाग सा खड़ा कर दिया हैः -- अदभुत एक अनूपम बाग। युगल कमल पर गजवर क्रीड़त, तापर सिंह करत अनुराग | सूरदासजी कृष्णजी के अधरों कौ लाली के सम्बन्ध में उत्प्रक्ञा करते हैं >-“भनो प्रात की घटा साँवरी; तापर अरुन प्रकाश ।? इस प्रकार अ्रलंकारों में भी प्रकृति और मानव का तादात्म्य हो जाता है। श्री मैथिलीशरणजी गुप्त र्नाभरणों की शोभा के वणन में जुगनुओं का दृश्य उपस्थित करते हैंः-- र्ाभरण भरे अंगों में ऐसे सुन्दर लगते थे। ज्यों प्रफल्ल बल्‍ली पर सौ-सो जुगनू जगमग करते थे ऐसे वणनों में प्रकृति का स्थान गौण होते हुए, भी मुख्यता प्राप्त कर लेता है। मालूम पड़ता हे कि कवि अपने जीवन में जुगुनुश्रों के चामत्कारिक समूह से अवश्य प्रभावित हुआ द्वोगा प्रकृति से उयदेश-ग्रहण की परम्परा बहुत प्राचीन है। गोस्वामी तुलसी- दासजी ने श्रीमद्भागवत के आधार पर वर्षा और शरद के वणन में बहुत से नैतिक तथ्यों को प्रकाशित किया है :-- दामिनि दमक रही घन माँही, खल की प्रीति यथा थिर नाही | बुन्द अधात सह गिरि केसे, खल के बचन संत सह जेसे | इन वरणनों में मूत पदार्थों की अमूत विषयों से उपमा देने की आजकल की प्रवृत्ति है| प्रायः सभी अन्योक्तियाँ इसी प्रवृत्ति का फल हैं। हमारे यहाँ दीनदयालगिरि ने बहुत ती श्रन्योक्तियाँ लिखी हैं कवि तो स्वयं प्रकृति के रंग में कम रंगा जाता है किन्तु वह प्रकृति को भी अ्रपने रंग में सराबोर रंग,देता है। वह अपनी प्रसन्नता के लिए, प्रकृति में मानवी भाव का आरोप कर लेता है इस प्रकार मनुष्य ओर प्रकृति का सम्बन्ध ओर भी घनिष्ठ हो जाता है। मनुष्य जब प्रकृति से सोन्द्य के मान- दण्ड लेता है तब यदि बदले में उसे वह अपने भावों से सम्पन्न बना दे तो कोई आ्राश्वय की बात नहीं | यह श्रादान-प्रदान ही तो संसार में एक-सूत्रता

हिन्दी कविता में प्रकृति-चित्रण दर

का तारतम्य स्थापित करता है। प्रकृति में मानवी भावों के आरोप की प्रवृत्ति कुछ नई नहीं है। जायसी ने प्रकृति को मनुष्य के साथ झलाया है-- सरबर हिया फटत नित जाई टूक-टूक होहके बिहराई ! सूर में भी प्रकृति के मानवीकरण की प्रवृत्ति देखी जाती है। सूर की गोपियाँ मघुबन से पूछती हैं :-- मनुत्नन तुम कत रहत हरे। विरह वियोग श्यामसुन्दर के ठाढ़े क्‍यों जरे ! वे मधुवन को भी अपना सा समभती हैं ओर कृष्ण के वियोग में उसे भी जला हुआ देखना चाहती हँ--कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु-- किन्तु सूर ने प्रकृति के उसी अंश को लिया है जिससे कृष्ण का संबंध था, जायसी की .भाँति सूरज ओर पृथ्वी सबको नहीं बलाया है। सूर ने यमुना का मानवीकरण किया है किन्तु उद्पेज्ञा का प्रयोग कर अ्रतिशयता के दोष से बच गये हैं | . हमारे आजकल के छायावादी कवियों ने प्रकृति को मानवी रंग में रँगने की विशेषता प्राप्त की है यद्यपि यह प्रवृत्ति पुरानी है तथापि इमको शुष्क द्विवेदी-युग में भी श्रीधर पाठक की कविताओं में प्रकृति के मानवी रूप के दशन दोते हैं। उनकी काश्मीर-सुषमा' इसका एक उदाहरण है श्राजकजल तो इस प्रवृत्ति की बाद सी गई है। कहीं सन्ध्या को सुन्दरी का रूपक दिया जाता है जो आफाश से धीरे-घीरे चुपचाप परी की भाँति उतरती है, कट्दीं जुद्दी की कली शिथिल पत्नांक में सोती हुई नायिका के रूप में देखी जाती है श्रोर मलयानिल उसके साथ श्रठखेलियाँ करता है | किरण उषा सुन्दरी के कर का संकेत बन कर पृथ्वी पर आ्राती है, तो करना कान में कुछ गहरी बात कहता सुनाई पड़ता है। प्रकृति का वर्णन करते हुए महादेवीजी ने वसनन्‍्तरजनी को वधू बना कर उसको प्राकृतिक श्रलंकारों से सजाया हैः-- तारकमय नव वेणी-न्धन, शौशफूल कर शशि का नूतन रश्मि बलय सितघन अ्रवगुण्ठन मुकाइल अश्रविराम बिछा दे;

द््ड प्रभन्ध-प्रभाकर

चितवन से अपनी पुलकती वसंत रजनी |

श्री सुमित्रानन्दन पंत ने शारद-हासिन चन्द्र-ज्योत्स्ना को सोती हुई नायिका का रूप दिया है ४--

नीले नम के शतदल पर वह बेठी शारद-हासिन |

मृदु करतल पर शशि-मुख घर नीरब, अनिमिष, एकाकिन

प्रकृति के मानवीकरण का आधार एकात्मबाद ही है। प्राकृतिक रहस्यवाद की आधार-शिला पर ही छायावाद ठहर सकता है। छायावादी कवियों के लिए, प्रकृति में परमात्मा के दशन करना स्वाभाविक ही है। प्रकृति परम तत्व की अभिव्यक्ति बन जाती है यह प्रवृत्ति जिशासा से आरम्म हो कर रूप-सोन्दय के रहस्यवाद तक पहुँच जाती है | प्रसादजी सारी प्रकृति में एक व्यापक जिज्ञासा देखते हैं १--

महानील इस परम व्योम में अन्‍्तरिक्त में ज्योतिमोन गह-नक्षत्र ओर विद्य क्कण किसका करते से संधान |

प्रकृति उनके लिए जड़ नहीं हे वरन्‌ चेतना का शरीर है | इस प्रकार मनुष्य ओर प्रकृति एकात्म तत्त्व में मिल कर एकाकार बन जाते हैं। यही अध्यात्मवाद प्राकृतिक रहस्यवाद के मूल में है। भोतिक को आध्यात्मिकता प्रदान करना ही कला की चरम परिणति है

प्रकृति-चित्रण के इन वास्तविक रूपों के अतिरिक्त कुछ वणन ऐसे भी हुए हैं जिनमें निजी निरीक्षण का तो नितान्त श्रमाव रहता है; केवल नाम परिगणन कर कवि अ्रपने ऊपर से प्रकृति-चित्रण का भार उतार लेता है। केशवदासजी ने विश्वामित्र के यज्ञ की रक्ना के लिए. राम-लक्ष्मण को श्राश्रम के सप्तीप वन की सैर कराई है। वहाँ वे यह भूल गये हैं कि 'एला, लवंग पुंगीफल ओर राजहंस' का विह्दर के जंगलों में होना श्रसम्भव है। कवि सम्राद इरिश्रोधजी ने उद्धव के व्रज नाते समय सारे बृत्चों के नाम गिना दिये हैं, किन्तु त्रज की प्रधान वस्तु करील को भुला दिया है। केशवदासजी ने पंच- बटी के वर्णन में श्रक' शब्द के साथ वहाँ श्रकोश्रों द्वारा प्रलयकाल के सूथ

हिन्दी कविता में प्रकृति चित्रण 3

का प्रकाश करा दिया है। सेनापति ने भी दो-एक स्थानों पर श्लेष का चमत्कार दिखाने के लिए ऋतु-वर्णन किया है। इस प्रकार के वर्णन प्रकृति के वर्णन नहीं कहे जा सकते वरन्‌ श्लेष के ही वर्णन कहे जायँंगे | जत्र तक प्रकृति में मन रमे नहीं, उसके प्रति द्वदय में उल्लास हो, तब तक प्रकृति का वर्णन सहज नहीं है, वरन्‌ कृत्रिम है |

इस प्रकार दम देखते हैं कि वतमान युग प्रकृति चित्रण के सम्बन्ध में अन्य युगों की अ्रपेज्ञा अधिक सम्पन्न है। प्रकृति को जितना आश्रय इस युग में मिला उतना ओर किसी युग में नहीं, प्रकृति-चित्रण में जितना छृदय का उल्लास आधुनिक कवियों में है उतना पिछले युग के कवियों में नहीं। वीर- गाथाकाल में कवियों की दृष्टि मानव विशेषतः राजपूताने के पारस्परिक संघर्ष की ओर अधिक रही | इस काल में यदि प्रकृति का चित्रण हुआ तो अलंकार- विधान ओर कुछ श्ंगार के आश्रित उद्दीपन रूप से भक्ति काल में प्रकृति का वर्णन राम और कृष्ण की विद्र-स्थली के रूप में हुआ अवतारी पुरुषों के सम्बन्ध से चित्रकूट ओर बृन्दावन की लता-कुंजों को भी पावनता मिल गई श्वज्ञारिक उद्दीपनों और अप्रस्तुत योजना में भी. उसका अंकन हुआआा, किन्तु उसको खतंत्र स्थान मिल सका | रीति-काल में उसने बारहमासा और ऋतु-वर्णन का रूप घारण किया | उस काल में प्रकृति के प्रति उतना भी उत्साह रद्द जितना कि भक्तिकाल में था

हरिश्चन्द्र युग में कुछु तो भक्तिभावना की पुनरावृत्ति के कारण ओर कुछ-कुछ बढती हुई राष्ट्रीयता पर रोक थाम होने के कारण प्रकृति की ओर कुछ अधिक ध्यान गया लेकिन उसके प्रति उल्लास उत्पन्न हो सका। द्विवेदीजनी का दृष्टिकोण घोर कतंव्यपरायणता का था। वे प्रकृति के सम्बन्ध तक में श्रालंकारिक रूप से भी श्॒ गारिक शब्दावली से बचना चाइते थे, इस लिए. उस समय के वणनों में वह सरलता झा सकी जो छायावादी युग में आई | भीधर पाठक ओर गुप्तजी फिर भी कुछ सरलता ला सके हैं | छायावादी युग में प्रकृति के चित्रण में »ः गार की दबी हुईं भावनाओं को विकास मिला | कवियों की प्रकृति सहचरी ने उनके निराशा भरे द्वुदयों में' एक नवीन उत्साह

दद प्रबन्ध-प्र भाकर

का संचार किया और उनके जी की ऊब्र को मिठाया यद्यवि प्रगतिवाद के प्रभाव से प्रकृति-चित्रण का कुछ हास हो रहा है तथापि मानव ओर प्रकृति का चिर-सहचार इतना दृढ ओर प्रबल है कि बढ़ती हुईं यांत्रिक सभ्यता भी उसके ऊपर विस्मृति का श्रावरण नहीं डाल सकती

१५, साहित्य ओर जातीयता

साहित्य यद्यपि रचा व्यक्तियों द्वारा जाता है तथापि साहित्यिक व्यक्ति श्रपनी जाति का प्रतिनिधि होता है साहित्यिक ही श्रकेला क्या, होते तो हैं सभी ज्षेत्र के व्यक्ति हाँडी के एक चावल की भाँति अ्रपनी जाति कीं परिपक्वता की मात्रा के परिचायक, किन्तु साहित्यिक में जातीय मनोशृत्ति की छाप इसलिए ओर भी उभर आती है कि वह स्वान्तःसुखाय तो लिखता ह्वी है, उसे अपने भ्रोता और पाठकों का भी ध्यान रखना पड़ता है कवि या लेखक यथासम्भव लोकरुचि से बाहर नहीं जा सकता

साहित्यिक लोकरुचि का प्रतिनिधि होता हुआ भी उसको गति-विधि देने में योग देता है। यदि ऐसा हो तो समाज में उन्नति का द्वार बन्द हो जाय | स्वयं समाज भी स्थिर नहीं रहता उसमें भी नवीन परिस्थितियों की प्रतिक्रियाश्रों द्वारा नवीन विचार उठते रहते हैं कवि या लेखक रेडियो के से आकाशी ( 22४ ) की भाँति उन सूच्मातिसूच्रम तरड्टों को श्रपनी बढ़ी हुई संवेदन-शीलता के कारण ग्रहण कर उनको अ्रपनी कला की श्रभिव्यंजना- शक्ति द्वारा समाज में प्रसारित कर देता है इस काय में कवि नितान्त निष्किय ग्राइक नहीं होता वह अपनी और से भी बहुत कुछ देता है | वह अ्ररुण शिखा ( मुर्गे ) की भाँति, होने वाले प्रभात की, अपनी बाँग द्वारा सूचना ही नहीं देता बरन्‌ सूथ के रथ को भी नई गति देता है। कबीर ने शूुद्रों का पक्ष ले कर हिन्दू मुसलमान दोनों को निर्मीकता-पूर्वक डाँट-फटकार बतलाई जायसी आदि प्रेम मार्गी सूफी कवियों ने अपने समाज की मान्यताश्रों को स्थित रखते हुए हिन्दुओं के प्रति उदारता ओर सोहाद्य का परिचय दिया कृष्ण-भक्त कवियों

साहित्य और जातीयता ८७

ने कृष्ण-प्रेम में पारिवारिक बन्धनों को कुछ टीला किया ओर ज्री-स्वातक्य का सूत्रपात किया उन्होंने शूद्रों की स्थिति को कुछ सुधारा और जीवन के माधुयपक्ष का उद्धाठन कर उसके प्रति आस्था उत्पन्न की | तुलसी ने गोरख, कभीर श्रादि के प्रभाव को कम कर के सामाजिक व्यवस्था की प्रतिष्ठा की ओर वैष्णव ओर शैव सम्प्रदायों में समन्वय-भावना को बढ़ाया भक्त कवियों ने राज्याश्रय का तिरस्कार कर अपना जातीय व्यक्तित्व ही स्थापित नहीं किया वरन्‌ स्वातन्त््य-भावना की भी वृद्धि की भूषण ने श्र गारिक काल में वीर रस को जाग्रत किया सफल कलाकार प्रायः निजी रुचि ओर लोक-रुचि का समन्वय कर लोक रुचि को दो-चार कदम आगे बढ़ाता रहता है वह जातीय रूदियों के गढ में से कुछ वातायन खोज निकालता है, उन्हों में हो कर वह उस गढ़ के भीतर प्रवेश पा जाता है ओर जनता के लिए मुख्य द्वार नहीं तो छोटे-मोटे द्वार खोल देता है फिर कवि या सुधारक का बताया हुआ मार्ग ही पगडंडी का रूप धारण कर लेता है ओर क्रमशः वह राजमार्ग में परिणत हो जाता है

इस प्रकार साहित्य में समाज ओर व्यक्ति का लेन-देन चलता रहता है, फिर भी कवि अपने जातीय भावों की छाप को मिटा नहीं सकता व्यक्तियों की भाँति जाति का भी व्यक्तित्व होता है ओर उसकी विशेष मनोबृत्ति होती है | यद्यपि कुछ बातों में मानवन्द्दरय एकन्सा है तथापि देश-काल के अनुकूल प्रवृत्तियों श्रोर उनकी गति और बल की मात्रा में भेद रहता है| वही जातीय मनोदृत्ति बन जाती है। यह जातीय मनोबवृत्ति भी एकरस नहीं रहती इसका भी जल कभी स्वच्छु, कभी गंदला, कभी फूल पत्तियों और जलजीवबों से संकुल ओर कभी उनसे रहित हो जाता है। जगत ओर संसार का अथ ही परिवर्तन-शीलता है। इस परिवतन-शीलता में सब कुछ नहीं बदलता है। यद्रपि गंगोत्री, दरद्वार, गदमुक्त श्वर, सोरों, फरु खाबाद, कानपुर, प्रयाग, फाशी और कलकत्ते की गंगाजी की धारा ओर जल की निमलता एक-सी नहीं फिर भी वह गंगाजल ही रहता है, इसी प्रकार जातीय मनोबृत्ति बदलती हुईं भी अपना व्यक्तित्व कायम रखती है साहित्य में उसी मनोवृत्ति की छाप रहती है जातीय साहित्य का श्रमिप्राय यही होता है कि उसमें हमको जातीय मनोदत्ति

द्प् प्रबन्ध-पम्रभाकर

का परिचय मिलता है

जातीय मनोद्त्ति की छाया सब प्रकार के साहित्य में एक ही मात्रा की घनता में नहीं रहती; कहीं ज्यादा कहीं कम महद्दाकाव्यों में श्रधिक रहती है। प्रगीत काव्य में व्यक्तित्व का प्राधान्य रहता है, यद्यपि व्यक्ति में भी जाति की भलक रहती है। जिस प्रकार चीता अपनी पीठ पर की चित्तियों को बदल नहीं सकता उसी प्रकार ध्यक्ति भी अपनी जातीय छाप मिटा नहीं सकता विश्व की सम्पन्नता के लिए. उस छाप को मियने की आवश्यकता भी- नहीं है इस प्रकार कवि या लेखक पर बहुत से प्रभाव होते हैं। वह बहुत-सी संपत्तियों का उत्तरा- धिकारी होता है |

कवि मनुष्य है। उसमें मनुष्यजाति की दुबलताएँ ओर कोमलताए होती हैं, जिनमें वह सारे मानव-समाज का साभीदार है। उसकी मनोवृत्ति का बहुत- कुछ अंश जातीय होता है, उस अंश में वह जाति का प्रतिनिधि होता है ओर उसमें समय के अनुकूल बदली हुईं जातीय मनोजृत्ति का बदला हुआ रूष भी रहता है। इसके अतिरिक्त उसके निजी कवित्व की भी छाया रहती है। कवि का निजी कवित्व समाज की मानी हुई गति-विधि को निर्धारित करने में योंग देता है। कविता में सब प्रभाव होते हुए. भी यह उसके कवित्व पर निभर रहता है कि किन बातों को महत्त्व दे | कुछ में मानवमात्र की भावनाओं की ऋलक रहती है, कुछ में, जातीय भावनाओं की छाप रद्दती है ओर कुछ शाश्वत बातों की ओर ध्यान दे कर तत्कालीन समस्याओ्रों को जाति की मनोदृत्ति के अनुकूल अधिक महत्त्व देते हैं ओर कुछ उस काल में आने वाले विदेशी रंग से रँग जाते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं नो सायर सिंह सपूत' की भाँति अपना नया मार्ग खोज निकालते हैं। इन सब रूपों में जातीय मनोद्त्ति का अन्तःखोत बहता ही रहता है

भारत के स्वच्छ उन्मुक्त उज्ज्वल ज्योत्स्नामय तपोवनों में पोषित त्याग ओर आत्मा के वित््तार सम्बन्धी तिद्धान्तों की जो कलक भारतीय साहित्य में मिलेगी वह अन्यत्र नहीं। विदेशी साहित्य में संघ और भौतिक समृद्धि की भावना अधिक है हमारे साहित्य में उस समृद्धि को प्राप्त कर उसके त्यागने की भावना भी प्रबल है। अंग्रेजी साहित्य में ही 28790/5८ |.05( जेसी पुस्तक

साहित्य श्र जातीयता पद

सम्भव थी। हमारे यहाँ ईश्वर की प्रतिद्न्द्रिनी कोई प्रधान शक्ति नहीं है। हम लोगों में विद्रोह की भावना प्रबल है भी नहीं। मूर्ति-पुजा के विरोध के कारण मुसलमानों में नाटक का विकास हो सका हिन्दुओं में ईश्वरीय न्याय की भावना अधिक प्रत्ल है इसलिए, हमारे प्राचीन साहित्य में दुःखान्त नाठकों का अभाव रहा |

हम और देशों की जातीय मनोबृत्ति को ले कर भारतीय मनोबृत्ति की विशेषताओं पर ही ध्यान देंगे भारतीय मनोवृत्ति की मूल धाराएँ संक्षेप में निम्न प्रकार हैं | उनकी कलक हमारे साहित्य में स्थान-स्थान पर मिलती है

(१) आध्यात्मिकता--आत्मः की अ्रमरता में विश्वास, आवा* गमन की भावना, भाग्यवाद से प्रभावित पुरुषाथवाद, भोतिकता की अ्रपेक्षः आध्यात्मिकता को महत्व देना आदि बातें इसके अंग हैं

(२) समन्वयबुद्धि-- घम, अथ, काम को अविरोध भाव से महत्त्व देना ज्ञान भक्ति की एकता; ज्ञान, इच्छा और क्रिया का मेल, आदि इसके ही रूप हैं

(३) अहिसा--यद्मपि युद्धादि वर्णनों में हिंसा का प्रचुर वर्णन है तथापि मदहत्त अहिंसा, क्षमा, दया आदि सालिक गुणों को ही दिया गया है

(४) आनन्दवाद--दुःख को बोद्ध धम में अधिक महत्त्व मिला है किन्तु दुःख से निवृत्ति ओर स्थायी आनन्द की प्राप्ति यहाँ का मूल ध्येय रहा है | वतमान युग में कुछ परिस्थितियों के कारण ओर कुछ पाश्चात्य प्रभाव ओर बौद्ध धम के पुनरुत्थान से हमारे साहित्य में दुःखवाद का प्राधान्य हो गया है | वतमान कविता में दुःखबाद को अधिक आश्रय दिया अवश्य जा रहा है, किंतु उसमें भी आनन्द की भलक देखी जातौ है |

(५) प्रकृति-प्रम--भारतीय आध्यात्मिकता प्रकृति की विरोधिनी नहीं है वरन्‌ भारतीय विचार-धारा में प्रकृति आध्यात्मिकता की पोषिका के रूप: में स्वीकृत हुई है | हमारे यहाँ दोनों का सुन्दर सामंजस्य रहा है

हमारी जातीय मनोद्गत्ति का परिचय हमको वाल्मीकीय रामायण, रघुवंश महाकाब्य, शकुन्तला, उत्तररामचरित नाटक आदि ध, रायः सभी प्राचीन साहित्य में प्रचुर रूप से मिलता है ओर वर्तमान काल का भी साहित्य उनसे बहुत अंश

प्रबन्ध-प्र भाकर

में प्रभावित है। वाल्मीकीय रामायण, के आ्रादि में जो श्रादर्श पुरुष के लक्षण हें, वे भारतीय मनोबृत्ति के अनुकूल हैं। रघुवंश में जो सूयबंशी राजाश्रों के गुणों का उल्लेख हुआ है, उनमें भारतीय आरदर्शों की पूरी कलक पाई जाती है-- त्यागाय सम्भतार्थानां सत्याय मितभाषिणाम्‌ | ' यशसे विजिगीषूणां प्रजाये णशहमेधिनाम्‌ शैशवे5मभ्यस्तविद्यानां योवने. विष्यैषिणाम्‌ वाद्धक्ये मुनिवृत्तीनां योगेनानते तनुत्यजाम्‌॥ रघूणामन्वयं वच्ये तनुवाग्विभवोडपि सन्‌ | अर्थात्‌ दूसरों को दान देने के लिए ही जो सम्पन्न बनते थे ओर सत्य के लिए हद्वी जो थोड़ा बोलते थे ( मिथ्याभिमान के कारण नहीं ), यश के हित ही विजय करते थे ( धन ओर राज्य छीनने के लिए, नहीं ), सन्तानोलत्ति कर पितृ- ऋण चुकाने के लिए. ही ( कामोपभोग के लिए नहीं ) जो ग्रहस्थ बनते थे, जो शैशव काल में विद्याध्ययन करते थे और योवन में विषयों की इच्छा करते थे, वृद्धावस्था में मुनियों की बृत्ति धारण कर लेते थे श्रोर जो योग द्वारा स्वेच्छा से शरीर छोड़ते थे ( श्राज-कल की भाँति रोगेणान्ते तनुत्यजाम' नहीं थे ) ऐसे रघुवंशियों के कुल का मैं ( कालिदास ) वर्णन करता हूँ, यद्यपि मेरे पास उनके योग्य वाणी का वैभव नहीं है | इस श्रवतरण में भारत की जातीय मनोबृत्ति का बड़ा सुन्दर चित्र है | नश्वर शरीर के तिरस्कार की भावना रघुवंश आदि काव्यों में प्रचुरता से मिलती है गुरु की प्रसन्नता के लिए. नन्दिनी गो की शेर से रक्षा के देतु मद्दाराज दिलीप कहते हैं कि यदि तुममें कुछ अहिंसा की मनोवृत्ति दे तो मेरे यश-शरीर पर दया करो, नाश होने वाले पंचभूतों के बने हुए, पिण्ड में मुक्त जैसे लोगों की आस्था नहीं होती किमप्यहिंस्यस्तव चेन्मतो5ह यशः्शरीरे भव में दयालुः एकान्तविध्व॑सिषु मद्विधानां पिण्डेष्वनासथा खल्लु भोतिकेषु कब्रीर, दादू , सूर, तुलसी तो सन्‍त और भक्त ही थे, उनमें वैराग्य हो तो कोई आ्राश्चय नहीं, परम “शज्भारी कवि बिद्दारी में भी संधार के प्रति मोह नहीं

साहित्य श्रोर जातीयता ६१

था, वे भी उसमें एक परमात्मा के रूप को प्रतित्रिम्बित देखते हैं अ्रावागमन की भावना हमको रघुवंश, कादम्बरी, नेषध आदि श्रनेकों साहित्य ग्रन्थों में आ्रोत-प्रोत मिलती है। शकुन्तला-दुष्यन्त जेसे पारस्परिक आकर्षण का श्राधार भी जन्मान्तर सम्बन्ध ही माना गया है। पतिब्रत की भावना ( उसके लिए, आज-कल के लोग चाहे जो कुछ कहें ) हमारे साहित्य में प्रचुरता से पाई जाती है सीताजी निवांसित होने पर भी रामचन्द्र को दोषी नहीं ठह्दरातीं; वे अपने भाग्थ को ही उसके लिए. उतरदायी ठहराती हैं-- '्रमैव जन्मान्तरपातकानां विपाकविस्फूजथुरप्रसह्यः आर यही संड्ुल्प करती है कि प्रसूति-काय से निवृत्त हो कर वे सूर्य की ओर दृष्टि लगा कर उनसे यही प्राथना करेंगी कि जन्मान्तर में भी राम ही पति रूप से प्राप्त हों ओर तब उनके साथ सम्बन्ध-विच्छेद हो 'भूयो यथा मे जननान्तऊरेपि त्वमेव भर्ता विप्रयोग? पूर्वी देशों में अलझ्लार-प्रियता कुछ अधिक है; जिस प्रकार भारतीय नारियाँ श्राभूषणों को हमेशा पसन्द करती आई हैं बैसे ही कविगण भी कविता को श्रलड्भारों से सजाने का प्रयत्न करते रहे हैँं। इसीलिए, जितने भाषा के अल- डर पूर्वी साहित्य में मिलते हैं उतने पश्चिमी साहित्य में नहीं। समन्वय बुद्धि का परिचय हमको प्राचीन साहित्य में ही नहीं वरन्‌ नवीन साहित्य में भी प्रचुरता के साथ मिलब्ा है साकेत' के राम प्रृथ्वी को स्व बनाने आये थे; वे तोड़ने नहीं, जोड़ने श्राये थे ! प्रसाद जी की कामायनी' का, समरसता और समन्वयवाद में ही श्रन्त होता है श्रद्धा मनु को पवतराज कैलाश पर ले जा कर वहाँ ज्ञान, इच्छा ओर क्रिया को पहले प्रथक्‌ रूप से दिखाती है, फिर उसकी मुसकराहट से वे तीनों चक्र मिल कर एक हो जाते हैं। उसी में प्रसादजी ने शिव के दशन किये हैं ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है इच्छा क्‍यों पूरी ही मन की, एक दूसरे से मिल सके यह तिडम्बना है जीवन की। महा ज्योति रेखा सी बन कर श्रद्धा कीं स्मृति दोड़ी उनमें; वे सम्बद्ध हुए फिर सहसा जाग उठी थी ज्वाला जिनमें

६२ अबन्च-प्रभाकर

स्व॑श्न॒ स्वाप जागरण भस्म हो इच्छा क्रिया शान मिल लय थे; व्य अनाह्मत पर निनाद में भ्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे। समन्वयवाद आनन्दवाद दोनों एक ही श्राध्यात्मिकता के प्रतिफलन है श्रात्मा सदा विस्तारोन्मुखी होती है। वह सदा अनेकता में एकता ओर एकता में श्रनेकता चाहती है यही समन्‍्वयवाद है। और यही श्रानन्दवाद का मूल है। भूमा वै सुखम पूर्णता में सुख है। काव्य की आत्मा रस भी हम को उसी भूभा या पूणता की ओर ही ले जाता है | जो आत्मा विस्तार चाहती है वह हिंसा को भी आश्रय नहीं दे सकती अहिंसावाद को हमारे साहित्य में बड़े महत्त्य का स्थान प्राप्त है इसी कारण रघ्धमञश्च पर हमारे यहाँ मृत्यु का दृश्य वर्जित किया गया है। नागपश्चमी को सर्पो को भी दूध पिलाया जाता है। ये सच बातें अहिसात्मक मनोबृत्ति की परिचायक हैं महात्मा गांधी ने अहिंसावाद को और भी पुष्टि दी। उसकी छाया हमारे नवीन काव्यों में जेसे साकेत-संत' और बैदेही वनवास में भरपूर दिखाई पड़ती है भारतवष पर प्रकृति की विशेष कृपा रही है यहाँ पर ऋतुएँ समय- समय पर आती हैं ओर अपने अनुकूल फल-फूल का सुजन करती हैं धूप और वर्षो के समान अधिकार के कारण यह भूमि शस्यश्यामला हो जाती है। यहाँ की नदियाँ इस देश की पावनता को ओर भी बढ़ाती हैं। वे सदा कवियों के उल्ज़ास का विषय रही हैं। सूर्योदय और सूर्याशत्त अपनी स्वणंभय आ्राभा से आकाश को रंनित कर देते हैं। प्रथम प्रभात उदय तब गगने प्रथम साम-रव तब तपोवने यहाँ के पशु-पक्नी, लता-गुल्म ओर वृक्ष तपोबनों के जीवन का एक अंग बन गये थे तभी तो शकुन्तला के पतिगह जाते समय महर्षि करव वृत्तों से भी उसके जाने की आज्ञा चाहते हैं पीछे पीवति नीर जो पहले तुमको प्याय। फूल 'पात तोरति नहीं गहने हू के चाय जब तुम फूतनन के दिवस आवत हैं सुखदान | फूली श्रद्ध समाति नहिं: उत्सव करत महान

यतंप्रान हिन्दी कविता की प्रगति ६३

सो यह जाति शकुन्तला आज पिया के गेह। ग्रश्ञा देहु पपान की तुम सब सहित सनेद यद्यपि पीछे के कवियों का प्रकृति-वणन परम्परा-पालन मात्र रह गया था फिर भी हमारे यहाँ बिना प्रकृति-वर्णन के कविकम पूरा नहीं होता है

१६, वरतेमान हिन्दी कविता की प्रगति

दिंदी कविता का वर्तमान युग भारतेन्दु बाबू दरिश्चन्द्र से आरंभ होता है | हस काव्य-गगन के नवेन्दु में विकास की आस भरी हुई थीं। यद्रपि बाबू हरिश्चन्द्र ने ब्रजभाषा में दी कविता की थी तथापि उन्होंने उतध्षमें सार- युक्त और शक्तिपूण प्रयोग कर एक प्रकार की नवीनता उत्मन्न कर दी थी। उनके सत्प्रयत्न से ब्रजभाषा का संकुचित वातावरण मुक्तोन्मुख हो गया था। उन्होंने श्रलंकारों श्रोर नायिका-मेद के संकुचित बृत्त से निकलने के लिए, देश भक्ति ओर समाज-सुधार के द्वार खोल दिये ये। अ्रगरेजी राज्य के विस्तार के साथ जीवन की प्रतिद्वन्द्रिता बढ़ी श्रोर युक्तिताद का जमाना आया। दो सम्यताओं के परस्पर संपक के कारण विचारों को भी उत्तेजना मिली। स्वामी दयानन्द और राजा राममोहन राय के विचारों ने देश में रूटिवाद के गढ़ ढाने का काये आरंभ कर दिया था| जो लोग प्रवाह में नहीं पड़ना चाहते थे, उन्होंने भी अपनी प्राचीन प्रथाश्रों की रक्ला के लिए युक्तिवाद का सहारा लिया विचार-स्वातन्य और युक्तिवाद की भेरी बजने लगी |

इसका भाषा पर भी प्रभाव पढ़ा | साहित्य में गद्य की वृद्धि होने लगी। ब्रजभाषा गद्य के लिए अश्रनुपयुक्त थी खड़ी बोली उठ खड़ी हुईं | ब्रजभाषा श्गार के बाहुलय के कारण रतिश्रान्ता अजबनिता” की भाँति सोती रही खड़ी बोली साहित्य की भाषा हो गई | फिर लाघव और सुगमता का प्रश्न आया गद्य ओर पद्म की एक सी भाषा द्ोने की माँग हुई। इस माँग में श्राचार्य महावीरप्रसाद द्विप्लेदी अग्रसर हुए

खड़ी बोली के प्रथम आचाय होने का भेय द्विवेदी जी ओर भीधर

हेड अबन्ध-प्रभाकर

पाठक को है। द्विवेदी जी ने कविता में भी व्याकरण के नियमों का पूर्णतया पालन किये जाने पर जोर दे कर निरंकुश कवियों को भी श्रंकुश के शासन में लाने का प्रयत्न किया इसके साथ-साथ उन्होंने कविता के ज्षेत्र में राष्ट्रीय भावों का समावेश करने का प्रोत्साहन दे कर उसमें इतिवृत्तता का प्राधान्य कर दिया | भावुकता कुछ कम हो गई शशगार से ऊबे हुए युग में मावुकता की कमी होना आश्रयजनक था। कई कारणों से खड़ी बोली कविता के प्रारभिक रूप में कुछ ककंशता भी थी। स्वयं द्विवेदीजी पर कुछ मराठी का प्रभाव था ओर यह प्रभाव उनकी प्रारंभिक कविता में कलकता है। पीछे से वे स्वयं सँभल गये ओर दूसरों को भी उन्होंने सँमाल लिया वर्तमान कविता की प्रगति का अध्ययन दो दृष्टियों से किया जा सकता है एक भाषा ओर शैली की दृष्टि से दूसरा विचार की दृष्टि से खड़ी बोली पर उदू, हिन्दी और संघ्कृत सभी का प्रभाव रहा है। इसलिए, उसमें सभी शैलियाँ अपनाई गई हैं। खड़ी बोली और उदू का पारिवारिक सम्बन्ध है उदू खड़ी बोली के आधार पर बनी है उद्‌ की बहरों में वह ठीक बैठ सकती थी पं० अयोध्यासिंह उपाध्याय ने बहरों की प्रणाली में कविता की भी हे | देखिए--- बात कैसे बता सके तेरी, है मुह में लगे हुए ताले। बावले बन गए. बोल सके , बाल की खाल कादने वाले | इस शैली में व्यापकता अवश्य जाती है, इसको हिन्दू मुसलमान दोनों ही समझ सकते हैं; किन्तु हिन्दी के व्यक्तित्व के जाते रहने का भय रहता है | आकार का बहुत प्रभाव पड़ता हैं उद्‌ के आकार में हिन्दी उदू हो जाती है इस प्रभाव से बचने के लिए संस्कृत छुन्दों का प्रयोग किया जाता है। द्विवेदी जी ने इस प्रवृत्ति में अधिक प्रोत्साहन दिया कुछ स्वामी दयाननन्‍्द के प्रभाव से ओर कुछ जातीयता के प्रचार से संस्कृत का अ्रधिक प्रचार हो चला था, क्योंकि संस्कृत में जातीय संस्कृति शकरावेष्टित मुरब्बे की भाँति

वर्तमान हिन्दी कविता की प्रगति ६५

सुरक्षित थी | संस्कृत के वणवृत्तों का व्यवहार होने लगा इसमें तुक से तो स्वतंत्रता मिल गई किन्तु वर्णों की नाप-तोल का बंधन मात्रिक छुंदों से भी बढ़ गया | कविवर सुमित्रानन्दन पंत के शब्दों में यह कहना ठीक होगा कि वर्णवृत्त ऐसे समास, सन्धि ओर विभक्िप्रधान शब्दों के लिए ही उपयुक्त हैं जो कि एक दूसरे के साथ कंघे से कंधा मिला कर ठसे हुए. चलते हैं इन छांंदों का फल यह होता है कि क्रिया केवल हिन्दी की रह जाती है ओर लंबे-लंबे समास- युक्त शब्द संस्कृत के हो जाते हैं पं० अयोध्यासिंद उपाध्याय में यह प्रवृत्ति पूरी तौर से दृष्टिगोचर होती है उनका प्रिय-प्रवास कहीं-कह्दीं बिलकुल संस्कृत का ग्रन्थ हो गया है देखिए --

रूपोद्यान-प्रफुल्ल-प्राय कलिका राकेन्दु-बिम्बानना

तन्वंगी कलहासिनी . सुरसिका क्रीडाकला-पुत्तली

शोभावारिधि की अमूल्य मणि सी लावश्य-लीलामयी |

श्री राधा मृदु-भाषिणी मृगहगी माघुय-रुन्मूर्ति थी॥

इस शैली में इतना गुण अवश्य है कि ऐसी रचनाएँ महाराष्ट्र, बंगाल, गुजरात आदि संस्कृत-प्रधान भाषा-भाषियों की सम्रक में सुगमता से श्रा सकती हैं। पर हिन्दी छुन्दों में शब्दों को क्रीड़ा ओर नतेन के लिए. बहुत गुंजाइश रहती हे उन छुन्दों में उनकी चपलता श्रोर सुन्दरता कायम रह सकती है आज-कल वीर छुन्द का बहुत आदर है खड़ी बोली की कविता रोला, सवैया, हरिगीतिका आदि सभी छन्दों में हुईं हे कुछ कविता ख्याल और लावनी के ठंग पर भी हुई है श्रीधर पाठक, गोपालशरण सिंह, मैयिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, रूपनारायण पांडेय आदि कवियों ने मात्रिक और वर्ण॑वृत्त दोनों प्रकार के छुन्दों में कविता की, ओर कहीं-कद्दी श्रतुकांत कविता कर कविता को स्वतंत्रता की श्रोर बढ़ाया हिन्दी छुन्दों में कवित्त में श्रधिक स्वतंत्रता है, क्‍योंकि उसमें मात्राश्नों की गिनती नहीं होती अक्षरों की गिनती होती हे निराला जी श्रोर पन्‍त जी ने अक्षरों की गणना का भी नियम रख मुक्त छुन्द की सृष्टि की | उसमें मुक्त सरिता की सी लय-ताल-मय गति रहती है, प्रवाह ही उसका नियम है ऐसे ही छुन्द को रबड़ छुन्द कहते हैं |

६4 प्रबन्ध-प्रभा कर

विजन-वन वल्लरी पर

सोती थी सुहाग भरीं स्नेह स्वप्न मग्न

अमल कोमलतन तरुणी जुहदी की कली,

टग बन्द किये शिथिल पत्नांक में

खड़ी बोली में माधुय लाने के लिए, संस्कुत ओर ब्रजभाषा के शब्दों का व्यवहार किया जाता है खड़ी बोली जो उदयकाल में थी अब नहीं है अब उसमें संस्कत के शब्दों का पुट अधिक रहता है | कहीं-कहीं भाषा बिलकुल बोल चाल की भी रहती है | संस्कृत के जो श्रुतिकढ्ध शब्द होते हैं उनकी कमी की जा रही है, भ्रुतिमघुर शब्दों का प्रयोग हो रहा है खड़ी बोली की कविता अधिक संगीतमय होती जा रही है विचार के क्षेत्र में खड़ी बोली की कविता सबतोमुखी हो कर अपना

अधिकार जमाती जा रही है। वतमान युग की तीन मुख्य विशेषताएँ हैं; देश- भक्ति, मानवगौरव तथा आन्तरिकता, ओर यही वर्तमान कविता को प्रभावित कर रही हैं। देश-भक्ति की जिस धारा का उद्गम भारतेन्दु जी से हुआ था उसने सारे देश को प्लाबित कर दिया है। इसकी छाप सभी प्रकार के साहित्य पर पड़ी है। देशभक्ति के प्रभाव से प्राकृतिक वणुनों को भी उत्तेजना मिली है। पं० श्रीधर पाठक की 'काश्मीर-सुषमा में देश के शोमामय गोरव की झलक मिलती है। वत॑मान कविता में प्रकति का वन उद्दीपन रूप की अपेक्षा आहलंबन रूप से श्रधिक होता है। अब प्रकृति का वर्णन प्रकति के लिए ही होने लगा है ओर प्रकृति तथा मानव-समाज का बहुत कुछ आदान-प्रदान दिखाई देता है। नक्षत्र अनन्त के इंत्कंपन ओर फूल प्रकृति के हास बन गये हूँ। प्रकृति में ईश्वरीय सत्ता का प्रमाण देखा जाने लगा है। मेथिलीशरण गुप्त, सनेद्दी, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा आदि कवियों ने प्राचीन गोख-गरिमा, जातीय एकता, भारतमाता के शक्ति-शाली विशालतामय सोन्दय ओर संगठन आदि भावों का प्रचार कर देश में उठते हुए राष्ट्रीप भावों को पुष्टि की है। वर्तमान कविता में दुःखबाद का एक अ्रन्तः्खोत बह रहा है; यद्यपि उसमें राष्ट्रीयता प्रत्यक्ष नहीं दे तथापि उसमें देश के ऋन्‍्दन की प्रतिध्वनि

वर्तमान हिन्दी कविता की प्रगति ६७

है | श्राधुनिक कविता में प्रकृति भी दुःख से व्यथित दिखाई पड़ती है--

गगन के उर में भी है घाव,

देखती ताराएँ भी राह,

बंधा विद्युत छवि में जलवाह,

चन्द्र के चितवन में भी चाह,

दिखाते जड़ भी तो अपनाव,

ग्रनेल भी भरती ठंडी आह

वर्तमान युग में भगवान्‌ रामचन्द्र ओर कृष्णुचन्द्र की भक्ति की पवित्र

भाँकी भी दिखाई पड़ती है, किन्तु उसमें राष्ट्रीय भावों की कलक गई है पं०।अ्रयोध्यासिह उपाध्याय ने श्रीकृष्ण जी के प्रवास से दुःखी गोपिकाओं का करुण क्रन्दन सुनाया है, किन्तु 'प्रेयप्रवास' के कृष्ण विलासी नहीं हैं; वे दीनों के रक्षक ओर सहायक के रूप में बतलाये गये हैं। इसी प्रकार भ्रीरामचन्द्रजी पारिवारिक जीवन के आदर्श ओर संगठन की मूर्ति हैं। बाबू मैयिलीशरण जी ने साकेत' में रामोपासना की धारा को आगे बढ़ाया है। हनुमानजी से लच्ब्मणजी को शक्ति लगने का ह्वाल सुन भरत जी ने तुरंत सेना तैयार करा कर भ्रातृ-स्नेह का परिचय दिया | सेना की तैयारी का वणन बड़ा उत्साहपूर्ण है। जिस प्रकार महारास के लिए गोपिकाएँ घर से निकल भागी थीं उसी प्रकार अयोध्यावासी रात ही में घर से निकल आये | गुरुवर वशिष्ठ जी ने दिव्य-दृष्टि से सब्न हाल दिखा कर सेना भेजना अनावश्यक कद्द दिया यद्यपि इस युग में मुक्कक प्रगीत काव्य का प्राधान्य है तथापि कुछ उत्तमोत्तम महाकाव्य भी लिखे गये हैं। साकेत ओर प्रिय-प्रवास का ऊपर उल्लेख हो चुका है। कामायनी इस युग का गोरव-अन्थ है उसमें ज्ञान, इच्छा ओर क्रिया के समन्वय का संदेश है। साकेत-संत ओर वैदेही-बनवास गांबी जी की शांति-नीति से प्रभावित हैं। आजकल के महाकाव्यों में गम्भीर विचार-विमश के साथ प्रगीत तत्त्व भी पर्या्त मात्रा में रहता है। साकेत', कामायनी” वैदेही-वनवास सब्न में सुन्दर- सुन्दर गीत आये हैं|

ब्रजमाषा भी नितांत सोती नहीं रही श्री सत्यनारायय, भ्री र्नाकर

हद प्रचन्च-प्र भाकर

ओर श्री विश्रेगी हरि ने ब्रजमाषा की बड़ी मनोरम कविता की है। रत्नाकर जी ने उद्धवशतक' में तो अधिकतर ब्रजभाषा की प्राचीन प्रथा को ही कायम रक्‍्खा है, किंतु 'गंगावतरण' में कुछु नवीनता आरा गई है। उन्होंने गद्भावतरण के श्ंत में भारतवर्ष की मंगल-कामना के लिए, देवताओं से प्राथना की है ।' श्रीसत्यनारायण जी ने ब्रजभाषा में राष्ट्रीय भाव लाने का सराहनीय उद्योग किया है-- ठिमटिमाति जातीय ज्योति जो दीप शिखा-सी। लगत बाहरी ब्यारि बुभन चाहत अबला-सी शेष रहो सनेह को, काहू ढिय में लेत कासों कहिए. गेह को, देसहिं में परदेस भयो श्रव जानिए, श्री वियोगी हरि ने भक्ति का पाठ पढ़ाते हुए भी वतमान आवश्य- कताओं के अ्रनुकूल वीर रस सम्बन्धी ७०० दोहे लिख कर वीर सतसई' का निर्माण किया | इस तरह ब्रज भाषा भी राष्ट्रीय प्रभाव से मुक्त नहीं रही वर्तमान युग की शेष दो विशेषताएं अर्थात्‌ मानव-गोरव ओर आंतरिकता यद्यपि सभी कविताओं में न्‍्यूनाधिक रूप से वतमान हैं तथापि वह छायावाद में विशेष रूप से दिखलाई पड़ती हैं | शेली के सम्बन्ध में हम देख चुके हैं: कि निराला जी के हाथ में छुंद्द ने पूण स्वच्छुन्दता प्रास कर ली है। उस शैली में विशेष कर रहस्यवाद की कविता हुई है ओर अ्रन्य विषयों को भी जो कविता हुई है उसमें एक प्रकार की आंतरिकता, स्वच्छुदता ओर श्रनन्तता, जो आध्या- त्मिकता से प्रभावित है, दिखाई पड़ती है। छायावादियों के जो प्राकृतिक वर्णन होते हैं उनमें प्रकृति मानवीय भावों से श्रोत-प्रोत दिखाई देतो है। उनमें कटी छुँटी सीमा नहीं दिखाई पड़ती, छुन्द की स्वतन्त्रता रहती है। रहस्यआद ओर छायावाद एक ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के फल हैं। वास्तव में छायावाद पर कई प्रव्त्तियों का प्रभाव लक्तित होता है | वैष्णवों के गेय गीत जिनका सूर ओर तुलसी के बाद अन्त-सा हो गया था, श्रंगरेजी कवियों के. -भावात्मक पद (972८5 ), उद्‌ कवियों का विरद-बणन, रवीन्द्रनाथ ठाकुर. की आध्यात्मिक,

बतमान हिन्दी कविता की प्रगति ६६

कविताश्नों का आदर, यूरोप का भोतिक ऐश्वर्य से ऊब कर आध्यात्मिकता की भोर कुकना ओर द्विवेदी युग की घोर कियात्मकता, इतिबृत्तता ( ०४४८ ८0८55 ) ओर शुष्कृता की प्रतिक्रिया में प्रेम ओर कोमल भावों की जाग्रति--इन सब के प्रभाव से रहस्यवाद का उदय हुआ। |

रहस्यवाद में गू गे के गुड़ की भाँति आत्मा और ईश्वर के सम्बन्धों का संकेतात्मक वर्णन रहता है | इसमें वियोग का दुःख ओर मिलन का सुख दोनों ही दिखाये जाते हैं | इसीलिए, इसमें आलोक ओर छाया दोनों रहती हैं झोर नीहार को सी अ्रस्पष्ण्ता जाती है। श्रो जयशह्डर प्रसाद, श्री निरालाजी, ओर श्री पन्‍तजी इस सम्प्रदाय के प्रतिनिधि कवि सम्रके जाते हैं। श्रोमती महादेवी वर्मा ने अपनी नीहार रश्मि, 'सांध्यगीत' ओर दीपशिखा' में बड़ी सुन्दर आध्यात्मिक कविता की है

वतमान कविता की आन्तरिकता ने आत्माभिव्यक्ति का रूप धारण कर लिया है | कविता में एक निजीपन गया है। यह बात वतमान कविता को रीतिकाल की कविता से प्रथक्‌ कर देती है रीति-काल की कविता खाना- पूरी मात्र है आजकल की कविता में व्यक्तित्व का प्राधान्य है, इसी कारण उसका क्कुकाव प्रबन्ध की अपेक्षा मुक्तक की श्रोर अधिक हे

वर्तमान कविता पर माक्सवाद और गांधीवाद दोनों का ही प्रभाव है किन्तु

गांधीवाद का प्रभाव कुछ अधिक है। कामायनी में सरल जीवन की पुकार श्रोर यान्त्रिक सभ्यता का विरोध है। साकेत में निष्क्रिय प्रतिरेध की छाया है ओर अधिकारों की माँग है। साकेत-संत ओर वैदेही-वनवास आदि नवीन महाकाव्यों में गांधीजी का शांति का संदेश है |

इसी आन्तरिकता के फलस्वरूप ग्राज-कल अमूर्त भावों का भी सुन्दर चित्रण दोने लगा है | कामायनी में चिन्ता को अभाव की चपल बालिके' 'तरल गैरल की लघु लद्दरी' कह कर उसका कैसा सुन्दर चित्रण किया है

श्राधुनिक कबियों ने मानव-गोरव भी खूब गाया है। श्रव कविता के विषय राजा और रानी नहीं रहे) श्रब तो दीन-दुखिया, दलित, पतित,, कुरूप, भ्रमजीवी ओर पेट और पीठ की एकता रखने वाले श्रकाल-पीड़ित लोगों में एक

प्रबन्ध-प्रभाकर

« .. सौंदय देखा जाता है। मनुष्य को मनुष्य होने के नाते गोरव दिया जाता है। श्रानकल की कविता में निवृत्ति की अ्रपेज्ञा संसार-सेवा के प्रबृत्ति-मार्ग पर अधिक बल दिया जाता है। बन्धन को ही मुक्ति फे रूप में स्वीकार किया जाता है--

हैरी मधुर मुक्ति दी बन्धनँ | --पंत

वतमान कविता में कहीं-कहीं रूटिबरद्ध नेतिक भावनाओं से मी विरोध प्रकट किया है। यह स्वतन्त्रता का श्राधिकक्‍्य है। आधुनिक युग की नवीनतम कविता समाज के दलितॉ-पीड़ितों का पक्त ले कर प्रगतिवाद की श्रोर जा रही है। इसमें कट्ु यथाथंवाद का प्रभाव अ्रधिक है। प्रगतिवाद ने यथाथवाद के सहारे जीवन की वास्तविकताओं की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है किन्तु उसका क्षेत्र किसान मजदूरों में ही सीमित है वह हमको वर्ग-संघ की श्रोर ले जाता है। किन्तु श्रब उसके प्रति भी प्रतिकिया होती जा रही है। पंतजी जैसे मनीषी कबि आध्यात्मिकता ओर प्राचीन संस्‍्कृति को श्रोर कुकते जा रहे हैं। वे पाश्चात्य जीवन-सौष्ठव के साथ पूर्वी जीवन-दशन चाहते हैं। स्वतन्त्रता के साथ अन्‍्तरांष्रीय क्षेत्रों में भारत के शान्ति-दूत की गोरवपूर्ण स्थिति की भलक वर्तमान कविता में आती जा रहो है

बतमान कविता में छुन्द की स्वतन्त्रता के साथ कविता के विषयों का भी विस्तार हुआ है। वर्णनों में नवीनता गई है इसमें भविष्य के लिए शुभ लक्षण दिखाई देते हें

१७. वतमान हिन्दी कविता में अलंकारों का स्थान

यद्यपि कुछ आचार्थों ने अलंकार को काव्य की आ्रात्मा माना है, तथापि बहुमत से काव्य की आत्मा रस' श्र्थात्‌ श्रास्वादनजन्य श्रानन्द माना गया है। झलंकारों को 'उत्कषदेतवः अर्थात्‌ अ्च्छाई को बढ़ाने वाला कहा है। किन्तु काव्य के अलंकार सोने-चाँदी के श्रलंकारों की भाँति भिलकुल ऊपरी नहीं हैं जो पीछे से जोड़े का सके। उनका रस से घनिष्ठ सम्बन्ध है, किन्तु रस

बतमान हिन्दी कविता में श्रलंकारों का स्थान १०१

बिना अ्रलंकारों के सम्भव है पर अलंकार बिना रस के निमूल्य हो जाते हैं। वे श्रच्छाई को बढ़ा सकते हैं, किन्तु जहाँ अ्रच्छाई हो वहाँ वे उसे उत्पन्न नहीं कर सकते श्रच्छाई को भी तभी तक बढ़ा सकते हैं जब तक कि वे उचित सीमा का उल्लंधन करें सीमोल्लंघन करते ही वे भार-स्वरूप हो जाते हैं। कविता में पहले जान चाहिए तब अलंकार उसकी शोभा बढ़ा सकते हैं। बिना जान की कविता में अलंकार शव का श्टगार-स्वरूप बन जाते हैं। जहाँ स्वाभाविक सोन्दय है वहाँ अलंकार स्वयं जाते हैं, क्‍योंकि जिस द्वदय के उल्लास से रस की सृष्टि होती है वही उल्लास अपने साथ अलंकारों को भी उत्न्न करता है, किन्तु जहाँ उल्लास का अभाव हो ओर अलंकार केवल पांडित्य प्रदशन के लिए लाये जायें वहाँ वे अस्वाभाविक हो जाते हैं

यद्यपि अलंकार-प्रियता मनुष्प में स्वाभाविक है; तथापि जब वे साधन से साध्य बन जाते हूँ तब वे काव्य की गति में बाधक द्वोते हैं। जिस प्रकार अब समाज में रमणियों की शोभा उनकी स्वच्छुता ओर सरलता में समभी जाती है--सरलपन ही उसका मन--श्रीर थोड़े पर इलके ओर सुन्दर आभूषण काम में लाये जाते हैँ, उसी प्रकार कविता की भी शोभा उसकी स्वाभा- विकता में समझी जाती है, ओर अलंकार भी थोड़े परन्तु द्भदयग्राही ही उसकी शोभा को बढ़ाते हैं कविता में अलंकार का नितान्त बहिष्कार तो नहीं हो सकता, क्योंकि अलंकार हमारी क्‍या सभी भाषाश्रों के श्रंग हो गये हैं | हम 'कविता-कामिनी,, शहलक्ष्मी,, नरशादूल, दम भरना, हाथ मारना, खींचतान' आ्रादि श्रनेकों श्रालंकारिक शब्दों का पद-पद पर प्रयोग करते हैं, स्वयं पद-पदा भी एक अलंकार है |

अलकार शब्द वा अश्रथ के चामत्कारिक प्रयोग माने गये हैं। श्रथ के व्यक्त करना भाषा का सबसे बड़ा चमत्कार है इसलिए जो अ्रलंकार श्रथ को व्यक्त करने में सहायक होते हैं, जो हमारी कल्पना के सामने मूर्तिमान चित्र श्रंकित करने की क्षमता रखते हैं, जो अलंकार किसी अज्ञात भाव के ज्ञान ओर परिचय के क्षेत्र में लाने में योग दे सकते हैं, श्रथवा जो स्वयं बहाव में जाते हैं वा जो कविता की गति को सुन्दर बनाते हैं, उन्हीं का श्रादः

१०२ प्रचन्ध-प्रभाकर

है | अलंकार साधन मात्र हैं, साध्य नहीं अब शब्दों के चमत्कार की श्रपेत्ञा भावों के प्रभाव को श्रधिक महत्त्व दिया जाता है लोगों को शब्द जाल में फाँसने का उद्योग नहीं होता अब यमक और श्लेष का आदर नहीं रहा आजकल “गन जड़ाती" ते वै नगन जड़ाती* हैं', तीन बेर खाती ते वै तीन बेर४ खाती हैं' की उतनी महिमा नहीं रही ओर वह सुधाधर" तू हूं सुधाधर* मानिए द्विजराज* तेरे द्विजराज राजें! में सॉंदय की श्रभिव्यक्ति देखी जाती है अ्नुप्रासों का मान ज़रूर है, क्योंकि उनका सम्बन्ध कविता की गति से है श्रनुप्रासमय वाक्य सुनने में कानों को सुखद श्रोर उच्चारण में सुनभ प्रतीत होते हैं एक से शब्दों की श्रावत्ति के कारण श्रवण-तन्तुश्रों ओर मुख की पेशियों में परिवर्तन करने का परिश्रम नहीं करना पड़ता सजा सुमनों के सोरम हार, 'नवल प्रवाल', म्लानमना', वारि-विहारं, तरल-तरंगों,” गरज गगन के गान, धूम-घुआरे' 'काजर-कारे', 'कुसमित काननो आदि सुन्दर श्रनुप्रास मिलते हैं। वतमान कविता में शब्दालंकारों की वृथा भरमार नहीं है, किन्तु उनका नितान्त अभाव भी नहीं है यत्र-तन्र शाब्दिक चमत्कार देखने में जाते हैं

युग उड़ जावे उड़ते उड़ते।

+ + +

“इन्दु पर उस इन्दुमुख पर, साथ ही

थे पड़े मेरे नयन, जो उदय से,

१, नगन न्‍"नग का बहुवचन, रत्न; जड़ाती -> गहनों में जड़वातीं २. नगन ++ नग्न, बस्तरों के अभाव से; जड़ाती "-जाड़े में मरतीं ३. तीन बेर >+ तीन बार; सुबह, दोपहर, शाम ४, तीन""गिनती के तीन; बेर ( उस नाम का फल ) ४. सुधाधर > सुधा + धर, सुधा का रखने वाला, चन्द्र ६. सुधाधर - सुधा + अधर, सुधा है अधरों में जिसके। ७. द्विजराज चन्द्रमा ८. द्विजराज + दांत दाँत ओर चन्द्रमा दोनों ही दो बार उत्पन्न होने के कारण ट्विजराज कहलाते हैं

वतमान हिन्दी कविता में अ्लंकारों का स्थान १० डे

लाज से रक्तिम हुए थे-पूव को, पूव था, पर वह द्वितीय अपूव था !! अर्थालंकारों में साम्यमूलक अश्र॒ल्नंकारों का विशेष मान है क्‍योंकि वे भावों के चित्र खींचने में सहायक होते हैँ इसीलिए उपमाओ्रों ओर मालोप- माश्रों की भरमार है। यह भरमार बुरी मालूम नहीं होती क्योंकि आजकल उपमाश्रों में नवीनता रहती है। उपमाएँ भी अच बाहरी नहीं वरन्‌ भीतरी होती जाती हैं; प्राकृतिक चीज़ों के उपमान मानवीय भाव बनाये जाते हैं छाया के लिए पन्‍त जी कहते हैँ-- पीले पत्तों की शय्या पर तुम विर्ति सी, मूछा सी, विजन विपिन में कोन पड़ी हो विरह-मलिन दुख-विधुया सी। ज़रा निराला जी द्वारा किया हुआ विधवा का वर्णन देखिए, कैसी पवित्रद्य की मूर्ति खड़ी कर दी है ! वह इष्ट-देव के मंदिर की पूजा सी; वह दीप शिखा-सी शान्त, भाव में लीन वह कर काल-तांडव की स्मृति रेखा-सी वह टूटे तर की छुटी लता-सी दीन। यद्यपि प्र/त/स्मरणीय गोध्वामीजी ने भी वरा-वर्णन में आध्यात्मिक उपमाएँ दी हैं; तथापि आजकल इनका प्रचार अधिक हे। श्राजकल_मूतते वक्षुओं के लिए. अमूत उपमान खोजे जाते हैं; किरण के लिए प्रसाद जी कहते हैं प्राथना सी कुकी | ऐसे उपमानों में साइश्य ओर साधम्य की अपेक्षा प्रभाव साम्य अधिक रहता है-- अलके त्रिखरीं ज्यों तकजाल', वनच्राला के गीतों-सा निजन में फेला है मधुमास' | रूपक भी बड़े सुन्दर रचे जाते हैं, किन्तु इनमें भी नवीनता रहती है पड़ी शअ्रँपेरे के घेरे में कब्र से खड़ी संकुचित है कमिलिनी तुम्हारी

१०४ प्रचन्ध-प्रभाकर

मन के दिनमणि, प्रेम प्रकाश ! उदित हो आओश्रो हाथ बदाश्रों , उसे खिलाओ खोलो प्रियतम द्वार पहन लो उसका उपहार | “- निराला” ऐसे वनों में दुदरा रूपक रहता है ! प्रेमिका और प्रेमी का प्रेम जीव आर ईश्वर के संबंध का रूपक हो जाता है उ्प्रेज्ञाएँ भी आती हैं; किन्तु वे प्रतीयम्रान श्रधिक होती हैं। उनमें जिमि' आ्रादि वाचक चिह् कम रहते हैं कहीं-कहीं साधारण उपमाश्रों के श्रतिरिक्त उपमाएँ ललित के रूप में भी मिल जाती हैं। इन में उपमेय को उपमान से ईष्यां अथवा उसका लज्जित होना बतलाया जाता है यत्र तत्र विशाल कीर्ति स्तम्म हैं , दूर करते दानवों का दंम हैं। उपमेय की विशेषता दिखाने वाले व्यतिरेक का उदाहरण 'साकेत से ही लीजिए--

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स्वग की तुलना उचित ही है यहाँ किन्तु सुरःसरिता कहाँ सरयू कहाँ ? वह मरों को मात्र पार उतारती। यह यहीं से जीवितों को तारती ! उपमेय को उपमान के रूप में गताने वाले प्रतीप का भी उदाहरण लीजिए--- संध्या फूली परम प्रिय की कान्ति सी है दिखाती |

पाया जाता वर वदन सा औओप आदित्य में है | ““प्रियप्रवास २८ कर उसी तपस्वी से लंबे थे देवदार दो चार खंड़े | “कामायनी

संदेह के भी उदाहरण बहुत मिलते हैं किन्तु उनमें भी नवीन कविता की अन्तमु खी वृत्ति का परिचय मिलता है| मानसिक श्रवस्थाओं के सम्बन्ध में

वर्तमान हिन्दी कविता में श्रल॑ंकारों का स्थान १०ज,

सन्देह आ्राता है-- विरह है या अखंड संयोग शाप है या वरदान सम अ्रलंकार में परस्परानुकूलता बताई जाती है, इसी कारण वह चित्त को अ्रधिक प्रसन्नता देता है। इसके हों प्रसिद्ध पातकी तू पाप पुंज- हारी! आदि प्राचीन उदाहरण बड़े सुन्दर हैं। इस अलंकार का नया रूप भी

देखिए--- तुम ठुग हिमालय श्वद्ध

और में चंचल गति सुर सरिता तुम दिनकर के खर किरण जाल में सरसिज की मुसकान,..।' इसमें तुम ( ईश्वर ) ओर में ( जीव ) का परस्पर स्वाभाविक सम्बन्ध बतलाया गया है अन्योन्य में भी ऐसी ही परस्परानुकूलता रहती है उस बिन मेरा दुख सूता मुझक पिन वह सुषमा फीकी --महादेवी इसमें विनोक्ति भी है प्रह्मण अलंकार में तो चित्त को प्रसन्नता होती ही है, विषादन भी हमारे भावों को तीव्रता देने के कारण आदरणीय समझा जाता है। देखिए, मेथिलीशरणजी पंचवरटी में लक््मणजी से क्या कहलाते हैं-- रखते हैं हम सयत्न पुर में जिन्हें पींजों में कर बन्द वे पशु पक्षी भाभी से हैं हिले यहाँ स्वयमपि सानन्द | यहाँ प्रहमण अलंकार है | प्रधान अ्रलंकार प्रायः सभी मिलते हैं | दो एक चमत्कार-पूर्ण अधिक शोर विरोधाभास' के नमूने और देख लीजिए. श्रघिक श्रलंकार के वणनों में: छोटे श्राधार में बड़ी चीज़ दिखाई जाती है

१०६ प्रबन्ध- प्रभाकर

कथा है कण कण करुण अरथाह बूँद में है बाढ़व का दाह। लघु प्राणों के कोने में खोई असीम पीड़ा देखो नः ने मछली में सागर तिरता है सीपी में रसरत्नाकर है। आँखों के शअश्राँगन में बस्ती कोनों में सूने निर्भर विरोधाभास के भी दो एक उदाहरण लीजिए--- अमरता है जीवन का हास मृत्यु जीवन का चरम विकास | नये युग के साथ वतमान कविता में कुछ नये अलंकार भी गये हैं। जहां हम अँगरेज़ी के मुहावरों को हिन्दी में देखते हैं, वहाँ श्रंगरेज़ी के अलंकारों का भी अनुकरण पाते हैं। इन नवीन अलंकारों में विशेषण-विपयय ( वाशार्शशला८0 >ए0८५ ) और पुरुषत्वारोपण ( 70८50ींट४00०ा ) अलंकार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जहाँ विशेषणों को उनके प्राकृतिक विशेष्यों से हटा कर उनसे सम्बन्ध रखने वाले दूसरे विशेष्यों में लगा कर चमत्कार उत्पन्न किया जाता है वहाँ विशेषण विपयय अलंकार होता है। जेसे “निद्राह्दीन रात्रि; मनुष्य निद्राहीन होता है, रात्रि नहीं इसी तरह गीले गान; नेत्र अश्रश्नों के कारण गीले होते हैं, गान गीले नहीं होते; लेकिन गान में करुणा की व्यंजना करने के लिए 'गीले गान कहते हैं। 'तुतले भय अश्रजान -नयन इसी के उदाहरण हैं। ओर लीजिए--- कल्पने ! आ्राओ सजनी उस प्रेम की सजल सुधि में मग्न हो जावें पुनः ।' श्रगरेज़ी भाषा के बहुत से अलंकार हमारे यहाँ की लक्षणा बृत्ति पर निर्भर हैं। सजल सुधि! आदि आलंकारिक शब्दों की लक्षणा के आ्रधार पर

हिम्दी प्र हास्य-रस १०७

ही व्याख्या होगी। पुरुषत्वारोपण पहले भी हुआ करता था किन्तु इस नाम का विशेष अलंकार था; अ्रत्र उसका प्राचुय हो गया है। पहले भी प्राकृतिक पदार्था में मानवीय भावों की व्यंजना रहती थी, अच वह व्यंजना जरा स्पष्ट हो गई है।

वर्तमान कविता में अलंकारों का तिरस्कार नहीं है, वरन्‌ उनको इलका ओर स्वाभाविक बनाने का प्रयत्न किया गया है। अब शब्द-जाल रचे जाते हैं श्रोर ओर पूस माह में विरहिणी-तन-तापोत्यित लपटों द्वारा गुलाब-जल की शीशी को बीच में सुखा देने वाली श्रत्युक्तियाँ दिखाई पड़ती हैं; किन्तु इसी के साथ-साथ वर्तमान कविता ने प्राचीन कविता के सभी गुणों को किसी किसी रूप में अपनाया है ओर उनमें सुखद नवीनता भी उत्पन्न की है

१८. हिन्दी में हास्य-रस

किसी जाति के साहित्य में हम द्वास्य की मात्रा को देख कर उसकी सजीवता का श्रनुमान कर सकते हैं। यद्यपि हास्य क्या है! इस प्रश्न का उत्तर देना मनोविशान के क्षेत्र में प्रवेश करना होगा, तथापि यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि हास्य में दो बाते मुख्य रहती हँ---एक किसी किसी प्रकार की विपरीतता ओर दूसरी अ्रप्रत्याशितता वह श्रप्रत्याशितता ऐसा रूप लेती है जिससे चित्त का भार हलका हो जाता है। विपरीतता कहीं विरोध (५०095) का रूप धारण कर लेती है ओर कहीं अनावश्यक अ्रतिशयता का। हास्य के कई रूप हैं। उनमें दो मुख्य हैं ( ) शुद्ध हास्य (07007), जिसका उदय छुदय की फालतू उमंग ओर प्रसन्नता में होता है; ( २) व्यंग्य (590०), जो प्रायः किसी उद्देश्य से होता है, ओर वह अधिक व्येजित, रहता है। हिन्दी में

दोनों के ही श्रच्छे उदाहरण भिलते हैं प्राचीन हिन्दी-साहित्य में वीर ओर »४गार के सहायक के रूप में तो हास्य- रस बहुत मिलता- ही है, परन्तु इसके अतिरिक्त स्वतंत्ररूप से भी थोड़ा बहुत पाया जाता है। इिन्दी-साहित्य में हास्यरस का सन्न से पहला स्वरूप श्रमीर

१०८८ प्रबन्ध अभाकर

खुसरो (सं० १३१२-१३८१) की मुकरियों में मिलता है। मुकरियों में प्रसंग ऐसा बाँधा जाता है कि स्वभावतः यह आशा होने लगती है कि श्रन्त में 'पति' शब्द आवेगा, क्योंकि सारे लक्षण पति में घटते हैं, किन्तु पीछे से एक साथ किसी दूसरी वस्तु का नाम ले दिया जाता है ओर उसमें भी सारे लक्षण घट जाते हैं, जेसे-- जब मेरे मन्दिर में आवबे, सोते मुभको आन जगावे। पढ़त फिरत वह विरह के अच्छुर, ऐ. सखि, साजन ! ना, सखि, मच्छर | इसमें ऊपर बताये हुए प्रायः सभी लक्षण मिल जाते हैं कत्नीर जी बढ़े निमय सुधारक थे हिन्दू-मुसलमान, दोनों ही की समान रूप से हँसी उड़ाते थे उन्होंने जटाधारियों को बकरा बनाया है, मूँड़ मुंड़ाने

वालों को भेड़ कहा है -- बार-बार के मू ड़ने, भेड़ बैकुँठ जाय

उन्होंने जोर से बाँग लगाने वाले मुसलमानों के खुदा को बहरा बना दिया है-- मसजिद भीतर मुल्ला पुकारे, क्‍या साहब तेरा बढिरा है। ऊपर की पंक्तियों में हास्य की अ्रपेन्षा व्यंग्य की मात्रा अधिक है सूरदास जी ने अ्रपने वात्सल्य में भी कहीं कहीं हास्य का श्रच्छा पुट दिया है। माखन-चोरी में पकड़े हुए बालकृष्ण के उत्तर बड़े मनोरंजक हैं; कहीं तो वे कह देते हैं कि दही की मथनी से चींटी निकाल रहा था और कहीं कह देते हैँ कि लड़कों ने उनके मुंह पर मक्खन मल दिया है। देखिये क्‍या ही अ्रच्छा उत्तर है-- मैं जान्यो यह घर अपनो है, या धोखे में आयो। देखत हों गोरस में चींटी, कादन को कर नायो॥ इन पंक्तियों में उत्तर की श्रप्रत्याशितता और बाल-चातुय पर हँसी जाती है सूर ओर नन्ददास की गोपियों ने कुब्जा के प्रति अ्रयूया भाव से प्रेरित हो कर भगवान्‌ कृष्ण पर तीखे व्यंग्य कसे हैं --

हिन्दी में हास्य रस १०६

मदन त्रिमंगी आपु हैं, करी त्रिभंगी नारि। गोस्वामी तुलसीदास ने तो स्वयं हास्य-रस के देवता प्रमथेश महादेव जी के सम्बन्ध में हास्य किया है-- बर अनुह्र बरात भाई, हँसी करयिहों पर-पुर जाई। इसमें वास्तविक परिस्थिति की प्रतिकूलता हमारी हँसी का कारण चनती है काम को जीतने का श्रमिमान करने वाले नारद जी को उन्होंने स्वयं काम का शिकार बना दिया अ्रपनी कामांधता में वे कैसे हास्यास्रद बन जाते हैं-- पुनिपुनि मुनि उकसहिं अकुलाई , देखि दशा हरगन मुतकाई। वतंभधान समय में भी जो आवश्यकता से अधिक अपना दिखावा करता है या अपने को समभता है वह हास्य का विषय बन जाता है हास्य ही ऐसे लोगों का इलाज है रामचरितमानस में लक्ष्मण-परशुराम-संवाद ओर रावण-अ्ंगद-संवाद बढ़े सजीव हैं क्षत्रिय-दल-दमन के दप से पूण रोद्ररस की मूर्ति परशुराम को लक्ष्मणनी ने वीरोचित निर्भयता के साथ खूब ही छुकाया मातहि पितह्टि उरिन भये नीके, गुरुरिनु रह सोच बड़ जीके इन पंक्तियों में हस्य के साथ व्यंग्य भी है | इसमें परिस्थिति की विपरीतता तथा परशुराम जी के क्रोध ओर गांभीयं के साथ लक्ष्मणजी की लापरवाही श्रोर हलकेपन का सुखद विरोध दशनीय है रहीम ने तो स्वयं लक्ष्मीजी और भगवान्‌ पर हाथ साफ किया है लच्तंमीजी की चंचलता के विषय में वे कहते हैँ--- पुरुष पुरातन कीं वधू क्‍यों चंचला होय। ऊपर की पंक्ति में एक भारी बात का हलका कारण बतलाया गया है | अकबर बीरबल विनोद विख्यात ग्रन्थ है। किन्तु वह बहुत काल तक अलिखित रूप में ही रह

११० प्रबन्ध-प्रमाकर

कविवर त्रिद्दरीलाल ने भी श्रीकृष्ण ओर राधिका की हँसी उड़ाई है धवरषभानुजा' और इलधर के वीर में क्या ही उत्तम श्लेष हे चिरजीवों जोरी जुरे, क्‍यों सनेह गँभीर को घटि, ये वृषभानुजा, वे हलघर के वोर जिस हास्यरस में वाकु-चातुय अ्रधिक हो उसे अ्रगरेजी में %/६ कहते हैं। ऊपर की पंक्तियों में शब्दश्लेष का चमत्कार है ये पंक्तियाँ %८ का उदाहरण कही जा सकती है ऐसे वर्णनों में शाब्दिक चमत्कार द्वारा ह्वास्य उपस्थित किया गया है इिंदी-साहित्य का विकास ऐसे समय में हुआ जब मुसलमानों के श्राक्रमण शुरू हो गये थे मारकाट के समय में या तो वीर-रस की जाग्रति होती है, या भक्ति ओर शान की जब शान्ति का समय आया तब कवियों की प्रतिभा मुसलमानी तथा हिंदू-राजद्रबारों की विलासप्रियता से प्रभावित हो गई इसलिए, शुद्ध ओर स्वतंत्र हास्य का उदय कुछ पीछे हुआ जब उदय हो गया, तब सभी प्रकार के हास्य की पुष्टि हुई बेनी ( सं० १६६० ) आदि कवियों ने सूमों, वैद्यों ओर पेशकारों आदि की खूब हँसी उड़ाई है ऐसी कविताश्रों द्वारा समाज पर श्रत्याचार करने वालों के प्रति दबे हुए विद्रोह को कुछ-कुछ निरापद रूप से विकास का मांगे मिल जाता है ओर कवि ओर पाठक दोनों के मन का भार इलका हो जाता है। दयाराम के दिये हुए श्रामों का क्या ही अ्रच्छा वर्णन है-- चींटी की चलाबै को, मसा के मुख आय जायें, सांस की पवन लागे कोसन भगत है। ऐनक लगाय मरुमरू के निदारे परे, अनुपरमानु की समानता खगत दे। बेनी कवि कहे हाल कहाँ लॉ बखान करों , क्‍ मेरी जान ब्रह्म को विचारिनों सुग्रत है। , ऐसे श्राम दीन्हें दबाराम मन मोद करि , जाके श्रागे सरसों सुमेद सों लगत है।

हिन्दी में हास्य रस ११.१८

इस वर्णन में विपततता अ्रतिशयता के रूप में आई है

भारतेंदु बाबू इरिश्चन्द्र जी ने साहित्य के ओर सब अ्रंगों के साथ, हास्य की भी खूब पुष्टि की है। उनके अंघेरनगरी, वैदिकी-हिंसा हिंसा भवति', 'पाखंड-विडंबना' आदि अच्छे प्रहसन हैं अंधेरनगरी' में चूरन का लटका बड़ा मनोरंजक है प्रतापनारायण मिश्र की कविताओं में भा हास्य के कद्दीं कहीं अच्छे उदाइरण मिलते हैँ परन्तु जहाँ भारतेन्दु का द्वास्य सभ्य ओर सुसंयत था, वहाँ इनके हास्य में ग्रामीणता का पुर श्रा गया था। बूढ़े. मुँह मुहासे' भी एक श्रच्छा प्रहसन है इस प्रकार धीरे-धीरे हास्य साहित्य में अपना स्वतंत्र स्थान पाता गया। आजकल के युग में उसका खूब विकास हुआ है। नाठकों में व्रिदुषक द्वारा हास्य के दृश्य उपस्थित करने की चाल तो पहले से ही थी किन्तु अब सारे नाटक में हास्य की छीटे यत्र तत्र दी जाती हैं। हास्य के सभी अंगों को पुष्टि हुई हे ओर उनके द्वारा मनोविनोद और समाज- सुधार दोनों ही में सहायता पहुँची है

यह तो कहना कठिन है कि आजकल के हास्य-सम्बनन्धी लेखकों में. किसका प्रथम स्थान है, क्योंकि सत्र में कुछ कुछ विशेषताएँ हैं, जिनमें वह दूसरों से बढ़े-चढ़े होते हैं, पर श्री श्रन्नपूर्णानन्द वर्मा के द्वास्यग्रन्थ अधिक लोकप्रिय हो रहे हैँ उनकी कितात्रों में-- मेरी इजामत', 'मगन रहु चोला', 'हाकवि चच्चा! और 'मंगलमोद' प्रमुख हैं। इन सब में उनकी प्रतिभा का क्रमशः विकास होता गया महाकवि चच्चा” में बहुत ही शिष्ट और सुदष्दु हास्य है। उनमें इतिहास-लेखकों को खोज-पद्धति का श्रच्छा खाका खींचा गया है। वे लोग जो चाहें सिद्ध कर सकते हैं। जो लोग पद्भ-मात्र लिखने को कविता समभते हैं ओर सब्र बातों को पद्म में कह देना ह्वी कविप्रतिभा की इयत्ता मानते हैं, उनकी भी अ्रच्छी हँसी उड़ाई हे बिल्ली तोते को ले जाती है, किन्तु पंडित जी नौकर को पत्र ही में पुकारते हैं--

अरे पनरुआा, दोड़ बिलरिया ले गई छुग्गा तू मन मारे खड़ा निदारे जेसे भुग्गा। मेरी हजामत' में मोजन-भट्ट ब्राक्षणों की खूत्र खिल्‍ली उड़ाई गई हे--

११२ प्रबन्ध-प्रभाकर

दावा बहुत है इल्मे रियाजों में आप को | ब्राह्मम का पेट आके ज़रा नाप लीजिए

जी० पी० भीवास्तव भी सामान्य पाठकों में बहुत लोकप्रिय हैं | उन्होंने हास्थमय परिस्थितियों के उपस्थित करने में, फैशन के भूतों का भूत उतारने में, मेपू लोगों की भँप की हँसी उड़ाने में श्रच्छी कुशलता प्राप्त की है, किन्तु उनके हास्य में एक प्रकार का खोखलापन द्वै। उनके हास्य में पंडितमोहिनी कला की अपेक्षा मूलमोहिनी विद्या अधिक है ओर साथ ही उद॒पन का भी बाहुलव है इसमें केवल इनका कुसूर नहीं हे, अधिकांश जनता की भी ऐसी हो रुचि है। पाठकों से रुचि साम्य रखने के कारण ही वे इतने लोकप्रिय हैं

प्रसिद्ध हास्य रसावतार श्रीयुत जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी तो श्रत्र अ्रदृश्य हो चुके हैं किन्तु उनके भाषणों का हास्य अब भी कानों में यूज उठता है। प० हरिशंकर शर्मा ने यद्यपि अ्न्नपूर्णानन्द जी श्रोर श्रीवास्तव जी के समान श्रभी ख्याति प्राप्त नहीं की तथापि उनका ह्वास्य उच्चकोटि का है। गद्य में श्रनुप्रासों का बाहुल्य उनकी विशेषता है। उनके चिड़ियाघर के चहचह्मता चिड़ियाघरों नामक पहले श्रध्याय में वतमान कवियों की यशोलिप्सा का अच्छा वाका खींचा गया है। कवियों की कविता-कण्डु के साथ-साथ वक्ताओं की व्या- ज्यान-व्याधि' ओर वकीलों के वकालत-ब्रण' के श्रजीब रोगों के बहुत ही श्रदूभुत नुस्खे उन्होंने बतलाये हैं। अ्रगरेज़ी लेखक 'स्विफ्ट की भाँति जानवरों के त्रार्तालाप में मानव समाज की बुराइयों का दिग्दशन कराया है। उनमें व्यंग्य के अच्छे उदाहरण हैं। उनके 'पिंजरा पोल' में प्राचीन कबियों के परिहासमय श्रनुकरण ( पैरोडियाँ ) श्रच्छे हैं। देखिए तुलसीदास जी की भाषा में मोटर- कार का क्या ही उत्तम वर्णन है--

सब्॒ यानन ते श्रेष्ठ श्रति, द्रुत गति गामिनि कार धनिक जनन के जिय बसी, निस्न॒ दिन करत बिहार

मंजुल मूर्ति सदा सुख देनी समुझ्ति सिह्यावहिं स्वग नसैनी

उछारत कूदत निकलत जाई | सब कहूँ लागत परम सुहाई

पीं पोँ करत सुहावति केसे | मुनिमख संख बजावहिं जेसे

श्न्दी में द्वास्य रस ११३

चारु चक्र-धारिनि मन भावन | कलरव करन विमोद बढ़ावन

छाँह करन हित छुयेउ विताना विचरत फिरति बरन घरि नाना 4 २५ २५

वाहन कुल की परमगुरु, सब्र कहँ सुलभ होय।

रुबर की जिन पे कृगा, ते नर पावहिं तोय

स्वर्गीय ५० ईश्वरप्रसाद के चना चबेना” में भी इसी प्रकार के उत्तम परिह्समय अनुकरण मिलते हैं--

प्रन घमंड नभ गरजत घोरा। टका-हीन कलपत मन मोरा॥ दामिनि दमक रही घन माद्दी जिमि लीडर की मति थिर नाहीं॥

सस्‍्व० पं० बदरीनाथ भट्ट की चुजड़ी की उम्मेदवारी' में वोट भिक्ता की खूतब्र हँसी उड़ाई गई है ओर उनके विवाह विज्ञापनों प्रह्लन में आरज-कल के विवाह के पीछे दीवानों को अच्छी तरह छुकाया गया है; उनकी चेष्टाओं का सजीव चित्र खींचा गया है।

पं० रामनारायण शर्मा के व्यंग्य-बवंडर' में कलयुगी सन्तों, स्वयंभू लेखकों ओर समालोचकों का अ्रच्छा मज़ाक उड़ाया गया है। साधुश्रों का क्‍या ही श्रच्छा शब्द-चित्र है ! देखिए--

.. मक्‍कर कर दुनिया ठगें, शक्कर पूरी खायँ। लक्कर जरहिं अ्रगिन में, फककर संत कह्ायें

श्री शिवपूजन सहाय जी की दो घड़ी नाम की छोटी सी पुस्तक में बड़ा सुन्दर साहित्यिक हास्य है |

इन पंक्तियों के लेखक ने अपने ठलुआ क्लब! में डाक्टर स्तोत्र द्वारा डाक्टरों की फीस ओर उनके शल्य-प्रह्यर की महिमा गाई है| देखिए---

“मुर्द चीरते-चीरते आप का द्ृदय इतना कठोर बन जाता है कि भृत्यु आप के लिए. साधारण-सी बात हो जाती है शव-शय्या के पास आपका हृदय तनिक भी विचलित नहीं होता | आप योगी की भाँति स्थिर शोर श्रचल रह कर फीस की बातचीत करने में ज़रा भी संकोच नहीं करते...आप की रिश्वर्तें फ्री! के गौरवशाली नाम से प्रख्यात हैं ।”

धर

११४ प्रचन्ध प्र भाकर

उपयुक्त वाक्‍्यों द्वारा डाक्टरों की दृदयददीनता पर व्यंग्य किया गया है मुर्दे चौरते-चीरते उनका हृदय मुदों हो जाता है। उनकी वीत-राग योगियों से तुलना कर विपरीतता द्वारा इन वाक्यों में हास्य की सृष्टि की गई हे

इन पंक्तियों के लेखक ने 'मेरो असफलताएँ” शीषक पुस्तक में ख्यं अपना ही उपहास किया है। श्री गोवालप्रसाद जी व्यास ने अपनी पत्नी को' ही अपनी कविता का विषय बना कर हास्य की सृष्टि की हे। इस हास्य में पाकिस्तान, कंट्रोल आदि राजनीतिक विषयों पर सुन्दर व्यंग्य है |

श्रगार के सहायक रूय दाम्पत्य द्वास-परिहास का उदाहरण हमको साकेत के आ्रादि सर्ग में मिलता है। उसमें ह्ास्य-व्यंग्य और वाक्‌ चाठुय सभी के अ्रच्छे उदाहरण हैं

आजकल हिन्दी में हास्यरस के बहुत से ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं। ठोक-पीट कर वैद्यराज,' 'रायत्रह्मदुर, आनरेरी मजिस्ट्रेट! आदि बहुत अ्रच्छे प्रहसन लिखे गये हूँ स्वर्गीय द्विजेद्धलाल राय के बँगला से अनुवादित मूख-मंडली ओर 'सूम के घर धूम, बंकिमचन्द्र का 'चोबे का चिट्ठा” तथा श्री परशुराम जी के 'भेड़ियाघसान'! और लम्बकण भी पठनीय हैँ आजकल कहानी साहित्य में द्वास्य रस का अच्छा समावेश द्वोता जाता है। मुशी प्रेमचन्द्र की मोटेराम शीषक कहानी में भोजन भट्ट ब्राह्मणों पर अ्रच्छा व्यंग्य है निराला जी की सुकुल की बीती आदि अच्छी हास्य-प्रधान कहानियाँ हैं। हिन्दी में दास्य-व्यंग्य-प्रधान कई समाचार-पत्र भी निकल रहे हँ। उनमें मतवाला और नोक-मोंक विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं

हास्य में सुरुचि की बड़ी आवश्यकता है केवल घोल-धप्पा ओर पात्रों

के उलदे-सीधे नाम रख देना हो हास्य नहीं है| हास्य साहित्यिक होना चाहिए हपष है कि अ्रत्र हिन्दी में हाध्य क्रमशः परिमार्जित और निरापद द्वोता जा रहा यद्यपि हिन्दी में दृस्य रस का उतना श्रभाव नहीं है जितना कि डाक्टर नगेन्द्र जी ने श्रपने विचार और विवेचन' में माना है तथापि श्रच्छे द्वास्य की अपेत्ता- कृत कमी अवश्य है | इस कमी का कारण कुछ तो हिंसा वृत्ति का श्रभाव है ( व्यंग्य में एक प्रकार की मानसिक हिंसा रहती है ) ओर कुछ भाग्यवाद है

वैष्णव सम्प्रदाय का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव ११४

भाग्यवाद के कारण लोग अपनी परिस्थिति पर सन्तोष कर लेते हैं | दूसरे लोग उसको हास्य की दृष्टि से देख कर उसकी कट्ठता को भूल जाने का प्रयत्न करते हैं। ऐसा हास्य यहाँ कम देखने में आता है, फिर भी जो कुछ ह्ास्य-प्रधान साहित्य रचा जा रहा है उससे यही आशा की जाती है कि शीघ्र ह्दी हमारी हिन्दी द्ञास्प-रस में किसी भाषा से पीछे रहेगी

१६, वेष्णव संप्रदाय का हिन्दी-साहित्य पर प्रभाव

यह बात स्वमान्य है कि समाज ओर साहित्य एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। उनकी उन्नति भी पारस्परिक आदान-प्रदान पर बहुत कुछ शअ्रवलम्बित है किसी समय की सामाजिक प्रगति तत्कालीन भौतिक, श्रार्थिक, राजनीतिक और धार्मिक अ्रवस्थाओं पर निर्भर रहती है। भारतवष में जनता की रुचि साहित्य-निर्माण में बहुत बड़ा भाग रखती है। इस प्रकार भारतवष में धम और साहित्य का चोली-दामन का साथ रहा है

यह जानने के लिए कि वैष्णव धम ने किस प्रकार हिन्दी-साहित्य पर अपनी छाप डाली, हमको भारतबष में धार्मिक इतिहास पर क्षणिक दृष्टिपात करना द्वोगा ईसा मसीह से छुसात सो वष पूर्व हिन्दू धम में ज्ञान और उपासना की धाराओं के अ्रतिरिक्त जो कमकांड की धारा बहती थी वह पशु वध के रुघिर से कलुषरित हो रही थी। दशन-शाज्रों ने इस हिंसावाद के विरुद्ध जो आवाज उठाई थी उसके अतिरिक्त धर्म की जठिलता की प्रतिक्रिया-रूप में एक विचार-स्वातन्य की धारा बहने लगी थी। जैन धम ओर बोद्ध धर्म का उदय इसी विचार-स्वातन्त्य के कारण हुआ बौद्ध-घम का कई सो वर्ष तक बोलबाला रहा वह राजघम भी बन गया था। बोद्-धम ने हिन्दू धर्म को दबा अवश्य लिया था, परन्तु वह उसका उन्मूनन नहीं कर सका था। साथ ही साथ भगवान्‌ वासुदेव की उपासना ओर शिव-पूजा भी चल रही थी। बौद्ध धर्म दिन्दू-धर्म की उद्घारता एवं अन्य स्वाभाविक नियमों के कारण हिन्दू धम में मिलने-जुलने लगा और तान्त्रिक संप्रदायों से मिल कर उसने एक नया रूप

२१६ प्रबन्ध-प्र भाकर

धारण कर लिया जो महायान के नाम से प्रसिद्ध हुआ इस क्रिया में बोद्ध धर्म का प्रारम्मिक उत्साइ नष्ट हो गया था और उसमें वह चरित्रत्तल भी रहा था। कर्मकांड का भी पुनदजीवन हो चला था ऐसे' ही समय में गोड़- पादाचाय के शिष्य श्री शंकराचाय ने ईसा की आ्राठवीं शताब्दी में ब्रह्मवाद आर मायावाद के रिद्धान्तों का प्रतिपादन कर बौद्ध धर्म एवं कमकांड का प्रभाव हटाया

शंकराचाय की बुद्धि की प्रखरता के कारण खंडनात्मक कार्य तो बहुत सफल हुआ किन्तु शुष्क निगु णवाद लोगों के द्वृदय में स्थान पा सका | इस निगु णवाद में हृदय के भावों के लिए. कम स्थान था। मनुष्य स्वभाव से उपासना-प्रिय है। बौद्ध धर्म भी आचार-घम रह कर उपासना-धर्म बन गया ऐसी अ्रवस्था में जनता को ऐसे धर्म की श्रावश्यकता थी जो संसार की वास्तविकता, श्राचार की दृढ़ता ओर भक्ति का प्राघान्य स्थापित कर उसके हृदय को भी संतोष दे ऐसी ही परिस्थिति में दक्षिण भारत में श्री रामानुजा- चाय ( जन्म सबत्‌ १०७४ ) का उदय हुआ | उन्होंने अ्रद्वेतवाद के स्थान में विशिष्टह्नेत मत का प्रतिपादन किया इसके द्वारा उन्होंने संसार की सत्यता बतलाई परमात्मा को नारायण रूप में मान कर उपासना और भक्ति को स्थान दिया उनकी शिष्य-परम्परा में चोदहवीं शताब्दी में स्वामी रामानन्द जी हुए, जिन्होंने विष्णु के श्रवतार राम की उपासना पर ज़ोर दे कर एक बढ़ा भारी संप्रदाय खड़ा किया इन्होंने धम को संकृचित रख शूद्रों को भी दीक्षा दी गोस्वामी तुलसीदास भी इन्हीं के संप्रदाय के बाबा नरहरिदास के शिष्य थे | कभीर ने स्वयं इनसे दीक्षा ली थी |

रामानन्द के द्वारा साहित में दो शाखाश्रों का उदय हुआ। एक रामोपासना की, जिसका सूत्रपात तुलसीदास जी से हुआ ओर दूसरी सम्तवाणियों की, जिसका सूत्रपात कबीर से हुआ कत्नीर भी राम।पासक थे, किन्तु अ्रधिकतर नाम के ही उपासक थे ओर शान-कांड की ओर श्रधिक भ्ुके हुए थे

जिस प्रकार रामानुजाचाय के संप्रदाय से रामोपासना को उत्तेजना मिली उसी प्रकार निंबार्काचाय, वललभाचाय ( जन्म सं० १२५४ ), मध्वाचार्य

वैष्णव सम्प्रदाय का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव ११७

( जन्म सं० १२४४ ) ओर चेतन्य महाप्रभु ( जन्म सं० १४४३ ) के ठिद्धान्तों से कृष्णोपासना को उत्ते जना मिली | निंबार्काचाय तैलंग थे, वल्‍लभाचाये भी दाक्षिणात्य थे ( जत्र इनके माता पिता तीथयात्र कर रहे थे, तब इनका जन्म बनारस में हुआ था ) और मध्वाचाय भी दाक्षिणात्य थे। श्री चैतन्य महाप्रभ॒ ने इन्हीं के सम्प्रदाय में दीज्ञा ली थी। इस प्रकार भक्ति की सरिता दक्षिण से उत्तर को बह्दी, उन्होंने उत्तर के ऋण को पूरी तोर से चुकराया | यद्यपि चैतन्य महाप्रभु बंगाल-निवासी थे, तथापि कृष्णोपासक होने के कारण कृष्ण की जन्मभूमि मथुरा वृन्दावन को ही इन्होंने अपना केन्द्र बनाया था।

उपयु क्क संप्रदायों के अनुयायी राम और क्ृष्ण॒रूप विष्णु के अवतारों को मानने के कारण वैष्णव कइलाते हैं। मध्वाचाय के द्तवाद सम्बन्धी दाशनिक सिद्धान्तों से कृष्णोपासना रूप में मक्तिवाद को पर्याप्त सहायता मिली। चैतन्य संप्रदाय ने तथा अन्य वैष्णव संप्रदायों ने भगवन्नाम-कीतन को प्रधानता दे कर संगीत को मद्तत्ता दीं। चेतन्य महाप्रभु ने जयदेव के गीतगोविंद ओर विद्यापति के पदों को अपना कर गीतकाव्य का प्रचार बढ़ाया ये लोग कृष्ण भगवान्‌ के ऐश्वय के उपासक नहीं थे, वरन्‌ माधुयं के उपासक ये, इसलिए कृष्णोपासक वैष्णव संप्रदायों में मगवान्‌ की बाललीला ओर शशज्ञारलीला का. प्राघान्य हो गया। बंगाल में विद्यापति ओर चंडीदास ने श्रीकृष्ण ओर राधिका के प्रेम का वशन कर उनको नायक-नायिका का रूप दे दिया था। इन सब बातों का प्रभाव ब्रज-मंडल के काव्य पर पड़ा ब्रज की भाषा स्वभावतः मधुर आर ललकती होने के कारण »& गार और वात्सल्यभाव का उत्तम माध्यम बन गई शान्त भाव के अतिरिक्त दांपत्य भाव, वात्सल्यभाव, दास्‍्य ओर सख्यभाव ( जिसमें सखी भाव भी शामिल था ) वेष्णव उपासना के प्रकार बन गये। लोग अपनी रुचि के अनुकूल इन्हीं भावों में से किसी एक भाव को अपनाने लगे वेष्णव धम में मनुष्य विष्तुरूप परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करना चाइता है। जो सम्बन्ध मनुष्यों में प्रचलित हैं उन्हीं सम्बन्धों में वैष्णव-भक्त परमात्मा को देखने लगे

क्रमशः भक्किवाद की वृद्धि हुई और भक्ति के भी नो प्रकार हो गये,

श्श्ध प्रबन्ध-प्रभाकर

जो नवधा भक्ति के नाम से विख्यात हैं। सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी की रॉज- नीतिक श्रवस्था भी साहित्यिक-बृद्धि के अनुकूल थी। मुगल साम्राज्य की जड़ जम गई थी। देश में बहुत इलचल नहीं थी ओर अकभर हिन्दू ओर हिन्दी को अपनाना भी चाहता था

वैष्णव धम के प्रेम और भक्ति-सम्बन्धी सिद्धान्तों के लिए. ब्रजभूमि ओर ब्रज-माषा उवंरा भूमि मिली यद्यपि ब्रज में कृष्णोपासना के लोकगीत पहले से वत्त मान थे तथापि बँगाल के प्रभाव से तथा कीत॑न में संगीत के प्राधान्य से गाने के योग्य पद बनाये जाने में विशेष उत्तेजना मिली। प्रेम के वर्णन में नायक-नायिकाओं का भी भेद चल पड़ा और उसकी छाप हिन्दी-काव्य पर बहुत दिनों तक रही | पहले तो यह वणन केवल आध्यात्मिक भाव से ही होता था इसमें माधुय भाव ने और भी उत्तेजना दी। ऐश्वर्य की उपासना मनुष्य की आत्मा को एक प्रकार से नीचा करती है, वह दबाव की उपासना है| माधुय की उपासना प्रेम की उपासना होने के कारण स्वतन्त्र समकी गई है। लोग इस मूल-भाव को भूल गये ओर श४ंगारोपासना यहाँ तक बढ़ गई कि सिवाय राधा ओर कृष्ण के देवी नाम के उसमें आ्राध्यात्मिकता त्िलकुल रही राधा और कृष्ण का नाम भौतिक वासना को एक देवी रूप देने का बहाना भन गया यह श्रगार भाव ऐसा दृढ़ हो गया कि इसने थोड़ा बहुत रामोपासना पर भी प्रभाव डाल दिया | रामचन्द्र जी का भी कालिन्दीकूल के स्थान में सरयू-तट का विहार कवियों की कल्पना का विषय बन गया। यहीं प्रेमभाव बढ़ते-ढ़ते आलंकारिक साहित्य का भी जन्मदाता हो गया। शुद्ध स्वाभाविक प्रेम का उत्कष बढ़ाने के लिए नाना प्रकार के कृत्रिम अ्र॒लंकारों का प्रयोग होने लगा श्रोर नायक नायिक्राओं का विस्तार बढ़ने लगा | समस्त <ंगारी काव्य में, यहाँ तक कि सन्‍्तों के ओर वत॑मान रहस्यवाद में भी वैष्णय घम की छाप दिखाई पड़ती है| आधुनिक युग के रहस्यवादियों में श्रग्मगगण्य कवीन्द्र रवीन्द्र पर वैष्णव कवियों का बहुत प्रभाव है। निगु धारा के प्रवतंक वैष्णव घर से बहुत प्रभावित थे उन्होंने शाक्तों के गाँव की अपेक्षा वैष्णव की भोंपड़ी को महत्ता

दी हे।

चैष्णव संप्रदाय का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव ११६

अब यहाँ पर रामोपासक और कृष्णोपासक कवियों का थोड़ा-सा वणन कर देना अनुपयुक्त होगा |

रामोपासक कवियों में गोस्वामी तुलसीदास मुख्य हैं। रामचन्द्र जी की जन्मभूमि अ्रवध में होने के कारण तुलसीदासजी ने अवधी भाषा को अ्रपनाया था। तुलसीदासजी ने सूरदास जी के ही अनुकरण ओर प्रभाव से ब्रज-भाषा के पदों की भी रचना की थी | दूसरा नाम जो राम-काव्य के सम्बन्ध में आता हे, वह केशवदासजी का है। इन्होंने श्राचायत्व और पांडित्य का प्रदर्शन अधिक किया है, इसी कारण इनकी रामचन्द्रिका जनता में प्रचार पा सकी | प्रिया- दास ने भी रामोपासना सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे हैं। राजा रघुराजसिंह, रसिक बिहारी आदि और कई कवियों ने भी रामचरित लिखा। रामोपासक कवियों की परंपरा में पंजाबी कवि हृदयरामजी का नाम अच्छा स्थान पाता है। उन्होंने रामचरित नाठक-रूप में लिखा था। वतमान काल में श्री मैथिलीशरण गुप्त ने साकेत' लिख कर रामोपासना की पर॑परा को जीवन प्रदान किया हे

कृष्णोपासक कवियों में महात्मा सूरदास, मीरा ओर रसखान का नाम विलेष उल्लेखनीय है |

कृष्णोपासक संप्रदायों में पाँच मुख्य हैं। (१) वल्लभ संप्रदाय, (२ ) राधावल्‍लभीय संप्रदाय, ( ) गोड़िया संप्रदाय, (४) टट्टी संप्रदाय, (५) निंबाक संप्रदाय हरेक संप्रदाय के श्रलग अलग कवि हुए हैं।

(१) वल्‍लभ संप्रदाय-सूरदास, कृष्णदास, परमानन्ददास और कुम्मनदास, ये चार कवि स्वयं वल्‍लभाचाय के शिष्प थे और चतुभु जदास, नंददास, गोविंदस्वामी ओर छीतस्वामी उनके सुपुत्र श्री विद्ठलना यजी के शिष्य थे विट्वलनाथ जी के पुत्र गोकुलनाथ जी ने इन कवियों का वर्णन ब्रजमाषा गद्र में लिखा हे वल्‍लमभ संप्रदाय में बालकृष्ण की उपासना है, इसी कारण सूरदास ने बाल-चरित्र का वर्णन बहुत ही विशद रूप से किया है। ऐसा उत्तम वर्णन शायद ही किसी साहित्य में हो रसखान ओर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भी इसी संप्रदाय के हुए हैं

(२ ) राधावल्‍लभीय संप्रदाय--इसके प्रवतेक श्री हितहरिवंश जी

१२० प्रभन्ध-प्र भाकर

थे | इनका जन्म वाद ग्राम में संवत्‌ १५३० में हुआ था कटद्दा जाता है कि स्वयं राधिका जी ने इनको मन्त्र दीक्षा दी थी इनके मतानुसार राधिका जी को स्वयं भगवान से भी अधिक प्रधानता देनी चाहिए, क्‍योंकि भगवान भी उनके वश में हैं हितहरिवंश जी के ८४ पद भाषा के प्रवाह और माधुय में बहुत ही श्रेष्ठ हैं श्रूवदास जी ओर वृन्दावन चाचा जी भी इन्हीं के संप्रदाय के हैं |

( ) गोड़िया संप्रदाय--इस सम्प्रदाय के कवियों पर बड्भाली वैष्णवों का अधिक प्रभाव है गदाघर भट्ट, ललित किशोरी और ललित माघुते ( जिन महानुभावों का मन्दिर साह जी साहिब्र के नाम से प्रख्यात है) इस संप्रदाय के मुख्य काव हुए हैं। श्री हरिराम ब्यास जी का भी कुछ दिनों गोड़ संप्रदाय से संबंध रहा था

(४ ) टट्टी संप्रदाय--इसको सखी संप्रदाय भी कहते हैं | इसके प्रवतंक स्वामी हरिदास संगीत में बड़े निपुण थे कहा जाता है कि ये तानसेन के गुरु थे | इन्होंने भी अच्छे पद बनाये हैं | श्री सहचरी शरण जी ओर श्रीभगवत रसिक जो भी इसी संप्रदाय के कवि हुए हैं

(५ ) निबाक संप्रदाय--श्री घनानन्द जी इस संप्रदाय के मुख्य कवि हुए हैं

वर्तमान समय में भारतेन्दु बाबू इरिश्चन्द्र, रत्नाकरजी, उपाध्याय जी, सत्यनारायण जी ओर वियोगी हरि जी ने कृष्ण काव्य की परंपरा को जीवित रक्‍्खा है। संक्षेप में वेष्णवब-धर्म का प्रभाव हिन्दी साहित्य, विशेष कर ब्रज- भाषा और अवधी, पर पूरे तोर से है वैष्णवधम ने ही हिंदी साहित्य-गगन के सूय सूर, सुधाधर तुलसीदास और उडुगण केशवदास को जन्म दिया है इनकी रचनाएं वैष्णव-धर्म की अमूल्य संपत्ति हैं | रीति काल के कवि भी वैष्णव धर्म से प्रभावित थे हिन्दी साहित्य में सूरदास से लेकर ३०० साल तक इन्हीं वैष्णव कवियों का दौर-दौरा रद्द भक्ति के इसी अ्रनूठे प्रवाह में तत्कालीन मुसलमान कबि भी बह गये रहीम, रसखान, श्रालम, ताज शआ्रादि मुसलमान कवियों ने भी राम ओर कृष्ण की उपासना में सुन्दरतम कविताएँ

मुसलमानों की हिन्दी-सेवा १२१

लिखी हैं। हिन्दी साहित्य वैष्णव-धम का चिर आभारी रहेगा कि उसने जनता की रुचि की पूर्ति करते हुए. सूर श्रोर तुलसी जैसे दिव्य रत्न दिये

२०, मुसलमानों की हिन्दी-सेवा

“इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन दिन्दुन वारिए ! --भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

भारतवष में मुसलमानों के श्राक्रमण सातवीं सदी से शुरू हो गये थे किन्तु उन प्रारंभिक आक्रमणों में राज्य-लिप्सा की अ्रपेज्ञा धन-लिप्सा अधिक थी। जब्र मुसलमान लोग धीरे-घीरे यहाँ बसने लगे और उन्होंने मूल देश से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया तब्र से-वे यहाँ की जनता के अधिक संपक में आने लगे | उनके लिए यहाँ की भाषा और रहन-सहन सीखना आवश्यक हो गया राजकाज चलाने के लिए प्रजा का सहयोग भी आवश्यक था कुछ विद्वानों का कथन है कि मुसलमानी शासन के आरम्भ में बहुत-सा राजकाय हिन्दुओं के ही हाथ में था ओर वे लोग श्रपना सच काय हिन्दी में ही करते थे इसके अतिरिक्त कोई सफल राज्य देशी भाषा की उपेज्ञा नहीं कर सकता इसी कारण हिन्दी का सम्बन्ध राजदरबारों से हो गया उधर मुसल- मान शासक लोग अपनी प्रशंसा सुनने का लोभ सवरण कर सके इस. कारण हिन्दी के कविगण भी मुसलमानी शासकों के यहाँ ्राश्रय पाने लगे

अकबर को हिंदुओ्रों से श्रोर उसी के साथ हिन्दी से भी पर्यात्र प्रेम था। उसने अपने नाती खुसरो को हिन्दी पढाई थी हिन्दी की कुछ कविताश्रों में अकबर शाह की छाप मिलती है, कहा नहीं जा सकता कि वे कविताएँ उन्हीं की लिखी हुई हैं या ओर किसी की ओ्जरंगजेब के लड़के आज़मशाह का दरबार दिन्दी-प्रेमियों का आभ्रय-स्थान रहा हे

हिन्दुओ्रों के संपक में आने से साधारण मुसलमान लोगों को भी हिन्दी से प्रेम हो गया 4 राजनीतिक श्रावश्यकताश्रों के अतिरिक्त कुछ छ्वदय की भी: अवश्यकताएँ रहती हैं। इस्लाम धर्म अधिक शुष्क दै। सूफी सम्प्रदाय ने

१२२ प्रअन्ध-प्रभा कर

'ने उसको सरल बनाया हिन्दी प्रेम के भावों को व्यंजित करने के लिए बड़ी उपयुक्त भाषा है। इसके श्रतिरिक्त हिंदू-धम में प्रेमी दृदयों के लिए. भ्रीकृष्ण- चन्द्र का माधुयमय व्यक्तित्व एक बड़ा आ्रकषण है इस प्रकार कुछ मुसलमान राजनीतिक कारणों से श्रोर कुछ छृदय की प्रेरणा से हिन्दी की ओर करके ओर उन्होंने श्रपनी वाणी से हिन्दी-साहित्य को श्र॒लंक्ृत किया। मुसलमानी राज्य के प्रारंभिक काल में उदू का प्रतिद्वन्द्विता भी थी। इसलिए हिन्दी जनसाधारण की भाषा के नाते अपनाई गई प्रायः साहित्यिक लोग राजनीतिक बंधनों से मुक्त होते हैं, उनमें जाति-मेद वा विजेता ओर विजित का भाव कम होता है साहित्यिक साम्राज्य समता-मूलक है। उसमें हिन्दू और मुसलमान का भेद नहीं था | साहित्यिक मुसलमान द्वेष-भाव से परे थे इन मुसलमानों के द्वारा हिन्दी 'की जो सेवा हुईं है वह थोड़ी नहीं है। इनकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य की अमूल्य संपत्ति हैं। इनका थोड़ा सा उल्लेख कर देना श्रनुपयुक्त होगा | यद्यपि हिन्दी का जन्म बहुत काल पूर्व हो गया था तथापि हिन्दी को खड़ी बोली के वतमान रूप में इम श्रमीर खुसरो की वाणी में ही देखते हैं। 'अमीर खुपतरो का जन्म संवत्‌ १२६२ में हुआ था वे फारसी ओ्रोर हिन्दी दोनों ही भाषाओं के अच्छे कवि थे उनकी कविता से ही हमको पता चलता है कि खड़ी बोली कितनी पुरानी है। उनकी कविता के दो एक नमूने यहाँ दिये जाते हैं | बाला था सत्र जग को भाया, बड़ा हुआ कुछ काम आया खुसरो कह दिया उसका नाव, अ्रर्थ करो नहिं छोड़ो गाँव

( दीया ) जीसों का सर काट लिया, ना मारा ना खून क्िया। ( नाखून ) अति सुन्दर जग चाहे जाको, में भी देख भुलाती वाको। देख रूप आया जो टोना, सखि साजन |! ना सल्लि सोना

इस सम्बन्ध में दूसरा महत्त्वपूर्ण नाम कबीर का है। कबीर जन्म के चाहे हिन्दू हों किन्तु उनका पालन-पोषण एक मुसलमान जुजाहे के घर में हुआ था | उनका समय संवत्‌ १४५४ से १४४२ वि० तक माना गया है। वे स्त्रामी

मुसलमानों की हिन्दी-सेवा १२३

रामानन्द जी के चेले हो गये थे-- काशी में हम प्रकट भए, रामानन्दर चेताए,। इन महात्मा ने हिन्दू मुसलमानों की एकता के लिए. बहुत यत्न किया था। ये बढ़े निर्भीक वक्ता थे। ये दोनों घर्मो के ब्राह्याडम्ब्रर की पोल खोल कर उनको धर्म का अ्रसली रूप सिखाना चाहते थे | देखिए--- अरे इन दोठन राह पाई हिन्दू अपनी करें बड़ाई गागर छुवन देई बेध्या के पायन तर सोबं यह देखो हिन्दुवाई मुसलमान के पीर ओलिया मुरगी मुरगा खाई खाला केरी बेटी ब्याह घरहि में करें सगाई ये महात्मा हिन्दी साहित्य में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवतंक श्रोर निर्गण के उपासक थे, किन्तु इन्होंने राम के नाम का माहात्म्य माना है। इनकी कविता में हठयोग-सम्बन्धी रहस्यवाद अधिक है इनका चलाया हुआ पंथ अ्रभी तक जीवित है कबीर के पश्चात्‌ मलिक मुहम्मद जायसी का नाम आता है। इन्होंने अवधी भाषा में कविता कर उस भाषा की साहित्यिक संभावनाओश्रों को प्रकाश में रक्खा और एक प्रकार से दोहा चोपाइयों की परम्पपा को चलाया। इन्होंने प्रेमन्मार्गी कविता की धारा बहाई | जायसी के प्रेम में आध्यात्मिकता की ओर संकेत है। इनकी कविता में सर्वेश्वरवाद के अ्रच्छे उदाइरण मिलते हैं। देखिये-- आपहि कागद आप मसि, आपहि लेखनहार भ्रापहि लिखनी श्राखर, त्रापहि पंडित श्रपार प्रेम-मार्गी परम्परा में जायसी के अतिरिक्त कुबन, मंकन आदि ओर भी कई प्रसिद्ध कवि हुए जिन्होंने श्रपनी वाणी से हिन्दी काव्य की सरसता बढ़ाई हे इस परम्परा में ही नूर मुहम्मद हुए उन्होंने इन्द्रावती लिखी थी। उनकी दूसरी पुस्तक अ्रनुशग बँसुरी में यद्यपि मुसलमानी दृष्टिकोश प्रधान है आर वह दीन के ही प्रचार के लिए लिखी गई थी तथारि उससें हिन्दी को

१२४ प्रधन्धव्प्र भाषर

व्यापक भाषा के रूप में स्वीकार किया गया है| दुभारा हिन्दी की श्रोर श्राकर्षित हो जाने को वे अपनी जाग्रति समभते हैं, देखिए, ३-- कामयाब कहे कोन जगावा | फिर हिन्दी भाखे पर आवा छाड फारसी कंद नवातें। असु्फाना हिन्दी रसचातें हिन्दी के मुसलमान कवियों में चोथा उल्लेखनीय नाम खानखाना रहीम का है ये बड़े उच्च घराने के मुसलमान ये इनका जन्म लाहौर में संवत्‌ १६१० में हुआ था ये महाशय जैसे युद्ध ओर राजकार्य में दक्ष थे वैसे ही साहित्य के ममश थे इन्होंने बड़े सुन्दर नीति के दोहे लिखे हैं इनकी नीति में एक मृदु हास्य रहता था | लक्रमी जी के सम्बन्ध में आप कहते हैँ-- पुरुष पुरातन की वधू क्‍यों चश्बला होइ। इनके नायिका-मेद सम्बन्धी बरवे भी बड़े उत्तम हैं। ये बरवे छुन्द के जन्मदाता माने जाते हैं। एक प्रकार से ये संस्कृत छुन्दों में हिन्दी कविता लिखने के पथ-प्रदशक़ थे मालिनी छुन्द में लिखा हुआ इनका मदनाष्टक बड़ा मनोहर है-- शरद निशि निशीये चाँद की रोशनाई, सघन बन निकुजे कान्ह बंसी बजाई, रति-पति सुत निद्रा साइयाँ छोड़ भागी, मदन शिरसि भूयः क्या बला आन लागी | रहीम भक्तिशाखा से प्रभावित थे श्रोर गोस्वामी तुलसीदास के बड़े मित्र थे | गोद लिये हुलसी फिरें तुलसी सो सुत होय यह दोहा इन्हीं का है मुसलमान कवियों में पाँचवाँ नाम जो हिन्दुओ्रों में बढ़े श्रादर से लिया जाता | खान का है। इनका समय १६१४ से १६८४ तक माना जाता है। ये दिल्‍ली के पठान ये | पीछे से इन्होंने वललभ कुल में दीक्षा ले ली थी। ये सच्चे भावुक श्रोर भगवदूभक्त थे। इन्होंने शुद्ध ब्रज-भाषा में कविता की है। इनकी कविता में प्रेम का बड़ा सुन्दर स्वरूप दिखाई देता है-- बिन गुन जोबन रूप धन, त्रिन स्वारथ हित जानि शुद्ध, कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि इनकी निम्नलिखित भक्तिमयी कामना बड़ी दी सरस है। ऐसा कोई

मुसलमानों की हिन्दी सेवा १२५४

भावुक हिन्दू होगा जो इसको सुन कर आनन्द-विभोर हो जाता हो मानुष हों तो वही रसखान, बसों सँग गोकुल गाँव के ग्वारन जो पशु हों तो कह्य बसु मेरो, चरों नित नंद की पेनु मँकारन पाइन हां तो वही गिरि को जो कियो हरि छुत्र पुरंदर घारन | जो खग हों तो बसेरो करों मिलि कालिंदी कूल कदम्ब की डारन इनके भाषाधिकार के सम्बन्ध में श्राच।यं शुक्न जी लिखते हं--शुद्ध त्रजभाषा का जो चलतापन ओर सफाई इनकी ( रसखान की ) और घनानन्द की रचनाओं में है वह अन्यत्र दुलभ है तथा अ्रनुप्रास की सुन्दर छुटा होते हुए भी भाषा की चुस्‍प्ती ओर सफाई कहीं नहीं जाने पाई है ।' यहाँ पर हम ब्रजभाषा के अ्रनन्य भक्त सैयद रसलीन को नहीं भूल सकते उन्होंने सवत्‌ १७६४ में लिखी हुई, अंग दपंण नाम की पुस्तक में अपने ब्रजमाषा प्रेम का इस प्रकार परिचय दिया है। ब्रजन्नानी सीखन रचों, यह रसलीन रसाल | गुन, सुत्रन नग, श्ररथ लहि हिय धरियो ज्यों माल उनके नीचे के दोद्दे ने, जिसको लोग बहुत काल तक तिहारी का समभते रदे हैं, जाने कितने उदू वालों के मुँह से हिन्दी कविता को 'वाहवाह ! क्‍या खूब !' वाली प्रशंसा का भाजन बनाया है | अमी हलाहल मदभरे, श्वेत श्याम रतनार | जियत मस्त क्रुकि कुकि परत, जेहि चितवत इक बार ॥| इसी प्रकार शेख, श्रालम, मुहम्मद, उसमान, कुतत्रन, मुबारक, ताज, हफोज़ुल्ला खाँ, मुंशी इंशाअल्लाइ खाँ, मीर आदि अनेक मुसलमान कवि ओर लेखक हुए हैं, जिन्होंने हिन्दी भाषा की सेवा द्वारा हिन्दुश्रों के द्वदय में स्थान पाया है ऐसे कवियों की वाणी पढ़ कर हमारे द्वृदय में मुसलमान भाइयों के प्रति सदृभावना उत्पन्न होने लगती है। जिस प्रकार इन सत्कवियों ने फारसी ओर श्ररबी में कविता लिखने की क्षमता होते हुए भी हिन्दी भाषा को श्रपनाया था उसी प्रकार झाजकल के मुसलमान भी हिन्दी को अ्रपना कर हिन्दू मुसलिम एकता की जड़ पक्की कर सकते हैं। आजकल के हिन्दी के मुसलमान लेखकों

१२६ प्रबन्‍न्ध-प्रभा कर

श्रौर कवियों में मुशी अ्रजमेरी जी तथा फल्नक जी, सैयद श्रमीर श्रली मीरं, जहूर बख्श, श्रख्तर हुसेन रायपुरी ओर मीर अ्रद्ममद ब्रिलप्रामी के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं |

२१, हिन्दी का कहानी साहित्य

“माँ, कह एक कहानी | बेटा, समझ लिया क्‍या तूने मुझककी अपनी नानी 'कह्दती हे मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी ! कह माँ, कद्द, लेटी ही ले, राजा था या रानी राजा था या रानी माँ कह एक कहानी? -- यशोधरा कहानी सुनने की प्रवृत्ति मानव समाज में प्राचीनकाल से 'वली आई हे। बालकों की रुचि जाति की रुचि की परिचायक होती हे कहानी में हमारे कौतूहल की ही तृत्ति नहीं होती वर्न्‌ उस कोतृहल के पीछे हमारी व्यापक सहानुभूति की एक श्रव्यक्त रेखा भी दिखाई पड़ती है। राजा-रानी, साहूकार ओर वजीर के बेटे-बेटियों की कहानियाँ हम छुट्पन से सुनते श्राये हैं | वतमान साहित्यिक कहानियाँ भी प्राचीन नानी की पुत्रियाँ या धेवतियाँ हैँ, किन्तु दोनों में ऐसा ही भेद है जैसा कि बूढ़ी पोपले मुँह वाली नानी ओर उसकी स्कूल-कालेज में पढने वाली ऊँची द्दील के जूतों से उन्नत, नई वेश-भूषा से सुसज्जित थेव्रती में। नई साहित्यिक कहानियाँ मानव-केन्द्रित होती हैं, उनमें देवता-दानवों और पशु-प्षियों के लिए स्थान नहीं होता | यदि पशु-त्ती श्राते भी हैं तो वे आदमियों की सी बोली नहीं बोलते श्रोर मनुष्य भी उनकी बोली को नहीं समझ पाते, मूक इंगितों से चादे कुछ श्रनुमान लगा लें श्राजकल की कह्दानियों का ज्षेत्र राजा-

हिन्दी का कद्दानी साहित्य १२७

गनियों के वृत्त वणन में सीमित नहीं रहता। इसके अ्रतिरिक्त उनमें देवी सहायता के लिए. भी श्रधिक स्थान नहीं रहता ओर श्रत्यधिक आकस्मिकता का | कोई ग्रादमी सोते से उठ कर राजा नहीं बन जाता श्राजकजल का कहानीकार एकः राजा और एक रानी से सन्तुश नहीं होना चाहता | वह उतका नामग्राम ही: नहीं देता वरन्‌ उसका स्वभाव बतला कर उसके व्यक्तित्र को प्रकाश में लाना चाहता है। आजकल के कथा-साहित्य में व्यक्तित्व का मद्दत्तव हैे। इन सत्र के अतिरिक्त वह केवल कोतृहल की तृप्ति करके मानव-जीवन के भोतरी स्तरों की! भी झाँक़ी दिखाता है। और आंतरिक भावों की बाह्य कृतियों से श्रन्विति भी करता है। आजकल का कद्दानीकार ओत्सुक्य के साथ भावुकता ओर बुद्धि दोनों की तृप्ति कर काव्य के अधिक निकट जाता है |

काव्य मानव-जीवन की आलोचना है इस परिभाषा की पूर्ति हमारा कथा-साहित्य पूर्णतया करता है। कथा-साहित्य में उपन्यास और आख्याय्रिका दोनों ही आते हैं| इन दोनों में भेद हे | उपन्यास में जीवन की अनेकरूपता मिलती है। उसमें हमको जीवन की सरिता नाना शाखा-प्रशाखाओं में बढ़ कर एक परिणाम की ओर जाती हुईं दिखाई पड़ती हे, किन्तु कहानी में हमको जीवन की एक भलक ही दिखाई पड़ती है | वह भकलक ऐसी होती है कि वह जीवन का अंग हो कर भी उससे स्वृतन्त्र एवं स्वतःपूण रहती है वह जीवन के प्रवाह में मिली हुईं हो कर भी छिपकली की पूछ की भाँति प्रवाह से अ्रलग की जा सकती है उपन्यास में भी एकलक्ष्यता रहती है किन्तु कहानी की एकलक्ष्यता बत्रिलकुल सीधी और स्पष्ट होती है सफल लक्ष्य वेध करने वाले श्रजुन की भाँति कह्ानीकार भी अ्रपनी दृष्टि को केन्द्र से बाहर नहीं जाने देता; वह चिड़िया को नहों, चिड़िया के सिर को ही देखता है

कहानीकार सीधी राह से पाठक को लक्ष्य के पास ले जाता है किन्तु वह लक्ष्य ऐसा नहीं होता जो एक साथ दिखाई पड़ जाय इसलिए सड़क में एक या दो मोड़ श्राजाय तो अच्छा है, किन्तु उसमें शाखाएँ फूटनी चाहिएँ कहानी के शीषक में उसकी भलक तो मिल जाती है लेकिन वह प्रायः शअ्रन्त में एक काव्यात्मक ढंग से पूणतया व्यक्त होती है। यह अन्तिम बात ही कहानी

रर्प प्रभन्ध प्रभाकर

का तथ्य कहलाती है इसके श्रतिरिक्त कह्दानी में घटना श्रौर भावों का सन्तुलन रहना चाहिए और साथ ही साथ उसमें कथोपकथन की सजीवता होना वांछुनीय है। कहानियाँ सन्न सच्ची तो नहीं हो सकतीं, किन्तु उनका स्वाभाविक होना आव- श्यक है उनका स्वाभाविक हो कर भी चमत्कारपूण होना सोने में सुगन्ध की बात उत्पन्न कर देता है जो कहानीकार स्वाभाविकता और चमत्कार-प्रदर्शन को ठीक अनुपात में रल सकता है, वही सफल होता है

प्राचीन संश्कृत और प्राकृत साहित्य में कहानियों का बाहुल्व रहा है ओर जातक कथाओं, कथासरित्सागर, दितोपदेश, पंचतंत्र, सिह्दसन-बत्तीसी श्रादि की कहानियों का कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। इनमें घटना-प्रधान ओर भाज-प्रधान दोनों ही प्रकार की कहानियाँ मिलती हैं

आजकल हिन्दी में जो छोटी कद्दानियाँ लिखी जाती हैं वे प्रायः बंगला द्वारा अगरेजी साहित्य की देन हैं। मासिक पत्रिकाश्रों के कारण ऐसी कहानियों की आवश्यकता प्रतीत हुईं जो एक बैठक में ही समाप्त हो सकें। कहानी ही साहित्य का एक ऐशा अ्रंग है जो साधारण पाठक के लिए रुचिकर हो सकता है। आजकल जिस पत्रिका में कहानी नहीं होती साधारण पाठक उसको उपेक्षा की इृष्टि से देखता है। प्रयाग से निकलने वाली सरस्वती द्वारा ऐसी कहानियों का प्रचार बढ़ा

यद्यपि यह कद्दना तो कठिन है कि हिन्दी की पहली कहानी कब्च ओर किसने लिखी तथाएि यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इनका प्रचार करने में सरस्वती' का बहुत बड़ा द्वाथ है ईन्दी में कहानियों का लिखा जाना संवत्‌ १६५७ से प्रारम्भ हुआ हिन्दी कहानी के प्रारम्मिक लेखकों में श्री किशोरीलाल गोस्वामी गिरिजाकुमार घोष ( पावतीनन्दन ), भज्ध महिला', पंडित रामचन्द्र शुक्ल, मास्टर भगवानदास श्रादि हैं। इन लोगों की लिखी हुई कहानियों में कुछ तो मोलिक हैं श्रोर कुछ बंगला से अनुवादित इसके पश्चात्‌ स्वनामधन्य जयशड़ूर प्रसाद जी ने इत ्षेत्र में श्रवतरित हो कर छोटी कहानियों में एक प्रकार से प्राणप्रतिष्ठा कर दी उनकी श्राकाशदीप, पुरस्कार, प्रतिध्वनि, चित्र-मन्दिर आदि कहानियों ने एक नया युग उपस्थित कर दिया।

हिन्दी का कहानी साहित्य १२६

उनकी कहानियों में स्वर्शिम आभा से विभूषित प्राचीनता के वातावरण को उपस्थित करने के श्रतिरिक्त अच्छे मनोवैज्ञानिक चित्रण आये हैं। उनमें इमको बड़े सुन्दर अ्रन्तद्वन्द्र भी दिखाई देते हैं। पुरस्कार नाम की कहानी में राजभक्ति ओर वैयक्तिक प्रेम का संघ है। आत्मत्रलिदान द्वारा मधूलिका इस इन्द्र का शमन कर देती है। इसके पश्चात्‌ विश्वम्मरनाथ शर्मा कोशिक कहानी के क्षेत्र में आये | इनकी कहानियाँ श्रधिकतर सामाजिक हैं। इनकी बहुत सी कहानियों में शहरी जीवन के अच्छे चित्र आये हैं। इनकी कहानियाँ वातालाप-प्रधान हैं

सुदशन जी का नाम भी कोशिक जी के साथ लिया जाता है। इनकी कहानियों के कुछु कथानक राजनीतिक आन्दोलन से भी लिये गये हैं। इनकी न्‍्याय-मन्त्री' नाम की कहानी ऐतिहासिक है इसने बहुत लोक-प्रियता प्राप्त की हैं इनकी लिखी हुई हार में जीत” शीषक कहानी में उच्च मानवता के दशन होते हैं| सुदर्शन जी शहरी मध्य वर्ग के प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं वास्तव में सुदशन जी कोशिक जी और प्रेमचन्द जी के साथ हिन्दी कहानी लेखकों की वृहत्‌-त्रयी में रकखे जा सकते हैं |

मुशी प्रमचन्द जी ने हिन्दी कहानियों में जान डाल दी है। इन्होंने अपनी कहानियों द्वारा साधारण मनुष्यों में भी उच्च मानवता के दशन कराये हँ। पंच परमेश्वर! में पद का उत्तरदायित्व दिखलाया है बड़े घर की बेटी' बुरे अ्रथ में भी बढ़े घर की बेटी है और भले अ्रथ में भी अपने नाम को साथक करती दै। जो देवर और पति के बीच में लड़ाई का कारण बनती है वही उनमें मेल करा कर अयने छ्वदय की मानवता का परिचय देती है। 'शतरंज के खिलाड़ी आदि कहानियाँ जीवन के श्रच्छे चित्र हैं। 'ईदगाह में गरीत्र मुस्लिम जीवन की राँकी मिलती है | मुंशी जी की कहानियाँ अधिकांश घटना- प्रधान हैं किन्तु उनमें भावुकता का भी पुट पर्याप्त मात्रा में मिलता है |

श्री चण्डीप्रसाद द्वृदयेश ने जो कहानियाँ लिखी हैं वे कद्दानी की श्रपेत्षा गद्य काव्य का नाम अ्रधिक साथक करती हैं। उनकी कहानियों में भाषा का चमत्कार अ्रधिक है।

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१३० प्रबन्ध प्रभाकर

प्रेमचन्द जी के बाद कहानी साहित्य में जैनेन्द्र जी का नाम आदर से लिया जाता है। आपकी कहानियों में युग की नई भावनाओं के दशन मिलते हैं। आपकी खेल' नाम की कहानी को पढ़ कर कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था कि हिन्दी में रवि बाबू ओर शरद्‌ बाबू हमको मिल गये और एक साथ मिले जैनेन्द्र जी की कहानियों में कथानक श्रथवा तथ्यनिरूपण का इतना मद्दत््व नहीं जितना कि मनोवैज्ञानिक चित्रण का | फिर भी बीच-बीच में वे बड़ी तथ्यपूण बातें कह देते हैं।

चन्द्रगुप्त जी विद्यालंकार ने बड़ी सुन्दर कहानियाँ लिखी हैँ। श्रापकी ताँगेवाला', ग!, डाकू', चोतीस घंटे! आदि कहानियों ने अधिक प्रसिद्धि पाई है। चोत्रीस घंटे! नाम की कहानी में क्वेटा भूकम्प का हाल है। डाकू! में दरबार साइबर के धार्मिक बातावरण का अच्छा चित्रण है। एक सप्ताह नाम की कद्दानी पत्रों में लिखी गई है

श्रज्ञय जी अब वात्सवायन के नाम से श्ञय हो गये हैं। आपने कहानी कला में विशेष निपुणता प्राप्त की है। आपकी कहानियों में विष्लव ओर विस्फोट की सी भावना रहती है। श्रापकी अमर वल्लरी' नाम की कहानी में एक विशेष काव्यभावना को ले कर पीयल वृक्ष का जीवन वृत्त आया है। यह एक प्रकार का शब्दचित्र है

श्री अन्नपूर्णा नन्द और श्री जी० पी० श्रीवास्तव ने विनोद-पूण कहानियाँ लिखी हैं। श्री चतु॒रसेन शास्त्री ने कुछ ऐतिहासिक कहानियाँ अ्रच्छी लिखी हैं उनका भाषा-प्रवाह प्रशंसनीय है। वतमान कद्दानी-लेखकों में तियारामशरण गुप्त, विनोदशझ्डुर व्यास, बेचन शर्मा उम्र, उपेन्द्रनाथ अश्क, पहाड़ी, यशपाल, राधाकृष्ण प्रभ्भति मद्दानुभावों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हँ पनन्‍त जी की पाँच कहानियों में पान वाले आदि के शब्द-चित्र देखने को मिलते हैं |

हिन्दी की स्री लेखिकाशं में शिवरानी देवी, सुभद्रा कुमारी चोहान, कमला देवी चोधरानी, उषा देवी मित्रा, होमवती तथा चन्द्रावती जेन अ्रभ्ृति देवियों ने विशेष ख्याति पाई है। श्रोमती होमवती देवी की कहानियों का संग्रह “निसग” नाम से छुपा है

हिन्दी-सा हित्य में समालोचना १३१

हमारे समाज में नई सम्यता के जो नये भाव आये हैं उनकी छाप हमारे कह्दानी-साहित्य पर पड़ती जा रही है हमारे कहानी-साहित्य का वुन- क्षेत्र बहुत व्यापक होता जा रहा है। उसमें बेल-बकरों को भी मनुष्य के साथ- साथ रागात्मक सम्बन्ध में रकक्‍्खा जाता है। इसी के साथ-साथ भाव-विश्लेषण ओर मनोवैज्ञानिकता बढती जा रही है इस उन्नति को देख कर यह आशा की जा सकती है कि वह शीघ्र ही विश्व-साहित्य से टक्कर ले सकेगा

२२, हिन्दी-साहित्य में समालोचना

यद्यपि श्रालोचनात्मक सूक्षियाँ तो बहुत काल से वर्तमान हैं तथापि हिन्दी में बतमान ढंग की समालोचना का सूत्रपात इरिश्चन्द्र्युग से हुआ है। पं० बदरीनारायण जी चोघरी ने अपनी 'आनन्द-कादम्ब्रिनी पत्रिका में कई सप्रालोचनात्मक लेख निकाले | पत्र-पत्रिकाशं की उन्नति के साथन्साथ समा- लोचना शैली में भी उन्नति होती गई | कुछ समालोचनाएँ पुस्तक-रूप में भी लिखी गईं। स्वानामधन्य आचाय महावीरप्रसाद द्विवेदी ने कालिदास की निरंकुशता नामक पुस्तक में कालिदास के ग्रन्थों की निर्णयात्मक समालोचना (]ए2ध८ंथा ८(८५9॥) लिखी और विक्रमाडुदेव चरित चचा” और “निषध- चरित-चर्चा” नाम की पुष्तकों में परिचयात्मक समालोचना के उदाहरण उपस्थित किये

लिखित ग्रन्थों के रूप में मिश्न-बन्धुओ्रों का हिन्दी नवरत्न विशेष रूप से उल्लेखनीय है यद्यपि बहुत से लोग उनके निणयों से सहमत नहीं हैं, तथापि मिश्र-बन्धुओं ने उस समय के लिए बहुत अच्छा काम किया | उन्होंने कवियों की भाषा, विषय तथा काव्यकला-सम्बन्धिनी विशेषताश्रों को बतलाने के अ्रति- रिक्त हिन्दी के नवरत्नों का सापेज्षिक स्थान भी निधोरित करने का उद्योग किया | पुस्तक में बहुत सी बहुमूल्य सामग्री है, किन्तु उसके पढ़ने से यह प्रतीत होता है कि वे किसी संध्था क्षरा परीक्षक नियुक्त हुए हों। उन्होंने बिहारी को देव से नीचा स्थान दे कर एक वाद खड़ा कर दिया | उससे साहित्य में कुछु सजीवता आगे

१३१२ ' प्रबन्ध-प्रभाकर

स्वर्गीय पं० पद्मसिंद शर्मा ने 'तिहारी सतसई की भूमिका" नामक प्रन्थ में बिहारी की तुलनात्मक समालोचना निकाली उसमें उन्होंने ब्रिहदरी की उसके पूब॑वर्ती ओर परवर्ती कवियों से तुलना कर, बिहारी की उत्कृष्टता दिखलाई। यद्यपि उनकी समालोचना में पक्षणात ओर महफिली-दाद सी दिखाई पड़ती है, तथापि उससे बिहारी के सम्बन्ध में लोगों की जानकारी बहुत कुछ बढ़ गई हे देव ओर भिहारी के विवाद के सम्बन्ध में प० कृष्णुविह्री मिश्र ने देव ओर बिहारी! नाम का बहुत ही विद्गत्तापूण ग्रन्थ लिखा है। उन्होंने यद्यपि देव का पक्ष लिया है तथापि बिहारी के मद्दत्त को पूर्णतया स्वीकार कर अपनी निष्पक्षता का पूर्ण परिचय दिया है। बिहारी को उनके छोटे छुन्दों के कारण, जुही की कली कहा है तो देव को कमल का फूल ठहराया है लाला भगवानदीन ने भी विदह्यरी का पल्‍ला ऊँचा दिखाने के लिए 'ब्रिहरी ओर देव' नाम की पुस्‍्ठतक लिखी है |

क्रमशः आलोचना का आदश बदल गया है अन्न किसी बँधी हुई रीति या नियमावली के आधार पर काव्य के गुण-दोष बतलाने की श्रपेत्ञा समीक्षक आ्रालोच्य कृति द्वारा लेखक या कबि की श्रन्तरात्मा में प्रवेश कर उसके भावों को एक व्यवस्थित रूप में उपस्थित करना अपना मुख्य ध्येय समभता है। वह केवल यह निणुय दे कर सन्तुष्ट नहीं हो जाता कि किसी रचना(में अमुक मात्रा में नीर है और श्रमुक मात्रा में क्षीर, वरन्‌ वह क्षीर के रसास्वादन में भी सहायक होता है आजकल प्रायः ञ्रालोचक इसी आदश को अपने सामने रखते हैं इस प्रकार की श्रालोचना को व्याख्यात्माक ( ॥07८0४८ ) आलोचना कहते हैं। तुलनात्मक आलोचना भी इस प्रकार की व्याख्या में सहायक होती है। इसी प्रकार कवि की ऐतिहासिक परिस्थितियों को बतला कर उसकी कृतियों में समय का श्रभाव बतलाना ऐतिहासिक आआलो- चना ( #9(0८8| (/(८शा ) कहलाती है ओर स्वयं कवि की मानसिक स्थिति पर प्रकाश डाल कर उसकी कृतियों द्वारा उसकी वैयक्तिक छाप को प्रकाश में लाना मनोवेशनिक श्रालोचना ( 75/0ाणे०्ड्डट४ (एटा ) कहाती है। ये दोनों प्रकार की झआालोचनाएँ व्याख्या में योग देती हैं अ्रपने

हिन्दी-साहित्य में समालोचना १३३

मन पर पड़े हुए प्रभाव को ही मुख्यता दे कर कवि की प्रशंसा के पुल बाँध देना या निन्‍्दा का बवंडर खड़ा कर देना प्रभावात्मक आलोचना ( ॥॥[॥८5॥0०75( (.एटांआा ) कहलाती है उसमें क्या खूब कहा), बस बात फिर बैठ गई, “वह तो शक्कर की रोटी है जिधर से तोड़ो उधर ही मीठी है! ऐसे वाक्यों की प्रधानता रहती है। पंडित पद्मसिंह शर्मा भी अपने उत्साह्धिक्य में कहीं कहीं ऐसी ही श्रालोचना कर बेठे हैं |

आचाय शुक्ल जी ने तुलसी ग्रन्थावली' की भूमिका में तुलसीदास की, 'भ्रमरगीतसार' की भूमिका में सूर की श्रोर जायसी ग्रन्थावली' की भूमिका द्वारा जायसी की आलोचना कर हिन्दी में व्याख्यात्मक आलोचना का यथाथ रूप से पथ-प्रदर्शन किया है आचाय शुक्ल जी यद्यपि पाश्चात्य आदशों से प्रभावित हैं तथापि उन्होंने भारतीय रसपद्धति का ग्राश्रय लिया है और उसमें भाव ओर विभाव दोनों पक्षों को ही मुख्यता दी है ब्रिना विभावों के अनगल भावों की » खला जोड़ने वालों के अथवा केवल शैली को मदत्त्व देने वाले कोरे अ्रभिव्यंजनावादियों के वे सख्त खिलाफ हैं

हाल ही में त्रिहारी के ऊपर श्री विश्वनाथ प्रसाद मिश्र लिखित बिहारी की वाग्विभूति' नाम की एक आलोचनात्मक पुस्तक निकली है उसमें बिहारी की भाषा, उनकी भक्ति भावना, भाव-व्यंज्ञना आदि बातों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है | दुलारे दोहावली' के सुप्रतिद्ध टीकाकार सिलाकारीजी ने ब्रिदह्दरा दशन' नाम की अच्छी पुश्तक लिखी है पुस्तक में त्रिहारी पर किये जाने वाले आआज्ञेपों का भी उत्तर दिया गया है, ओर उनके जीवन वृत्त पर भी विवेचना की गई हे

आजकल कई कवियों पर समालोचनात्मक अन्थ निकल चुके हैं | पं०

कृष्णशड्डर शुक्ल का कविवर रत्नाकर पर एक ग्रन्थ निकला है, जिसमें लेखक ने उनके विभाव-चित्रण ओर अ्रलंकारों तथा रसों की अच्छी विवेचना की है। 'केशव की काव्य कला' में केशवदास के श्राचायत्व और कवित्व पर अ्रच्छा प्रकाश डाला गया है। श्री भुवनेश्वर नाथ मिश्र-कृत 'मीरा की प्रेम-साधना' भी एक बहुत उत्तम ग्रन्थ है उतमें मीरा के विरृश्रधान गोत-काव्य का

श्रे४ प्रबन्ध-प्रभाकर

सुन्दर विवेचन है श्री रामकुमार वर्मा ने 'कभीर का रहस्यवाद नामक ग्रन्थ में कबीर के सिद्धान्तों पर आवश्यक आलोक डाला है उनके हठयोग की भी व्याख्या की गई है | ग्राधुनिक कवियों के ऊपर कई सुन्दर ग्रन्थ निकल चुके हैं। श्री जयशद्भूर प्रसाद पर तो पाँच ग्रन्थ निकल चुके हैं। इनमें दो (एक श्री सत्यपाल जी विद्यालंकार द्वारा कामायनी का सरल अध्ययन दूसरा श्रो गंगा- प्रसाद पाण्डे द्वारा कामायनी का परिचय ) तो केवल कामायनी पर ही हैं। एक हो कवि पर बहुत से आलोचनात्मक ग्रन्थ निकलने से अ्रभ्ययन में बड़ा सुभीता होता है भ्री नगेन्द्र जी के सुमित्रानन्दन पंत' में छायावादी कला का अच्छा विश्लेषण है |

तुलसी के सम्बन्ध में श्रालोचनात्मक साहित्य की श्रच्छी सृष्टि हुई है। तुलसी ग्रन्थावली के तृतीय भाग में तुलसी के सम्बन्ध में कई महत्त्वपूर्ण लेख निकले हैं, उनमें श्री रामचन्द्र शुक्ल की प्रस्तावना तुलसीदास नाम से श्रलग पुस्तक के रूप में निकल गई है। व्याख्यात्मक समालोचना में वह एक उच्च- कोटि का अन्थ है | उसमें गोस्वामी जी के भावों की एक प्रकार से गद्य में पुनः सृष्टि की गई है। रायबहादुर बाबू श्यामसुन्ददास जी के तुलसीदास” में गोस्वामी जी की जीवनी पर, मूल गुसाह चरित' के आधार पर, श्रच्छा प्रकाश डाला गया है |

श्रीसद्गुरुशरण श्रवस्थी के तुलसी के चार दल' ने भी तुलसी-साहित्य का महत्त्व बढ़ाया है | उन्होंने तुलसीदासजी के जानकी मड्जल, पावती मज्जल, रामलला नहकछू और बरबै रामायण पर कई दृष्ठि-कोणों से प्रकाश डाला है। उसमें बहुत सी रस ओर श्रलंकार सम्बन्धी पठनीय सामग्री का समावेश किया गया है। मिश्रत्रन्धुओ्रों ने पार्वती-मद्धल, नहर आदि ग्रन्थों के प्रामाणिक होने में जो शड्डाएँ उपस्थित की हैं, पुस्तक के विश लेखक ने उनका बड़ी सफलता के साथ निराकरण किया है।

श्री माताप्रसाद गुस ने तुलसी सन्दभ में मूल गुसाई चरित को श्रप्रामाणिक सिद्ध करने का यत्न किया है इसकी भी विषेचना बहुत मार्मिक हे | तुलसी-कृत ग्रन्थों के काल-निर्णय के लिए, इसमें उपादेय शामग्री है। अ्रत

हिन्दी-साहित्य में समालोचना १३५,

5ुलसी सन्दर्भ' की सामग्री तुलसीदास” नाम के ग्रन्थ में समाविष्ट हो गई है। हाल ही में पं० रामत्रहोरी शुक्ल ने गोस्वामी जी के ग्रन्थों का सुन्दर अ्रध्ययन तुलसी नामक ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है |

सूरदासजी के ऊपर भी श्री इजारीप्रसाद द्विवेदी ने एक बहुत उत्तम ग्रन्थ लिखा है। उसमें सूर की विद्यापति आदि वैष्णव कवियों से तुलना की गई है| श्रीगमरतन मटनागर तथा श्री वाचस्पति त्रिवाठी लिखित सूर साहित्य की भूमिका में सूरकाव्य से सम्बन्ध रखने वाली प्रायः सभी बातों का ( जैसे भक्ति, इतिहास, श्री वल्लभाचाय के सिद्धांत, सूर सागर से भागवत की तुलना ) समावेश किया गया दहै। सिद्धांत के अनुकूल सूर-साहित्य से सद्चारी भावों ओर मनोदशाओं के उदाहरण दे कर उनके आस्वादन मे इस पुधतक से अ्रच्छी सहा- यता मिलती है।

म्रध्यकालीन साहित्य एवं वर्तमान काल की धाराओं के सम्बन्ध में कई ग्रन्थ निकले हैं; जिनमें श्री पदुमलाल पुत्रालाल बख्शी के दिन्दी साहित्य विमश' का स्थान ऊँचा है। उन्होंने अपने 'विश्वसाहित्य में साहित्य के द्वारा मानव-जाति में प्रेम और ऐक्य भाव स्थापित होने का एक दिव्य सन्देश दिया है| डा० इन्द्रनाथ मदान के हिन्दी कलाकार में प्रचीन ओर अर्वांचीन कवियों ओर नाटक तथा उपन्यास-लेखकों का अच्छा अध्ययन उपस्थित किया गया है। १० रामकृष्ण शुक्ल का सुकवि-समीक्षा' ओर श्री नरोत्तम स्वामी का 'ब्िमृर्ति' भी मनन करने योग्य ग्रन्थ है |

बाबू श्यामसुन्दर दास ने अपने साहित्यालोचन' द्वारा साहित्य के भिन्न- मिन्न अंगों का परस्पर सम्बन्ध और महत्त्व बतला कर समालोचना के काय में एक प्रकार की सुगमता उत्पन्न कर दी है | डाक्टर खीन्द्रनाथ के साहित्य के अनुवाद ने भी लोगों की साहित्य और कला-सम्बन्धी रुचि को परिमार्जित करने में बहुत कुछ योग दिया है। रायतब्रह्मदुर डा० श्याम- सुन्दर दास के ' हिन्दी भाषा ओर साहित्य का इतिहास” ने बाह्य परिस्थितियों को बतला कर व्याख्यात्मक समालोचना के क्षेत्र में अ्रच्छा काम किया हे। आज-कल और भी कई भाषा के इतिहास निकले हैं, जिनमें आचाय पं

१३६ प्रन्‍ननध प्रभाकर

रामचन्द्र शुक्ल का हिन्दी साहित्य का इतिहास, डा० सूर्यकांत का हिंदी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास, डा० रामकुमार वर्मा का हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' एवं डा० सोमनाथ गुप्त का हिन्दी नाठक साहित्य का इतिहास मुख्य हैं। इन ग्रन्थों से हिंदी भाषा के उन आंतरिक और बाह्य स्रोतों का पता लगता है जिनसे हिंदी काव्य की धारा का प्रभाव अविच्छिन्न रूप से श्राज तक बहा चला रहा है। पं० जयचन्द्र विद्यालंकार की पुस्तक “भारतीय वाड मय के अमर रत्न! छोटी होने पर भी पांडित्यपूण है। इसमें आदि से मध्यकाल तक के समस्त भारतीय वाडमय का दिग्दिशन कराया गया है |

उपयुक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त और भी समालोचना-संत्रंधी फुठकर ग्रन्थ निकले हैं। पं० रामकृष्ण शुक्ल ने प्रसाद जी की नाव्यकला' में नाख्यकला के साधारण तिद्धांतों को बतला कर प्रसाद जी के नायकों पर अच्छा प्रकाश डाला है प्रसाद जी के दो नाटक नाम की एक ओर पुस्तक निकली है। श्री जनादन का तथा डा० रामविलास शर्मा ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से प्रेमचन्द जी के सम्बन्ध में एक अ्रच्छी पुस्तक लिखी है। का महोदय की पुश्तक में कला के ऊपर अधिक जोर है ओर शमा जी की पुस्तक में विचारधारा पर अ्रधिक बल दिया गया है। उनका दृष्टिकोण प्रगतिवादी है। उपन्यासों और नाटकों की सप्ालोचना के सम्बन्ध में ऐसे बहुत से ग्रन्थों की आवश्यकता है | प्रसन्नता की बात है कि अ्रत्र नाटक साहित्य और उपन्यास साहित्य पर भी आलोचनात्मक ग्रन्थ निकल रहे हैं

समालोचना के शिद्धान्तों पर भी बाबू श्यामसुन्दर दास जी के साहित्या- लोचन' के अतिरिक्त कई और ग्रन्थ निकल गये हैं। लेखक का सिद्धान्त ओर अध्ययन ओर डाक्टर सूयकान्त शास्त्री का साहित्य मीमांसा' नाम के ग्रन्थ विशेष प्रचार में चले हैँ श्री नलिनीमोहन सान्याल ने अपने आआलो- चनातत््व' में मनोवैज्ञानिक पक्त लिया है। श्री सुधांशु जो का काव्य में श्रमि- व्यज्ञनावाद' एक बहुत उच्च कोटि का गन्थ है। उसमें क्रोचे ((०८८) के अभिव्यश्ननावाद के अ्रतिरिक्त अ्रपने यहाँ के श्रलंकार शान्न के कई मतों को

हिन्दी का प्रगतिशील साहित्य १३७

अच्छी विवेचना है। श्री शान्तिप्रिय द्विवेदी के कवि ओर काव्य! में प्राचीन श्रोर श्रर्वांचीन कवियों के काव्य पर बहुत मार्मिक विवेचना है। श्री पुरुषोत्तम जी ने आदश और यथाथ' नाम की पुस्तक में आदश और यथाथ का पारस्परिक सम्बन्ध बतला कर इस दिशा में बड़ी मूल्यवान सामग्री उपस्थित की हे | ऐसे ग्रन्थों ने हिन्दी में सेद्ान्तिक अलोचना (579८८ए।80५४८ (टपटांशा) की कमी पूरी की है | प्राचीन रीति ग्रन्थों का भी श्रत्र श्राधुनिक ठग से मूल्यांकन होने लगा है। डाक्टर नगेन्द्र की रीतिकाल की भूनिका' ओर डाक़्टर भगीरथ प्रसाद मिश्र का दिन्दी काव्यशास्त्र का इतिहास' इस दिशा में अच्छे प्रयक्ष हैं। हिन्दी की आलोचना का आरम्म तो पाश्चात्य प्रभावों से हुआ था किन्तु अब उस पर प्राचीन रस सिद्धान्त का पर्याप्त प्रभाव है उसमें मूल्यों का भी मान है किन्तु वे कोरे भोतिक मूल्य नहीं हैं। उनमें श्राध्यात्मिक मूल्यों को विशेष महत््त दिया जाता है प्रगतिवादी तो केवल मौतिक काव्यों को ही मदतत्तत देते हैं, किन्तु अधिकांश लोग आध्यात्मिक और सौंदय सम्बन्धी मूल्यों को भी मान देते हैं। हमारे आलोचना साहित्य में एक विशेष व्यक्तित्व आता जा रहा है | हथ की बात है कि हिन्दी का आलोचना साहित्य दिन प्रतिदिन उन्नति कर रहा हे

२३. हिन्दी का प्रगतिशील साहित्य

गतिशीलता के दो अथ हैं। एक साधारण, जिसके अश्रनुसार साहित्य में जो कुछ उन्नति होती है, वही प्रगतिशीलता हे ओर जो साहित्य जनहित का साधक है वही प्रगतिशील साहित्य है। दूसरा पारिमाषिक श्रथ है जिसके श्रनुकूल एक विशेष सम्प्रदाय की विचारधारा से प्रभावित हो कर साहित्य का सज्नन करना प्रगतिशीलता है। पहले श्रथ में भारतीय साहित्य का भीगणेश द्वी प्रगतिशीलता में हुआ है जनहित हमारे साहित्य का आरम्भ से ही ध्येय रद्या है। महर्षि वाल्मीकि ने काम-मोहित क्रोंच के वध से दुःखित हे कर भा निषाद प्रतिष्ठां ववमगमः शाश्वतीः समा का जो पहला शअ्रनुष्ठुप छुन्द

श्श्द्ध प्रचन्ध-प्रभाकर

लिखा उसमें उन्होंने प्रणतिशीलता का शिलान्यास किया उसमें कवि का ध्यान जीवन की वास्तविकताओं की ओर गया ओर उसने श्रत्याचारी के प्रति अपने मन का विद्रोह स्पष्ट रूप में व्यक्त किया है। रामायण, ओर महाभारत में भी, अत्याचारपीड़ित मानवता की करुण पुकार सुनाई पड़ती है। काव्यों में राजाश्रों के विलास-वैभव का वर्णन अवश्य है किन्तु उनमें भी श्रत्याचार के प्रति विद्रोह की भावना स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। मेघदूत का कवि लोल अपाज् वाली पौर-ललनाओं के साथ भ्रविकारानभिश जनपद- (ग्राम ) ब॒ध॒श्रों त्तथा उदयन-कथाकोविद ग्रामबृद्धों को भूल नहीं जाता

हिन्दी के वीरगाथा-काल में सामन्तशाही प्रभाव की प्रचलता के साथ व्यापक राष्ट्रीयता का भी श्रमाव था, किन्तु आपस की मारकाट के साथ कहीं- कहीं आक्रमणकारियों के प्रति भी विद्रोह की भावना प्रकट होती है। उस समय के साहित्य में इतनी ही प्रगतिशीलता थी कि चन्द बरदाई आदि महाकवि लेखनीं के ही शूर थे वरन्‌ तलवार के भी बीर थे ओर उस साहित्य का तत्कालीन जीवन से सम्पक भी था ( यद्यपि वह जीवन मजदूर श्रोर किसान के जीवन से बहुत दूर था ) |

सन्त कवि समताभाव के प्रतिपादक होने के कारण सच्चे प्रगतिशील थे | कबीर तो अपने समय से बढ़े हुए ये। उन्होंने तो वण-व्यवस्था पर बड़ा जबरदस्त कुठाराघरात किया थां। नानक ने भी यही किया | प्रायः सभी सन्त कवि जाति पाँति पूँछे न्दिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई' के मानने वाले थे। प्रेम-मार्गी कवियों में समता भाव इतने प्रबल रूप में तो नहीं था किन्तु जैसा आचाय शुक्ल जी ने दिखाया है, उनमें भी लोकपक्षु का श्रभाव था ( यद्यपि उसका अस्तित्व बहुत ही क्षीण ओर घुचली रेखाश्रों में था ) |

भक्त कवियों में संसार को मृग-वारिं ओर रज्जो यथाहेश्न म? मानने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी भी अपने समय की परिस्थिति से बेखचर थे। खेती किसान को भिखारी को भीख बलि, बनिक को बानिज चाकर को ववाकरी' श्रोर दारिद्रथ दानव से सीद्यमान प्रजा की विषम परिस्थिति की उन्हें खबर थी। “जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो टप॒ अवसि नरक अ्रधिकारी'

हिन्दी का प्रगतिशील साहित्य १३६

कह कर उन्होंने किसानों के प्रति अपनी सहानुभूति दिखाई है। सूर ने भी 'खेलत में को काको गुसै्या' ओर प्रेम के नाते ही सह्दी, कृष्ण को खरी-खोटी कहला कर सम्रताभाव का पक्ष लिया दे। कुंभनदास ने सन्तन को कहट्दा सीकरी सों काम कह्ट कर तत्कालीन सामन्तशाही का तिरस्कार किया था। तुलसी वर्ण॑- व्यवस्था के अवश्य पोषक थे, किन्तु कृष्ण-मक्त कवि रूढ़ियों श्रोर लोक-मर्यादा के प्रति विद्रोही नहीं तो उदासीन अवश्य थे। रीति-काल की प्रगतिशीलता शायद इतनी ही थी कि उसने सन्‍्तों श्रोर भक्तों की बढ़ती हुई वैराग्य-भावना को सांसारिकता की ओर ले जा कर उसका संतुलन उपस्थित कर दिया था। विलास का मद उस काल में बढ़ा हुआ था ओर साहित्य रूढ़ियों के दलदल में फंस गया था भारतेन्दु इरिश्चन्द्र ने इस रूद्रिग्रस्त शज्ञार के वातावरण में भारत-दुदंशा पर चार आँसू बहा कर अपनी प्रगतिशीलता का परिचय दिया था, उनकी निम्नोल्लिखित पंक्तियाँ बहुत प्रसिद्ध हो चुकी हैं :-- ग्रग्रेन राज सुख साज सजे सब्र भारी | पै घन विदेश चलि जात यहै श्रति ख्वारी ताहू पै महंगी काल रोग विस्तारी। दिन-दिन दूने दुख ईंश देत हवा | हवा | री सबके ऊपर टिक्क्स की आफत आई हा हा! भारत दुदशा देखी जाई द्विवेदी-युग में राष्ट्रीय साहित्य में पर्याप्त प्रगति-शीलता थी, किन्तु उसमें वतमान की श्रपेज्षा प्राचीन गौरव-गरिमा का कुछु अधिक बखान था। भारत भारती उस समय की प्रमुख पुश्तक थी। चरित्र-निर्माण की भाषना ओर उ+देशात्मकता अधिक थी | राजनीतिक उत्थान में पर्याप्त सफलता देख कर हमारे साहित्य में दुःखवाद ओर पलायनवाद की प्रवृत्ति श्राई ले चल वहाँ भुलावा दे कर मेरे नाविक ! धीरे-धीरे जिस निजन में सागर लहरी, अम्बर के कानों में गहरी

९४० प्रबन्ध-प्रभोकर

निश्छुल प्रेम कथा कहती हो तज कोलाइल की अ्रवनी रे !!

छायावाद के साथ यद्यपि पलायनवाद लगा हुआ था तथापि उसके द्वारा भाषा के स्वतंत्र प्रयोग हुए | छुंद से मुक्ति मिली ओर प्रकृति के प्रति दृष्टिकोण बदला और »गार का संस्कार हुआ यह भी एक प्रगति थी

इन प्रेम-कथाओं के साथ नवीन जी की 'कवि कुछ ऐसी तान सुनाश्रो, जिससे उथल-पुथल मच जाए--नाश और सत्यानाशों का घुश्रांधार जग में छा जाए! ओर निराला जी की जागो फिर एक बार की तान सुनाई पड़ जाती थी | मुशी प्रेमचन्द जी ने भी किसानों फा पक्त लिया था। यह सत्र प्रगति युग का अरुणोदय थाघ। आचाय रामचन्द्र शुक्ल ने छायावाद में लोक-पक्त के ग्रभाव ओर जीवन के अछुतेपन की ओर ध्यान दिलाया था। पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी ने 'कस्मै देवाय' के उत्तर में किसानों और जनता जनादन का पक्त ले कर प्रगतिवाद का अग्रदूतत्व किया था

सन्‌ १६३४ में फ्रांस के विदेशी वातावरण में भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुईं। डाक्टर मुल्कराज आनन्द ओर सज्जाद आदि लेखक इसके प्रवतक हुए अप्रेल सन्‌ १६३६ में पहली भारतीय काम्फर्रेंस मुशी प्रेमचन्द जी के सभापतित्व में हुईं दूसरी कान्फरेंस कलकत्ते में डाक्टर रवीद्धनाथ ठाकुर की अध्यक्षता में हुईं। तभी से प्रगतिवाद का पारिमाषिक अथ में सूत्रपात हुआ | इसकी मूल धारणाएँ इस प्रकार हैं :--

(१) साहित्यकार जीवन से अलग नहीं रह सकता उसको जीवन का चित्रण ही नहीं करना चाहिए, वरन्‌ जीवन-सम्बन्धी समध्याश्रों के इल करने में क्रियात्मक भाग भी लेना चाहिए

(२) कविता संसार को किसी सुख-स्वप्न में भुला देने की वस्तु नहीं वरन्‌ संघष में प्रवेश कराने की वस्तु है। समाज के करुण क्रन्दन को अश्रब अफीम की मात्रा दे कर शमन करने की आवश्यकता नहीं, श्रब तो समाज के गलित अंगों में चौरा लगा कर उसकी सड़ान को दूर करना आवश्यक है। समाज में सामन्तशादी पूँजीवाद, फासिज्म औ्रोर साम्राज्यवाद की जो शक्तियाँ हैं

हिन्दी का प्रगतिशील साहित्य १४१

उनके समूल नाश करने में ही समाज का कल्याण है। प्रगतिवाद वर्ग-संघर्ष- द्वारा वर्गहीन समाज स्थापित करने के पक्त में है। युगवाणी में पंत जी ने उस समाज का आदर्श इस प्रकार बतलाया है--

श्रेणि-वरग में मानव नहीं विभाजित

धन-बल से हो जहाँ जन-श्रम-शोषण

पूरित भव जीवन के निखिल प्रयोजन

निराला जी के कुश्रमुत्ता' काव्य में कुकरमुत्ता की ओर से गुलाब के फूल को चुनौती है। यह शोषित वर्ग की श्रोर से शोषकों के प्रति चुनोती है-।

इसलिए प्रगतिवाद ऐसे साहित्य-निर्मांण के पक्त में है जो साम्यमूलक वर्गहीन समाज की स्थापना में सहायक हो वह व्यक्ति की प्रेमनयीड़ा सुनना नहीं चाहता वरन्‌ समष्टि का क्षुधा-पिपासा-प्रेरित श्रार्तनाद सुनने को उत्सुक रहता है। इसलिए दिनकर के शब्दों में श्रब उसकी कविता नील-कुंन् में स्वप्न खोजेगी ओर चन्द्रकिरणों से चित्र बनायगी--

आज उड़ के नील-कुंज में स्व्॑न खोजने जाऊंगी ; आज घमेली में चन्द्र किरणों से चित्र बनाऊंगी।

( ) संसार में श्राध्यात्मिक आवश्यकताश्रों की श्रपेत्षा क्लुधा-पिपासा सम्बन्धी भौतिक आवश्यकताएँ मुख्य हैं; सुन्दर हो जनवास वसन सुन्दर तन! कला ओर काव्य पेट भरे पर सूभते हैं; भूखे भजन होइ गुपाला भूखे के लिए. तो तुलसीदास जी के शब्दों में चार चने ही धमं, अर, काम, मोक्ष चारों फल हैं। भूखे के लिए उषा का स्वण-सुद्दाग कोई अर्थ नहीं रखता ओर तारकहीरक-कर्णों से विखचित वेणी वाली वसन्त-रजनी यदि छायावाद स्थूल के प्रति सूद्रम का विद्रोह था तो प्रगतिवाद सूचुम के प्रति स्थूल का विद्रोह है छायावाद जहाँ वस्तु को उसकी कटी-छुँटी सीमा में देख कर उसको भाव की स्वणिम श्राभा से विभूषित करता था वहाँ प्रगतिवाद उसे नग्न रूप में देखना चाहता है |

( ) कला ओर साहित्य का श्रवश्य निर्माण हो किन्तु वह प्रोले- तेरियत अर्थात्‌ जन साधारण के लिए हो शोषित-पीढ़ित प्रानव डी उसके

१४२ प्रबनन्ध-प्रभाकर

आलम्बन दों। कविताएं किसानों, मज़दूरों श्रादि सवहारावर्ग पर लिखी जायें क्योंकि मूद असमभ्य दूषित ही भू के उपकारक हैं और पंडित, शानी, दानी आदि जिन लोगों को पिछली संस्कृति में मान दिया जाता था, वे सच प्रतारक ओर प्रवंचक हैं

(५ ) जीवन की वास्तविकताओं के साथ सम्पर्क रखने के लिए प्रगति- वादी यथायथवाद की ओर ऊुक़ा हुआ है वह यथाथवाद बीमत्स और कुरूप के चित्रण से नहीं घबराता ग्रामीणों के घरों के चित्रण के सम्बन्ध में श्री भगवतीचरण वर्मा की 'भेंसा गाड़ी की कविता काफी मशहूर हो चुकी है

चरमर-चरमर-चू चरर-मरर जा रही चली मेंसा गाड़ी नि ते भू की छाती पर फोड़ों-से हैं उठे हुए कुछ कच्चे घर ; में कहता हूँ खेंडहर उसको पर वे कहते हैं उसे ग्राम | दिनकर जी ने भी महलों के वैभव की तुलना में भारत की गरीबी का बड़ा हृदयद्वावक चित्र खींचा है; देखिए:---

श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं ,

माँ की दहड़ी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं ,

युवती की लज्जा वसन बेच जब व्याज चुकाये जाते हैं ,

मालिक जब तेल फुल्लेलों पर, पानी सा द्रव्य बहते हैं,

पापी महलों का अहंकार, देता मुभकों तब आमंत्रण |

अंचल जी के 'करील' में हमको ऐसे चित्र मिलते हैं 'करील' स्वयं सामाजिक शोषण का प्रतीक है

(६ ) दशन ओर धार्मिक विश्वासों में प्रगतिवाद माक्सवाद के भौतिकवाद को अपनाये हुए हे राजनीतिक आदर्श भी वह सोबियत रूस से ग्रहण करता है। कविताओं में भी वह रूत का गुणगान करता दै। मास्को अब

हिन्दी का प्रगतिशील साहित्य १४२.

भी दूर हे, सुमन जी की यद कविता काकी ख्याति पा चुकी है |

(७ ) सौंदय-बोध अब्र मधु, पराग ओर सुमनों, आम्र-मंजरियों ओर ग्रलिबालाओं में नहीं रहा वरन्‌ श्रव साधारण सी चांज में भी होने लगा है |, अब हीन ओर अल्प ही महान बन गया हे

पीले पत्ते, दूटी यहनी, छिलके, कंकर पत्थर कूड़ा करकट सच कुछ भू पर, लगता साथक सुन्दर ।'

(८ ) अभिव्यक्ति का माध्यम सरल और सुत्रोध होना चाहिए. जिस से कि कवि की वाणी जन साधारण तक पहुँच सके | प्रगतिवाद ने हिन्दी को उदू के बहुत निकट लाने का उद्योंग किया है किन्तु संस्‍्कार-वश प्रगतिवादी कवि संस्कृत-गर्मित हिन्दी में कविता करते रहे हैं

(६ ) आलोचना का मानदश्ड उपयोगितावादी हो गया हे। जो साहित्य शोषित पीड़ित मानव, किसानों श्रोर मजदूरों का पक्ष ले अथवा पूँजीवाद ओर फासिज्म का विरोध करे वद उत्तम है, जो पूजीवादी या सामन्तशाही संस्‍्कृति का चित्रण करे, वह निदकृष्ट है

प्रगतिताद ने हमारे जीवन का मुख जीवन की ओर मोड़ा जीवन की विषमताओं की ओर हमारा ध्यान आ्राकृष्ट किया सवहारा वर्ग को उत्थान दे उसने साम्य भावना को प्रमुखता दी और हिन्दू मुसलमानों को भी एक दूसरे के: निकट लाने का प्रयत्न किया | प्रगतिवाद हमको स्त्राथपरायण व्यक्तिवाद से हटा कर समष्टिवाद की ओर ले गया है ! उसने लेखकों को शब्या-सेवी अकर्मस्य नहीं रक्‍ला है | प्रगतिवाद में जहाँ इतने गुण हैं वहाँ कुछ दोष भी हैं। उसने वर्ग चेतना को बढ़ा कर दोनों के बीच की खाई को ओर भी चोड़ा कर दिया है। संघर्ष को ही उसने एकमात्र साधन माना है; शान्तिपू्ण श्रोर अहिंसात्मक साधनों पर उसने विचार नहीं किया है ओर माक्सवाद का धार्मिक कट्टरता के साथ पक्ष-समर्थन करता है। मत-्स्वातन्त्य की वह गुंजायश नहीं छोड़ता जो उसका साथ नहीं देते उनको वह प्रतिक्रियावादी या प्रतिगामी कहता दे (इस सम्बन्ध में श्रब कुछ उदारता आती जाती है )। यथाथवाद ओर झरुढ़ियों से स्वतन्त्र होने के नाम पर वह श्रश्लीलता को आश्रय देता है श्रोर पूजीवाद को

२४४ प्रचन्ध-प्र भाकर

गाली देने में कला ओर कविता के गौरव का ध्यान नहीं रखता। छायावाद श्रोर रहस्यवाद की भांति प्रगतिवाद भी एक रूढियुक्त शब्दावली को जिसमें पूँ जीवादी, मुनाफाखोर, शोषित पीड़ित मानव, प्रोलेतेरियत, सवंहारा, ज़ालिम, मज़लूम, आदि मुख्य हैं, आश्रय देता है। प्रगतिवाद भी एक फेशन-सा होता जाता है उसमें वास्तविक सहानुभूति की अ्रपेज्ञा बोद्धिक सहानुभूति अधिक है। जिस प्रकार आजकल के रहस्यवादी कवि का जीवन अध्यात्म से श्रछृता है उसी प्रकार आजकल के प्रगतिवादी कवि का जीवन मजदूर ओर किसान से दूर है। बह स्प्रिगदार मखमली सोफों पर बेठ कर बिजली के पंखे के नीचे खस की टट्टी की ओोट में पाकर पेन से मज़दूरों की कविता लिखता है वह महलों में बैठ कर भोपड़ियों का ख्वाब देखता है। मज़दूरों ओर किसानों से बाहर की दुनिया उसको ज़ालिमों की दुनिया दिखाई देती है, यद्यपि वह भी उसी दुनिया का जीव है। उच्च वग में बह मानवी भावों को नहीं देख पाता। बुजुआ या सामन्तशाही सृष्टि का दुखी व्यक्ति उसकी सहानुभूति का विषय नहीं बनता। चीन ओर रूत से हमारी सहानुभूति अवश्य है किन्तु उनके गोर्वगाथा-गान में हमारी रागात्मिका वृत्ति नहीं रमती |

प्रगतिवादी रोटी के सिवाय दूसरा मूल्य नहीं जानता, किन्तु उसे यह मानना पड़ेगा कि मनुष्य केवल रोटी से नहीं जीता जीवन के इतर मूल्यों की ओर प्रगतिवादी का ध्यान नहीं जाता लेकिन फिर भी वह हमारे कवियों को इस भू की जैजीरों में बांधे रखने के लिए अपना मूल्य रखता है। वह हमारे कवियों को अ्रनन्‍्त की ओर जाने में एक स्वस्थ ब्रेक का काम देता है। जीवन कायम रखने के लिए प्रगतिवादी की चक्‍क्री भी आवश्यक है ओर उसकी कर्कशता में मधुरता लाने के लिए, छायावाद का राग भी चाहिए |

२४. हिन्दी में वीर रस तथा राष्ट्रीय भावना

वीररस--हिन्दी में यद्यपि काव्य के श्रात्मा स्वरूप नवों रसों का समावेश रहा है तथापि उनमें श्गार, करुण, वीर और शान्त की प्रधानता कहद्दी जा सकती है कोई भाव या वस्तु सदा एकरस नहीं रहती परिवतन जीवन का नियम है। देश की भिन्न भिन्न परिस्थितियों के अनुकूल वीर रस का भाव भी बदलता रहा है। उसमें हमको एक निश्चित क्रम-त्रिकास के दशन होते हैं यद्यपि हिन्दी का भ्रादिकाल वीरगाथा-काल के नाम से प्रशस्त है, तथापि साहित्य के इतिहास में कोई समय ऐसा नहीं रहा जब कि न्यूनाधिक रूप से वीरकाव्य रचा गया हो क्योंकि वीरभावना भी द्वदव की शाश्वत पुकारों में से एक है | वह कुछ काल के लिए दब्न सकती है, किन्तु उसका समूल नाश नहीं हो सकता »गार-प्रधान रीतिकाल में भी भूषण ओर लाल का प्रादु्भाव हुआ था। समय के देर-फेर से बीर-मावना का रंग गहरा और इलका होता रहा है। अरब हम एक एक काल को ले कर यह दिखायेंगे कि हिन्दी काव्य में वीर-रस तथा राष्ट्रीय भावना का क्रम विकास किस प्रकार हुआ है वीरगाथआ-काल -यह हिन्दी-सा हत्य का शैशव काल था। जिस समय हिन्दी का जन्म हुआ था उस समय देश में रणचण्डी का भैरवनाद सुनाई पड़ रहा था| 'मानो हि मदहतां धन, जो मान राजपूतों का स्व॑स्व था वही उनमें परस्पर वेभनस्य के बीज बो कर उनके पतन का कारण बना। इसका कारण यह था कि उस समय इस मान का मानदरणड कुछ छोटा हो गया था। मानापमान व्याक्ति तथा छोटे-छोटे राज्यों की चद्दारदीवारियों में सीमित था लोग अपनी अपनी डफली पर अपना-अपना राग अलापना चाहते ये--क्षात्र-धम के नाम पर भाई भाई का गला काटा जा रहा था | लहू बहाना उनका मुख्य ध्येय था। उनको इस बात की परवाह थी कि किसका लहू बहाया जा रहा है। विवाह जैसे शुभ कार्यों का .उपोद्धात श्रोर उपसंद्वार रुधिर की रक्तघारा से ह्वी अ्रंकित होता था १७०

१४५९ प्रनन्‍्च प्रभाकर

छुद्न-मान-मूलक परस्पर की फूट और वैमनस्थ ने मुसलमानों की विजयोल्लास भरी सेना के लिए प्रवेशद्वार तैयार कर दिया था। आक्रमणकारी मुसलमानों से लोहा लेते लेते देश की शक्ति क्षीण हो गयी थी; कोई केन्द्रीय शासन था राजपूती रस्सी अधजली अवश्य हो गई थी किन्तु उसमें ऐंठ पूरी बाकी थी। लड़ाई को ही धर्म सममभनेवाली राजपूत जाति के लोग एक दूसरे को नीचा दिखाने में ही अपनी वीरता की चरम सीमा समभते थे | दिल्ली- कन्नोज की प्रतिद्वन्द्रिता ही कविता का एक विषय रह गया था। कवि लोग जिसका खाते उसका गाते थे | ज़राज्ज़रात्सी बातों पर तलवार खिंच जाती थर्थ, , सती होने वाली बेला का कोन दाह करे इस समस्या को ले कर ऐसी नौचत आा गईं थी कि--

“गुस्सा हड्कें प्रथ्वीयान तब | तुरते हुकुम दियो करवाय॥

बत्ती दे देउ सत्र तोपन में | इन पाजिन को देड उड़ाय

भुफे खलासी सब्र तोअन पर तुरते बत्ती दई लगाय

दगी सलामी दोनों दल में | धुँश्रनना रह्मो सरग मँडराय

तोपें छूटी दोनों दल में | रण में होन लगे घमसान

अररर-अररर गोला छूटे कड़-कड़ करें अगिनिया बान

रिममिम-रिममिम गोला बरसे | सननन परी तीर की मार ॥”

इस तरह के वन वीरभाव को उत्तेजित करते थे | किन्तु इनमें वीर-रस की उदार भावना कम थी। बदले की ओर नीचा दिखाने की भावना का प्राधान्य था

उस समय के रासो ग्रन्थों में थोड़े-बहुत श्थगार के पुट के साथ ऐसी ही वीरता है | मुसलमानों से भी जो लड़ाइयाँ हुईं, वे प्रायः व्यक्तिगत कारणों से हुईं | इस काल की वीरता में यद्रपि राष्ट्रीय नहीं थी, तथापि श्रपनी बात के लिए, निर्भमतापूवक आत्म-बलिदान करने, शरणागत की रक्षा करने ( जैसे पृथ्वीराज का शहाबुद्दीन गोरी के भाई मीरहुसैन के कारण शाह से बैर मोल लेना), ब््रियों द्वारा पुरुष के प्रोत्साहित किये जाने आदि के भाव सराहनीय हैं

उस समय मुसलमान मात्र से घुणा करने का भाव दृढ़ नहीं था।

हिन्दी में वीररस तथा राष्ट्रीय भावना १४७

व्यक्तिगत रूप से मुसलमान लोगों ने भी हिन्दुश्रों का खूब्र साथ दिया उस समय राष्ट्रीया] तो थी किन्तु उदारता काफी थी। लोग मरना और मारना दोनों जानते ये | इतना द्वोते हुए भी व्यक्ति का प्राधान्य था |

भक्ति-काल--इस काल में वीर काव्य का रूप बदला। वीरता का कारण व्यक्तिगत रह कर सावजनिक हो गया प्रजा पर अ्रत्याचार करने वाले आतताइयों के संद्वार में वीरता दिखाई जाने लगी। वीरता दिखाने वाले काव्य के पात्र उस सम्रय इस लोक के थे, वरन्‌ देव-कोटि के थे। इसका प्रभाव जनता पर यह तो अवश्य हुआ कि उनमें आतताइयों के प्रति सालिक क्रोध बढ़ा, पाप के प्रति घ॒णा हुईं, किन्तु उसी के साथ पापी के प्रति घुणा ने लोगों के द्वदय में आश्रय पाया लोगों के हृदय में श्राशा-भाव की जाग्रति हुई | लेकिन उस काव्य से स्वावलम्बन की मात्रा नहीं बढ़ी यह बात विशेष रूप से सूर ओर तुलसी के काव्य पर लागू होती है। तुलसी ने आपस की लड़ाई को भी बहुत कुछ कम करने का उद्योग किया है। वे बड़े भारी शान्ति- वादी थे राजपूतों की परस्पर फूट को ही श्रपने मन में रखते हुए शायद तुलसीदास ने नीचे का दोहा लिखा होगा--

सुमति विचारहिं परिहरहिं, दल-सुमनहु संग्राम सकुल गये तनु ब्रिन भये, साखी जादो काम

तुलसीदासजी ने अवसर आने पर युद्ध के बढ़े सजीव वणन किये हैं। गैसे वर्णन प्रायः छुप्पयों में है | उनमें ओज गुण पर्यात मात्रा में है

केशवदास ने नरकाव्य भी किया है ओर उसमें वे वीरगाथा काव्य की भावनाओं के ही आ्रास-पास रहे हैं। केशवदास जी ने महाराज वीरसिंहदेवजू की बह्मादुरी का अच्छा वरणुत किया है किन्तु उसमें साम्राज्यशाही की ऋलक है। उसमें मुगल-साम्राज्य की महत्ता स्वीकार की गई है। केशव के समय में उसी की महत्ता भी थी, ओर उस समग्र के मुसलमान सम्राठों का हिन्दुओं के प्रति व्यवहार भी अच्छा था |

केशवदासं में राम-रावण युद्ध के ही श्रच्छे वणन नहीं है वरन्‌ राम की चतुरंग चमू के साथ लव-कुश के युद्ध का भी बड़ा वीर-भावोत्ते जक बृत्तान्‍्त

शर्ट प्रबन्ध-प्रभाकर

दिया गया है | रीति-काल--यद्यपि रीतिकाल का काव्य श्यगार-प्रधान है तथापि उस काल में भी वीररस की कविता का अ्रभाव नहीं था। उस समय जोघराज, भूषण, सूदन, लाल आदि कवियों ने वीर रख की कविता की | इनमें भूषण ने सत्र से ज्यादा ख्याति पाईं। इस समय के ओर सब कवियों के लिए तो नहीं किन्तु भूषण और लाल के सम्बन्ध में यह अ्रवश्य कहा जा सकता है कि इनमें हिन्दू संगठन की मात्रा अधिक पाई जाती है | हम इनके वणन किये हुए युद्धों में वैयक्तिक दे की अपेज्ञा हिन्दुत्व की रक्ता का भाव देखते हैँ इनके समय दाढ़ी चोटी का संध्रष दिखाई देता है | देखिएः-- “वेद राखे विदित, पुरान राखे सारयुत, राम नाम राख्यो श्रति रसना सुपर में। हिंदुन की चोटी, येटी राखी है सिपाहिन की, काँघे में जनेऊ राख्यो माला राखी गर में। मीड़ि राखे मुगल, मरोड़ि राखे पातसाह, बैरी पीस राखे, बरदान राख्यो कर में। राजन की हृद राखी तेग बल सिवराज, देव राखे देवल, सुधम राख्यो घर में ।” इसमें हिन्दू संस्कृति की रक्षा की पुकार है भूषण के काव्य में वैरियों के प्रति अनुदारता भी दिखाई पड़ती है तीन बेर खाती ते वे तोन बेर खाती हैं, नगन जड़ातीं ते वे नगन जड़ाती हैं ।! ऐसे कथन राष्ट्रीयता तथा उदारता के विरुद्ध अवश्य पड़ते हैं किन्तु इसके लिए केवल इतना ही कह्य जा सकता है कि वह रीतिकाल था भूषण श्रच्छे यमक का लोभ संवरण कर सके होंगे ओर दूसरी ब्रात यह भी है कि वे मनुष्य थे; अपने समय की मावनाओं से प्रभावित थे। उनको हमें बीसवीं शताब्दी के मापदण्ड से नहीं नापना चाहिए, फिर बीसवीं शताब्दी में ही मानवता पूरी तोर से कहाँ त्रा पाई है। उस समय के और कवियों में वीर-गाथा काल का ही प्रभाव है वतमान काल--वरतंमान काल का जन्म भारतेन्दु इरिश्चन्द्र से

हिन्दी में वीररस तथा राष्ट्रीय भावना १४६

होता है। उन्होंने अपने नाटकों में देशभक्ति का पुट दिया है | यद्यपि उनके नाटकों में भी हिन्दू-मुसलिम संघष की भलक मिलती है, तथापि उनमें राष्ट्रीयता का सूत्र-पात हुआ है भारतवष की दुदंशा का श्रच्छा चित्रण है श्रपने दोषों को निर्भयता-पूबक स्वीकार किया गया है--जगत में घर की फूट बुरी, फूटहि सों जयचन्द बुलायो जबवनन भारत धाम! | अंग्रेजी राज्य की तारीफ करते हुए. भी उन्होंने विदेश को धन जाने तथा टैक्स की बुराई की है--- “अंग्रेज राज सुख साज सजे सत्र भारी, पै धन विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी। त्ः जेः सभ के ऊपर टिक्कल की आफत आई, हा हा ) भारत-दुदशा देखी जाई।” भारतेन्दुजी में भारत को एक इकाई मानने की प्रवृत्ति है; भारत के सुधार की पुकार है--भारत दुर्दशा लखी जाई; भारत के हो दुःख पर शोक प्रकट किया जाता है-- “सब्र सुखी जग के नर-नारी रे विधना भारत हि दुखारी ।” सामूहिक रूप से वीरता दिखाने की भी बात आती है किन्तु वह वीरता श्रगरेज़ों के नेतृत्व में ही है, उसमें साम्राज्यशाही की छाप है देखिये वीरों को काबुल जाने के लिए ' प्रोत्साहित किया जा रहा है “प्रगाट वीरता देहि देखाई | छुन॒ महूँ काबुल लेइ छुड़ाई।” राष्ट्रीय की जो तान भारतेन्दु जी ने छेड़ी थी, उसका स्वर गुप्त जी में कुछ ऊँचा हो जाता है | गुप्त जी के अनध' में हम को गांधीवाद की सहिषणुतापू्ण वीरता के दशन होते हैं। यह कहना श्रनुचित होगा कि महात्मा गांधी के विचारों की हिन्दी साहित्य में गहरी छाप पड़ी है। वीरता का दृष्टिकोण अरब बदल गया है अब श्रत्याचारी के श्रत्याचार का बदला तलवार से घाव करने में नहीं रहा

१४० प्रबन्ध-प्र भाकर

वरन्‌ प्रेम के साथ उसके द्वृद्य परिवतन में है। आजकल की वीरता का आदश हम इस पद में भली भांति पाते हैं | “पापी का उपकार करो, हाँ पापों का प्रतिकार करो। नि आग्रह करके सदा सत्य का जहाँ कहीं हो शोध करो, डरो कभी प्रकट करने में जो अनुभव जो बोध करो, उलरीड़न श्रन्याय कटी हो हढ़ता सहित विरोध करो, किन्तु विरोधी पर भी अपने करुणा करो, क्रोध करो ।”

'साकेत' में हमको सत्याग्रह श्रोर युद्ध दोनों ही पक्षों का उद्घाटन मिलता है। अ्रनाक्रमणकारी ( |३०॥-७०९४7८5४४८ ) तथा हाथ पसारने वाली बीरता इमको सुमित्रा के वर्णनों में मिलती है--

“धत्वों की भिक्षा केसी ? २५ रथ पा कर वंशोचित शिक्षा-- माँगेंगी हम क्‍यों भिक्षा ! प्राप्प याचना वर्जित है , ग्राप भुजों से अर्जित है। हम पर भाग नहीं लेंगी, अपना त्याग नहीं देंगी, वीर अपना देते हैं , वे ओर का लेते हैं।” गांधीवाद का गुप्तबन्धुश्नों पर अच्छा प्रभाव पढ़ा है। तियारामशरण

हिन्दी में बीररस तथा राष्ट्रीय भावना १५१

जी ने अपनी बापू' शीषक कविता में गांधीवाद का परिचय दिया है। देखिए कितना मानवतापूर्ण श्राशावाद है : -- “जान लिया तुमने विशुद्धान्तऋरण से-- सत्ताधारियों के प्रहदण से नाश नहीं जीवन का बीज उसमें है चिरंतन का |” गांधीवाद के साथ-साथ देश में क्रान्ति की भी लदर चल रही है किन्तु उसकी छाया हमारी कविता में बहुत गद्दरी नहीं पड़ी | यत्र-्तत्र हमको काव्य में उग्रता के भी दशन मिलते हैं। कभी-कभी नवीनजी जैसे कवि ऐसी तान सुनाने को कहते हैं, जिससे उथल-पुथल मच जा य--- “कवि, कुछ ऐसी तान सुनाशओ्रों , जिससे उथल-पुथल मच जाए। 2.८ ्धड ०.० ,० प्रायों के लाले पड़ जाएँ त्राहि-त्राहि नभ में छा जाए-- नाश ओर सत्यानाशों का धुआँंधार जग में छा जाए, बरसे आग, जलद जल जाएँ , भस्मसात्‌ू भूषर हो जाएँ।” हमको साहित्य से क्रांति की कलऊ मिलती श्रवश्य है किन्तु ज्यादातर हमको अत्याचारों को सहने का ही उपदेश मिलता है। देखिए सनेददीजी क्या कहते हैँः--- “सह कर सिर पर भार मोन ही रहना होगा, ग्राये दिन की कड़ी मुसीप्रत सहना होगा रंग-महल-सी जेल श्राइनी७ गहना होगा , किन्तु मुख से कभी हन्त हा! कहना द्वोगा।

लोहे का

१५२ प्रबन्ध-प्रभा कर

डरना होगा ईश से और दुखी की हाय से भिड़ना होगा ठोक कर खम अनीति अन्याय से |” श्री मैथिलीशरण गुप्त ने काबा और कबला' शीषक काव्य में मुसलिम वीरता में जो कष्ट-सहिषयुता का भाव है उसका बड़ा सुन्दर चित्रण किया है। ऐसे वर्णुनों को पद कर मुसलमानों के प्रति हमारी सहानुभूति बढती है आजकल की वीरता का यही रूप है श्राजजल पशुब्ल की अ्रपेत्षा आत्मबरल का अधिक महत्त्व है| वत्तमान समय में रहस्यवाद ओर छायावाद की कविता का प्राधान्य होते हुए. भी काव्य जीवन के घोर सत्यों की उपेक्षा नहीं कर रह्य है वह देश की निराशा ओर ह्वार से भली भाँति परिचित है। वह भूठी डींग भी नहीं मारता नवीन जेसे कवि भी पराजय गीत गाते हैं-- “आज खडग की धार कुण्ठिता है खाली वूणौर हुआ | विजय पताका ऊुक्ी हुई है, लक्ष्य-श्रष्ट यह तीर हुआ |” आज का कवि श्रपने आश्रयदाता के गीत नहीं गाता किसान, मजदूर, पीड़ित, शोषित ही उसके गीत के विषय बन गये हैं | पंत जी की युगवाणी' में साम्यवाद की पूरी-पूरी छाप है किन्तु उनका साम्यवाद शुष्क साम्यवाद नहीं है, उसमें सोंदय ओर कल्पना के लिए. स्थान है कवि की मानवतापूर्ण भावुकता में सत्र कुछ सुन्दर हो जाता है हमारे भाव संकुचित राष्ट्रीयता से अ्रन्तराष्ट्रीयववा की ओर जाने लगते हैं पंतजी ने भावी संस्कृति का कैसा सुन्दर रूप सामने खखा है “जहाँ देन्य-जजर, अभाव-ज्वर पीड़ित जीवन यापन हो मनुज को गर्हित ; युगयुग के छाया-भावों से त्रासित मानव प्रति मानव-मन हो सशंकित ; मुक्त जहाँ मन की गति, जीवन में रति , भव मानवता में जन-जीवन परिणति ;

हिन्दी में वीररस तथा राष्ट्रीय भावना १५४३-

संस्कृत वाणी भाव कम संस्कृत मन सुन्दर हो जनवास, वसन सुन्दर तन।” अब राष्ट्रीयता को छोड़ मानवता की पुकार की जाती है-- “जुद्र, क्षणिक, भव-मभेद-जनित जो, उसे मिटा, भव संघ भाव भर देश काल ओऔ स्थिति के ऊपर मानवता को करो प्रतिष्ठित ।” गांधीवाद का मूल मंत्र मानवता ही माना गया है। देखिए-- “गांधीवाद जगत में आया ले मानवता का नव मान सत्य अहिसा से मनुजोचित नव संस्कृति करने निर्माण |” पंतजी ने समाजवाद का सार नीचे की पंक्तियों में विया है :-- साम्यवाद ने दिया जगत को सामूहिक जनतंत्र महान भव जीवन के दैन्य दुःख से किया मनुजता का परित्राण !! गांधीवाद ने देश की श्रात्मा की परिशुद्धि को अपना लक्ष्य बनाया है ओर समाजवाद ने देश के शरीर की रक्षा का बीड़ा उठाया है जीवन के लिए शरीर ओर आत्मा दोनों ही ग्रावश्यक हैं प्रगतिवाद ने युद्ध ओर संघष में भाग लेने के लिए जनता को प्रोत्सा- हित करते हुए रूस ओर चीन कौ वीरता के गीत गाये हैं इस प्रवृत्ति में सवश्री श्रंचल, नरेन्द्र ओर सुमन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं सुमन जी की 'मास्कों अर भी दूर है! शीषक कविता पर्यात ख्याति पा चुकी है। हिन्दी काव्य में देश-मक्ति श्रौर राष्ट्रीयवा की भावना श्रोत-प्रोत होती जा रही है ओर उसमें वतमान सभ्यता की मानव-गौरव-सम्बन्धिनी भावना स्पष्ट रूप से परिलत्ञित हो रही है अ्रत्र स्वतन्त्र भारत में वीर रस सच्चे हृदयोल्लास से आयगा यद्यपि भारत किसी देश पर आकमण नहीं करेगा तथापि अपनी और श्रन्य देशों की मान-मयांदा की रक्षा के लिए कटि-बद्ध हो कर लड़ेगा। अ्रभी दैदराबाद' ओर कश्मीर में हमारे सैनिकों ने अपूब वीरता का जो परिचय दिया है उसका यशगान हिन्दी कवियों की लेखनी से श्रपेक्षित है | भारत

१४४ प्रबन्ध-प्र भाकर

गणतन्त्र राज्य घोषित हो जाने के पश्चात्‌ हम पर नया उत्तरदायित्व आा गया है। विश्व-मैत्री और सब्र धर्मों के साथ समताभाव के उच्च आदश के चरिताथ कराने में हमारे कविगण सहायक हो सकते हैं

२५, हिन्दी साहित्य में स्त्रियों की देन

स्त्रियों ने जीवन के प्रायः सभी त्षेत्रों में पुरषों का साथ दिया है साहित्य का क्षेत्र अछूता नहीं है वह क्षेत्र भी ऐसा है जिसमें स्रियाँ सुलभता से सहयोग दे सकती हैं इसमें घर के बाहर जाने की भी विशेष आवश्यकता नहीं ओर इसके लिए भौतिक बल ही अपेक्षित है। त्रियों के विद्या-प्रेम के प्रमाण वैदिक साहित्य में भी मिलते हैं। एक दो खस्नियाँ तो मन्त्रद्रष्ण ऋषि के पद से विभूषित हुई हैं। ऋग्वेद के दश्वें मण्डल के पच्चोसवें सूक्त की ऋषि 'सूर्या' नाम की देवी है मैत्रेयी, भारती, मदालसा नाम की श्रनेकों विदुषी र््रियाँ हो गई हैं 'तमसो मा ज्योतिगमर्या की प्रसिद्ध प्रार्थना मैत्रेयी की ही है | संस्कृत काव्य की रचना करने वाली श्तियों में लक्ष्मी, याशवल्स्यध्मृति की मिता- क्षरा टीका की टीका लिखने वाली विजका, शिलामदहारिका, जिनको राजशेखर ने पाग्चाली रीति के प्रयोग में बाण के समकक्ष रकक्‍्खा था, आदि नाम इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय हैं

हिन्दी-साहित्य का आरम्म वीर-काव्य से हुआ यह ऐसा भाग-दोड़ ओर मार-काट का समय था कि कविता भी वे ही लोग कर सकते थे जो कि चंद की भाँति लेखनी के साथ अ्रसि को भी धारण कर सके। यह ब्रिियों के लिए, अ्रसम्मव नहीं कद्दा जा सकता, किन्तु उनकी प्रकृति के श्र/घक अ्रनुकूल भी था उन्होंने मोखिक प्रोत्साहन अ्रवश्य दिये श्रोर वे शायद लोक-गीतों में स्थान पाते हैँ, किन्तु उनका कोई लिखित रूप नहीं मिलता उस समय आ्रात्मरत्ञा औ्रौर सतीत्वर्धा सन्न से बड़ा कतंव्य था। श्रम्मि-ज्वालाओं से श्रंकित जोदर उनका सबसे श्ोजस्वी काल था। ख्नियाँ सन्‍्तों की भाँति इधर-उधर अधिक भटकती भी नहीं थीं, श्रोर उनमें मत-प्रवतेन की प्रद्ृति थी। किन्तु सन्त

हिन्दी साह्दित्य में स्लियों की देन श्प्ध

काल के पश्चात्‌ सन्‍्तों की शैली में ओर उन्हीं के प्रिय विषयों को ले कर सहजो- बाई ओर दयाबाई ने श्रच्छी कविता की है प्रेम-काव्य भी उन्होंने नहीं लिखा | भक्ति काव्य उनकी एक पात्र साधना-प्रधान प्रकृति के विशेष श्रनुकूल था। इसमें उन्होंने विशेषता प्राप्त की इन भक्ति कवयित्रियों में राजरानी मीरा का नाम ञ््री समाज में ही नहीं पुरुष समाज में भी बड़े ग्रदर के साथ लिया जाता है | हमारी कवयित्रियों ने अधिकतर कृष्ण काव्य को ही अपनाया है क्योंकि जीवन का माघुय कृष्णकाव्य में ही प्रकाश पा सका है। भगवान कृष्ण की बाल-लीला श्रोर यौवन-लीला हिन्दी कवियों के प्रिय विषय रहे हैं श्रोर इन दोनों का स्त्रियों से विशेष सम्बन्ध है। मीरा ने दाम्पत्य भाव को ही अपनाया | पुरुष कवि जन्न आध्यात्मिक विरद्द निवेदन करते हैं तत्र मुसलमानी शैली में तो ईश्वर को प्रेमिका बनाने से काम चल जाता है किन्तु हिन्दू शैली में ईश्वर को पुरुष रूप दिये जाघे के कारण कठिनाई पड़ती है| सूर आदि शअ्रष्टछाप के कवियों ने स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करके विरह-निवेदन किया है उसमें वह सीधा 'सम्पक, सचाई और तन्मयता नहीं होती जो स्त्री कवियों के विरद्द निवेदन में रहती है। पुरुषों में सत्रीत का आरोप--जैसे कबीर ने राम की अहुरिया बन कर किया, अथवा कुछ सखी संप्रदाय फे कवियों ने सखी बन कर किया--हास्यास्पद हो जाता है। इसलिए, दाम्पत्य भाव के प्रेम की जो स्वाभाविकता मीरा में है वह अन्यत्र नहीं दिखाई पढ़ती--

हेरी ! में तो प्रेम दिवाणी मेरा दरद जाणे कोय।

नै

दरद की मारी बनत्रन डोलू वैद मिल्या नहिं कोय

मीरा के प्रभु पीर मिटे जब वैद सँवलिया होय। एक श्र देखिए, :--

घड़ी एक नहिं आवड़े तुम दरसन ब्रिन मोय |

तुम हो मेरे प्राण जी का जीवन होय॥

घर भावे, नींद आषे, विरद सतावे मोय।

घायल सी घूमत फिरू रे, मेरा दर जाणे कोय॥

१५६ प्रबन्ध-प्रभाकर

२५ २५ पंथ निहारू डगर बुहारू ऊभी मारग जोय। मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे तुम मिलियाँ सुख होय मीरा के एक भक्ति सम्बन्धी पद का अनुकरण करने का मोह तो कवि- सम्राट रखीन्द्रनाथ भी नहीं संवरण कर सके। उस पद के आधार पर (>धातंशाश नाम के काव्य-संग्रह की प्रधान कविता रची गई है; देखिए :--- म्हाने चाकर राखो जी गिरधारी लला चाकर राखो जी। चाकर रहसूँ बाग लगासूं नित उठ दरसण पासू , त्रिंदावव की कुझ्न गलिन में गोविन्द लीला गासू। चाकरी में दरसण पाऊ सुमिरिण पाऊँ खरची# | अब रवि बाबू की गाडनर की कविता लीजिए--- (४४९८ वाट तट दुब्आातलादा ४०प्रा 0ए6 एुथातेटा, २90 जी। ५णा ॥90९ १णा टज़्वात0 ? [0 0९ शौीं0०ए८0 (0०% 09 ४०एा ॥2 ग50 ॥6८ (शातंदा 075 एपतं5 बात ऑए १092 टीक्या।5 707॥0 ४०पा ए//5(5. मरा के साथ ही सइजोचाई ओर दयाब।ई का नाम लिया जा सकता है| जेसा कि ऊपर कहा जा चुका है इनकी कविता संत श्रेणी की थी। सन्तों के मूल विषय हूँ गुरुमहिमा ओर आत्मा-परमात्मा की एकता। इन दोनों विषयों का अच्छा प्रतिपादन हमको इन कवयित्रियों में मिलता है; देखिए :-- चिउटी जहाँ चढ़ि सके, सरसों ना टहगय सहजोकू वा देश में, सतगुरु दई बसाय जीव ब्रह्म की एकता के सम्बन्ध में दयाबाई का एक पद लीजिए-- ज्ञान रूप को भयो प्रकास भयो शअ्रविद्या तम को नास | सूझ परथो निज रूप शअ्रभेद, सहजे मिस्यो जीव को खेद # जेब खर्च

हिन्दी साहित्य में स्लरियों की देन १५७

५८ ५८ १९ जग विवर्त सो न्याय जान, परम देव रूप निखान। निराकार निरगुन निरत्रासी, अ्रादि निरंजन अ्ज अविनासी उपर्युक्त पद में वेदान्त का सार आर! गया है। सहजोत्राई ओर दयावाई दोनों ही महात्मा चरनदास की शिष्या थीं। मुसलमान कब्रसित्रियों में ताज और शेख ( रंगरेजिन ) के नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। ताज ने कृष्ण-भक्ति की कविता की है, शेल् भी इसी रंग में रंगी थी। उसने श्टंगारिक कविता भी की है। ताज को कृष्ण-भक्ति का गब था--नन्द के कुमार कुर्बान ताणी सूरत पै, हों तो त॒रकानी हिन्दुआानी हे रहूँगी में' उन्होंने कृष्ण के रूप माधुय के सम्बन्ध में बहुत सुन्दर पद लिखे हैं। ब्रजमाषा और खड़ी बोली दोनों में ही उन्होंने कविता की है | खड़ी बोली का एक नमूना लीजिएः-- छेल जो छुत्रीला सब्च रंग में रेंगीला बड़ा, चित्त का श्रड़ीला सन्न देवतों से न्याय है। माल गले सोहे, नाक मोती सोहे कान, मोहे मन कुंडल मुकुट सीस धारा है॥ दुष्टजनन मारे, संत जन रखवारे ताज, चित हित बारे प्रेम प्रीत कर वारा है। ननन्‍्द जू को प्यारा जिन कंस को पछारा, वह वृन्दावन वारा कृष्ण साइबर हमारा हे शेख आलम की पत्नी ओर जहान की माँ थी। ताज की श्रपेज्ञा शेख को ब्रजभाषा पर अधिक श्रधिकार था। उनकी कविता से यह नहीं प्रतीत हैक कि वह किसी मुसज़मानी की है| देखिए :-- मिटि गयो मोन पोन साधन की सुधि गई, भूली जोग जुगति बिसास्थो तपबनन को।

श्ध््ध प्रत्नन्च-प्र भक

सेख प्यारे मन को उजारों भयो प्रेम नेम , तिमिर अज्ञान गुन नासयो बालपन को। चरन कमल ही की लोचन में लोच धघरी, रोचन हो राख्यो सोच मिणे घाम धन को सोक लेस नेक हू कलेस को लेत रहो, सुमिर श्री गोकज्ले) गो कलेस मन को॥ इसमें यमक की छुटा दशनीय है कद्दा जाता है कि हिन्दी में बरवै छुन्द एक सत्री की ही देन है उसने अपने पति के नोकरी पर चले जाने पर नीचे लिखा छुन्द भेजा था-- प्रेम प्रीव को बिर्वा चलेहु लगाय। सींचन की सुधि लीजो मुरझि जाय इसमें बिरवा शब्द होने के कारण रहीम ने इस छुन्द का बरवै नाम रखा ओर स्वयं उसके अनुकरण में बरवे नायिका भेद! लिखा फिर गोध्वामी तुलसीदास जी ने रहीम के अनुकरण में बरवै-रामायण की रचना की गोस्वामी तुलसीदास जी की स्त्री रत्नावली की कविता की भी चर्चा हो चली है, किन्तु उसकी प्रामाणिकता में अभी संदेह है मध्यकाल में बहुत सी स्रियाँ कविता करती थीं कुलाज्जनना ही नहीं वरन वेश्याएँ भी कविता से प्रेम रखती थीं और यदि केशवदास जी की गवाददी मानी जाय तो वे कविता भी करती थीं 'तिन में करति कवित्त इक, एक प्रत्नीन प्रबीन' उसी की शिक्षा के लिए हिन्दी संसार को केशव की कविप्रिया' मिली गिरधर कविराय की स्री ने अपने पति के ही टक्कर की कुण्डलियाँ रची हैं यदि उनमें साईं शब्द हो तो पहचानना कठिन हो जाय कि ये गिरघर की हेकी ओर किसी की साइंयेन विरुद्धिए, गुरु पंडित कवि यार ऐशथी कुण्डलियाँ पर्याप्त ख्याति पा चुकी हैं | ब्रजभाषा ओर राजस्थानी काव्य की सरसता बढाने वाली कोकिलाश्ों में रसिक बिहारी ( श्री नागरीदास जी की दासी बनी ठनी थी ), प्रताप कुबर बाई, सुन्दर कुँवर बाई, रत्न कुँवर बीबी, चन्द्रकला बाई, जुगल प्रिया आदि

हिन्दी साहित्य में स्नियों की देन १६

अनेकों नाम गिनाये जा सकते हैं। इनकी विशेषता यही है कि ये प्रायः रानियाँ थीं, या इनका राजघरानों से सम्बन्ध था| उन दिनों उच्च शिक्षा साधारण लोगों के लिए अ्रप्र.प्य थी

बिलकुल वतमान काल में आने से पूव श्रीमती रघुवंश कुमारी, श्रीमती राजरानी देवी, श्रीमती सरस्वती देवी, श्रीमती बुन्देला बाला, ( लाला भगवान- दीन की धमपत्नी ) श्रीमती गोपाल देवी, श्रीमती राजदेवी, श्रीमती कीरति कुमारी आदि देवियों के नाम उल्लेखनीय हैं इनको कविताश्रों में देश-प्रेम ओर द्विवेदीयुग की उपदेशात्मकता का प्राधान्य है श्री तोरनदेवी लली ने भी प्रायः देश-प्रेम की ही कविता की है; किन्तु उनकी रचनाओं में पाणिडत्य आर कला की कुछु अधिक भलक मिलती है | इसी के साथ उनकी कविताओं में मक्ति और रहस्यवाद का भी पुट पाया जाता है मुझ से मिल जाना इक बार बड़ी सुन्दर कविता है पहले कवयित्री ने अपने भगवान को नव कुसुमों की कुंजलता में हटा, श्रत्र वह उन्हें देश-प्र के अभिमानों में, वीरशेष्ठ-गुण- गानों में देखना चाहती हैं इस प्रकार उन्होंने देश-प्रम ओर ईश्वर-भक्ति का सम्बन्ध किया है

वर्तमानकाल की कवयित्रियों में श्रीमती सुभद्राकुमारी चोहन ओर श्रीमती महादेवी वर्मा के नाम उज्ज्वल नक्षत्रों की भाँति जगमगाते हैं श्रीमती सुभद्रा कुमारी चोहान की राजनीतिक कविताओं में क्षत्राणी का वीरदप है ओर उनकी वात्सल्य-रस-सम्बन्धिनी कविताश्रों में नारी-हृदय सुलभ कोमलता भी है उनकी राजनीतिक कविताओं में झाँसी की रानी ने बहुत ख्याति पाई है | उनकी वात्सल्य सम्बन्धी कविताश्रों में जो माधुय है वह उनको एकदम सत्कवियों में प्रतष्ठित कर देता है उनकी मेरा बचपन शींषक कविता बड़ी मर्म- स्पशिनी है--

वह भोलापन मधुर सरलता, वह प्यार जीवन निष्पाप |

क्या फिर कर मिट सकेगा, तू मेरे मन का सनन्‍्ताप ?

मैं बक्पन को बुला रहो थी, बोल उठी बिटिया मेरी;

नन्‍न्दन॒ बन सी फूल उठी वह छोटी सी कुटिया मेरी

९६ प्रभन्व-प्र भाकर

पाया मैंने बचपन फिर से, बचपन बेटी बन आया, उसकी मश्जुल मूर्ति देख कर, मुझ में नवजीवन आया श्री महादेवी वर्मा की कविताओं में हृदय को पवित्र करने वाली करुणा की अपू्व कलामयी अभिव्यक्ति है जो उन्हें अपने वर्ग के पुरुष कवियों से ऊंचा नहीं उठाती तो उनके समकक्ष ग्रवश्य रख देती है। उनके काव्य में एक दाश- निकता है जिसमें दुख ही सुख बन जाता है ओर ससीम अपनी पीड़ा में अ्रसीम का मुकात्रला करता दिखाई देता है। वे असीम को सोमा के बन्वनों में देखना चाहती हैं :--- विश्व में वह कोन सीमाहीन, हो जिसका खोज सीमा में मिला ? क्यों रहोगे कछुद्र प्राणों में नहीं, क्या तुम ही सर्वेश एक महान हो? उनका प्रेम निष्काम प्रेम है। वे अ्रमरता नहीं चाहतीं, वरन्‌ मर गपिटठने को ही अपना अधिकार समभती हैं। क्या अमरों का लोक मिलेगा तेरी कछणा का उपहार रहे दो हे देव ! श्ररे यह मेरा मियने का अधिकार ! वे युग-युग तक साधना में ही लगी रहना चाहती हैं। युग युगान्तर की पथिक में छू कमी लूँ छाँद तेरी ले फिरूँ सुधि दीप सी, फिर राह में अपनी श्रेंपेरी ! यह इसीलिए कि विरह की पीड़ा का उन्माद प्रिय मिलन से कम महत्त्त नहीं रखता विरह से कम मादक पीर नहीं इसीलिए वे मिलन के समय अपना शअ्रस्तित्व या व्यक्तित्व ही मिया देना चाहती हैं। प्रियतम का मिलन भी चाइना त्याग की पराकाष्ठा है; देखिए-- काटू. वियोग पल रोते संयोग समय छिप जाऊँ। महादेवी वर्मा तधफल कवयित्री द्वी नहीं हैं, उनकी गद्य रचनाएँ भी बड़ी

आदश और यथाथ १७६

ग्राधुनिक प्रगतिवादी लेखक भी यथाथता के पक्ष में ही सम्मति देते हैं। निस्संदेह हिन्दी साहित्य के किसी भी युग में यथार्थवाद की इतने आग्रद से माँग नहीं की गई जितनी कि आज के युग में

इन दोनों वादों के अपने श्रपने क्षेत्र ओर सीमाएँ हैं गुण और अवगुण दोनों में विद्यमान हैं इसका भी विवेचन कर लेना आवश्यक है इन दोनों वादों की गुणग्रहकता समय की माँग पर निर्भर है आदश समय की आवश्यकतानुसार परिवर्तित होते रहते हैं प्रत्येक वस्तु गतिशील होनी चाहिए, नहीं तो वह जड़ हो जाती है आदश का मनुष्य की पकड़ से जरा बाइर होना वांछुनीय है 2 (शाह आणप0 ९४८८९९ जा5 ह950-- परन्तु इतनी मात्रा में नहीं कि वे लोमड़ी के खट्टे अंगूर हो उठे |

आदश्शवाद के अ्रनेक गुण हैं इसमें चुनाव, पूणता, सामंजस्य, सुव्यवस्था, परिष्कार, ओ्रोचित्य एवं भूत, भविष्य श्रोर श्रव्यक्त की ओर क्ुकाव रहता है प्रत्येक समय की परिस्थितियाँ अपना आ्रादश स्वयं गद लेती हैं हिन्दी और अन्य देशों के साहित्य इसके उदाहरण हैं प्राचीन साहित्य प्रत्येक देश का संघष॑पूर्ण है | युद्धधालीन समय का आदश वहीं हो सकता है जो वीर, साहसी, धीर ओर पराक्रमी हो उसमें श्रसाधारण बल हो नीति और न्याय में पारंगत हो श्रांग्ल साहित्य में श्राथर ( &0पा ) की असाधारण श्रोर श्रलोकिक गाथाएँ श्रोर ऐल्फ्रंइड ( 2720 ) की वीरता इसके उदाहरण हैं। यूनान का पूरा साहित्य रोमन युद्धों का सवाक्‌ चित्रपट है | वहाँ एटलस ( 2(95 ) ने प्रथ्वी को कंधे पर उठा लिया था। ट्राय के योद्धा अमर हो गये फारस के सोहराब और रुस्तम की वीरता भी इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। भारतीय साहित्य की वीरगाथायें ओर डिंगल का चारणु-काव्य भी इसी के द्योतक हैं। हमारे प्राचीन मद्गाकाव्य प्रायः सभी अदशवादी हैं। महाभारत और रामचरितमानस अ्रनेक आदश्शों के समन्वय हैं; अपने अपने चरित्रादर्शों की लंची सूची हैं। भक्ति-काल में राम न्यायप्रिय धर्मावलंबी ओर वीश्पुरुष के आ्राद्श थे। उस समय ऐसा ही श्रवतार चाहिए, था। कृष्ण को अपने समय की श्रावश्यकताश्रों ने गा था श्रोर इसीलिए, वह

१८० प्रमन्ध प्र भाकर

राम से भी चार पग आ्रागे थे ये सत्र आ्रादर्श ऐसे ये जिनका श्रनुसरण करके मनुष्य इस लोक को तो क्या उस लोक तक को बना सकता था

आदश में परोक्त का बहुत हाथ रहता है। इतना सब कुछ होते हुए भी इन आदर्शों में कभी-कभी न्यूनताएँ जाती हैं। इनके श्रपने दोष भी हैं। कभी कभी यह क्लिष्ट, अस्वाभाविक, अयथाथतापूर्ण द्वो उठते हैं। धार्मिक संकीणता, प्रत्यक्ष उपदेश की प्रवृत्ति श्रोर वतमान जीवन से संत्रंध विच्छेद हो जाने पर आदश की महत्ता लुप हो जाती है

दूसरी ओर यथाथंता के भी श्रपने गुण ओर दोष हैं ! इसमें यथार्थता, स्वाभाविकता, सरलता, सुस्पष्टता, मूतंता और वतमान जीवन से प्रेम विद्यमान रहता है | परन्तु इसके लिए नग्न चित्रण आवश्यक नहीं। कल्पना का पुट आवश्यक है, नहीं तो यथाथता नीरस अश्लील और अशान्ति की पोषक हो कर पूर्णता अ्रथवा ओचित्य का विरोध करने लगती है। यथाथ में सत्य रहता है परन्तु कटु-सत्य बहुधा भलाई में सहायक नहीं होता कोरी नामावली और घटनाओं का विशद वर्णन इतिहास हो उठता है। .

दोनों के गुण ओर दोषों का विवेचन करने के पश्चात्‌ हम इस निष्कष पर आते हैं कि दोनों का सामंजस्य ओर समन्वय ही लाभकारी हो सकता है। दोनों एक दूसरे को पारस्परिक पूणता प्रदान करते हैं रिएचधता ने जैसा कहा है-- ()ाट ८णाएं०८5 पट ०0तद८. 270 5 ८णाएं०८८१0 0८ ०06.” इनकी व्यापकता काव्य के विविध रूपों में पाई जाती है। आदर्श यथाथ को ऊँचा उठाता है और यथाथ श्रादश को खोखला होने से बचाता है। आदश पात्र हमारी न्यूनताएँ बताते हे ओर सुधारों का निर्देश करते हैं

प्रो०ण भीरंजन ने कद्टा है कि-- दोनों तत्त्व ही साहित्य अ्रभियान के दो पद्टिये हैं......उनमें से एक के श्रभाव में साहित्य कोरा शरीर अ्रथवा निराधार प्राण ही रह जाएगा ।” भारतीय संस्कृति के दो शब्दों श्रेय और प्रेय” का सम्मिलन ही भेष्ठ साहित्य की कसोटी है

“जीवन के स्थूल कठोर सत्य की उपेक्षा करते हुए. भी हम स्वभावतः परिशान्ति के लिए उत्सुक रहते हैं !” संघष मानव-जीवन का अन्तिम साध्य

आदश और यथाथ श्८१

नहीं हो सकता वह तो किसी विशेष तत्त्व तक पहुँचने का एक साधन मात्र ही है ओर रहेगा | इमें श्रगर दृढता से पैर जमाने के लिए प्रथ्वी चाहिए तो सिर पर छाया के लिए श्राकाश भी आवश्यक है। कलाकार केवल कल्पना को ले कर जीवित नहीं रह सकता उसे कल्पना के आधार का चुनाव प्रथ्वरी की किसी जड़ या चेतन वस्तु से ह्टी करना पड़ता है। उसके बाहर रह कर कलाकार केवल स्ृप्तदर्शी हो सकता है, युग-निर्माता नहीं | कला की सुन्दर, संश्लिष्ट योजना के लिए हमें स्थून का सहारा लेना ही पड़ेगा पर केवल स्थूल के मोह से हम पृथ्वी पर ही लेटे नहीं रह सकते | प्रृथ्वी पर निर्मित अपनी रचना को हमें ऊपर उठाना ही पड़ता है | हमारे चालीस खंडों के गगनचुम्बी प्रासाद श्राज इसी बात के सूचक हैं |

हमारे प्राचीन आदशवादो महाकाव्य में भी दोनों वादों का समन्वय है। उनमें आदर्श के साथ-साथ मानव दुबलताएँ भी दिखाई गई हैं। उत्तर- रामचरित' में राम सीता का निर्वासन केबल आदश की स्थापना के लिए करते हैं; परन्तु वही राम साधारण कोटि में त्रा जाते हैं जन्र सीता का विरह ताप उन्हें भुलसाये डालता है। 'रामायण' का राम-राज्य सुव्यवस्थित राज्य की कल्पना हे, परन्तु वह भी आधुनिक राज्य-व्यवस्था की तुलनात्मक कमी बताता है। जब आदश की प्रात्ति हो जाती है तब वही यथार्थ बन जाता है। वहीं पूर्णंता है जहां इमारे भावों को विश्राम मिले | कविवर प्रसाद ने कहा है, ' जहाँ हमारी कल्पना आदश का नीड़ बना कर विश्राम करे वही स्वर्ग हे।” आदश की प्राप्ति ही चरम सुख है |

कोरा यथाथतावाद नीरस, शुष्क ओर रुग्य हो उठता है। आज के साहित्य में इसका ही बोलबाला है। वे इस यथार्थ पर किसी प्रकार का भी आवरण नहीं चाहते इसीलिए आ्राज के प्रगतिबादी यथाथतावादियों पर अश्लीलता का आरोप किया जाता है। इसकी प्रेरणा उन्हें श्रभारतीय साहित्य से मिली है | श्रांग्ल साहित्य में बीसवीं शताब्दी का साहित्य इसका भंडार है | वरणा95$ #90ए9 का कथन है--/.८0 पीश८ ०८ एव ४८ 950, €रशा 0८57०आ. ओर इसी सिद्धास्त का प्रतिपादन वह जीवन भर अपने साहित्य

१८२ प्रबन्ध-प्रभाकर

में करता रहा | ४०३५० (८०४६(८थ८ण०ां962८ का चरित्र यथाथता के भँवर में पड़ी हुईं वस्तु की मृति है। ॥८$५ के संघरषभय जीवन औ्रौर बलात्कार की यथाथवादिता के ही कारण वह उपन्यास दुखान्त है। ]४०८ का चरित्र होरी' की प्रतिध्वनि है ! प्रतिक्षण |५०८ कराह उठता है, परन्तु निरन्तर बढ़ा जा रहा है। होरी' की भाँति उसका श्रन्तिम निदान भी मृत्यु है। 9॥9८४०८क८ ने टीक ही कहा है ;-- “085 गींट5 "थाएंणा 009$ ४८ ४८ (० ४0035, गाल ती एड जि पता छगएड,”

यह सन्न तो रही विदेशी साहित्य की दिशा 'यथाथवाद' के नारे को ले कर हमारे अपने साहित्य में भी कलाकार सतत प्रयल्शील हैं। स्वर्गीय प्रेमचन्द जी के समय में ही उन पर यह दोषारोपण किया गया था कि वे आदशवादी हैं। अश्रच्छा हुआ वे उस समय जीवित थे और अपने श्रालोचकों की शंकाओशों का समाधान करने का प्रयल् करते रहे | साहित्य में प्रचलित यथाथवाद की वे श्रधिकतर निंदा ही करते रहे | वे मानते थे कि यथाथवाद में हमारी दुबलताएँ भरी हैं औ्रोर साहित्य में उन्हीं का चित्रण हमें निराशावादी बना देगा। उनका पात्र चक्रधर कायाकल्प में कहता है,--“यथाथ का रूप अत्यन्त भयंकर होता है, ओर हम यथार्थ को ही श्रादश मान लें तो संसार नरक तुल्य हो जाए।” साहित्य का ध्येय ही मनुष्य का उत्थान है पतन नहीं | आज के प्रगतिवादी आलोचक प्रेतचन्द जी की इस प्रवृत्ति को पलायन” मानते हैं, क्योंकि प्रेमचन्द जी यथाथ का सामना नहीं कर सकते थे। परन्तु उनके उपन्यास के पात्र अधिकतर कमयुद्ध में श्रामरण जूभते हैं कविवर प्रसाद भी यथार्थवाद को श्रभाव और लघुता' का द्योतक मानते हैं। निःसन्देह प्रेम चन्द जी में इस यथार्थ ओर आदश का पूण समन्वय था। प्रसाद जी भी आदशो- वादी घोषित कर दिये गये हैं। परल्तु श्री ननन्‍्ददुलारे वाजपेयी सिद्ध करते हैं कि वे यह सत्र कुछ नहीं ये | . हमारे युग में गुल जी श्रादशवाद और मह्ादेवी जी यथाथवाद की प्रवत्तक मानी जाती हैं ।” आ्राधुनिकतम कल्लाकार शुद्ध यथाथता-

झादश और यथाथ श्प्य३

वाद का परिधान पहने हैं। इनमें शालीनता का अश्रभाव है, जो साहित्य का एक आवश्यक अंग है। साहित्य का 'शिव' यथाथता तथा आदश दोनों के ग्रहण में ही है। 20050 और /ी८८० (०४५॥ के अनुसार कला की पूर्णता इन दोनों के सम्मिश्रण में दी है। ?9(० स्वयं आदशंवादी ही थे ओर कलाकार के लिए इसको एक आवश्यक अंग भी मानते थे इसके विरोध में 25000८ यथाथवादी ये परन्तु उनके मांव दंड में पर्याप्त देस्फेर हो गया है,

ओर ञ्राज के लिए समन्त्रय की भावना में ही कल्याण है श्रत्॒ प्रश्न यह उठता है कि यदि यथाथ का ग्राधार सत्य है, तो कवि की कल्पना, जिसका आधार भी कोई कोई सत्य ही है, यथाथ के ही अ्रन्तगंत आयेगी या नहीं ? कल्पना साहित्य-सजन में मुख्य वस्तु है, यहाँ तक कि पन्त जी का कवि कल्पना को ईश्वरीय प्रतिमा का अंश” मानता है। सत्य से ही लगा

हुआ सोन्दर्य है। सत्य सुन्दर अवश्य होगा | कीटस (९८७५७) का कथन है--

“८३00४ $ एप, प्रपती टन,

पर॥६ $ थी ४८ (०७ ९थात,

ते 2 ४८ ९९१ (० |ाठ७. इससे ही निकटतम सम्पक में शिव का स्वरूप आता है। जो वस्तु सत्य और सुन्दर होगी, वह मंगल-सूचक अवश्य होगी आचाय शुक्ल इसी को लोकमंगल और लोकाराघन की भावना कहते हैं। साहित्य श्रोर कला की अधिष्ठात्री शारदा का भी ध्यान वीणापुस्‍्तकधारिणी' के रूप में होता है हंस उनका वाहन है ओर वह नीर-क्षीर-विवेकी होने के कारण सत्य का प्रतीक है ओर वीणा सुन्दरम' की सुन्दर सत्य का ही परिमार्जित रूप है। पन्‍तजी का विचार है कि सत्य शिव में स्वयं निहित है ।” परन्तु इतना सत्र कुछ होते हुए भी कलाकार के सत्य को क्षुद्र निश्चित अगतिशील सीमाश्रों में बाँधा नहीं जा सकता वह संभावना के क्षेत्र के बाइर नहीं जाता श्रोर यही उसकी यथाथता है। , आज हमें ऐसे साहित्य की रचना की श्रावर्यकता है जो आदश की सीमा को छूते हुए भी , जीवन के व्यवहार पक्ष की उपेक्षा करे ; जिसके बतमान अभाव के पीछे भावी का सुन्दर निर्माण निहित हो। आराद्श और

३८४ प्रभनन्‍ध-प्रभा कर

वास्तविकता का यही मिलन साहित्य में उपयोगिता और सोन्दय को सृष्टि करता है। जीवन की सत्य अनुभूति और चेतना से शूत्य कला स्वतः नष्ट हो जाएगी “कला या साहित्य तो हमारी ठोस भोतिक आवश्यकता का प्रतीक है शोर काल्पनिक आदश की छाया मात्र ।” वह तो जीवन के श्रेय! ओर 'प्रेय” का सुयोग है और इस सुयोग से सुसम्पन्न साहित्य द्वी श्रेष्ठ साहित्य की कसोटी पर खरा उतर सकता है |

२६. भक्ति-काठवय पर एक आलोचनात्मक दृष्टि

महत्त्व के मूल कारण--हिन्दी साहित्य के इतिह्वास में भक्ति काल को स्वण युग माना गया है। इसी ने हिन्दी-साहित्य-गगन के सूर ओर शशी उत्पन्न किये हैं | इस काल का काव्य राज्याश्रित रह कर या तो स्वान्तः सुखाय लिखा गया या लोक-आश्रित रह्द इस काल की यह विशेषता थी कि इसके कवियों ने राज्याश्रय को ठुकराया। कुम्मनदास का सनन्‍्तन कहा सीकरी सों कार्मों अथवा तुलसीदास का 'ीन्हें प्राकृत जन गुन गाना, सिर धुनि गिरा लागि पछिताना' उस समय की विचारधारा के द्योतक हैं। एक बार तानसेन ने अकबर के बहुत श्राग्रह करने पर उन्हें बैजूग्रावरे का गाना सुनवाया। अकबर को वह गाना बहुत पसन्द आया और तानसेन से पूछा कि तुम ऐसा गाना क्यों नहीं गा सकते तानसेन ने उत्तर दिया+“जहाँपनाद ! मैं सिफ भारत के सम्राद को खुश करने के लिए गाता हूँ ओर वे तीन लोक के शाइनशाह की प्रसन्नता के लिए गाते हैं। यही बात भक्तिकाल के काव्य के लिए भी कही जा सकती है। उस काल की कविता में कवियों ने अपने द्वदय का रस घोला ओर अपने मन की मौज में गाया कला वही दै जो बाहरी प्रलोभनों से परे हो। हार्दिकता, विशाल मानवता-्रेरित अ्रद्रोह भावना, सांसारिक प्रलोभनों का तिरस्कार और अपने लक्षंय की पूर्ति में काव्य-कला को साधन मात्र मानना, साध्य बनाना, ये चार बातें भक्तिकाल की मूलगत विशेषताएँ रही हैं ओर इन्हीं के कारण वह इतना मान्य हो सका है |

भक्कि-काव्प पर एक आलोचनात्मक दृष्टि ... शृदप

शाखाएँ-... हिन्दी काव्य का स्वागत रण-मेरी की तुमुल तान से हुआ्रा था | उस समय वीर काव्य लिखा जाना स्वाभाविक ही था, किन्तु अ्रपेक्षाकृत शान्ति स्थापित द्वो जाने के पश्चात्‌ काव्य का स्वर बदला आँधी के पश्चात्‌ शान्ति का वातावरण आता है। दोनों ही जातियों में समभोते श्रोर एक दूसरे के निकट आने की भावना उतन्न हुई | जो लोग इस पक्त में नहीं थे उन में' कम से कम संतोष ओर अ्रद्रोह भावना के साथ भगवान पर भरोसा करने की प्रवृत्ति थी |

हिन्दुओं की श्रोर से जो मुसलमानों के साथ समभोते की प्रवृत्ति थी उसने निगु णवादी सन्त-काव्य का रूप धारण किया | मुसलमानों को मूर्ति-पूजा' से विशेष विरोध था, निगु णवाद में अवतारबाद ओर मूर्तिपूजा का बहिष्कार था, किन्तु व्यापक हिन्दू धम के ही ब्रह्ममाद का समथन, प्रतिपादन और प्रचार था निगु णवाद में अवतारवाद का तो बहिष्कार सा हुआ किन्तु राम नाम की प्रतिष्ठा रही; इसीलिए, वह थोड़ा बहुत लोकप्रिय हो सका--सिरजनहार ब्याही सीता जल पशान नं बाँधा) निगु ण॒वाद मुसलमानी अल्लाहवाद सेः एक तो था किन्तु उसके बहुत निकट था। उतमें कबीर जैसे कवि के काव्य में, जो दोनों ही संस्कृतियों में पले थे, कुछु मुसलमानी पुट भी झा गया था कबीर ने दोनों पक्चों का खण्डन कर एक दूसरे से मिलाने वाले गव को दूर करना चाहा ओर राम रहीम की एकता का सख्वर अलापा किन्तु दोनों का खण्डन करने के कारण किसी एक में भी वे श्रधिक लोकप्रिय हो सके | पर उनका: गायन नितान्त अ्ररण्य-रोदन रहा | उसका फल उनके पश्चात्‌ अ्रकन्र कीः उदार नीति ओर वैष्णवों की शुद्रों के प्रति सहृदय भावना में दिखाई पड़ा

कन्नीर ने यद्यपि अपने निगु ण॒ को प्रेम का विषय बनाया था ओर उस पर श्रज्ञारिक आवरण भी चढ़ाया था तथापि वह श्रावरण उनकी मौनी बीनी चदरिया' की भाँति पारदशक रहा शुन्य की सेज शुन्य ही रही और उनकी: श्र गारिकता किसी के द्वृदय को स्पर्श कर सकी

मुसलमात्नों की श्रोर से जो समभोते का प्रयत्न हुआ वह सूफीकाव्य के रूप में जनता के सामने आया सूफी लोग सदाशय और मुलायम तबियत के.

श्ट६ प्रबन्ध-प्रभाकर

थे। ये गाने बजाने ओर कीतन के पक्त में थे ये भारतीय ब्रह्मवाद से प्रभावित थे और मंसूर जैसे तत्त्तदर्शी फकीर ने श्रहं ब्रह्मास्मि' के अरबी रूपान्तर 'अनल हक ( में सचाई हूँ ) की आ्रावाज़ उठाई थी। जायसी ने कब्रीर के ब्रह्म को कुछ अधिक सगुणता ( साकारता नहीं ) दे कर लोकिक कथाश्रों के रूपकों द्वारा प्रेम के राजमार्ग से उस तक पहुँच कराने का प्रयत्न किया यद्यपि ये कहानियाँ लोक प्रसिद्ध थीं, तथापि इनमें लोक-ह्ृदय को आकर्षित करने की वह शक्ति थी जो चिर-प्रतिष्ठित राम और कृष्ण में थी सूफी मत का मुसलमानों में अधिक प्रभाव रहा उसने एक सीमित क्षेत्र में उनकी कट्टरता दूर की। हिन्दुश्रों के हृदय में भी आकषर उत्पन्न किया किन्तु वह लोकव्यापी हो सका

तीसरी प्रवृत्ति जो सन्तोष और विद्रोह के साथ अपने इृष्ट देवों के गुण-गान ओर संरक्षण में विश्वास की थी वह भक्त-कवियों में प्रस्फुटित हुई। इसकी दो शाखाएँ हुईं, एक कृष्ण-भक्ति आश्रयी ओर दूसरी राम-भक्ति श्राश्रयी | पहली के प्रतिनिधि सूर थे और दूसरी के तुलसीदास ये दोनों ही घाराएँ हिन्दू जीवन के साथ घुल मिल गईं | राम और कृष्ण के लिए जनता के द्वदय में स्थान था श्रोर काव्य के लिए वे लोक-आ्रालम्बन बनने की क्षमता रखते थे। उनके आश्रय से कवि ओर पाठक के हृदय का सहज में तादात्म्य हो सकता था |

इस प्रकार भक्ति-काव्य की चार शाखाएँ हुई--एक कबीर द्वारा प्रचा रित निगु णवादी सन्‍्तों की शाखा; दूसरी सूफियों की प्रेम-मार्गी शाखा जिसका जायसी ने प्रतिनिधित्व किया | ये दोनों ही एक प्रकार से निर्गण-परक थीं। सगुणोपासकों की दो शाखाएँ हुईं--एक सूर प्रभ्ृति अष्टछाप के कवियों की कृष्णाश्रयी और दूसरी तुलसी प्रभावित गाम-भक्ति-शाखा

अन्तिति--यद्यपि भक्तिकाल की चार शाखाएँ थीं तथापि उनमें ए.#ु विशेष अ्न्विति थी, जिसके कारण वे सन्न भक्ति के एक सूत्र में बँध सकी | उनमें सत्रसे पहले तो भक्ति, की प्रधानता थी। कब्रीर ने ज्ञानोपासक होते हुए भी भक्ति को प्यास महत्त्व दिया है; ओर कम सत्र कर है भक्ति कमर निष्कर्म तथा कह्ट कबीर हरि भक्ति बिनु मुकति नहीं रे मूल” श्रादि वाक्य इसके प्रमाण हैं। कबीर पर वेष्णव-धर्म का पर्यात्र प्रभाव था, उसी के कारण उन्होंने श्रहिता-

भक्ति-काव्य पर एक आलोचनात्मक दृष्टि श्व््७

बाद का प्रचार किया |

सूफियों का प्रेम तो मक्ति का एक व्यापक रूप ही था ओर भक्‍त कवि तो भक्ति को ही स्॑स्व मानते थे वैसे भी इन चारों सम्प्रदायों के कवियों में एक विशेष आत्मोत्सग और द्रवण-शीजता की भावना थी

ईश्वर-भक्ति के अतिरिक्त गुरु-मक्ति का सूत्र चारों सम्प्रदायों में व्यापक था | कबीर ने गुरु को परमात्मा से भी बड़ा कहा है--

“कबिरा हरि के रूठते गुरु के सरने जाय कहि कबीर गुरु रूठते हरि नहिं होत सहाय ।” गुरु की महिमा को उन्होंने बर्णनातीत कहा है-- “सब धरती कागद करू, लेखनि सत्र बनराय | सात समुँद की मसि करू, गुरु गुन लिखा जाय ।”

जायसी ने भी अपने पद्मावत के आरम्भ में गुरु की वन्दना की है --

“सैयद असरफ पीर पियारा | जेहि मोहि पंथ दीन उजियारा !!

तुलसी ने रामचरित मानस के प्रारम्भ में गुर को नररूप हरि कहा है ( उसमें चाहे नरहरि दास की श्रोर भी संकेत हो ) ओर बंदऊँ गुरु-पद पदुम परागा, सुरुचि सुत्रास सरस अनुरागा' लिख कर गुरु के प्रति श्रचल भक्ति का परिचय दिया है | सूरदास जी ने तो सारी कृष्ण-लीला का गान गुरु के स्तवन रूप में ही किया था ( 'मैं तो सगरी जस श्री श्राचार्य जी को ही वर्णन क्ियो है जो मैं कछु न्यारो देखतो तो न्यारौ करतो' )। फिर भी उन्होंने श्रन्‍्त समय पर गुरुभक्ति का एक विशिष्ट पद गाया--

'भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो | श्री वललभ-नख-चन्द्र-छुटा त्रिनु सच जग माँक अंधेरो

तीसरी बात जो सब सम्प्रदायों में व्यापक रूप से वतंमान थी वह थी नाम-महिमा--नाम को सभी ने महत्ता दी है; क्‍योंकि वह स्मरण-रूपी साधना का प्रधान अ्रद्ध है | कन्नीरदास जी कहते हँ--

:. “ज्ैेसो माया मन रम्यो तेसो नाम रमाय | तारा मंडल बेघि के तत्रहिं अ्रमरपुर, जाय ॥”

श्प्य्य प्रबन्ध-प्र भाकर

सूफियों में भी नाम की महिमा स्वीकार की गई है तुलसीदास जी ने नाम को निगु ओर सगुण का मेल कराने वाला कहा है। वास्तव में सगुण ओर निर्गेण का समन्वय नाम में है; इसीलिए, तुलसी ने उसे दोनों से बड़ा कहा है-- अगुन सगुन दुई ब्रह्म सरूूपा। अकथ श्रगाघ अनादि अनूथा मोरे मत बड़ नाम दुहूँते। किये जेहि जुग बस निज बूते॥ तुलसी ने राम नाम को राम से बढ कर ही माना है | राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुप्रति सुधारी॥ इस प्रकार हम देखते हैं कि तुलसी जैसे राम के श्रनन्य भक्त में भी नाम के द्वारा सगुण निगुण के समन्वय की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है सूर ने भी नाम स्मरण का सहारा लिया है| जो पै राम नाम मन घरतो' 'रे मन कृस्न नाम कहि लोन कृष्न नाम ब्रिनु जनम बाद ही, वृथा जिवन कहा लीजैं है हरि नाम को आधार! आदि वाक्य सूर की नाम स्मरण में आस्था के साक्षी हैं भक्ति काव्य में चोथी प्रवृत्ति वृथा आडंबर का तिरस्कार, समान भाव तथा दलित ओर पीड़ित की ओर दया भाव की है कबीर का साम्य भाव तो प्रसिद्ध ही हे गुप्त प्रगट है एके मुद्रा | मानो कहिए ब्राह्मन शुद्रा'॥ एक बिंदु ते सृष्टि रचयो है | को ब्राह्मण को शुद्रा किन्तु वैष्ण॒व कबियों में भी शुद्रों के प्रति अ्रपेक्ञाकृत कोमलता का भाव है। मर्यादावादी तुलसीदासजी ने वरणु-मेद का तो आग्रह किया है, फिर भी उन्होंने रामभक्ति के नाते निषाद और शबरी को अपनाया दे | सूर इस मामले में कुछु श्रधिक उदार हैं। देखिए--- कौन जाति को पाँति विदुर की जिन के प्रभु ब्योद्दारत भोजन करत तुष्टि घर उनके राज मान मंद टारत। ग्रोले जनम करम के झोछे ओछे ही अ्रनुसारत

भक्कि-काब्य पर एक श्रालोचनात्मक दृष्टि १८६

५८ )९ स्वपच गरिष्ट होत (पद) रज सेवत , बिनु गोपाल द्विज जन्म नतावत।

वर्शव्यवस्था में यद्यपि तुलसीदास जी ने विषमता को आश्रय दिया है तथापि उन्होंने पर-हित को सबसे बड़ा धम माना है--

'परहदित सरिस धर्म नहि भाई, पर पीड़न सम नहिं अ्रधमाई' |

इस प्रकार हम देखते हूँ कि भक्तिकाल के सभी कवियों में हृदय की ईमानदारी, पाखण्ड ओर आडम्बर का द्वेष, समकोते ओर समन्वय की प्रवृत्ति तथा दीन ओर पापी के प्रति सहानुभूति का भाव था इसीलिए, वह काव्य सवंमान्य हुआ

सम्प्रदायों की विशेष देन--भक्तिकाल के सभी सम्प्रदाय यद्यपि आध्यात्मिक भावनाएँ ले कर अग्रसर हुए थे तथापि सब्र का जीवन से सम्बन्ध था निगु णवाद भी लोक पक्त से वियुक्त था उसने हिन्दूमुसलिम एकता तथा शाद्धों के प्रति सहानुभूति का बीजारोपण किया जायसी ने लोकिक कहानियों को श्राध्यात्मिक महत्त्व दे कर लोक-जीवन से सम्पक स्थापित किया श्रोर परमात्मा की प्रेम द्वारा प्राप्ति का सुन्दर मार्ग बतलाया सूर ने भगवान कुष्ण की बाल्य और योवन काल की लोकानुरज्चिनी लीलाओं का वर्णन कर जीवन के सौंदय पक्ष का उद्घाटन किया | मैया, मोहि दाउ बहुत खिमायो”, मैया कब्रहि बढ़ेगी चोटी आदि स्वभावोक्तियों द्वारा जो बाल्य जीवन के चित्र खींचे वे किसी भी साहित्य के गोरव की वस्तुएँ हो सकती हैं | सूर ने वास्तव में इसी प्रथ्वी पर दी स्वगं की सृष्टि कर दी है। भोतिक दृष्टि से भी जो सुख सूर अमर मुनि दुलभ सो नेंदभामिनि पावै! की बात अ्क्षरशः चरिताथ होती है। दाम्पत्य-जीवन के हर्षोल्लास की चरम परिणति नवजात शिकशुश्रों के श्रामोद-प्रभोद में है | सूर ने दाम्पत्य-जीवन के उस सुल को मूर्तिमान करके दिखा दिया है।

कब्नहुँक दौरि घुटरबबनि लपकत, गिरत, उठत पुनि घावै री

इतते नन्‍्द बुलाइ लेत हैं, उततें जननि बुलावै री॥

दंपति होड़ करत श्रापस में, स्याम खिलोना कीन्हो री।

१६० प्रचन्च-प्रभाकर

बाल्य-जीवन में जो पूर्ण साम्य-भाव है, उसको तुलसी भी अपनी गीतावली में नहीं ला सके हैं किन्तु सूर ने उस साम्यन्भाव को चित्रित कर कृष्ण की बाल-लीला को पूणतया सजीवता प्रदान की है

खेलत में को काको गुसेयाँ

हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबस ही कत करत रसिसेयाँ

जाति पाँति हमसे बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छेयाँ।

अति अधिकार जनावत याते, अ्रधिक तुम्दारी हैं कह्ुु गैयाँ॥

उनके श्र गार-वणन में भी स्वस्थ जीवन की उछल-कूद है जो देनिक काय-कलाप को सरसता प्रदान करती हैं | सूर का वियोग श्रृंगार संयोग की ऐन्द्रिकव॥ा से ऊपर उठ कर उस त्याग-प्रधान मानसिक पक्ष को अश्रपना लेता है जिसमें श्रपने स्वाथ का बलिदान कर प्रिय की मदड्गल-कामना ही शेष रह जाती है | देखिए:--

फिर ब्रज बसहु गोकुल नाथ

बहुरि तुमहं जगाय पठवों गोब्रन के साथ

२५ २५ २५ करिहों तुम सों मान इठ, इठिद्ों माँगत दान कहिहों मदु मुरली बजावन, करन तुम्त सों गान २५ देहु दरसन नन्‍द नन्दन मिलन ही की आस। सूर प्रभु की कुबर छुवि को मरत लोचन प्यास

सूर ने इस प्रकार जीवन के सोन्दर्य पक्ष की काँकी दिखा कर मरणोन्मुख हिन्दू जाति में जीवन के प्रति आस्था उत्न्न की। शासकों के द्वदय में भी उसका मूल्य बढाया ओर उसकी संरक्षणीयता में विजित ओर विजेता दोनों में ही विश्वास उत्तन्न किया |

जिस जीवन का सहज सौंदय सूर ने दिखलाया, उसके कतंव्यपूण लक्ष्य की ओर ठुलसी ने ध्यान आकर्षित किया

सूर ने जीवन के प्रति आस्था उत्रन्न की तो तुलसी ने उसके उत्त्यान को

भक्ति-काव्य पर एक आलोचनात्मक दृष्टि १६६

ओर प्रयत्न किया उन्होंने कोरे उपदेश ही नहीं दिये वरन्‌ सोन्दय, शील और शक्ति के सप्न्वित जीवन का ऐसा! जीवित आ्रादश उपस्थित किया जो अपने: भक्तों के जीवन में कतंब्य-पू्ण उत्थान और उन्‍नयन उपस्थित कर सकता है। शील के उपदेश से शील का उदाहरण कहीं श्रधिक महत्तत रखता है। तुलसी ने उपदेश और उदाहरण दोनों से हिन्दू जाति ओर धम का उत्थान किया तथा शैव और वैष्णव सम्प्रदायों के पारस्परिक द्वेष को मिटा कर हिन्दू जाति को' अधिक संगठित बनाया

तुलसी ने जीवन के सभी संबंधों का ( भाई-माई, पति-पत्नी, माता-पुत्र,, राजा-प्रजा, शरण्य ओर शरणागत ) मनोवैज्ञानिक चित्रण कर हिन्दी साहित्य. को ऐसा महाक्राव्य दिया जो अपने भाव-पक्ष ओर कला-पक्ष, अनुभूति श्रोर अभिव्यक्ति के अपूर्व सतुलन के कारण ससार के उच्चतम महाकाव्यों में स्थान पा सकता है। मक्ति-भावना के चरम विक्रास की दृष्टि से तो रामचरितमानसः आर विनय-पत्रिका अनुपम हैं ही किन्तु लोकिक दृष्टि से भी प्रबन्ध-सोष्ठव, चरित्र-चित्रण की मनोवैज्ञानिकता, रस-परिपाक ओर शैली की अ्रभिव्यञ्ञकता के कारण वह ग्रन्थ अद्वितीय है

तुलसी ने भक्ति-मावना को प्रधानता देते हुए. नीति की अ्रवहेलना नहीं: की | देखिए:--

प्रीति राम सों, नीति पथ चलिय, राग रिस जीति।

तुलसी संतन के मते, इ्दे भगति की रीति॥

ता ता 5 हु

चलत नीति मग राम पद नेहद निबाहत नीक |

इसीलिए, तुलसी का साहित्य समाज के लिए. हितकर और मान्य है उनका आदश भी यही था कि काव्य वही है जिससे लोकोपकार हो |

कीरति भनित भूति भल सोई सुरसरि सम सब कहूँ हित होई

भक्ति-काव्य यद्यपि भक्ति-भावना से अनुप्राणित है तथापि उसमें जीवन- रस स्वस्थ रधिर की भाँति शक्ति का संचार कर रहा है वह साहित्य चिरकालः तक अमर रह कर हमारी भाषा का गौरव बढ़ायेगा

३०, महात्मा कबीर

हिन्दी-साहित्य के इतिहास में संत साहित्य का एक विशेष स्थान है | पीर-गाथा काव्य ने ज्षत्रिय राजाओं को प्रोत्साहन देने में भेरीनाद का काम किया था, किंतु इस नाद का मूल स्वर आपस की मार-काट ही रहा पारस्परिक प्रतिददन्द्रिता ने राजाओं के तूणीर खाली कर उनकी शक्ति को कुण्ठित कर दिया था | इस ग्रह-कलह ने विदेशियों के लिए स्वागत-गान सुनाया

नब भारत में मुसलमानों के पैर जम गये तत्र निकट संयक में आने के कारण दोनों जातियाँ एक दूसरे को प्रभावित करने लगीं। विचार-विनिमय प्रारम्भ हुआ और जो लोग कट्टरता से परे थे वे एक दूसरे की ओर क्कुके

. मुसलमानों में सूफी लोग कुछ मुलायम तबियत के लोग थे। वे हिन्दुओं के एकात्मवाद से प्रभावित थे। उन्होंने हिन्दू जीवन की प्रेम-कथाओं के आधार पर प्रेम-काव्य की नींव डाली संत कवियों ने वेदान्त का व्यावहारिक पक्ष ले कर हिन्दू-मुसलिम तथा ब्राह्मण शूद्र की एकता का उपदेश देना शुरू किया

उस समय शुद्रों की अ्रवस्था अ्रत्यन्त दयनीय थी मुसलमानों में तो वे लोग हिन्दू होने के कारण तिरस्कृत समभे जाते थे ओर हिन्दुश्रों में शूद्र होने के कारण दुक्कारे जाते थे। रामानुजाचाय आदि आचार्यों ने भक्ति का लोक- पावन संदेश सुना कर शूद्रों के प्रति सद्नदयता का वातावरण तो उपस्थित कर दिया था किन्तु उनकी स्थिति में मौलिक सुधार की आवश्यकता थी। संतों ने भक्ति श्र शान की मंगा-जमुनी धारा को भाषा के बहते नीर में श्रवतरित कर ठसे सब-सुलभ बनाया | जाति-पाँति पूछे नहों कोई, हरि को भजै सो हरि का होई' की शंख-ध्वनि चारों श्रोर गूजने लगी। कब्रीरदास जी काल-क्रम से तो संत कवियों में पहला स्थान नहीं पाते किंतु महत्ता में सचसे श्रागे नहीं तो किसी से पीछे भी नहीं हैं

अन्य पुरुषों की भाँति कबत्रीर का जीवन-बृत्त भी तिमिराच्छुन्न है। यह चात्न तो विवादास्पद है कि वे जन्म से मुसलमान थे या हिन्दू , किंठु उनका

महात्मा कभीर श्है

पालन-पोषण नीरू और नीमा जुलाहे दंपति के यहाँ हुआ था ऐसी किंवदन्ती है कि उन्होंने इस बालक को लद्रतारा तालाब के पास पढ़ा जीवनबवृत्त पाया था। यह बालक एक ब्राह्मण-विधवा का कह्दा जाता है जिसको रामानन्द जी ने धोखे में पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। आशीर्वाद सफल हुआ्रा, किन्तु लोकापवाद के भय से उसने बालक का परित्याग कर दिया था। कबीर ने अपने को गव के साथ जुलाह्य कहा है। तू ब्राक्षण में काशी का जुलाद्दा बूकहु मोर गियाना ! कन्नीर की जन्म-तिथि भी विवाद का विषय बन रही है। कब्रीर-पंथियों में महात्मा कत्रीरदास के जन्म ओर मरण के सम्बन्ध में जो तिथियाँ मान्य हैं उनके अनुकूल तो उनकी आयु एक सो बीस वष की होती है ; किन्तु उसे स्वीकार करने से उनके जीवन की दो प्रमुख घटनाएँ , अ्रथांत्‌ रामानन्द से दीक्षा प्रात्त करना ओर सिकन्दर लोदी के दरबार में पेश होना, उनके जीवन-काल में ही पड़ जाती हैं एक सो बीस वर्ष की श्रायु कबीर जैसे पहुँचे हुए. महात्मा के लिए, दुलभ नहीं कही जा सकती | कब्रीरपंथियों के मत में कबीर का जन्‍म संक्त्‌ १४५४ में ओर उतका स्वर्गवास संवत्‌ १५४७५ में हुआआ। यह विषय विवाद-प्रत्त अवश्य है ओर इस पर हो उनका रामानन्द से दीक्षित होने का प्रश्न अवलम्बित है | रामानन्द से दीक्षित होने के सम्बन्ध में डाक्टर श्यामसुन्दरदास जी सतथा डाक्टर मोहनसिंह जी ने आपत्ति उठाई है, किन्तु जत्र तक कब्वीर की जन्म- तिथि और रामानन्द जी की निधन तिथि प्रामाणिक रूप से स्थापित हो जाय तत्र तक एक लोक-प्रतिष्ठित परम्परागत धारणा को निमू ठहरा देना उचित नहीं है। इस पर केवल कब्रीरदास का ही कथन नहीं है वरन्‌ उनके प्रमुख शिष्य घरमदास की भी गवाही है | देखिए-- काशी में प्रगठे दास कहाए नीरू के गृह आए रामानन्द के शिष्पर भए, भवसागर पंथ चलाए मुसलमान लोग़ा उनको शेख तकी का शिष्य मानते हैं यद्यपि कभीर शेख तकी से सम्बन्धित स्थानों में रहे थे तथापि जिस प्रकार उन्होंने पीर साहब १३

२६४ प्र चन्ध-प्रभाकर

का उल्लेख किया है उससे यद नहीं प्रकट होता कि थे उनको गुरु मानते थे। देखिए--- नाना नाच नचाय के, नाचे नट के वेष। घट घट अ्रविनासी बसे सुनहु तकी तुम सेष

संभव है कि यह उनके अ्रक्खड़पन के कारण हो, किन्तु गुरु को तो कभीरदास परमात्मा के स्थान में मानते थे। जिन शब्दों में उन्होंने रामानन्द का उल्लेख किया हे उनसे इनमें श्रन्तर है | देखिए--

गुरु रामानन्द चरण कमल पर धोबिन ( माया ) दीनी वार

कबीर का विवाह लोई नाम की स्त्री से हुआ था और उससे एक पुत्र कमाल ओर एक पुत्री कमाली नाम की दो सन्‍्तान उत्पन्न हुई थीं। कबीर कमाल के श्रनुदार विचारों से असन्तुष्ट थे, इसीलिए, उन्होंने कहा है--

बूड़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल |

कत्रीरदास जी की मृत्यु मगहर में हुई थी। हिन्दुश्रों में काशी में मरने को मद्दत््व दिया जाता है। परमात्मा को सवंत्र मानने वाला इस तरह के रूढि- वाद को कब मान सकता था ? वे अपनी भक्ति पर विश्वास रखते थे। जो काशी तन तजे कबीरा, तो रामहिं कोन निहोरा ।”

कबीर के रिद्धान्तों में हम दो प्रकार के तिद्धान्त पाते हैं; एक धामिक तथा दाशनिक, दुसरे सामाजिक उनके सिद्धान्तों में हम उस समय के प्रभावों

कबीर के. सचिय पाते हैं। वैष्णव धम से उन्होंने दया और भक्ति सिद्धान्व | उन्होंने मांत खाने का जो विरोध किया है वह वैष्णव

धम का ही प्रभाव है। कबीर शाक्तों के माँव की अ्रपेज्षा वैष्णव की भॉपड़ी को महत्ता देते हैं उन्होंने शाइरवाद से जीव ब्रह्म की एकता और मायावाद लिया बोद्ध-धम से सुन्न वा शुल्य का विचार लिया | गोरख-पंथियों से हठयोग की साधना पाई सूफियों की प्रेमसाधना की कलम उन्होंने वेदान्त- वाद पर चढ़ाई। मूर्तिपूजा ओर श्रवतारवाद के खंडन में उनपर कट्टर मुसल- मानों का प्रभाव दिखाई पड़ता है कई लोग शब्द के मानने में ईसाई मत से उन्हें प्रभावित समभते हं कट्टर मुसलमानों के खंडन में वे शायद सूफी

महात्मा कमीर १६४,

संप्रदाय से ही प्रभावित हुए हों दाशनिक विचारों में तो कत्रीर उपनिषदों और शाइहूर मत से ही प्रभावित प्रतीत होते हैं उन्होंने जीव औ्रोर ब्रह्म की एकता मानी है और संसार को भी ब्रह्म से भिन्न नहीं बताया | कबीर ने मायावाद दाशनिक का भी आश्रय लिया है। कबीर यद्यपि पढ़े लिखे नहीं ये-- विचार 'मसि कागद छुश्रो नहीं, कलम गही नहिं हार्था,--तथापि वे बहुश्रुत थे उन्होंने 'तत्तमसि' कनककुण्डल', समुद्र- तरज्र', कीट-भद्र' श्रादि वेदान्त की शब्दावली का प्रचुरता से प्रयोग किया है | उनका ब्रह्म शब्द-रूप है श्रोर वह सब प्रकार के गुणों से परे है उसके लिए कोई एक निश्चित गुण बतलाना उसको सीमित कर देना है उसके लिए उपनिषदों की भाँति नेति-नेति ही कहा जा सकता है | वह हलका है वह भारी है, वह भीतर है, वह बाहर है, वह संख्या से भी परे है। उसके लिए. साकार, निराकार, सगुण और निगु ण॒ शब्द भी लागू नहीं हो सकते | देखिए- कोई ध्यावे निराकार को, कोइ ध्यावे आकारा | वह तो इन दोउन ते न्यारा, जाने जाननहारा वह सारे संसार में व्याप्त हो कर उसको अतीत करता है, उसके सिवाय और कुछ नहीं है; जो कुछ दे वह सब बाजीगर का खेल है केवल बाजीगर सच्चा है | संसार उसी परमात्मा से उतन्न होता है श्रोर उसी में लीन हो नाता है साधो एक श्राप जग माहीं दूजा करम भरम है किरतिम ज्यों दरपन में छाट्दीं | जल तरंग जिमि जल ते उपजे फिर जल माहिं रहाई॥ कबीर ने परमात्मा और जीव की एकता मानते हुए--जब तक ढवेत- भाव मिटता नहीं तत्र तक के लिए--जीव और ब्रह्म का सम्बन्ध प्रेमिका ओ्रौर प्रेमी का माना है। उन्होंने अपने को राम की अहुरिया' कहा है | श्राध्यात्मिक अनुभव का बणन प्रेम के द्वी रूपकों द्वारा हो सकता है कबीर ने शान को तो मुख्यता दी ही है किन्तु उन्होंने उसके साथ ही

१६६ प्रबल -प्रभाकर

भक्ति का भी महत्त्व स्वीकार किया है | कबीर ने राम नाम की ही महसा गाई है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी नाम को स्वयं राम से श्रधिक महत्ता दी है। किंतु कभ्रीर ने दाशरथि राम को नहीं माना है | वे राम शब्द के उपात्क हैं। ज्ञान और भक्ति फे अतिरिक्त कबीर ने प्राणायाम और हठयोग की क्रियाओं को भी मन की शुद्धि के लिए साधन रूप से माना है। इस प्रकार कब्नीर मुसल- मानी धर्म से प्रभावित होते हुए; भी पूरी तौर से हिन्वू-संस्कृति में रँंगे हुए थे धम के सम्बन्ध में कबीर के विचार बढ़े उदार थे वे राम और रहीम को एक मानते थे और दोनों को एक ही परमात्मा के भिन्न-भिन्न रूप समभते थे | देखिए--- दुई जगदीश कहाँ ते आये कहू कोने भरमाया। ग्रल्ला राम करीम केशव हरि हजरत नाम धराया गहना एक कनक ते गहना तामें भाव दूजा। कहन सुनन को दुश कर राखे यक नमाज यक पूजा वही महादेव वही मुहम्मद ब्रह्मा श्रादम कहिये | कोई हिन्दू कोई तुरक कहावे एक जिमी पर रहिये वेद किताब पढ़ें बे कुतबा वे मोलाना वे पांडे विगत विगत के नाम घराये यक माटी के भांडे कब्रीर ने हिन्दूमुसलमानों की एकता का उपदेश देते हुए दोनों में से टोंग और मिथ्याडम्बर के हटाने के लिए बड़ी जोरदार श्रावाज उठाई है क्योंकि वे जानते थे कि यह वृथाडम्बर ही आपस में भेदभाव उत्पन्न कर रहा है उन्होंने दोनों को ही खूघच खरी खोटी सुनाई है | कबीर ने सब में एक परमात्मा के दशन करके ब्राह्मण ओर शाद्ग में साम्य-भाव स्थापित करने का उद्योग किया है इस सम्बन्ध साम्राजिक साम्य में कत्रीर अपने समय से बहुत आगे थे गुप्त प्रकट है एके मुद्रा काको कद्िए ब्राह्मनन शुद्रा कन्नीर के इसी साम्प्रन्भाव के कारण उनके सिद्धान्तों का प्रचार तथा- कथित नीच जातियों में अधिक हुआ |

महात्मा कबीर 7१६७

संत कवियों की वाणी का प्रसार कविता द्वारा हुआ था क्योंकि उन दिनों लोगों के दवदय तक पहुँचने के लिए, कविता ही भावाभिव्यञ्ञना का माध्यम थी। कबीर की भी भाव-घारा कविता में दी प्रस्फुटित कबीर का हुई, किन्तु उस कविता में कला की क्ृत्रिमता थी कवित्व ग्रकृत्रिमता ही उसकी कला है। कबीर ने कविता को साधन मात्र माना है, उसको साध्य नहीं बनाया है | जहाँ तक हृदय की सचाई, विचारों की गहराई और अ्रनुभूति की तीव्रता का प्रश्न है वहाँ तक कबीर के कवित्व में संदेह नहीं किया जा सकता यदि कुशल अ्रभि- व्यक्ति कला की कसोटी मानी जाय तो उनको हम एक उत्तम कलाकार भी कह सकते हैं। चाहे उनकी कविता में छुन्दों के नियमों की श्रवहेलना हो, किन्तु उनके पद गाने की दृष्टि से बड़े सुन्दर हैं नीचे के पद में हठयोग के सिद्धान्तों को बड़ी संगीतमय भाषा में रखा है-- केसे दिन कटिहे जतन बताए. जइयो। एहि पार गंगा वोहि पार जमुना विचवा मठईया छुबाएं जहयो। कबीर बहुश्रुत थे। सूआा सेमर, चातक की अ्रनन्यता (जिस को गोस्त्रामीजी ने भी प्रेम का प्रतीक माना है) !स का नीर-च्षीर-विवेक आदि कवि समयों से वे परिचित थे कभ्ीर के उपस्थित किये हुए. रूपक ओर मानसिक चित्र बड़े उपयुक्त ओर सजीव हैं उन्होंने केशव की भाँति अलड्डारों ओर छुन्दों की प्रदर्शिनी तो नहीं की हे किन्तु उनकी कविता में बहाव के साथ स्वाभाविक रूप से आये हुए श्रलड्वारों का अच्छा पुट है | उनकी कविता में श्लेष, यमक आदि शब्दालंकार श्रोर रूपक, उपमा, श्रन्योक्ति श्रादि बड़े सुन्दर श्रर्थालंकार हैं। रहस्यवाद की श्रमिव्यक्ति प्रायः रूपकों श्रौर श्रन्योक्तियों में ही हुआ करती है इसलिए इनके अलंकार केवल अलंकार नहीं हैँ वरन्‌ वे एक आवश्यकता की पूर्ति करते हैं | कबीर की एक सुन्दर श्रन्योक्ति देखिए--- कादे री न॑लिनी तू कुम्दिलानी, तेरे नाल सरोवर पानी। जल में उतपति जल में वास, जल में नलिनी तोर निवास

श्ध्् प्रबंन्धन्प्रभाक

ना तलि तपत ऊपर श्रागि, तोर देतु कहु का सन लागि | कट्े कत्रीर जे उदिक समान, ते नहिं मुए हमारे जान

३१, रदास

किधों सूर को सर लग्यो, किथों सूर की पीर | किधौं सूर को पद लग्यो, तन-मन धुनत सरीर

महात्मा सूग्दास जी का जन्म सं० १४४० के लगभग बतलाया जाता है। इनके जन्म-स्थान के संबंध में दो मत हैं एक मत के श्रनुसार इनका जन्म-स्थान देहली के निकट सही ग्राम में है ओर दूसरे जन्म और जीवन मत से आगरा के निकट झरुनुकता ( रेणुका त्षेत्र ) में है इनकी जाति के संबंध में भी थोड़ा मतभेद है कोई इनको सारस्वत ब्राह्मण पानते हैं श्रोर कोई साहित्य-लहरी के एक छुन्द के आधार पर इन्हें चन्दबरदाई के वंशज ब्रह्मभट्ट बतलाते हैं इस मत के श्रनुकूल इनके छुः भाई और थे जो कि मुसलमानों के साथ लड़ाई में मारे गये ये तत्न ये अंधे सूरदास बहुत दिन तक इधर-उधर फिरते रहे पीछे ये गऊघाट में ( यह रुनुकता के निकट ही है ) रहने लगे यहीं पर इनकी श्री मह्दाप्रभु वल्‍लमाचायजी ( सं० १५२५४-१५४८७ ) से भेंट हुई। उनसे दीक्षा ले कर

उनकी श्राश्ञा से इन्होंने ब्रजमाषा में भगवत्‌-चरित्र का गान किया |

श्री बल्‍लभगुरु तत्त्व सुनायो, लीला भेद बताओ। श्री बल्लभाचायजी की श्राज्ञा से ही इन्होंने श्रीमद्भागवत की कथा को पदों में गाया श्रोर वह ग्रन्थ सूरसागर के नाम से प्रसिद्ध हुआ सूरसागर में सवा लाख पद कहे जाते हैं ; पर अब तक ५-६ हजार पदों से श्रधिक नहीं मिले इस अ्रमर ग्रन्थ के श्रतिरिक्त इनके सूरसारावबली श्रोर साहित्य-लहरी ये दो ग्रन्थ ओर मिलते हैं सूरसारावली एक प्रकार से सूरसागर की सूची और संक्षेए है ओर साहित्य लहरी में नायिका-मेद श्रादि रीति-ग्रन्थों के विषय हैं, किंतु इन पुस्तकों में भी अधिकांश पद सूरसागर के ही हैं हरिवंश टीका,

सूरदास १६६

ब्याइलो और नलदमयन्ती नाम के इनके तीन श्र ग्रन्थों का भी उल्लेख मिलता है, किंतु वे मिलते नहीं |

इनकी मृत्यु पारसोली ग्राम में हुईं थी मृत्यु के समय श्री गोस्वामी विहलनाथ जी मोजूद थे उस समय इन्होंने 'भरोसी दृढ़ श्रीचरनन केरों वाला पदौश्रपने गुरु की मक्षमा में गाया और उनसे पूछे जाने पर कि उस समय उनके नेत्रों की वृत्ति कहाँ थी, इन्होंने निम्नलिखित पद गा कर श्रपनी जीवन- लीला समाप्त की

खंजन नेन रूप रस माते

अतिसे चांद चपल अनियारे, पल पिंजया समाते॥

चलि चलि जात निकट सवनन के उलटि पलटि ताटंक फँदाते

सूरदात अंजन गुन अश्रटके, नतर अ्रबहिं उड़े जाते॥

श्री वल्लभाचाय के पुत्र गोस्वामी विद्डललाथ जी ने इनकी अष्टछाप में स्थापना की थी ओर उनके पुत्र गोस्वामी गोकुलनाथ जी ने अपने “चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में इनका जीवन वृत्तान्त लिखा है सूरदास जी अंधे तो अवश्य थे, सूर कहा कहि दुविध आँधरो', किन्तु प्रश्न यह है कि ये जन्मान्ध थे अथवा पीछे से इनके नेत्र जाते रहे इनके"भक्त इन्हें जन्मान्ध बताते हैं, परन्तु इनके द्वारा किये गये प्राकृतिक विचित्रताओं तथा मानवीय हावभावों के ऐसे उत्कृष्ट वणन को देख कर इस कथन पर सहज प्रतीति नहीं होती। ऐसा कहा जाता है कि एक बार वे एक युवती को देख कर उस पर मुग्घ हो गये। बहुत देर तक टकटकी बाँघे उसकी ओर देखते रहे श्रन्त में उस युवती ने निकट कर पूछा--महाराज, क्‍या आज्ञा है ! सूरदास उस समय मन ही मन बड़े लजित हुए। उन्होंने यह दोष अपनी आ्रॉखों का समझ कर उस युवती से विनती की कि वह सुई द्वारा उन दोनों दोषी आँखों को फोड़ डाले। वचन- बद्ध युवती ने वैसा ही किया, तभी से सूरदास अंधे हो गये यह मत अधिक विश्वसनीय प्रतीत होता है। कुछ लोगों का कथन है कि इन्होंने जानबूक कर अपनी श्रांखें नहीं फुड़वाई मालूम पड़तीं, क्योंकि यदि ऐसा होता तो ये भगवान को अपने श्रंघे होने का उलाइना देते

२०० प्रबन्ध*प्रभाकर

मित्र सुदामा कीन श्रयाचक प्रीति पुरानी जानि | सूरदास सो कहा निद्रई नैननि हूँ की हानि यह भी किंवदन्ती है कि अंधे होने के कारण एक बार ये कुएँ में गिर पड़े थे | वहाँ से श्रीकृष्ण भगवान ने इनको निकाला था। इसी सम्बन्ध में यह दोहा प्रचलित हे-- बाँह छुड़ाए जात हो, नित्रल जानि के मोहि | हिरदय तें जब जाउगे, मद बदौंगो तोहि इसी आशय का एक दोहा प्राकृत में भी हे इसलिए इसके सूरदास जी के जीवन की किसी वास्तविक घटना से सम्बन्धित होने में संदेह है इनकी दीक्षा वल्‍लभ-संप्रदाय की हे वल्लभ-संप्र दाय में भगवान की कृपा को मुख्यता दी गई है। भक्त को अपने कर्मो का इतना भरोसा नहीं होता जितना कि भगवान की कृपा कां। इसी का नाम पुष्टि! है लंड जग ओर इसीलिए, यह पुष्टिमाग कहलाता है। इस संप्रदाय में उनका भक्तिभाव त्ोल-कृष्ण की उपासना है इसीलिए, सूरदासजी के बाल- लीब्वा-सम्बन्धी वणुन बड़े सुन्दर हैं | इस संप्रदाय के दाश- निक सिद्धान्त 'सिद्धाद्वत! के नाम से प्रख्यात हैं। इसके अनुकूल जीव और संवार दोनों परमात्मा के अंश हैं। जीव में सत्‌ ओर चित्‌ तो हैं किन्तु आनन्द की कमी है | प्रकृति में चित्‌ की भी कमी है | ब्रह्म पूर्ण सच्चिदानन्द है यद्यपि उपासना में द्वेत भाव के त्रिना काम नहों चलता तथापि ये कहीं कद्दीं जीव और ब्रह्म की एकता की ओर कुक गये हैं जो लों सत्यस्वरूप सूकृत तो लो मनु मनि कंठ बिसारे फिरत सकल बन बूझत > ५८ एक नदिया एक नार कट्घावत मैलो नीर भरों जत्र मिलि के दोड एक बरन भए सुरसरि नाम परो। एक जीव एक ब्रह्म कहावत सूरतध्याम भूगरो अब की बेर मोहि पार उतारो नहिं पन जात दरों

इरदास २०९

जाय समाय 'सूर! मह्ामिधि में, बहुरि उलटि जगत महेँ नाचे॥ हनकी भक्ति सख्य-मावर की है। कहीं कहीं तो ये बढ़े अ्रक्लड़ बन जाते हैं, यहां तक कि भगवान से लड़ने को भी तैयार हो जाते हैं ओर कहीं-कहीं इतने दीन हो जाते हैं कि इनकी भक्ति दाध्यभाव में परिणत हो जाती है | यहाँ दोनों ही प्रकार का एक-एक उदाहरण दिया जाता है -- श्राजु हों एक एक करि टरिहों | के हमही के तुम हो माधव, अ्रपुन भरोमे लरिहोँ। हों तो पतित सात पीढ़िन कौ, पतितै हो निस्तरिहों | अन्र हों उघरि नचन चाहत हों तुम्हें जिरद भिनु करिहों। ने नः जैसे हि राखो तैसे हि रहों जानत हो दुख सुख सब जन को मुख करि कहा कहों नः कमलनयन घनस्याम मनोहर अनुचर भयो रहों। सूरदास! प्रभु जगत कृपानिधि तुम्रे चरन गहों सूरदास जी श्रनुचर श्रवश्य थे किन्तु घर के मुंह लगे श्रनुचर ये; वुव प्रताप बदत काहू निडर भये घर चेरे ।” तुलसीदास जी निडर हो कर मर्यादा नहीं खोते थे सूरदास जी श्रनन्य भक्त ये, वे अपनी श्रनन्यता में ओर किसी देवता को कुछ नहीं गिनते थे-- ओर देव सब्र रंक भिखारी त्यागे बहुत घनेरे! | वे कृष्ण मगवान को छोड़ कर किसी की भक्ति नहीं करना चाहते थे मेरो मन श्रनत कहाँ सुख पावे जेसे उड़ि जहाज को पंछी फिरि जहाज पे आवे॥ कमल नेन को छाॉड़ि महातम और देव को ध्यावे। परम गग को छांड़ि पियासो दुर्मति कूए खनावे॥ ; जिन मधुकर अंबुज रस चाख्यो क्‍यों करील फल खावे। सूरदास प्रभु कामघेनु तजि छेरी कोन दुद्मवै

२०२ प्र अन्धनप्र भाकर

भक्ति-भाव में सूरदास जी उद्धवजी के श्रवतार माने जाते हैं सूरदास जी का काव्य गीत-काव्य है वैष्णव धर्म में गीतगोविंद के रचयिता जयदेव कवि गीत-काञ्य के प्रथम आचाय माने जाते हैं इन्हीं की शैली को मैथिल कोकिल विद्यापति ठाकुर ने श्रपनाया है। 2 पके ऐसा कहा जाता है कि महात्मा सूरदास जी ने हिन्दी में विशेषताएँ. उसी शैली को अपना कर साहित्य और संगीत का एक अपूव सम्मिश्रण किया किन्तु वास्तविक बात तो यह मालूम पड़ती है कि सूर ने जयदेव ओर विद्यापति के प्रभाव से ब्रज के प्रचलित लोक-गीतों को साहित्यिक रूप दिया | गीत-काव्य के लिए माधुय्यमयी, सुकोमला ब्रजभाषा ही उपयुक्त थी गोस्वामी तुलसीदास जीं को भी गीत-काव्य के लिए इसी का श्राश्रय लेना पड़ा था यद्यपि सूरदास जी की भाषा ब्रजभाषा ही है, तथापि इन्होंने फारसी, श्ररबी आदि भाषाओं के शब्दों को अजभाषा में ऐसा मिला लिया है कि वे भिन्न भाषा के नहीं प्रतीत होते उदाहरणाथ-- मसकत, मुहकम, कुलहि इत्यादि | सूर ने गुजरातो, बुदेलखंडी श्रादि प्रान्तीय भाषाश्रों के शब्दों का भी बड़ी कुशलता के साथ व्यवह्वार किया है इनकी भाषा में कहीं-कद्दीं सलिता, सायर आदि प्राकृत के भी प्रयोग श्राये हैं सूरदास जी ने अलंकारों का बड़े सुन्दर और स्वाभाविक ढंग से प्रयोग किया है। इनके श्रलड्जार बड़े अनूठे श्रोर उपयुक्त हैं सूर ने कृष्ण जी के सम्बन्ध में प्रयुक्त होने वाले श्रलछ्लारों की साथकता पर काव्यमय विवेचन 'करते हुए उनके द्वारा गोपियों की भावामिव्यक्ति बड़े मार्मिक दंग से कराई हे | नंदनंदन के श्रंगश्रैग प्रति उपमा न्याय दई। आनन इन्दु वरन सम्मुख तजि करखे ते नई निरमोही नहिं नेह, कुमुदिनि श्रन्तहि देम हुई श्रीकृष्ण के मुख को इन्दुवरन बतलाते हैं गोपियाँ उद्बव से कहती हैं कि उनके मुख की ओर वे कुमुदिनी की भाँति सदा देखती रहती थीं, खींचे से भी इधर उधर नहीं भ्ुकती थीं, किन्तु कृष्ण जी ने चन्द्रमा का दूसरा धमम भी निभाया यानी उनको पाले से मार दिया चन्द्रमा को हिमकर कहते

सूरदास ०३

ही हैं, गोपियों को कुमुदिनी कह कर उनकी कोमलता श्रोर सुकुमारता की भी व्यंजना कर दी नेत्रों के सम्बन्ध में प्रचलित उपमानों की उपयुक्तता का विवेचन कर श्रन्त में मीन की उपमा को ठीक ठहराया क्योंकि वह पानी में डूबी रहती है सूरदास मीनता कछु इक जल संग छाँडत'। इसके द्वारा अपने सदा रोते रहने की भी व्यज्ञना कर दी | बहुत कम स्थल ऐसे हैं जहाँ इनके श्रलंकार कृत्रिम से मालूम होते हों | सूर ने शब्द-चयन में बड़ा कोशल दिखलाया है | कुछ शब्दों में बड़ी गहरी व्यज्ञना है, लादि खेप गुन शान जोग की ब्रज में श्राप उतारी, चाप काँख फिरत हो निगु को यहाँ गाइक कोड नाही', -तत्र यह जोग मोट हम श्रागे हिये समुक्ति विस्‍्तारा ।! इन वाक्यों में खेप, चाप, काँख, मोट शब्दों द्वारा योग की स्थूलता, निरथंकता श्रोर श्रसारता का चित्र-ता खिंच जाता है | दादुर जल बिन निये पवन भखि मीन तजै इठि प्रानौँ में दादुर और पवन- भख्ति अत्यन्त साथक हैं पवन से तो प्राणायाम की व्यंजना होती है ओर दादुर से उद्धव की सारहीन टर-टर की | तुलसी की भाँति सूर ने भी गोरख- पंथ का पयांत विरोध किया है | सूर ने मुहावरों का भी अ्रच्छा प्रयोग किया है | इनके द्वारा उनको भाषा की सजीवता बढ़ गई है ओर भावाभिव्यजञ्ञना को श्रधिक शक्ति मिली है जोग कथा श्रो कि दसाव में गोपियों की खीक बड़ी शक्ति के साथ निकल पड़ी है | यह श्रसीस हम देति सूर सुनु न्हात खसे जनि बार में ब्रज गोपिकाश्रों की प्रेम की विवशता से मरी कोमलता और आत्मीयता हमारे सामने आ्राकर खड़ी सी हो जाती है गोपियों ने मथुरा को 'काजर की कोठरी' कहा है, काजर की कोठरी में कृष्ण श्रोर उद्धव के शरीर श्रोर मन की श्यामता पर एक मुहावरे के सहारे बड़ा सुन्दर व्यंग्य है इन्होंने एक ही प्रसंग पर अनेक पद लिखे हैं | भक्ति के श्रावेश में वीणा के साथ गाते हुए जो सरस पद इस अन्ध कवि के वर्य्य विषय मुख से निस्खत. हुए, उनमें पुनरुक्ति भत्ते ही हो पर वे इतने ममस्पर्शी तथा द्ृदयहारी हैं कि श्रसिक को भी एक बार

२०४ प्रभन्ध-प्र भाकर

श्सलीन कर देते हैं सूरदासज़ी ने यद्यपि थोड़े विषयों का वर्णन किया है तथापि जिन विषयों का इन्होंने वणन किया है, बड़े विस्तार से किया है साथ ही साथ तारीफ की बात यह है कि एक ही बात को इन्होंने नये-नये रूप में देखा है, इसलिए इनके वणनों में श्ररुचि नहीं उत्पन्न होने पाती नेत्रों के बारे में . जितना इन मद्दांकवि ने कहा है उतना शायद ही और किसी कवि ने कहा हो इन्होंने आलम्बन के नेत्रों “रचिर कमल मृग मीन मनोहर श्वेत अरुण अरु कारे” की श्रनुपम छवि का ही वर्णन नहीं किया है वरन्‌ रूप-सागर में अवगाहन करने वाली दशक की सदा अतृप्त रहने वाली पिपासा भरी आँखों का भी बहुत ही दृदय-ग्राही वन किया है। देखिए--- इन्दु चकोर, मेघष्र॒ प्रति चातक जेसे घरन दियो। तेस ये लोचन गोपाले इकटक प्रेम पियो॥ यद्यपि इन्होंने प्रधानतया श्टगार ओर वात्सल्य का ही वर्णन किया है तथापि शांत, अद्भुत, हास्य ओर दो एक स्थलों में भयानक के सम्बन्ध में भी इन्होंने अपनी कवित्व-शक्ति का अच्छा परिचय दिया है वात्सल्य और श्गार में तो ये अपना सानी नहीं रखते; विशेषतः बाल-लीला, गोपी-विरह तथा कृष्ण द्वारा भेजे हुए उनके दूत ऊधो और गोपियों के संवाद-बर्णुन में ये सरसता, स्वाभाविकता तथा उत्कृष्टता की चरम- सीमा को लाँघ गये हैं ऊपर कह्दा गया है कि इनकी प्रतिभा का पूर्ण विकास वात्सल्य ओर श्य्गार के ही वणन में हुआ है बाल-लीला के वर्णन में संसार भर के कवियों में ( यद्यपि संसार भर के बारे में कोई बात कहना प्रतिवाद का बल्सल्‍्य हैं भय से खाली नहीं है ) शायद ही कोई कवि सूरदास जी ओर श्टूगार की बराबरी कर सकता हो यद्यपि ईसाइयों के रोमन कैथोलिक संप्रदाय में बालक्ृष्ण की उपासना की भाँति शिशु ईसा और माता मरियम को उपासना होती रही है तथापि शिशु ईसा का वर्णन कहीं भी इतने विस्तार ओर स्वाभाविकता के साथ नहीं आया हाँ, हस उपासना से यूरोप को चित्रकला को श्रवश्य उत्तेजना मिली है। सूरदास

हा २०५

जी के भ्रीकृष्ण शुद्ध राजती श्रांडम्बर-रहित धालक के रूप में आते हैं। धूरदास जी के बर्णनों में बालकों का साम्यभाव पूर्णतया प्रदर्शित है--खिलत में को काको गुसैया' बालकों की परम शोभामयी अपूर्णता और उनके चलने के बाल-प्रयातों की मनोदर श्रसफलता बड़े ही सुन्दर रूप में दिखाई गई है। बाल- प्रकृति का आदि से श्रन्त तक बड़ा सच्चा ओर सजीष चित्र खींचा गया है। बालकों का सोतेसोते मुखकरा देना भी सूरदास की 'पैनी दीठि! से नहीं बचा बैक कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावें | दूध के दांतों का निकलना, उसी समय भगवान का घुटरुवन चलना इन सब बातों का बढ़ा ही मनोदर वणणन किया गया है चलना सीलने में भगवान साधारण मनुष्यों के बालकों के से द्दी दिखाई पड़ते हैँ-- सिखवत चलन यसोदा मैया अरबराई कर पानि गद्यवत, डगमगाइ घरती परे पैया। >९ घर श्रांगन श्रति चलन सुगम भयो देह देहरी में श्रव्कावत | गिरि-गिरि परत जात नहिं उलेंघी, त्रति सम होत धावत बालकों की श्रनुकरणशीलता, उनकी बाल-अमिलाषा, स्पर्दा और मद्ष्त्वाकांज्ञाश्रों का भी बहुत ही सुन्दर वणन है जो पढ़ते ही बनता हे-- मैया कब्र बढ़ेगी चोटी किती बार मोहिं दूध पिवत भई यह श्रजहूँ है छोटी तू जो कहदति बल की बेनी ज्यों होहे लांची मोटी २५ नः हरि अपने श्रागे कछु गावत तनक तनक चरनन सो नाचत मैन ही मनहि रिकावत ब्राँह उचाई कजरी घोरी गेयन टेरि बुलावत बच्चे अपनी सुन्दरता ओर अन्य बातों पर मन ही मन रीभका करते हैं। बांह उठा कर गोशओं फो बुलाना कैसा सुन्दर बालोचित श्रनुकरण है।

२०६ प्रचन्ध-प्रभाकर

बच्चे अपने श्राप नाचते-गाते हैं, इस बात को 'इरि अपने श्रागे कछु गावत में केसे सुन्दर रूप से बतलाया है। इसी प्रकार भगवान की गो-दोहन सीखने की इच्छा, उनकी गो-दोइन में असफलता, माखन-चोरी, मिट्टी खाना श्रादि बाल-लीलाशों का बड़ा ही विशद वर्णन किया गया है। यशोदा मैया की वात्सल्यमयी चिंता बड़ी म्मस्पशिनी है। भगवान अपने पिता माता के पास पहुँच जाते हैं श्रोर राजसी ठाट-बाट से रहते हैं | तब भी यशोदा मैया देवकी को संदेशा भेजे बिना सन्‍्तोष नहीं करती--

सेंदेसो देवकी सों कहियो

हों तो धाय तिहारे सुत की, कृपा करत ही रहियो ||

तु तो टेव जानत ही हहो, तऊ मोहिं कई आ्रावै।

प्रात उठत मेरे लाल-लड़ेतहि, माखन रोटी भावै

इसी प्रकार सूरदास जी का प्रेम-बण्णन भी बहुत ही उत्कृष्ट है। ऊपर

की पंक्तियों में हों तो घाय तिहारे सुत की! कह कर यशोदा ने अ्रपनी अ्रधिकार- ह्दीनता बतलाते हुए, भी कृष्ण की चिंता में अपने की अधिक प्रमाणित किया है ओर एक प्रकार से कृष्ण के चले जाने की खीक को मियाया है श्रोर साथ में 'चाज' भी सिर पर सौंप दिया दै। भगवान कृष्ण की बाल-लीला बड़े ही स्वाभाविक रूप से प्रेम-क्रीड़ा म॑ं परिणत हो जाती है फिर उसी प्रेम में संयोग का हासोल्लास और वियोग की विषम-वेदना उपस्थित हो जाती है गोपियों का प्रेम चाहे स्वाथमय हो, परन्तु हे सच्चा | कृष्ण भगवान की विरह-वेदना बड़ी तीत्र थी। विरद के लिए दूर श्रोर निकट का प्रश्न था, उनका दुःख तो यह था कि 'ऊधो, श्रब नहीं स्थाम हमारे मधुत्रन बसत बदलिगे वे माधव मधुप तिहारे! | वे श्रीकृष्ण के ऐश्वय की उपासिका थीं वरन्‌ उनके माधुय्य पर मुग्ध थीं शान वैराग्य द्वारा वे भगवान के निगु ण॒ रूप की उपासना नहीं करना चाहती थीं, वे तो यह भी नहीं जानती थीं कि वह निगुण कोन से देश का निवासो है। वे तो कान्ह के ऊपर मुग्ध थीं। वे अपने द्ृदय की एकनिष्ठता से प्रेरित हो ऊधो को फटकारती हुई कहती हैं 'रहु रे मधुकर मधु मतवारे कहद्दा करों निगु लेके हों जीवहु कानद हमारे” भगवान से वे होव्वे का सा

सूरदास क्‍ २०७

भय नहीं करती थीं, वे उनसे प्रेम करना चाइती थीं वियोग में ही वे संयोगः समभती थीं। वियोग के पागलपन के श्रागे उनके लिए. योग हेय था-- मधुकर कोन मनायो माने ? सिखवद्दु तिनहुँ समाधि की बातें जे हैं लोग सयाने | हम अपने ब्रज ऐसहि बसिहें, विर-त्राय बोराने वास्तव में ऊधो-गोपी-संवाद निगु और सगुण उपासना का विवाद: है। जद्दां गोपियों का मन लग गया वहाँ से हट नहीं सकता, मन नाहीं दस बीस यह प्रेम की अचलता और हृदता है। मनमोहन गोपियों के मन से- निकाले नहीं निकलते, क्‍योंकि वे बाँके हैं बाँकापन सौंदय का द्योतक है 'उर में माखन-चोर गड़े। श्रत्र कैसेहु निकसत नहिं ऊधो ! तिरले हे जु अड़े ।* कैसी सुन्दर उक्ति है ! भगवान ने त्रिभंगीपन की साथकता दिखा दी है सूरदास जी का महत्व इसी बात में है कि उन्होंने लोगों का ध्यान: भगवान के सौन्दय और माघधुयं की ओर आकर्षित किया इतोत्साह ओऔर- परास्त हिन्दू जाति कुछ श्रयनापन रखना चाहती थी; दशनः शास्त्र की जटिल समस्याओं शोर निगुण ब्रह्म के शुष्क शान की ओर उनका मस्तिष्क नहीं कुक सकता था | यह बात तभी होती है जब कि हृदय में उत्साह होता है सौन्दय का आआकषण: मरते हुए को भी जिला देता है सोन्दय के शकरावेष्टन में उन्होंने धर्म के: तत्त्त को हिन्दू जाति के शरीर में प्रवेश करा कर उसमें एक नई रफूर्ति उत्न्न- कर दी ओर इस प्रकार उसमें एक धार्मिक स्वतंत्रता का भाव स्थापित हो गया यद्यपि यह सत्य है कि बहुत से लोगों में शकरा के बहिरावेष्टन से: शकरा ही की चाट पड़ गई और वे धर्म के तत्त्त को भूल गये; तथापि वैष्णव कवियों के द्वृदय से निकली हुई प्रेम-धारा ने सहस्तों मनुष्यों के जीवन में एक अलौकिक परिवतन उपस्थित किया और उनके हृदय में त्याग की भावना जागरित कर उनको सांसारिक भावनाश्रों से मुक्ति प्रदान की श्रोर उन्हें ब्रह्मा-- नन्द में मग्न कर दिया |

सूरदास जी का महत्व

३२. रामचरित-मानस

वन राम रसायन की रसिका रसना रसिकों की हुई सफला। अवगाहन मानस में करके जन मानस का मल सारा टला बनी पावन भाव की भूमि भली हुश्रा भावुक भावुकता का भला कविता करके तुलसी बिलसे कविता लसी पा तुलसी की कला जिस प्रकार गुणशील-संपन्न सन्‍्तति से कुल का नाम उज्ज्वल होता है, उसी प्रकार कवि की श्रभर कृति से उसका नाम दीप हो जाता है। महात्मा तुलसीदास को हिंदी काव्य गगन में पूर्ण शशी का जो स्थान मिला है वह राम- चरितमानस के स्निग्ध शीतल प्रकाश के ही कारण है। यह प्रंथ-रत्न हिंदी- साहित्य का ह्वी नहों बरन्‌ सारे संसार के साहित्य का मुख उज्ज्वल कर रहा है इसमें काव्य-कला के विमल स्वरूप की झाँकी मिलती है। कला आनन्द का विषय है। उसका उद्गम स्थान द्वदय है। उसमें श्रान्तरिक भावों की श्रमि- व्यक्ति ( प्रकटीकरण ) द्वारा सौंदय की सष्ट की जाती है। कला की ये सब बातें रामचरित-मानस में भरपूर हैं। इस ग्न्थ-रत्न का उदय ही द्वृदय के आपन्तरिक छुख के लिए. हुआ-- स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषा- नित्रन्धमतिमंजुलमातनोति' यह 'यशसे' और अथकृते' लिखी गई। ड्सके लेखक के आश्रयदाता कोई लोकिक राजा नहीं, वरन्‌ स्वयं मयांदा पुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र हें जिनके पुरय चरित्र भारतीय पारिवारिक जींवन के लिए श्रादश हैं श्रोर जिनके प्रति कवि की अनन्य भक्ति थी भक्ति भी ऐसी थी जो किसी श्रथ-लाम श्रथवा वैमव-लिप्सा की गन्ध से दूषित थी। इसके क्षेखक कवि-कुल-कमल-दिवाकर गोस्वामी तुलसीदासजी जैसे आ्रादश भक्त थे वैसे ही वे.यूक्षमदर्शी प्रतिभाशाली कवि थे उत्तम से उत्तम सामग्री कुशल से कुशल भावुक कलाकार के द्वाथ में श्राई सब बानिक बन जाने पर भी यह दिव्य कृति हिंदी स्पष्टित्य की मुकुट मणि क्‍यों बनती भाषा ओर भावों के सामंजस्य दिखलाने, लोक-संग्रह ओर मर्यादावाद के उच्च श्रादश उपस्थित करने, नीति के विवेबन श्रोर मानवीय प्रकृृति के

रामचरितमानस २०६

रहस्योद्घाटन में यह ग्रन्थ श्रद्धितीय है यह्द भक्तिर्साम्रत से भरपूर सससोपान- विभूषित रामचरितमानस वास्तव में मानसरोबर है। इसमें सहृदय रसिक काव्य- ममश मरालों के लिए अनेकों मौक्तिक भरे हुए हैं। इस महाकाव्य में स्थान- स्थान पर खंड-काव्य का पदलालित्य, भावावेश और रचना-चातुय है ओर महाकाव्य का सा तारतम्पमय विस्तार है। इसका एक एक पद नपा-तुला है। मतिराम की नायिका की भाँति इसको ज्यों-ज्यों निहारिये नेरे हो नैननि, त्यों त्यों खरी निकरे सी निकाई इसमें सौंदय का सच्चा स्वरूप मिलता है। जितनी चार पढ़ा जोंय उतनी ही नवीनता मिलती है। अब यहाँ पर मानस की विशेष- ताश्रों का कुछ दिग्दशन कराया जाता है |

भाषा को भावों का शरीर बत॑लाया गया है | शब्द वही सुन्दर कहे जा सकते हैं, जिनमें उनकी आत्मा--अ्रथ--की अभिव्यक्ति सहज में हो जावे, उनकी आआन्तरिक शक्ति, उनका प्रकाश छुलकने लगे; भाषा को जानने वाला भी भावों को समझ जावे ओर जो जानने वाले हैं उनके सामने चित्रसा खिंच जाबे। गोस्वामी जी वर्षा का वर्णन करते समय ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं कि मानो वर्षा प्रत्यक्ष रूप से हो रही हो 'घन घमंड नभ गरजत घोरा' के सुनते ही बादल घिरे से दिखाई देने लगते हैं श्रोर उनकी कड़क का भान होने लगता है। वर्षाकाल के वणन में बादलों के लिए मेष, घन ओर वारिद तीन शब्दों का प्रयोग किया गया है, लेकिन तीनों का अपने-अपने उपयुक्त स्थान में जहाँ पर 'डरपत मन 'मोरा? है वहाँ तो 'घन घमंड” ओर 'घोरा” शब्दों का प्रयोग किया है; जहाँ “गरजत लागत परम सुद्ाए! कहा है वहाँ मेघ' शब्द कहा है ओर जहाँ मोरों के नाचने का वर्णन है, वहाँ वारिर' जैसा कोमल शब्द रखा है। वसंत-वर्णन में कैसे सुन्दर संगीतमय शब्दों का प्रयोग किया है। चातक कोकिल कीर चकोरा, कूजत विहँग नचत मन मोरा में स्वयं शब्द ही कूजने ओर नाचने लगते हैं। 'गुंजत ऋूगा' में रंग श्रोर गुंजन की गूज एक साथ मिल कर माधुय का उत्पादन करती है। 'कंकण किंकिणि नूपुर धुनि सुनि! में कैसा शब्दों का चमत्कार है। ृपुर धुनि' में छोटे-छोटे शब्दों की अ्रनुप्रासमय श्रावृत्ति में

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भाषा और भाव का सामंजस्य

२१० | प्रबन्ध-प्र भाकर

कंकण और किंकिंणि की धीरे-धीरे विलीन होती हुईं भकारसी सुनाई पड़ती है। जहाँ पर युद्ध का वर्णन श्राता है वहाँ कठोरतासूचक शब्दों का प्रयोग हुआ हे भए क्रुद्ध जुद्ध विरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे। कोदंड धुनि श्रति चंड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रते॥ _इस विराट ग्रन्थ में जैसा भाषा का चमत्कार है वैसी ही भावों की भी उत्कृष्टता है एक से एक अनुपम भाव मोजूद हैं, जो मनुष्य की प्रत्येक भावों स्थिति के लिए लाभदायक होते हैँ होइहे सोइ जो राम ३2३ रचि राखा' में यदि भाग्यवाद है तो “कादर मन कह एक अधारा, देव देव आलंसी पुकारा” में पुरुषाथ है शानियों के लिए, मायाबाद का प्रतिपादन किया है ओ< उसी के साथ मन मोदक नहिं भूख बुताई' में व्यावहारिकता का प्रेम दिखाया है लिखत सुधाकर लिखि गा राह! में माग्य की ग्राकस्मिक विपरीतता का कैसा सुन्दर चित्र खींचा है ! पराधीन सपने सुख नाहीं' ओर 'सब ते अधिक जाति अ्रपमाना' में स्वाधीनता तथा जाति-प्रेम का अ्रत्यन्त मार्मिक परिचय दिया है जे मित्र दुख होहिं दुखारी, तिनह्दि विलोकत पातक भारी' में मित्रता की महिमा बड़े जोरदार शब्दों में गाई है 'प२ह्ित सरिस धम नहिं भाई, पर-पीड़ा सम नहिं अधमाई में सब्न पुराणों का सार ओर शास्त्रों का निचोड़ रख दिया है दुख-सुख के तुलसीदास जी ने बढ़े ही सजीव चित्र खींचे हैं जब दशरथ जी पर कैकेयी की राम-वनवास-सम्बन्धी वर-याचना का वज्रपात हुआ तब तुलसीदास उनके मुख से कुछ कहलाते नहीं हैं, वरन्‌ दशरथ जी की श्रवस्था का बड़ा स्वाभाविक वर्णन कर देते हैं; शायद ऐसा वर्णन कोई अभिनय-कुशल नाटककार भी करता | गयउ सहमि कछु कहि नहिं आवा | जनु सचान बन ऋषटेठ लावा। बिबरन भय निपट महिपालू | दामिनि हनेउ मनहुँ तर तालू माथे हाथ मूँंदि दोड लोचन | तनु धरि सोच लागु जनु सोचन मोर मनोरथ सुरतर फूला। फलत करिनि जनु इनेउ समूला

रामचरितमानस २११

सिर पर हाथ रख कर श्राँख मूँद लेने का वणन कैसा स्वाभाविक है ! सचान ( बाज ) ओर दामिनि की उपमा कितनी सजीव है ! एक साथ शौप्रता, ग्राकप्मिकता और सवनाश का चित्र खिंच जाता है नाटककार का कोशल उसके चरित्र-चित्रण ओर घधरित्र के क्रमशः परिवर्तन दिखाने में पाया जाता है | रामचरित-मानस में चरित्र-चित्रण के लिए एक से एक उत्तम चरित्र भरे पड़े हैं दशरथ में सत्य- चरित्र-चित्रण संघता के साथ पुत्र-वत्सलता की कैसी सुन्दर खींचातानी दिखाई है ? पुत्र-प्रेम-चश दशरथ केकेयी की कुटिलता में पूण विश्वास नहीं करते वे कैसे दौनभाव से कहते हैं--- प्रिया हात रिस परिहरहु, माँगु विचारि विवेक | फिर वे असमंजस में पढ़े हुए व्यक्ति की भाँति महादेव जी से विनय करते हैंः-- सुमिरि मदेशहिं कहाँह निद्दोरी, त्रिनती सुनहु सदाशिव मोरी। आशुतोष तुम औओठर दानी, आरत हरहु दीन जन जानी॥ श्राजकल के नाटकों में श्रन्तद्वन्द्द और मानसिक संघष को बढ़ा महत्त्व दिया जाता है। देखिए गोस्वामी जी ने कोशल्या का श्रसमंजस ओर भाव- तंथष केसे सुन्दर रूप में दिखाया है राखि सकहि कहि सक जाहू , दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू। घरम सनेह उभय मति घेरी, भइ गति साँप छुछू दर केरी॥ राखडँ सुतहि कर अ्नुरोधू , धरम जाइ अर बंधु विरोधू। कहऊँ जान बन तो बड़ हानी, संकट सोच विकल भद रानी इस संशय में आलोक ञआ्रा जाता है ओर फोरन निश्चय हो जाता है बहुरि समुक्िि तिय धर सयानी, राम भरत दोड सुत सम जानी। श्रोर वह कह देती हैं कि पितु आयसु सन्न धरम टीका ।' सुमित्रा का त्याग लद्मण जी की अआतृभक्ति के सवंया अनुकूल है तुमरेह्टि भाग रामु बन जाहीं, दूसर हेतु तात कछु नाहीं रामचन्द्रे जी को वनवास, हे लद्टमण, तुमको उनकी सेवा करने का श्रवसर देने के लिए, ही दिया गया है |

२१२ प्रशन्ध-प्र भाकर

नाटककार के लिए चरित्र का क्रमशः परिवतन दिखान। चरित्र-चित्रण से भी श्रधिक महत्त्व रखता है। केकेयी-मंथरा-संवाद में गोस्वामी जी ने मनो- विज्ञान का सूचद्म परिचय दिया है। बड़े ही कौशल के साथ उन्होंने केकेयी का परिवत्तन दिखाया है। मंथरा कुछ कहती नहीं है, सिसकती है। जब सिसकना बन्द नहीं होता तत्र केकेयी के मन में शंका होती है, वह राम की कुशल पूछती है। मंथरा बड़ी चतुरता से उत्तर देती है-- रामहि छाँड़ि कुशल केहि आजू ओर सौतिया डाह को जाग्रत करती है पूत विदेस सोच तुम्हारे | जानति हृहु बस नाह हमारे कैकेयी इस भुलावे में कर नीति का आश्रय लेती है-- जेठ स्वामि सेवक लघु भाई यह दिनकर कुल रीति सुहाई इस पर मंथरा उपेक्षापूण निस्वार्थता के साथ स्पष्टवक्‍्ता होने की बात चलाती है, ठकुरसुह्ती बात कहने को बुरा कहती है ओर अ्रपने मन्द भाग्य को दोष देती है-- कोउ नप होउ हमें का हानी चेरि छाँड़ि नहिं होउब रानी | उदासीनता में निःस्वाथता दिखाई देती है; निःस्वाथता सत्य ओर निष्पक्षता की कसोटी है। इसका बड़ा प्रभाव पड़ता है। मंथरा चुप हो जाती है। केक्रेयी बार-बार पूछने लगती है। मंथरा बड़ा दिखावटी संकोच कर उत्तर देती है | इसी प्रकार कैकेयी में क्रमशः परिवत्त द्वो जाता है यद्यपि रामचरितमानस नाठक के तोर पर नहीं लिखा गया तथापि इसमें नाटक के सत्र गुण हैं। ऐसी चरित्र-चित्रण-कुशलता शायद ही किसी नाटक में होगी। लक्ष्मण-परशुराम तथा रावण-श्रद्भर आ्रादि संवादों की पजीवता रामचरित-मानस के नाटकत्व को ओर भी निखार देती है इन सब्न बातों के साथ गोस्वामी जी ने श्रपने रामचरितमानस में लोक पंग्रह और मर्यादावाद का बड़ा ऊँचा आदश रक्‍खा है। स्वेच्छाचार का घोर विरोध किया है; मारग सोई जा कहूँ जो भावा' ऐसी स्वत- डच्च झादश न्त्रता को बुरा कहा है। यह स्वेच्छाचार का विरोध प्रजा के लिए ही नहीं है, वरन्‌ राजा लोग भी नियम-मर्यादा से

रामचरित मानस २१३

बंधे थे | प्रजा को सुखी रखना ही राजा का धर्म बतलाया गया है। जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो ठप श्रवसि नरक अ्रधिकारी इसीलिए सचिव वैद्य श्रोर गुरु को सत्य बोलने के लिए, पूरी स्वतन्त्रता दे रक्‍्खी है--

सचिव, वैद्य, गुरु तीन जो, प्रिय बोलें भय आस |

राज घरमु तनु तीन कर, होहि बेगही नास॥

+ रामचरितमानस के समाज में ब्राह्षण ओर गुरुओों का पूरा आदर है। रामचन्द्र जी विश्वामित्र के पैर दबाते हैँ | जन्च गुरु वसिष्ठ श्रीरामचन्द्र ? जाते हैं तब वे कितनी विनय से उनका स्वागत करते हैं--

गहे चरन सिय सहित बहोरी, बोले राम कमल कर जोरी।

सिब्क सदन स्वामि आगमनू , मंगल-मूल श्रमंगल-दमनू गीयमचन्द्र के युवराज बनाये जाने के संबंध में राजा दशरथ सब से पहले गुरु वसिष्ठ से सलाह करते हैं। केवल गुरु जी ही नहीं बुलाये जाते वरन्‌ सचिव महाजन सकल बुलाये' ; कोई बात नीति के विरुद्ध नहीं होती लंका जीत लेने पर श्रीरामचन्द्र जी श्रपने सहायकों को भूल नहीं जाते प्रति उपकार करों का तोरा, सम्मुख होई सके मन मोरा', 'तुम्हरे बल में रावण मारा इत्यादि वाक्यों द्वारा वे वानरों के प्रति कृतशता प्रकाशित कर उनको गोरब देते हैं। हिंदू-धर्म की जो कुछ मर्यादा है उसका मानस में पूर्णतया पालन किया

गया है।

इस ग्रन्थ-रल ने हिन्दुआदरशों, हिन्दूभावों श्रोर हिन्दू-संस्कृति की रक्षा कर एवं हिन्दू-धम के मिन्न-मिन्न श्रंगों में सामंजस्य स्थापित कर हिन्दु-धम में श्रद्धितीय स्थान पाया है जिस प्रकार हिन्दू-धम में हिन्दी-साहित्य इसका स्थान अ्रद्वितीय है उसी प्रकार हिन्दी साहित्य में कु गा भी कोई ग्रन्थ इसकी समता नहीं कर सकता समुद्र को भाँति यह ग्रन्थ अपने विस्तार में जैसा व्यापक दै वैसा ही इसका भाव-गांभीय भी श्रथाह है मानव-जीवन का कोई ऐसा कोना नहीं जिसको इसने झालोकित किया हो। सूर, कबीर, देव, बिहारी, भूषण ओर मतिराम सभी महानुभावों ने अ्रपनी-श्रपनी सूक्तियों से हिन्दी-भमाषा की शोभा

आग

वीरग

कर श्र श्र

२१४ प्रबन्ध- प्रभाकर

बढ़ाई है; सब में श्रपनी-अ्पनी विशेषताएँ हैं; किन्तु यदि हम ऐसे ग्रन्थ की तलाश करना चाहें जिसने सारे मानव-जीवन को परिविष्टित कर लिया हों तो हमको रामचरित-मानस का ही नाम लेना पड़ता है मानव-दृंदय के श्रगाघ समुद्र, में पैठने वाले हिन्दी-कवियों में सूर और तुलसी ही अग्रगए्य हैं | यह की अवश्य माननी पड़ेगी कि सूरदास वात्सल्य के वणन में संसार के साहित ड्ती अद्वितीय ठदरेंगे, श्र गार-वणुन में भी सूरदास जी ने कलम तोड़ दी है गा भाषा का माधुय भी श्रनुपम है, किन्तु उनका वृत्त संकुचित है तु मिड रामायण में यह बात नहीं है उसमें कोई बात छोड़ी नहीं गई बात को उठाया गया है, उसे पूर्णतया अलंकृत कर दिखाया गया है. ओर शील, लज्जा श्रोर प्रेम, सत्य ओर पृत्र-प्रेम, श्रादि भावों का सं॑...बा कर मामव-द्द॒दय का मार्मिक ज्ञान उपस्थित किया गया है। श्री राम . का 6 क्र मर्यादा-पालन, थैय॑ श्रोर अनुपम त्याग, दशरथ जी की श्रात्मबलिदान करने वाली सत्यपरायणता, भरत का संन्यास, लुक्तमण की अ्रातृ-भाक्त, इनुमान का सेवा-धर्म, मंथरा का कोटिल्य, कैकेयी का तिरियाहठ, सीता का सतीत्व, रावण का घातक अ्रमिमान, सब बातें किस एक ग्रन्थ में मिल सकती हैं ! रामचरित का ओरों ने भी वणन किया है, किन्तु उनमें इतनी दृदय की आन्तरिकता नहीं कोई अ्रलंकारों के प्रवाह में बह गये तो कोई छुंदों के जाल में फँस गये। मूल नायक के चरित्र-सौंदय को जैसा रामचरित-मानस में दिखाया गया है बैता कहीं नहीं तुलसीदास जी ने जो कहना चाह्दा, उसे दृढता ओर प्रभाव के साथ कहा, जो बात दिखानी चाद्दी वह सफलता-पूर्वक दिखा दी, काव्य-परिपाटी का पालन किया, रसों ओर अ्लंकारों का स्वाभाविकता से प्रयोग किया, किन्तु उनके कारण मूलभावों का बलिदान नहीं किया मानव-चरित्र की सूक्रम से सूदम रेखा पर प्रकाश डाला, धर्म ओर मर्यादा की रक्षा की, सिद्धान्तों का उद्घाटन किया ओर उत्तमोत्तम सूक्तियों द्वारा जीवन की प्रत्येक स्थिति के लिए उपदेश दिया | इसलिए यह ग्रन्थ-रत्न हिन्दी-साहित्य का मुकुग्मण गिना जाता है|

महाकवबि भूषण की काव्य-संबंधी विशेषताएँ २३१

यद्यपि हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक काल में वीर कवियों का भीमगर्जन ही श्रधिकतर सुनाई दिया, तथापि उन वीर कबरियों की कविता में जातीयता की भावना या किसी महान्‌ उद्देश्य की प्रेरणा का सवंथा श्रभाव था वे राजाश्रित कवि अपने नायक के प्रेम, युद्ध ओर कीर्ति के वर्णन में ही, चाहे वह उसके अनुरूप हो श्रथवा हो, श्रपनी प्रतिभा का उपयोग करते रहे

हिन्दू शक्ति के हास होने के पश्चात्‌ जब देश मुकलमानों के शासन में गया, जब्र देशी रजवाड़ों ने विदेशियों को आत्म-समपंण' कर दिया, तब्र इन वीरगाथाओं की रचना में शिथिलता गई जनता आरतंकित और हताश हो कर आत्म-विस्मृत सी हो गई थी। उस हताश जनता को श्रत्र भगवान्‌ का ही आश्रय था। जनता के हृदय को सँभालने और लीन रखने के लिए. कविगण भक्ति की चतुमु खी धारा बहाने लगे | एक ओर कबीर आ्रादि संत कवि एकतारा बजा कर उपदेश देने लगे-- रहना नहिं देस बिराना है” ओर जायसी आदि प्रेम-मार्गी कवि इस लोक में काल्पनिक प्र म-आख्वयानों द्वारा अ्रव्यक्त ईश्वर के पाने का मा-प्रद्शन करते हुए. “राख उठाय लीन्द्र एक मूठी, दीन्‍्ह उड़ाय पिरथवी झूठी” की घोषणा करने में तत्पर हो गये। दूसरी ओर महात्मा सूरदास आदि कृष्णभक्त कवि कृष्ण-लीला के माधुय रस में बह कर तीनों लोकों के वैभव को भगवान की एक-एक मुसकान पर वारने लगे इसी प्रकार रामभक्त तुलसी विष्णु भगवान्‌ के ग्रवतार श्रयोध्यापति रामचन्द्र की लोक- संग्रह-कारी कथा को चित्रित कर इस जीवन से मुक्त होने की श्राशा करने लगे।

इस समय के कुछ बाद सांसारिक कवि कृष्णभक्तों की राधा ओर कृष्ण की लीलाओं में सांसारिक वासनामय प्रेम के हाव-भाव खोजने लगे वे रति- रंग में डूबने में ही श्रपने जीवन की साथकता समभने लगे तत्कालीन विलासी राजाओं की परितृप्ति श्रोर श्रनुमोदन के लिए. पिष्टपेषित उक्कियों को नये-नये रूप में रचा जाने लगा सूर और तुलसी ने यद्यपि मानव जीवन के स्वस्थ पक्ष की ओर ध्यान झ्राकर्षित किया था तथापि उनके चरित्रनायक विधि हरि शम्भु नचावन द्वारें' दिव्य पुरष थे उनकी विजय से आशा का संचार होता था किन्तु मानव-गोरव नहीं बढ़ता था। इस प्रकार यद्यपि उस समय

२३१ प्रबन्ध-प्रभाकर

तक हिन्दी-काव्य अपनी उत्कृष्टता की चरम सीमा को पहुँच चुका था, पर उसमें युद्ध, भक्ति श्रोर प्रेम के अतिरिक्त ओर कोई भाव नहीं दिखाई देता | किसी भी कवि को जातीय जीवन का आदश सूका, किसी की कविता में जातीयता का राग या जातीयता की भावना नहीं मिलती | भूषण दी हिन्दी-साहित्य में पहले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने जातीय या राष्ट्रीय भावना से प्रेरित हो कर काव्य-रचना की | वे भी राजश्रित कवि थे, पर जिस तरह उनके नायक शिवाजी ओर छुत्रसाल राष्ट्र के जातीयता. नायक थे, राष्ट्रीय या जातीय चेतना की प्रतिमूर्ति थे, वैसे ही भूषण ने भी उनके राष्ट्रीय या जातीय यशश्शरीर का ही चित्रण किया है; उनके वैयक्तिक जीवन या उनके प्रेम-व्यापार पर भूषण ने एक पद, एक पंक्ति भी नहीं लिखी उन्होंने अपने नायक की श्रशंसा केवल इसलिए की कि ”हिंदुवान द्र पदि की इज्जति बचेैवे काज” ही उसने रण ठाना था, क्योंकि "राज मही सिवराज बली हिंदुवान बढ़ाइबे को उर ऊटे”, क्‍योंकि “जहान हिन्दुवान के उबारिबें” में ही वह बीर खोल उठता था अपने नायक की विजयों को भूषण उनकी वैयक्तिक विजय नहीं मानते अपितु हिन्दुओं की विजय मानते हैं-* संगर में सरजा सिवाजी श्ररि सैनन को, सार हरि लेत हिन्दुआन सिर सार दे ।? भूषण ही ऐसे कवि थे, जिन्होंने सबसे पहले यह घोषणा की--“अआपस की फूट ही तें सारे हिन्दुवान टूटे; जिन्हें उस समय के हिन्दू-राजाओं की असहायावध्था चुभती थी, विशेषतः महाराणा प्रताप के वंशज उदयपुर के राणा की, श्रतएव वे कहते थे--राना रहो श्रटल बहाना करि चाकरी को बाना तजि भूषण भनत गुन भरि के; जिन्होंने शिवाजी के बाद छुत्रसाल बुन्देला की केवल इसलिए, प्रशंसा की थी कि उन्होंने रोप्यो रन ख्पाल हे के ढाल हिंदुवाने की !' सारांश यह कि भूषण की कविता में जातीयता की भावना सत्र व्याप्त है श्रोर वह तत्कालीन वातावरण तथा हिन्दुओं की मानसिक श्रवस्था की सच्ची परिचायक है | भूषण की वाणी हिन्दू जाति की वाणी है | हो सकता है भूषण की जातीयता में भारतीयता का भाव उतना द्वो जितना हिन्दूपन या हिन्दू

महाकवि भूषण की काव्य-सम्बन्धी विशेषताएँ ररेरे

धर्म का था, पर उस समय हिन्दूपन का संदेश ही एक प्रकार से जातीयता का संदेश था | उस समय मुसलमान ही विदेशी श्रोर श्रत्याचारी थे | भूषण की कविता की दूसरी विशेषता उसकी ऐतिहासिकता है | यद्यपि उनका ग्रन्थ प्रबंध-काव्य नहीं है ओर उसमें तिथि और संवक्‌ के श्रनुसार घटनाओं का क्रम नहीं है, तथापि उसमें शिवाजी-सम्बन्धी ऐतिहासिकता प्रायः सब्न मुख्य राजनीतिक घटनाओं का--उनकी मुख्य- मुख्य विजयों का--उल्लेख है ऐतिहासिक घटनाओं के सम्बन्ध में उनकी सत्यप्रियता बहुत प्रशंसनीय है किसी भी घटना में भूषण ने तोड़-मरोड़ नहीं की तथा अपनी ओर से कुछ जोड़ा नहीं दान और श्रातंक के वणन को छोड़ कर कहीं अतिशयोक्ति या अत्युक्ति से काम नहीं लिया अत्युक्ति ओर अतिशयोक्ति अलंकारों के उदाहरणों में तो यह श्रावश्यक ही था | सवश्री जदुनाथ सरकार, क्रिनकेड, पारसनीस तथा तेखुस्कर आ्रादि आधुनिक महाराष्ट्रऐतिहासिकों की पुस्तकों से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो उन विद्वानों ने कई स्थानों पर भूषण के पतद्मों का श्रनुवाद कर के ही रख दिया हो# | इन ऐतिद्ासिकों ने शिवाजी के दान और आतंक के जो विवरण दिये हैं उन्हें देख कर भूषण के वणन को श्रत्युक्तिपूर्ण नहीं कह्दा जा सकता भूषण की कविता में से ऐतिहासिक घटनाओ्रों के उल्लेख-युक्त पद्मों को छाँठ कर यदि तिथि क्रम से रख दिया जाय तो शिवाजी की श्रच्छी खासी जीवनी तैयार हो सकती है| भूषण के पहले किसी कवि ने ऐतिहासिकता का ऐसा पालन नहीं किया भूषण की कविता की तीसरी विशेषता है, उसकी मोलिकता और उसका सरल भाव-च्यंजना से युक्त होना यद्रपि काल-दोष से भूषण को रीतिबद्ध ग्रन्थ- मौलिकता और रचना करनी पड़ी परन्तु उस रीतिबद्ध ग्रन्थरचना में भी सरलता. ने अपनी मोलिकता ओर सरल भाव-व्यंजना का परित्याग नहीं किया। मौलिकता के कारण ही उन्होंने:

# देखिए, हिन्दी भवन, प्रयाग, द्वारा प्रकाशित भूषण-प्रन्थावली की ओऔी देवचन्द्र नारंग द्वारा लिखी भूमिका

र्३े४ प्रबन्ध-प्र भाकर

'तत्कालीन श्रज्ञार-प्रणाली को छोड़ कर नये रस ओर नई प्रणाली को श्रपनाया मौलिकता के कारण ही उनके बण्य विषय और वर्णन-शैली, उनकी श्रलंकार- योजना तथा उनकी भाषा, सब्र में अनृठापन है भूषस् के वश्य विषय वही पिष्ठपेषित विषय, नायिका के नख-शिख आदि, नहीं थे अपितु उनके वस्य त्िषय थे--शिवाजी के युद्ध, शिवाजी का यश, शिवाजी का दान तथा शिवाजी का आतंक | उनकी सारी कविता में ये ही चार विषय पाये जाते हैं | युद्ध-बरणुन में कुछ स्थानों पर भूषण ने वीरगाथा- 'काल के कवियों की तरह अम्ृतच्वनि छंद तथा अ्रपश्रश शब्दों की बहुलता 'रक्खी है, पर साधारणतया उन्होंने सवेशा ओर मनहरण कवित्त आदि छून्दों 'का बड़ी सफलता से प्रयोग किया है | दिल्‍ली-दल दले सलहेरि के समर सिवा, भूषण तमासे आय देव दमकत हैं। किलकति कालिका कलेजे को कलल करि, करिके अलल भूत भेरों तमकत हैं कहूँ रुड मुंड कहुँ कंंड भरे खोनित के, कहूँ बलतर करी कुंड भमकत हैं। खुले खग्ग कंध घरि ताल गति बंध पर, धाय धाय धरनि कबत्रंघ धमकत हैं नायक के यश-वर्णुन के उद्देश्य से ही भूषण ने ग्रन्थ-रचना प्रारंभ की थी। सौमाग्य से महाकवि भूषण को शिवाजी जैसा नायक तथा प्रतापी मुगल सम्नाद ओरंगजेत्र जैसा प्रतिनायक भी मिल गया था। भूषण यह भी समभते थे कि यदि नायक का प्रतिपक्षी महान्‌ हो, श्रमित पराक्रमी हो, तो उसको विजय कर नायक भी अमित यश का भागी हो सकता है। अ्रतः उन्होंने श्रोरंगजेच के "पराक्रम और प्रताप के वणन में कमी नहीं की | वें प्रायः पहली पंक्तियों में “औरंगजेब के पराक्रम का वर्णन कर अंतिम पंक्तियों में उस पर विजय पाने वाले अपने नायक शिवाजी का उत्कषे दिखाते हैं। भूषण जहाँ शिवाजी को 'सरजा! "की उपाधि से भूषित करते हैँ वहाँ औरंगजेत्र को 'मद्गल गजराजां का गोरब

महाकवि भूषण फी काव्य-संबंधी विशेषताएँ २३५

देते हैं। जहाँ म्लेच्छुन को मारिबे को तेरो श्रवतार है” कह कर शिवाजी की प्रशंसा करते हैं वहाँ वे ओरंगजेत्र को 'कुम्मकन्न असुर ओतारी' कहते हैं ओरंगजेत्र के अतिरिक्त शिवाजी को अकेले ही अन्य अनेक मुसलमान बादशाहों ओर उनकी छत्र-छाया में बसने वाले राजपूतों तथा पश्चिमी तट पर बसी हुई अन्य विदेशी जातियों से लड़ना पड़ता था ; उन सब्र का परिगणन कर अंतिम पंक्ति में फिर एक ओर सिवराज नृप एक और सारी खलक” कह कर भूषण ने शिवाजी के अनन्त साहस का सुन्दर चित्र खींचा है शिवाजी के दान का वणन भी भूषण ने अनूठा किया है श्रोर शिवाजी के आतंक का वणन तो बहुत ही ओजस्वी, प्रभावोत्रादक और सजीव है सहसा आ्रक्रमण कर अपने आतंक से ही शत्रुओं को किंकत्तंव्यविमूद कर देना शिवाजी की युद्ध-नीति थी; श्रतः शिवाजी के आतंक का वर्णन भूषण ने केवल वाणी-विलास अ्रथवा श्रथप्रासि के हेतु नहीं किया, अपितु नायक्र की नीति सफल करने निमित्त, शिवाजी की धाक चारों ओर फैलाने के लिए, फलतः विपक्षियों को विचलित करने के लिए किया है। भूषण इसमें इतने सफल हुए हूं कि कई समालोचकों का मत हो गया है कि भूषण वीर रस से अधिक भयानक रस में विशेषता रखते थे | नीचे दिया गया पद शिवाजी के आ्रातंक और भूषण की वशणनशैली को अच्छा व्यक्त करता है-- चकित चकत्ता चौंकि चोंकि उठे बार-बार दिल्‍ली दहसति चिते चाह करषति हे। बिलखि बदन बिलखात बिजेपुरपति, फिरति फिरंगिनी की नारी फरकति है॥ थर थर काँपत कुतुबशाह गोलकुंडा, हृहरि हृत्नस भूपष भीर भरकति है। राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि, केते पातसाइन की छाती दरकति है॥ उनकी अलंकार-योजना में भी यही विशेषता है कि उसमें नायक-नायिका

२३६ प्रबन्ध-प्रभाकर

के नख-शिख के सौंदय को व्यक्त करने वाली अलंकृत उक्तियों का पिष्ट-पेषण नहीं, केवल शब्दों का इंद्रजाल है, अपितु सीधे सरल शब्दों में शुष्क ऐतिहा- सिक तथ्यों को अलंकारों द्वारा पाठक के मन में अंकित करने का सफल प्रयत्न है। ओऔरज्जजेब ने ओर सच हिन्दू राजाओं को वश में कर लिया था, पर केवल शिवाजी ऐसे थे, जिनसे वह कर वसूल कर सका। इस ऐतिहासिक: तथ्य को कवि ने भ्रमर और चंपा के कैसे अ्रच्छे उपमा-मिश्रित रूपक द्वारा प्रकट किया है-- कूरम कमल कमधुज है कदम फून्न, गोर है गुलाब राना केतकी विराज है। पॉडर पँवार जूही सोहत है चंदावत, सरस बँँदेलासो चमेली साज बाज है॥ भूषन भनत मुचकुन्द बड़गूजर हे, बचेले बसंत सब कुसुम-समाज है। लेई रस एतेन को बैठ सकत श्रहै, ग्रलि नवरज्जजेत्र चंपा सिवराज है भ्रमर सभी पुष्पों का रस लेता है, पर चंपा पर उसकी तीत्र गंध के कारण नहीं बेठ सकता इस पद्म में ओरज्ञजेब को भ्रमर ओर शिवाजी को--- जिनका ओऔरज्ञजेत्र कमी रस ले सका--चंपा बनाना केसा उपयुक्त है। चम्पा के पास भ्रमर का आना एक दोष माना जाता है, किन्तु भूषण ढे, पारस स्पश से दूषण भी भूषण बन गया है। जयपुर-महाराज को कमल और राणा को केतकी बनाना भी कम संगत नहीं है भारत के राजपूत-राजाओं में: सत्र से अधिक रस या सहायता मुगल-सम्राद को जयपुर-नरेश रूप्री कमल से ही मिली थी। ऐसे ही राणा-रूपी कंटकयुक्त केतकी का रस लेने में श्रोरड्ञजेत्र रूपी. अ्रमर को पर्यात कष्ट उठाना पड़ा था शिवाजी को रात दिन बीजापुर के सुलतान एदिलशाह, गोलकुंडा के सुलतान कुतुबशाह तथा मुगल-सम्राट श्रोरड़जेब से लोहा लेना पढ़ता था। इनमें पहले दो तो विवश हो कर शिवाजी को कर देने लग गये थे, तीसरे को

महाकवि भूषण की काव्य-संतंधी विशेषताएँ २३७

भी शिवाजी ने खूत्र नीचा दिखाया था। इस ऐतिहासिक तथ्य की पोराणिक कथा से समता प्रकट कर कवि ने व्यतिरेक का क्या हो अच्छा उदाहरण दिया है-- एदिल कुतुबशाह श्रौरंग के मारिबे को; भूषण भनत को है सरजा खुमान सों। तीनपुर त्रिपुर को मारे सिव तीन बान, तीन पातसाहदी हनीं एक किखान सों॥ सूरत जैसे प्रसिद्ध व्यापारिक शह्दर को लूट कर श्रोर जला कर शिवाजी ने मुगल सल्तनत को खूब्र नीच दिखाया था सूरत के लूटने और जलाये जाने का हाल सुन कर श्रीरंगज़ेब क्रोध से जल भुन गया था यहाँ कवि ने कैसा असंगति श्रलंकार का चमत्कार दिखाया है-- सूरत जराई कियो दाह पातताह उर , स्याही जाय सत्र पातसाह मुख भलकी | इस तरह हम देखते हैं कि भूषण की श्रलंकार-योजना में पिष्टपेषण नहीं, क्लिष्ट कल्पना नहीं, पर है सरलता तथा मौलिकता वश्य बिषघय और अ्रलंकार-योजना के श्रतिरिक्त भूषण की भाषा में भी मोलिकता है वीर-गाथा-काल से काव्य-भाषा-पिंगल--का श्राधार ब्रज भाषा ही थी। उसमें वीर-रसोपयोगी वर्णन के लिए श्रपश्रश भाषा मिश्रित राजस्थानी का पयांत्त प्रयोग किया जाता था | पर उसके पीछे कृष्ण-भक्त तथा रीति-काल के कवियों के समय ब्रजभाषा पर्याप्त मधुर श्रौर शुद्ध हे गई श्टंगारी वर्णनों के लिए ब्रजभाषा को श्रौर भी श्रधिक सरस बनाने का प्रयल किया गया; उसकी ककशता को सप्रयास दूर किया गया, उसके स्थान पर कोमलकांत-यदावली प्रयुक्त होने लगी, जो कि वीर रस के लिए स्वथा श्रनुपयुक्त थी इस कारणा[भूषण को श्रपनी भाषा अपने श्राप तेयार करनी पड़ी | सुदूर महाराष्ट्र देश में अपनी कविता का प्रचार करने के लिए उन्हें अपनी कविता की भाषा को खिचढ़ी बनाना आवश्यक हो गया | पर उस

र्श्े८ प्रअन्ध-प्रभाकर

खिचड़ी में भी श्रोज की कमी नहीं है उनकी भाषा का सौंदय तो केवल इसी में है कि उसे पढ़ कर या सुन कर पाठकों और शभ्रोताश्रों के द्वदय में वीरों के आतंक, युद्ध के लोमहषंण दृश्य, रणचंडी-दत्य इत्यादि के चित्र लिंच जाते हैं रस के अ्रनुकूल शब्दों में भेरी-रव की विकट ध्वनि लक्षित होती है भूषण ने अपनी भाषा को सव-सुलभ बनाने के लिए शुद्ध संस्कृत शब्दों के साथ शुद्ध विदेशी शब्दों को मिलाने में भी संकोच नहीं किया | “ता दिन भ्रखल खलमलें खल खलक मैं” तथा “जिनकी गरज सुन दिग्गज बेआब होत मद ही के आब गरकात्र होत गिरि हैं” आदि पद्मांशों में संस्कृत, देशज तथा विदेशी शब्दों का जोड़ देखने लायक है इसी अनुप्रास-योजना के लिए. भूषण ने शिवाजी गाजी' का भी प्रयोग किया है, यद्यपि गाजी शब्द साधारणतया काफिरों पर विजय प्राप्त करने वालों के लिए ही प्रयुक्त होता: है उपरिलिखित तीनों विशेषताओं--जातीयता की भावना, ऐतिहासिकता ओर मौलिकता तथा सरल भाव-व्यंजना--के श्रतिरिक्त मह्मकवि भूषण में एक ओर विशेषता है; वह यह कि धन के लोभ से भूषण ने निर्लोभिता अपनी कविता को, अ्रपनी प्रतिभा को, दूषित नहीं किया प्राचीनकाल से श्रनेक हिन्दी कवि, ओर रीतिकाल में तो प्रायः सभी प्रमुख कवि, अ्रपने विलासी आभ्यदाताश्रों की मनस्‍्तृप्ति के लिए कलुषित प्रेम की शत-सहस्त उद्‌्मावनाएँ करके देवी भारती का भंडार भरने ,के स्थान पर उसे कलंकित कर रहे थे। इसी को देख कर गोस्वामी तुलसीदास ने अनेक वर्ष पहले कहा था-- कीन्हें प्रकृत जन गुण गाना, सिर घुनि गिया लागत पहछिताना इसी बात को शअ्रनेक वर्षों के बाद भूषण ने दूसरे शब्दों में इस प्रकार दुहराया- ब्रक्ष के आनन तें निकसे ते श्रत्यन्त पुनीत तिहूँ पुर मानी राम युषिष्ठिर के बरने बलमीकिहू व्यास के अ्रंग सुहानी भूषण यों कलि के कविराजन राजन के गुण गाय नखानी | पुन्य-चरित्र सिवा सरजे सर न्हाय पवित्र भई पुनि बानी॥

हिन्दी साहित्य को मुंशी प्रेमचन्द जी की देन २४७

मानवता के दर्शन करा कर और उनकी वीरोचित कष्ट-सहिषणुता का परिचय दे कर उनके प्रति हमारी श्रद्धा भावना को जाग्रत किया ; उनके द्वृदय की मूक- वेदना को मुलरित कर उस शब्द को आकाश-वाणी यंत्र (२३००) की भाँति भॉपड़ियों से महलों तक पहुँचाया और मदहलों में सोने वालों को मॉपड़ियों के स्वप्न दिखला कर उनकी सहानुभूति को उद्ब्ोधित किया

प्रेमचन्द जी मानवता के कवि थे मानवता उनके लिए. किसी जाति विशेष या श्रेणी विशेष में सीमित थी। उन्होंने किसी व्यक्ति को हिन्दू होने के कारण श्रच्छा और मुसलमान होने के कारण बुरा नहीं दिखलाया | कबीर की भाँति दोनों में जहाँ उनकी बुराई देखी बुराई की और भलाई देखी तो बड़ाई की सच तो यह है कि मुंशी जी का ध्यान बुराइयों की अपेक्षा भलाइयों की ओर श्रधिक गया

मुशी प्रेमचन्द जी महान कलाकार ये | वे कला को कला के लिए मानने वालों में थे। उनकी कला लोक-हित ओर जनता की मंगल-कामना को लक्ष्य बना कर अवतरित हुई थी। उनके उपन्यासों में कोई कोई लोक- संग्रह्मत्मक उद्देश्य रहता था इसलिए उनके सम्बन्ध में यह भी कहा गया है कि वे कहीं-कहीं उपन्यासकार रह कर उपदेशक का रूप धारण कर लेते हैं, यह बात कहीं-कहीं तो किसी श्रंश में सत्य है, किन्तु सत्काव्य की भाँति उनके उनन्यासों में भी उपदेश की व्यज्ञना ही रहती है। उनके उफ्न्यास ऐसे नहीं हैं जो मन को कोरा छोड़ दें | वे विचारोत्ते जक हैं। वे हम को सम्ताज की किसी समस्या की ओर ले जाते हैं। 'सेवासदन' में सामानिकर अत्याचार द्वारा स्त्रियों के पतन तथा वेश्याश्रों के सुधार की समस्या है। प्रेमाश्रम' में घरेलू कलह तथा जमींदार ओर काश्तकार के संबंध का प्रश्न है। रंगभूमि' में राष्ट्रीयवा का रूप और अहिसात्मक आन्दोलन का ओपन्यातिक चित्र दिखाया गया है। कायाकल्प में मरणोत्तर जीवन का प्रश्न है। गबन में स्त्रियों के आभूषण- प्रेम से जो द्वनि होती है उसका अच्छा चित्रण है। सरकारी गवाह बनाने में लिस के हथकंडों का भी श्रच्छा दिग्दशन कराया गया है 'कमृभूमि! में घर आर बाहर का संधर्ष है जिसमें काय-क्षेत्र प्रबल सिद्ध होता है श्र पुत्र के

२४८ प्रचन्ध-प्रभाकर

कायक्षेत्र में पिता के भी सम्मिलित हो जाने से घर ओर बाहर का समझौता हो जाता है। गोदान! में किसानों के कज की समस्या है और उनके आमीण और शहरी जीवन की तुलना भी की गई है। मुशी जी ने सुधार के सभी पहलुश्रों पर प्रकाश डाला है। म्रतक-भोज, बेमेल विवाह, अछुतोद्धार, शराबबन्दी, दहेज आदि सभी समस्याञ्रों को अपने विवेचन का विषय बनाया है| वे उन सुधारकों में नहीं ये जो भूसी के साथ गेहूँ भी फटक देते हों हिन्दू समाज को बुराइयों के उद्घाटन के साथ उसकी भलाइयों की ओर भी उनका ध्यान गया है। सम्मिलित कुटुम्ब के वे पक्त में थे। एक कहानी में वे लिखते हैं कि जक दोनों भाई शामिल थे वे किसान थे, जच अलग हो गये मजदूर बन गये

इन उपन्यासों की समस्याएँ यद्यपि सामयिक हैं तथापि उन में हम एक शाश्वत पुकार का परिचय पाते हैं जिस के कारण वे कृतियाँ अमर रहेंगी। मानव-समाज की सम्रस्याञ्रों का रूप बदलता रहता है किन्तु मूल में वे एक सी ही रहती हैं। प्रेमचन्द जी बतमान के सहारे मानवता ओर न्याय के चिरन्तन! सत्य की ओर भुके हैं। सब समस्याश्रों का हल मानवता में हे मुशी जी ने उसी मानवता की प्रतिष्ठा करनी चाही है |

उनकी कहानियों में भी हम वर्णन के सोन्दय के श्रतिरिक्त मानब-हृदय की विशालता का परिचय पाते हैं। बढ़े घर की बेटी, पंच-परमेश्वर, मुक्तिमाग, आत्माराम, इस सम्बन्ध में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं| बहुत-सी कहानियाँ जीवन की भॉँकी-मात्र हैं। जैसे--शतरंज के खिलाड़ी | खेल का वर्णन बड़ा सजीव ओर चित्रोपम है| खिलाड़ियों की तन्‍्मयता उल्लेखनीय वस्तु है। कुछ लोगों का कथन है कि मुशी प्रेमचन्द जी ने कद्दानी के क्षेत्र में उपन्यासों की अपेत्षा अधिक सफलता प्राप्त की है। यह कथन निविंवाद नहीं है। इस धारणा का एक कारण यह है कि उपन्यास के विस्तार की स्वतंत्रता पा कर वे अपने को संयम में नहीं रख सके हैं। वे आन्दोलनों के प्रवाह में स्वयं बह से गये हैं; वहीं उनके उपन्यासों में शैथिल्य ञ्रा गया है। वे अ्रन्विति ( [॥॥0 ) का मी निर्वाह नहीं कर सके हैं कथा-प्रवाह की कई धाराएँ (7 पड़ती हैं, जिनकी आधिकारिक कथा से संगति नहीं हो पाई है। भाषा में भी

हिन्दी साहित्य को मुशी प्र मचन्द जी की देन २४६

शैथिल्य आर गया है और व्यंग्यात्मक शैली को छोड़ कर वे प्लेटफाम की उपदेशात्मक शैली का श्रनुकरण करने लगे हैं

कहानी के छोटे आकार ने उनको संयम की सीमा के भीतर ही रक्‍्खा है। वे उन मनुष्यों की भाँति हैं जो नियम ओर सीमा के बंधन में बंध कर तो” अपने को संयत रख सकते हैं और उन्मुक्त वातावरण में पहुँच कर दोड़ लगाने लग जाते हैं। कहानी में उसके छोटे श्राकार के कारण वे अन्विति श्रोर एकतथ्यता को अच्छी तरह निभा सके हैं। कहानी में उनकी कला कविता के अधिक भिकट आजाती है ओर उसके द्वारा उन्होंने बढ़े सुन्दर मनोवैज्ञानिक तथ्यों का भी उद्घाटन किया है और वे कह्दानी के छोटे मुँह से बड़ी-बड़ी बाते कह सके हैं। उनकी कहानियों में भाषा भी अ्रधिक चुस्त बनी रह सकी है। जो लोग कहानी या उपन्यास में संगठन की परवाह नहीं करते उनके लिए मु शी प्रमचन्द उपन्यासकार के ही रूप में श्रधिक सफल हुए हैं

सामानिक ओर राजनीतिक आन्दोलनों का जैसा सुन्दर चित्रण उन्होंने किया है वैसा बहुत कम उपन्यासकारों ने किया है। जो लोग सामाजिक या राजनीतिक चेतना जाग्रत करने को ही अ्रधिक महत्त्व देते हैं उनके लिए. मुशी जी के उपन्यासों का बहुत श्रधिक मूल्य है। मुशी जी की कहानियाँ बिहारी केः दोहों की भाँति देखने में छोटी होती हुई गम्मीर घाव करती हैं और उनके उयन्‍्यासों का प्रभाव कबीर के पदों का सा है। वे कला में इतने पूर्ण नहीं हैं, किन्तु अपने प्रभाव में अधिक व्यापक हैं। कला के पारखियों के लिए मुशीः जी कहानियों में अ्रधिक सफल हुए हैं। राष्ट्रीयता को अधिक महत्त्व देने वालों की दृष्टि से मुशी जी अपने उपन्यासों में अधिक उत्कृष्टता प्राप्त कर सके यह बात नहीं है कि मुशी जी अधिक सुगठित उपन्यास नहीं लिख सकते ये तिमला' इसका अच्छा उदाहरण है। किन्तु नैतिकता और प्रभावोत्यादन के: प्रवाह में वे श्रपने को मुश्किल से ही संयत रख सकते थे इसीलिए कुछ लोगः उनको उपन्यासों में श्रसफल बतलाते हैं

मुंशी प्रेमचन्द जी ने उपन्यासों में केवल जैस। का तैसा वर्णन नहीं किया है; उन्होंने सच्चे कलाकार की चुनाव-शक्ति से काम लिया है इसी के कारणः

२४७० प्रमन्ध-प्र भाकर

वे यथार्थवाद और आदर्शावार का सुन्दर समन्वय कर सके हैं। सच्चा कलाकार 'बीभत्स में से भी सोन्दय की सृष्टि कर सकता है| संसार गुण-दोष, पाप-पुण्य, पतभड़ और वसन्‍्त, करुणा-क्दन ओर हास-विलास का छायालोकमय मिश्रण है | प्रेमचन्द जी ने संसार के कालिमामय दृश्यों की उपेक्षा नहीं की किन्तु उनका चित्रण इतना गहग नहीं किया जिससे कि उनके अनन्‍्तस्तल में स्थित 'उज्ज्वल प्रकाश के कण छिप जायेँ। उन्होंने मानव-जीवन के प्रकाशमय करों की कालिमा में विलीन नहीं किया वरन्‌ उनको ऊपर ला कर थोड़ा चमका दिया है। उन्होंने दुअलताशं में भी सत्य और सुन्दर की खोज की है। उनको मानव- 'हृदय की श्रेष्ठता में अटल विश्वास था; किन्तु जहाँ पर अत्याचरियों के अत्या- चार का प्रश्न था, वहाँ वे उनके उद्घाटन में वास्तविकता की बीमत्सता से नहीं 'घत्रराये | पुलिस वालों के श्रत्याचार, घूमखोरी, जमीदारों की ध्ंस, बेगार ओर डाँट-डपट के विरुद्ध वे सदा लिखते आये हैं। यही उनका यथाथवाद समन्वित आदशवाद है| मुशी जी केवल यथाथ का ही वर्णन नहीं करते किन्तु शक्य और सम्भव 'के घेरे में वे थोड़े बहुत सामाजिक प्रयोग कर उनका शुभाशुम फल दिखला देते हैं ओर सुधारक के काय-क्रम की ओर संकेत कर देते हैं। 'प्रमाश्रमा के माया- 'शंकर जी अपने किसानों को ही जमीन का मालिक बना देते हैं, में अपनी प्रजा को अपने अधिकारों के बन्धन से मुक्त करता हूँ, वह मेरे असामी हैं, 'मैं उनका ताल्लुकैदार हूँ। वह सब सजन मेरे मित्र हैं, मेरे भाई हैं, श्राज वे अपनी जोत के स्वयं जमीदार हैं” सेवासदन' में भी एक प्रकार का सामाजिक प्रयोग है। इसमें वे आदशबाद की ओर कुछ ज्यादा भ्ुके हुए मालूम दोते हैं 'प्रेम्ाश्रम' तथा 'कमंभूमि में अछूतोद्धार ओर मन्दिर-प्रवेश की समस्या को भी लाये हैं। प्रंमचंद जी के उपन्यासों में उनकी लगन ओर ह्वदय की सचाई का “पूरा परिचय मिलता है | इसलिए वे हमारे हृदय के श्रधिक निकट आते हैं | मुशी जी का जीवन के प्रति एक उदार दृष्टिकोण था। वे जीवन को 'उसकी प्राकृतिक छुटा में देखना चाहते थे। वे गोदान' के एक प्रमुख पात्र मिस्टर मेहता से कहलाते हैं, “में प्रकृति का पुजारी हूँ श्रोर मनुष्य को उसके प्राकृतिक

हिंदी साहित्य को मुशी प्रेमचन्द जी की देन २५१

रूप में देखना चाहता हूँ जो रोने को कमजोरी ओर हँसने को हलकापन समभते हैं उनसे मेरा मेल नहीं। जीवन मेरे लिए आनन्दमय क्रीड़ा है ।” जीवन के प्रति यह दृष्टिकोण उनके मानसिक स्वास्थ्य का परिचायक है

मुशी जी के उपन्यास बड़े सुन्दर मनोवैशानिक श्रध्ययन हैं। उनको मानव-दवदय के अ्रन्तत्तल की दुबलताओं का पता था ओर वे ऊँचे और नीचे उद्देश्यों को भली भाँति समभते थे | दृदय के कपाट खोल कर उसकी भाँकी करा देने में वे बड़े कुशल ये; मानतिक शिथिलता श्रौर दृढ़ता के अवसरों को वे पहचानते थे गोदान! और गब्नन में ऐसे मानसिक शैथिल्य के श्रच्छे उदाहरण मिलते हैं

मुशी प्रेमचन्‍्द जी जिस प्रकार श्रपनी सूद्मदष्टि ओर हृदय की सचाई के कारण सफल उपन्यासकार बने वैसे ही उनका भाषा पर अधिकार उनकी सफलता में सहायक हुआ उनकी भाषा का सबसे बड़ा गुण उसकी अक्ृत्रिमता है; वह आडम्बर शून्य है किन्तु गौरव से भरी है। जिस प्रकार उनके भावों में हिन्दू मुसलिम ऐक्य की शुभाकांक्षा रहती हे वैसे ही उनकी भाषा में हिन्दी उदू का सुखद सम्मिश्रण है उदू की मुहावरे- दानी का उन्होंने पूरा-पूरा लाभ उठाया और वे हिन्दी में भी उदू कान्‍्सा लोच श्रोर चलतापन उत्पन्न कर उसकी शुद्धता स्थिर रखने में सफल हुए हैं जिस हिन्दुस्तानी के लिए लोग गरमागरम प्रस्ताव पास करते हैं उसका उन्होंने क्रियात्मक प्रयोग करके दिखला दिया जहाँ पर मुसलमान पात्रों से कुछ 'कहलाया है, उनकी हिंदी ने उदू का रूप ले लिया है मुशी प्रेमचन्द जी ने मुहावरों के बड़े सफल प्रयोग किये हैं उन्होंने शहर के मुहावरों का ही अयोग नहीं किया है वरन्‌ गाँव के मुहावरों को भी साहित्यिक प्रतिष्ठा दी है “घर में घी श्रांख श्राजने तक को नहीं है', उसका रोश्राँ रोश्राँ प्रसत्ञ हो गया!

इत्यादि में भावों की कितनी सुन्दर एवं शक्ति-पूर्ण श्रभिव्यञ्ञना है

प्रेमचन्द जी की भाषा की यह विशेषता है कि वह पात्रानुकूल बदलती गई है इसीलिए, वे अपने उपन्यासों में नाटकीय ढंग लाने में बड़े सफल डुए हैं। उनके कथोपकथन बड़े ही सजीव हैं उनके पात्रों की भाषा उनकी

२५२ प्रस्‍चन्ध-प्रभा कर

भाषा से भी कुछ अ्रधिक चलती हुई है यद्यपि कहीं-कद्दी, जहाँ उन्होंने मुसलमानों से ओर विशेष कर पुलिस अफसरों से वार्तालाप कराया है वहां, उनकी भाषा श्रधिक उदू मय बन गई है; यहाँ तक कि वह केवल हिंदी जानने वालों के लिए दुरूह भी हो गई है इस सम्बन्ध में कुछ लोगों का आक्तिप हे कि यदि कोई चीनी पात्र हो तो क्या वे चीनी भाषा में वार्तालाप कराएँगे यह बात को बढ़ा कर कहना है। हिंदी और उदू में इतना अ्रंतर नहीं है जितना कि हिन्दी और चीनी में | उदू हिन्दी की ही विभाषा है चीनी तो आयभाषा भी नहीं है

मुशी प्रेमचन्द जी बड़ी गूढ़ बात को सरल भाषा में कह सकते थे उन्में आडंबर ओर पांडित्य-प्रदशन का श्रभाव था देखिए निष्काम कर्म का कैसे सरल ओर सुन्दर शब्दों में उपदेश देते हैँ--

“जैया कोई काम सवाब समझ कर नहीं करना चाहिए, दिल के ऐसा बना लो कि काम में वही मजा आवे जो गाने या खेलने में कोई काम इसलिए करना कि उससे नजात मिलेगी, रोजगार है ।'

गाँवों की हीन और संपन्न अ्रवस्थाश्रों के भी उन्होंने बढ़े सुन्दर चित्र खींचे हैं ऐसे चित्र प्रेमाश्रम' ओर गोदान' में प्रचुरता से मिलते हं गाँवों का प्रकृति-वणन भी बड़ा ही सुन्दर किया है

“कागुन अपनी भोली में नवजीवन की विभूति ले कर पहुँचा आराम के पेड़ दोनों हाथों से बोर की सुगंध बाँट रदे थे ओर कोयल आराम की डालियों में छिपी हुईं संगीत का गुप्तदान कर रही थी।”

मुंशी जी ने कहों-कह्दीं भाषा को ऐसा समस्त और सुगठित बनाया है कि उनके कथन सूक्तियाँ बन गये हैं उनकी उपमाएँ बड़ी नवीन ओर फन्नती हुई होती थीं जो उनकी सूर्म दृष्टि का परिचय देती हैं, श्रव इस घर से गोदावरी का स्नेह उस पुरानी रस्सी की तरह था जो बार-बार गाँठ देने पर भी कहीं कहीं से टूट जाती है ।' उनकी भाषा में मधुर हास्य ओर व्यंग्य के भी अ्रच्छे छींटे रहते थे सारांश यह कि उपन्यास की भाषा के लिए जो जो गुण चाहिए: वे उनकी भाषा में थे इसके साथ उनमें सच्चे कलाकार का सहृदयतापूण

हिन्दी नाय्य साहित्य को प्रसाद जी की देन २५३

इष्टिकोण था इसी कारण वे जनता के गले का हार बन गये हैं | मुशी ली हिंदी-साहित्य की श्रमर विभूतियों में से हैं उन पर हिंदी भाषा-मभाषियों को गव है

३८. हिन्दी नाव्य-साहित्य को प्रसाद जी की देन

हिन्दी के नाव्य-सताहित्य का इतिहास यथाथतः भारतेन्दु बाबू हसिश्रिन्द्र से ही श्रारंभ हुआ है उनसे पूव कुछ नाटक लिखे तो गये, पर वे नाम के नाटक थे हरिश्चन्द्र से पूव के नाटकों में देव का देव माया प्रपंच,' ब्रजवासी- दास तथा महाराजा जसवंतसिंह के प्रबन्ध चंद्रोदय के अनुवाद तथा अनारसीदास जैव का समयसारनाटक' हुन्दोतरद्ध आध्यात्मिक कविताएँ मात्र हैं। ठीक हरिश्चन्द्र युग में आगरा के राजा लक्ष्मणसिंह और अलीगढ़ के तोताराम ने क्रमशः 'शकुन्तला' तथा ेटोक्ृतान्त!' के अ्रनुवाद करके हिन्दी को दिये थे। भारतेन्दु बाबू दरिश्चन्द्र अपने पिता को प्रथम मोलिक नाटककार मानते थे। उन्होंने नहुष्र नाटक लिखा था। यह नाटक ब्रजभाषा में लिखा गया था। भारतेन्दु जी ने नाटकों को प्रत्नल प्रेरणा दी; उनके समय में कितने ही नाटककार हुए इस काल के नाढठकों में प्राचीन ओर श्रवांचीन नाटक-पद्धतियों की सन्धि मिलती है इस समय चरित्र के निरूपण की ओर दृष्टि तो गई पर बे उतने मनोवैज्ञानिक नहीं हो सके, साँचे में ढले हुए आदश की भाँति ही उनकी उपस्थित किया गया। हाँ इस काल में कुछ रूपक ऐसे लिखे गये जिनमें तत्कालीन श्रवस्था का चित्रण किया गया यह चित्रण यथाथ को वास्तव रूप में नहीं रख सका सामग्री की दृष्टि से तो यह यथाथे रहा, पर निरूपण और शैली में वह श्रादश टाइप का हो गया | चित्रण ओर श्रभिथ्यक्ति का धरातल उथला था। विचार की गहनता से अधिक भावावेशों का प्राधान्य था, भावावेशों का मूल भी जीवन के आ्राधार-खोत से नहीं था, श्रपितु क्षणिक उत्त जनाश्रों से उत्पन्न बुदुबुदों के समान था। टेकनीक में भी भ्रम पर्याप्त मिलता है, एक श्रनिश्चितता है |

२५४ प्रबस्ध-प्रभाकर

दूसरा युग दरिश्चन्द्र ओर प्रसाद काल के बीच का सन्धि-युग हे! इस युग में द्विजेन्द्रलाल राय ओर जी० पी० श्रीवास्तव के नाटकों की धूम रही | इसमें नाटक रंगमंच की ओर पहले से कुछ विशेष आ्राकर्षित हुए, | इनका प्रधान गुण पात्रों में वैज्ञानिक रूपरेखा का आधार था। नाटककार पात्रों को चरित्र के रूप में देखने-समभने लगे थे, पर इन चरित्रों का प्र रणा-केन्द्र फिर भावुकता रही | पहले काल का भावावेश कुछ गंभीर ओर स्तब्ध ( (५४०26 ) हो कर सुगठित हो गया था, ओर उसका उद्रेक केबल बाह्य ह्थितियों की प्रतिक्रिया स्वरूप नहीं रह गया था, प्रत्येक अ्भिव्यक्त ओर श्राचरण का मूल चरित्र के व्यापक निजी तरव में आबद्ध हो गया था। इस प्रकार अब नाटकों में कथानक के विकास के साथ सुसम्बद्ध पात्ररविकास भी हो उठा था; पात्र जीवन के अनुकूल हो उठे थे, वे आदशोन्मुख रइते हुए. भी यथार्थ की ओर अग्रसर हो रहे थे। नाटकीय शैली में पाश्चात्य-प्रभाव से हुआ संशोधन स्थिर रूप ग्रहण कर चुका था | बंगाल ओर फ्रांस के प्रभाव से हिन्दी का कलाकार छुब्ध हो रहा था। इस समय बाबू जयशंकर प्रसाद जी हिंदी साहित्य में आये |

प्रसाद! श्रत्यन्त प्रतिभाशाली व्यक्ति थे इन्होंने श्रपनी कला के प्रखर प्रकाश से द्विजेन्द्र तथा अन्य बंगाली नाटककारों. के प्रभाव को एक दम मन्द कर दिया। द्विजेन्द्र में नाटककार की ही प्रतिभा थी जो ऐतिदह्ातिक वृत्ति से बद्धमूल थी उनकी ऐतिहासिक बृत्ति, उतनी शोधोन्मुख नहीं था, जितनी विशदी- करण की ओर थी उसमें चित्रण तो था, व्याख्या नहीं थी | प्रसाद में नाटक- कार की आत्मा तो थी ही, पर कवित्व उससे भी प्रबल था। उसके साथ ही पुरातन्‍्वशञ की सी खोजबृत्ति भी थी, श्रोर व्याख्याबृत्ति का भी उदय उनमें दिखाई देता दे। उनके पुसत्तत््वशान ने उन्हें द्विजेन्द्र से श्रधिक भारतीय मोलिक अवस्था ओर व्यवस्था को समभने की क्षमता प्रदान की | द्विजेन्द्र जहाँ बंकिम- चन्द्र के ओपन्यासिक युग के नाटककार बने, भारतीय संस्कृति की खतह के संघ को खोल कर उपस्थित. करने वाले; वहाँ. प्रसाद ने रबीन्द्र युग की प्र स्णाओं को दिंदी में नाटक के रूप में प्रस्तुत कर दिया, जिसमें उन्होंने रहीनद्र से भी अ्रधिक ऐतिहासिक विशेषता प्रस्तुत कर दी प्रसाद की देश-भक्ति ने

हिन्दी-नाथ्य साहित्य को प्रताद जी की देन २५४

सांस्कृतिक चेतना का रूप लिया था| उनके नाठकों में द्विजेन्द् के पात्न-चित्रण का, जिसमें भावुकता विद्यमान है, रवीन्द्र के दाशनिक विचारों का, जिनमें चाहे उनकी सी सात्विकता और सुसंबद्धता नहीं; ओर राखाल वंद्रोपाध्याय की अनूठी ऐतिहासिक चित्रकारिता का, जो अच्छे से अ्रच्छे पुरातत्व-विशारद को सी ऐतिहासिकता के समकक्ष ठद्दर सकती है; श्रभूतपू्व सम्मिश्रण है। राखाल बाबू के उपन्यासों से अपने नाटकीय कथा-वस्तु के लिए. प्रेश्णा ले कर श्रपनी खोज ओर कल्पना से प्रसाद ने उसे कुछ ओर ही रूप प्रदान कर दिया। अ्रपनी विलक्षण प्रतिभा और कला से उन्होंने अपने नाटकों में सामयिक श्रभिव्यंजना- वाद के साथ-साथ रहृत््यवाद की गहनशीलता का विचित्र चमत्कार दिखाया है।

प्रसाद ने कितने ही नाटक लिखे, जिनमें श्रजातशत्रु, चंद्रगुत ओर स्क॑गुस! प्रधान हैं। प्र वस्वामिनी, जनमेजय का नागयज्ञे, विशाखां और 'राज्यश्री! उनकी रचनाश्रों में दूसरा स्थान पाते हैं। कुछ छोटे नाटक ओर हैं। कामना उनका बड़ा नाठक है, पर काल्यनिक है एक घूट एकांकी हे प्रायः उनके नाटकों की वस्तु 'बोद्धकालीन इतिहास से सम्बन्ध रखती है। उनमें बोदकाल के उदय, मध्य और अ्रंत तक के चित्र श्रा गये हैं किन गुणों से बोद्धधम उदय हुआ ओर चमका वह अजातशत्र' में है। उसके हास-कालीन वृत्ति के चित्र स्कंदगुप्त, विशाख ओर 'राज्यश्री' में मिलते हैं। इन नाटकों के द्वारा भारतीय राजनीति और राज्यव्यवस्था का सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक रूप भी उन्होंने प्रस्तुत किया इसका उत्कष चंद्रगुप्त' में सर्वाधिक है “जन- मेजय का नागयज्ञ में भारतीय इतिहास के जातीय द्वन्द्र ओर संघर्ष का चित्र है। उसका अभी समीचीन रूप से अ्रध्ययन नहीं हुआ उसमें प्रताद की जातीय संघष की व्याख्या ओर व्यवस्था है, जो आज भी राजनीतिज्ञों को कुछ सहायक हो सकती है। यथाथ में प्रसाद के नाटक पात्र-चित्रण या पुनर्निर्माण के चित्र नहीं, वे आज की उन समस्याश्रों के लिए इल और सुझाव भी देते हैं। किन्तु इतने घोर बोद्धिर युग में भी उन पर बुद्धिमसा-पूवंक विचार नहीं

तो दी गये | एक घं मे स्वतन्त्र प्रेप्त पर व्यंग्य है। कामना:

कारिणी साज्नी दी एक घूँ2' में स्व॒तन्त्र प्रेम पर व्यंग्य है। कामना

२५६ प्रभन्ध प्र भाकर

में कवि ने घोर पदाथवाद के रूप और उसकी देन की कु श्रालोचना की है | इस प्रकार इस नाटककार ने युग के साथ युग-युग को समुपध्थित कर दिया है अतः जहाँ तक कथावस्तु का सम्बन्ध है, यही नाटककार है जिसने हिन्दी नाटक साहित्य को अ्भिनव-योजना श्रोर ऐतिहासिक ठोस आधार पर खड़ा किया |

चरित्रों की सृष्टि में भी प्रसाद जी बड़े सिद्ध दिखाई देते हैं। उन्होंने देवसेना, कल्याणी, अलका जेसे मानवता के गोरव स्वरूप, त्याग, तप ओर काव्यमय पात्रों की कल्पना की है, तो साथ ही प्रपंचबुद्धि भद्गारक श्रादि क्रर घडयंत्री पात्रों की भी, जो मानवता के अभिशाप कहे जा सकते हैं, रचना की है। सब अपने अपने व्यक्तित्व में पूण हैं--सुधा सराइय अमरता गरल 'सराइय मीचु!। सिकन्दर ओर चंद्रगुप्त जैसे महत्वाकांत्ती ओर दांड्यायन जैसे सांसारिक वैमव की उपेज्ञा करने वाले पात्र भी उनके ही नाटकों में मौजूद हैं |

यही पहला नाटककार है जिसने नाटकों का साहित्यिक घरातल अ्रनायास ही ऊँचा कर दिया, और उसमें अध्ययन की सामग्री की प्रचुरता कर दी, भाषा “ओर भाव दोनों का रूप निखार दिया। भावों में रंगीनी, दाशनिकता और ओओज के साथ अभिव्यञ्ञनावादी शैली का सोंदयमय चमत्कार प्रसाद के संवादों में ही मिलेगा | उन्होंने भाषा को भी उसी के योग्य शक्ति प्रदान कर दी। यही कारण है कि कई आलोचक कहते हैं कि प्रसाद जी की भाषा रंगमंच के योग्य नहीं है। साधारण जन उसे नहीं सम सकेगा। वास्तव में भाषा की उतनी दुरूहता नहीं है, जितनी भावों की उच्चता है, ओर उस भाव के धरातल को प्रस्तुत करने में युग की रहस्यवादी टेकनीक को प्रसाद जी ने नाटकों में भी उतार लिया है फिर भी यह मानना पड़ेगा कि जब्र सहृदयों को उनके नाटक इतने प्रिय और इतने आकषक लगते हैं, उनमें कोई रंगमंच सम्बन्धी त्रुटि भी दृष्टि गोचर नहीं होती, तत्न उनके नाटक में कमी नहीं, रंगमंच ही उसके योग्य नहीं बन सका, यथाथ में हिन्दी में श्रपना रंगमंच है ही नहीं। तभी हिंदी में साहित्यिक नाटक की प्रधानता हो गई

प्रसाद जी ने नाटकीय टेकनीक का एक मार्ग सुनिश्चित कर दिया हिन्दी के नाटकककारों ने बाद में उन्हीं का श्रनुसरण किया है | श्रतः ऊँची

प्रजभाषा और खड़ी बोली २५७

कच्चा के नाटकों का प्रवर्तन करने ओर उनमें मनोवैज्ञानिक चित्रण को प्रधानता देने का श्रेय प्रसाद जी को है जो काय उपन्यासों में प्रेमचन्दर ने किया बद्दी प्रसाद ने नाटकों में किया | एक घूट' के द्वारा उन्होंने 'एकांकी नाटकों का भी विधिवत सूत्रगत हिन्दी में कर दिया |

इनके बाद नाअककारों में बोद्धिकता तो विशेष गई, पर वह गरिमा ओर सौंदय नहीं श्रा सका फलतः नाव्य साहित्य में प्रसाद जी अरब भी अद्वितीय ही हैं। बड़े नाटकों के लिए प्रसाद जी के नाटक श्राज भी आदश बने हुए. हे

३६. प्रजभाषा ओर खड़ी बोली

हिन्दी की पाँच मुख्य उपभाषाएं हैं; राजस्थानी, अवधी, तव्रजभाषा, चुन्देलखंडी ओर खड़ी बोली | पाँचों ही उपभाषाएँ भिन्न-भिन्न प्रांतों में बोली जाती हैं। यद्यपि प्राचीन चारण तथा मीरा आ्रादि कवियों की कविता में राज- स्थानी का पर्याप्त पुट था, और प्रेममार्गीं तथा राममक्त कवियों ने अवधी को अपनाया, पर हिन्दी में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान वजभाषा का रहा ओर पीछे से खड़ी बोली का हुआ | बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ होने से कुछ काल यूव तक तो ऐसा था कि खड़ी बोली गद्य की भाषा थी ओर त्रजभाषा पद्म की उसके पश्चात्‌ बोलचाल ओर कविता की भाषा का बविच्छेद दूर करने के लिए, खड़ी बोली में भी कविता होने लगी इन उपभाषाओं के संबंध में दो मुख्य प्रश्न हैं। पहला ऐतिहासिक, अर्थात्‌ इन दोनों उपभाषाश्रों की उत्तत्ति स्वतंत्र रूप से हुईं, अथवा एक दूसरी से ओर दूसरा है सापेज्षित महत्त्व का, श्रर्थात्‌

गद्य और पद्म के माध्यम होने के लिए किसकी किस में विशेष क्षमता है ? ऐतिहासिक विवेचना के पूर्व इनके स्वरूप भेद पर यदि थोड़ा प्रकाश डाल दिया जाय तो अ्रनुपयुक्त होगा साधारण जनता की बोलचाल के संबंध से त्रजभाषा आगरा, मथुरा, एटा श्र श्रलीगढ़ के ऐतिहासिक : जिलों तथा घोलपुर और ग्वालियर राज्यों के कुछ भागों में बोली जाती है श्रोर खड़ी बोली देहली, मेरठ, बुलंदशहर

१७

२४८ प्रमेन्ध-प्रभाकर

के आसपास बोली जाती है ब्रजमभाषा का केन्द्र मथुरा है श्रोर खड़ी ब्रोली का केन्द्र है मेरठ ब्रजभाषा ओर खड़ी बोली के रूप में भी श्रनेक भेद हैं ब्रजभाषा में पुंज्लिंग संश्ाएँ, विशेषण ओर संबंध कारक स्वनाम श्रोकारान्त होते हैं, जेसे--धोड़ो, घेरो, छोटो, बड़ो, मेरो, तेरो, हमारो इत्यादि खड़ी बोली में ये सब आकारान्त होते हैं; जैसे--घोड़ा, घेरा, छोटा, बड़ा, मेरा, तेरा इत्यादि त्रजमाषा का बहुवचन बनाने के लिए अंत में 'न का प्रयोग होता है; जेसे-पंडितन, किताबन, दिनन इत्यादि | खड़ी बोली में बहुवचन सानुस्वार ओऔओ' लगने से बनता है, जैसे-पंडितों, कितात्रों, दिनों खड़ी बोली में साधारण क्रिया का एक ही रूप होता है; जैसे--आना, जाना, करना ज्ञजभाषा में साधारण क्रिया के तीन रूप होते हैं; एक नो! से अत होने वाला, जैसे--अआानो, जानो, करनो, धरनों, इत्यादि; दूसरा 'ना से अंत द्ोने वाला, जैसे--अआवन, जावन, लेन, देन; श्रोर तीसरा 'बो' से अंत होने वाला जैसे-- आइयबो, जाइबो, करिबो इत्यादि

ब्रजभाषा ओर खड़ी बोली के कारक चिह् भी कुछ भिन्न होते हैं कम में त्रजभाषा में 'को' 'को! दोनों होते हैं, खड़ी बोली में केवल 'को' होता हे। करण में व्रजभाषा में सो ओर ें का व्यवद्यार होता है, खड़ी बोली में केवल से का प्रयोग होता है। खड़ी बोली में अपादान कारक में व्रजभाषा के ते और सौं के स्थान में से! होता है। सम्बन्ध कारक में व्रजभाषा में केवल के' का व्यवहार होता हे ओर खड़ी बोली में का), के, की! का प्रयोग होता है

बहुत से लोगों को यह भ्रम है कि खड़ी बोली का जन्म व्रजभाषा से हुआ हे इन भाषाओं की उपयु क् भिन्नताएँ ही इस बात की द्योतक हैं कि इनका इतिहास भिन्न है। इन उपभाषाओ्रों का विकास भी प्रायः एक ही काल में हुआ है खड़ी बोली का सत्र से पहला रूप अमीर खुसरों ( सं० १२६५- १३२१ ) की कविता में मिलता है। उदाहरणाथे पतंग की पहेली लीजिए---

एक कहानी में कहूँ सुन ले मेरे पूत। बिना परों वह उड़ गया, बाँध गले में सूत

प्रजमाषा और खड़ी बोली २५६

इन पर एक दूसरे का प्रभाव अवश्य पड़ा। ब्जभाषा की उलपत्ति शोरसेनी श्रपश्रश से तथा खड़ी बोली की उत्पत्ति शौरसेनी तथा पंजाबी और पैशाची के गड़बड़ अपभ्रश से कही जाती हे खड़ी बोली उदू से भी नहीं निकली, क्योंकि इसमें उदू से पूव कविता होना आरंभ दो गया था। यह बात अवश्य है कि भारत की राजधानी देहली के निकट की भाषा होने के कारण मुसलमानों ने इसको अपनाया और वे लोग इस को सारे भारतवष में फैलाने में सहायक हुए | उन्होंने ही अ्रपने सुभीते के लिए इसमें फारती ओर अ्ररबी के शब्दों का समावेश कर इसको उदू का रूप दिया | उदू में जमीन खड़ी बोली की रही ओर बेल-बूटे फारती ओर अरबी के निकाल दिये गये

यद्यपि प्रारंभिक काल में खड़ी बोली में कविता बहुत कम हुई, तथापि उसका नितांत अ्रभाव रहा | अ्रमीर खुसरो, रहीम खानखाना, जटमल शोर सीतल कवि ने खड़ो बोली में श्रच्छी कविता की है। मुशी सदासुखराय, इंशाअल्लाखाँ, लललूलाल ओर सदल मिश्र प्रारम्मिक काल के गद्य-लेखकों में प्रधान हैं

इतिहास ही वस्तु की उपयोगिता वा अनुपयोगिता को सिद्ध कर देता है। रुमय बड़ी कतोटी है। त्रजभाषा में गद्य लिखा गया किंतु उसकी बेल

बदी नहीं थोड़ी ही बढ़ कर मुरका गई गंस्वामी गोकुल- सापेक्षिता महत्व नाथ जी की वेष्णव वार्त्ताओं और टोकाश्रों से श्रघिक उसका विस्तार हुआ | यद्यपि यह कह्य जा सकता है कि जब

वैष्णव वार्ताएँ लिखी गई तन गद्य का युग था, तथापि जब गद्य का युग आय। तब भी वह गद्य के लिए अपनाई गई

साधारण भावों के प्रचार के लिए व्रजभाषा में प्रान्तीयता थी | उसका कारोबार से सम्बन्ध नहीं रहा | उसमें व्यापार श्रोर व्यवह्दर के संध्कार नहीं बने | बोलचाल की भाषा के रूप में खड़ी बोली का क्षेत्र अधिक व्यापक हे गया था | यह सब्न होते हुए भी त्जभाषा में कविता की बेल खूब फली-फूली व्जभाषा में कविता की भाषा होने की योग्यता थी। उसके शब्द में माधुय था, अनुप्रास था। "माय री साँकरी गली में पान काँकरी चुभति है

२६० प्रधन्ध- प्रभाकर

वाले पनघट की पनिह्दारी के वाक्यों ने फारस के कवि को आ्राश्वय-वकित कर दिया था। कृष्ण-काव्य के लिए तो वह विशेष रूप से उपयुक्त थी। श्ृंगार आर वात्सल्य के लिए जितने माधुय की आवश्यकता है वह उसमें भरपूर है। इसमें जो लालित्य दे वह खड़ी बोली के वर्णन में नहीं श्रा सकता

विनय और दीनता के लिए भी व्रजभाषा बड़ी उपयुक्त दै। सूरदास द्वारे ठाड़ो आँधरो भिखारी' की सी दीनता और किसी भाषा में मुश्किल से पमिलेगी। दैन्य तथा शज्ञार ओर वात्सल्य के कोमल भावों के लिए अ्रवधी के भक्त गोखामी तुलसीदास जी ने भी दोनों गौतावलियों ओर विनयपत्रिका में ब्रजभाषा को ही अ्रपनाया था। सूफी कवियों ने भी अपनी आध्यात्मिक कविता में लालित्य लाने के लिए. ब्रञभाषा के पिया” 'दरस' आदि शब्दों को अपनाया |

खड़ी बोली वास्तव में खड़ी है, उसमें एक प्रकार की उद्दण्डता, दृदता, व्यापकता और कठोरता के व्यावद्वारिक गुण हैं, इसलिए उसका व्यवहार की भाषा होना निर्विवाद है गद्य की साहित्यिक भाषा खड़ी बोली ही है। इसी रूप में इसने राष्ट्रभाषा-पद पाया है | अन्न प्रश्न यह है कि खड़ी बोली कविता की भाषा बन सकती है या नहीं ? खड़ी बोली कविता की भाषा होनी चाहिए इस बात में बहुत कम मतभेद है; जहाँ तक हो सके गद्य ओर पद्म एक ही भाषा में होना उपयुक्त है| परन्तु खड़ी बोली कविता की भाषा हो सकती है इसमें मतभेद के लिए काफी स्थान है | एक दल तो इसको बिलकुल नीरस मानता है और एक दल का मत हे कि जो होना चाहिए वह हो सकता है। जो उचित है, करणीय है, वह शकक्‍य भी है। यह बात अ्रवश्य है कि त्रजभाषा में जो लोच ओर लचक है वह खड़ी बोली में नहीं। व्रजभाषा के कवि को शब्दों की तोड़ मरोड़ ओर रूपान्तर करने की अधिक ज्ञमता रहती है, खड़ी बोली में ऐसा करना खटकता है, किन्तु खड़ी बोली नितान्त लालित्य-रहित नहीं है

रहीम ने मालिनी छुन्द में बढ़ी लालित्यमयी रचना की है ओ्रोर वे खड़ी बोली में संत्कृत छुन्दों के प्रयोग के एक प्रकार से पथप्रदर्शक बने हैं। इसको मान लेने का यह अश्रथ नहीं है कि खड़ी श्ोली में सभी प्रकार की कविता

मातृभाषां का महत्त्व २६१

हो सकती है। कविता के लिए. कुछ गोरवशालिनी भाषा की आवश्यकता है। भावों की जाग्रति के लिए. कुछ ऐसे मजे हुए शब्दों की श्रावश्यकता है जिनके पीछे इतिहास लगा हो। अत्र भाषा को गोरवशालिनी बनाने के लिए, लोग प्रायः संस्कृत के शब्दों का प्रयोग करते हैं। कोई कोई क्रियाएँ खड़ी बोली की ओर शब्द व्रजभाषा के रखते हैं | संस्कृत ओर व्जमाषा के शब्द जब तक उचित मात्रा में रहते हैं तब तक तो माधुय के वधक होते हैं; किन्तु अति सबंत्र वजयेत्‌' का नियम यहाँ पर भी लागू होता है उस उचित मात्रा को निधोरित करने में ही कवि का कोशल है। इस शअ्रकार खड़ी बोली जनता की व्यापक भाषा होने के कारण कविता की भाषा बनने का श्रघिकार रखती है ओर यदि शब्दों का चुनाव अ्रच्छा किया जाय तो वह अधिकार भली प्रकार निभाया जा . सकता है, ग्रोर आजकल अधिकांश कवियों ने निभाया भी है। श्री सुमित्रानन्दन पंत की निम्नलिखित कविता व्रजमाषा के सवश्रेष्ठ मधुर उच्चारण वाली रचनाश्रों से टक्कर ले सकती है--

पावस ऋतु थी, पव॑त-प्रदेश; पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश

मेखलाकार पबेत अ्रपार, अपने सह हृग सुप्न फाड़

अवलोक रहा है बार बार; नीचे जल में निज महाकार--

जिस के चरणों में पला ताल, दपण सम फैला है विशाल |

'साकराम्म्याकाम्याक. ०७०... सडक. पाकर,

४० मातृभाषा का महत्त

जिस भाषा को मनुष्य स्वाभाविक श्रनुकरण द्वारा बाल्यकाल से सीखता है उसे हम उसकी मातृ-भाषा कहते हैं इसी बात को हम दूसरे शब्दों में यों कह सकते हं कि जिस भाषा को हम माता की गोद में सीखते हैं वही हमारी मातृभाषा दे

मातृभाषा शब्द में माता शब्द को अ्रधिक महत्व दिया गया है और यह उचित भी है यद्यपि हमारे जन्म का कारण माता और पिता दोनों ही हैं तथावि हमारे शरीर में श्रधिकांश भाग माता का होने से एवं उसके द्वारा

२६२ प्रशन्ध-प्र भाकर

हमारा भरण पोषण होने के कारण माता की ही महत्ता है | इसीलिए जन्मभूमि को भी म।तृभूमि कहते हैं, पितृभूमि नहीं कहते ( अ्रमेरिका, जमनी, रूस आदि देशों में चादे जो कुछ हो, किन्तु भारतवष में ऐसा नहीं कहते )। भारतवष में माता शब्द को बड़ा पवित्र माना गया है। माता शब्द में एक साथ स्नेह, आदर ओर आश्रयदातृत्व के भाव लगे हैं। माता शब्द के सुनते ही इन भावों की जाग्रति हो जाती है ओर एक आनन्द का अनुभव होने लग जाता है। मातृभाषा के साथ भी यही भाव लगे हुए हैं

हमारा प्रारंभिक ज्ञान मातृभाषा द्वारा ही होता है ओर हम अपने भावी ज्ञान को भी, वह हमें चाहे जिस भाषा द्वारा प्रात हो, मातृभाषा द्वारा प्राप्त किये हुए ज्ञान के आ्रालोक में ही देखते हैं मातृभाषा हमारे बाल्यकाल की भाषा होने के कारण हमारे मानसिक संस्थान का अंग बन जाती है मनुष्य चाद्दे जितना विदेशी रंग में रंगा हो किन्तु सच्चे हइष ओर घोर विपत्ति के अवसर पर वह मातृभाषा में ही बोलता है कहा जाता है कि एक जासूस को किसी विशेष व्यक्ति की जाति ओर जन्मभूमि का पता नहीं चलता था इस समस्या को हल करने के लिए उसने अपने गुरुदेव की शरण ली | उन्होंने सलाह दी कि रात्रि को जब वह व्यक्ति घर लोटता हो उत्तकी पीठ में श्रचानक एक घूंसा मारना ओर देखना कि वह किस भाषा में बोलता है जिस भाषा में वह श्रपने आहत होने का भाव प्रकाशित करे उसी को उसकी मातृभाषा समभना इस कथा में बहुत कुछ मनोवैज्ञानिक तथ्य है भय हमको श्रपने स्वजनों की ओर खींचता है। हमारी मातृभाषा के साथ आत्मरक्षा के भाव लगे हुए हैं। जिस समय हमारी आत्मरक्षा का संकटमय श्रवसर आता है हम प्रायः श्रपनी मातृभाषा का ही प्रयोग करते हैं

मातृभाषा के साथ हमारे बाल्यकाल की मधुर स्मृतियाँ जुड़ी होती हैं, इस कारण वह बड़ी मनोहर मालूम होती है, उसे बोलने श्रोर सुनने के लिए हमारे मुख और कान की पेशियाँ श्रभ्यस्त हो जाती हैं, ओर उसके उच्चारण वा श्रवण में हमको न्यूनातिन्यून प्रयास ही नहीं पड़ता वरन्‌ एक प्रकार का अपूर्व सुख प्रात होता है। जो श्रानन्द हमको अपनी मातृभाषा के गायन में

मातृभाषा का महत्त्व २६३

आता है वह किसी दूसरी भाषा के गायन में नहीं आता

मातृभाषा के शब्दों में हमारी जातीय संस्कृति का इतिहास छिपा रहता है। उसके द्वारा हम अपने घरवालों श्र जातिवालों के साथ एक सम्मिलित सूत्र में बंध जाते हैं श्रोर हम उनके हृदय तक अपनी बात पहुँचा सकते हैं जिस प्रकार तिलक छाप श्रादि बाह्य चिह्न धार्मिक समूहों को संगठित रखने में सहायक होते हैं उसी प्रकार मातृ भाषा अपने व्यवहार करने वालों में एक अलक्तित प्रेम-भाव उत्पन्न कर देती है मातृभाषा का प्रचार जातीय गौरव को बढ़ाता है। उस का व्यवह्वार करते हुए हम को यह अनुभव होने लगता है कि हमारी कुछ निजी संपत्ति है। मातृभूमि से इमको बाँघे रखने तथा “जननी जन्मभुमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” का भाव उतन्न करने में भी मातृभाषा विशेष रूप से सहायक होती है। मातृभाषा द्वारा शिक्षितोंअशिक्षितों ओर गरीतों तथा अमीरों के बीच का अ्रन्तर मिट जाता है। जब्च हम अपनी मातृभाषा में बात- चीत करने लग जाते हैं तत्र ग्रपने लोगों को अपने मालूम होने लगते हैं उनके साथ हमारा सहकारिता का भाव बढ़ जाता दे श्राजकल जो विचार ओर क्रिया में विच्छेद है वह मातृभाषा का समुचित आदर होने के कारण ही है। विचार पढ़े लिखे लोगों के द्वाथ में है जो प्रायः मातृभाषा से विमुख रहते हैं ओर क्रिया प्रायः मातृभाषा-माधी अ्रनपढ़ों के हाथ में है इसी विचार श्र क्रिया के विच्छेद के कारण बहुत सी सामाजिक सुधार संबंधिनी योजनाएँ निष्फल हो जाती हैं

भारतवष में जो मोलिकता का अ्रभाव है उसका बहुत कुछ कारण भी यही है कि हमारी शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा नहीं है। हम विचार ओर किसी भाषा में करते हैं श्रोर शिक्षा दूसरी भाषा में इसलिए हमारी शिक्षा हमारे मानसिक संस्थान का श्रंग नहीं बनने पाती | इसीलिए वर्तमान शिक्षा द्वारा प्राप्त ज्ञान फलता-फूलता नहीं है। उस ज्ञान का अपने देश-माइयों को भी हम लाभ नहीं दे सकते। शान मनन से बढ़ता है ओर मनन के लिए पारस्परिक आदान-प्रदान आवश्यक है। यह झ्रादान-प्रदान और विचार-विनिमय जितना व्यापक मातृमाषा द्वारा हो सकता है उतना दूसरी भाषा द्वारा नहीं

२६४ प्रबन्ध प्रभाकर

हथ की बात है कि सिद्धान्ततः मातृभाषा का महत्त्व स्वीकार कर लिया गया है। राष्ट्रमाषा हिन्दी तथा अन्य प्रान्तीय भाषाओश्रों को उच्च शिक्षा का माध्यम बनाने के प्रयत्न किये जा रहे हैं। यह देश के लिए शुभ लक्षण है। अभी अ्रध्यापकों का अग्रेजी के माध्यम से पढ़ाने का अभ्यास नहीं छूटा है, किन्तु श्र वह धीरे-धीरे छूट जायगा और नये संस्कार बन जायेंगे। उपयुक्त साहित्य भी तैयार दो रहा है इसके प्रस्तुत हो जाने पर मातृभाषा द्वारा ग्रध्ययन में कठिनाई होगी

मातृभाषा माता के दूध के समान पवित्र और स्वास्थ्यवर्धक है , माता के समान द्वी हमारी गुरु है ओर उसी के समान स्नेहमयी है

मातृभाषा का व्यवद्दार ज्ञान के विस्तार तथा उसमें मोलिकता उत्पन्न करने में एवं जातीय जीवन की वृद्धि में सच्से अधिक सहायक होता है। मातृ- भाषा की उन्नति सब्न प्रकार की उन्नति का मूल है, क्‍योंकि भाषा की उन्नति के साथ विचार में स्पष्टता आती है ओर विचार की वृद्धि होती है विचार ही सारी क्रियाओं का मूल-खोत है। यदि विचार में शक्ति और स्पष्टता है, तो हमारी क्रियाओं का प्रवाह श्रकुंठित रूप से बहता रद्देगा ओर हम उत्तरोत्तर उन्नति करते जाएँगे |

४१५ राष्ट्रभाषा का स्वरूप

बहुत वाद-विवाद के पश्चात्‌ हिन्दी राजभाषा घोषित हो चुकी है। यद्यपि उसको अपना कार्यभार पू्णरूपेण सम्दालने में देर है ओर उसको १५ वर्ष के पश्चात्‌ तिथि वाली चेक ( 205(-090९0 ८॥८०१४८ ) मिली है तथापि अब उसकी और किसी भाषा से प्रतिद्दन्द्तिता का प्रश्न नहीं रह उसका अधिकार निर्विवाद है। उसका यह नेतिक अधिकार क्रमशः व्यवहार की वास्तविकता में परिणत होता जायगा | अंग्रेजी हमारी राज-भाषा थी किन्तु राष्ट्रभाषा बन सकी | हिन्दी के लिए ऐसी बात नहों है वह देश को हो भाषा है। उसका देश में हो विकास हुआ्रा है ओर उसका देश की प्रायः सभी

राष्ट्रभाषा का स्वरूप २६५

भाषाओं से सम्बन्ध है हिन्दी बहुत अंश में राजभाषा बनने से पूरब ही राष्ट्र भाषा बन चुकी थी | श्रव उस पर राजक्रीय मुहर छाप भी लग गई है

राष्ट्रभाषा के स्वरूप पर विचार करने से पूव हमको राष्ट्रभाषा की आवश्यकताएँ जान लेनी चाहिएँ। वे इस प्रकार हैं :--

१. उस भाषा को देश के अधिकांश निवासी बोलते हों। यदि बोलते भी हों तो उस भाषा का देश' की अन्य भाषाओं से घनिष्ठ पारिवारिक सम्बन्ध हो | उसमें भविष्य के लिए अधिक व्यापक होने की सम्भावना हो |

२, वह सरल हो

३. उस भाषा में राजनीतिक, शिक्षा-सम्बन्धी, धार्मिक श्रोर सामाजिक व्यवहार के संचालन की क्षमता हो |

४, वह देश की संस्कृति ओर सभ्यता की परिचायक हो |

हिन्दी इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करती है ओर पूरी करने की क्षमता रखती है। ओर सब आवश्यकताओं की तो वह अपने स्वभाव और संगठन से पूर्ति करती ही है किन्तु तीसरी आवश्यकता की पूर्ण पूर्ति में कुछ न्यूनता समझो जा सकती है। तीसरी श्रावश्यकता की कमी के लिए हिन्दी दोषी नहीं वरन्‌ वे लोग दोषी हैं जो देश के भाग्य-विधाता थे ओर जिन्होंने उसे राजनीतिक ओर शिक्षा सम्बन्धी क्षेत्रों में पनपने का अ्रवसर नहीं दिया। बिना पानी में पेर दिये तैरना नहीं आता भाषा की शब्दावली इतनी गदी नहीं जाती जितनी कि व्यवहार में विकसित होती है; फिर भी तात्कालिक व्यवहार के लिए भी कुछ प्रारम्भिक सामग्रो होनी चाहिए उस सामग्री की तैयारी हो रही है ओर उसका प्रयोग में आना प्रारम्भ भी दो गया है। प्रयोग ही शब्दा- वली को परिमार्नित ओर चलन योग्य बनायेगा

हमारी राष्ट्रभाषा के दो रूप हैं; एक जन साधारण के व्यवहार की भाषा का ओर दूसरा राजकाज तथा शिक्षा की भाषा का यद्यपि इन दोनों रूपों में विशेष अन्तर नहीं है श्रोर होना चाहिए. तथापि इनमें कुछ भिन्नता का होना स्वाभाविक है। जन साधारण के व्यवह्वार की भाषा सरल से सरल बनाई जा सकती दै। यद्यपि प्रान्तों में पारस्परिक व्यवदह्दार स्थानीय भाषाओं में ही

२६६ प्रबरन्ध-प्र भाकर

चलता रहेगा तथापि कुछ ऐसे सावजनिक काय हैं-जैसे कि नेताश्रों ओर उच्चपदाधिकारियों के भाषण, महत्त्वपूण निर्माण-कार्य सम्बन्धी सिनेमा फिल्में, पात्रियों के पारस्परिक विचार विनिमय तथा अन्‍्तर्प्रान्‍्तीय व्यापार--जिनके निए प्रान्तों में जनसाधारण के लिए. भी राष्ट्रभाषा का चलता ज्ञान वांछुनीय द्वोगा प्रजकाज, विशेष कर केन्द्रीय राजकाय, से परिचित रहने के लिए श्रोर उच्च शिक्षा की पुस्तकों से लाभान्वित होने के अथ राष्ट्रमाषा की विशेष आवश्यकता रेगी अब हम दोनों रूपों पर प्रथक्‌ पृथक विचार करेंगे

पहले हम जन साधारण के व्यवह्यार की राष्ट्रभाषा के रूप पर विचार करेंगे। सरलता इसका विशेष गुण होना चाहिए.। यद्यपि तदूमव शब्द तत्सम शब्दों से सरल होते हैं तथापि अनन्‍्तर्प्रान्तीय व्यवह्यार के लिए तत्सम शब्दों का या उन तद्धव रूपों का, जो तत्सम के निकटतम हों व्यवहार वांड्ुनीय होगा क्योंकि तत्सम शब्दों का सब्च भाषाश्रों में प्रायः एक सा रूप रहता है। तदूभव रूप भिन्न भिन्न प्रान्तों में ग्लग अलग होता है। तत्सम शब्दों में कुछ सरल ओर प्रचलित होते हैं ओर कुछ क्लिष्ट और अ्रप्रचलित | ( हमको सरल ओर प्रचलित शब्दों को ही यथासम्मव श्रपनाना चाहिए )। उदू के शब्द जो हिंदी में विशेष चलन पा गये हैं, जेसे हलवाई, बाजार, पुल, शीशा, शीशी, चमचा, चश्मा, श्रसबाब, सामान, तकल्लुकफ, डाकखाना, तमाशा, दाल, मिसिल, श्रर्जी, पुजा, परवाह, गनन्‍्दा, गरज, गरीब, जागीर, इमारत, गर्दन, गिरवी, जगह, जमीन आदि महज में भाषा से निकाले नहीं जा सकते इनमें से कुछ तो दूसरी प्रान्तीय भाषाश्रों में भी, जैसे गुजराती, बंगला, मराठी आदि भाषाओओरों में, व्यवद्धत होते हैं। ऐसे शब्दों को तो हमें श्रपनी भाषा में स्थान देना द्वी पढ़ेगा यही हाल श्रंग्रेजी के प्रचलित शब्दों का भी है, किन्तु उनका अनावश्यक प्रयोग वांछुनीय नहीं है। में ईवर्निंग में डेली वाक करने जाता हूँ" अथवा वह स्टडीज़ में इतना एच्सोब्ड रहता है कि श्रपनी बोडी की एज्सोल्यूटली कोई फेयर ही नहीं करता” ऐसी भाषा राष्ट्रभाषा के लिए, गौरव का विषय नहीं हो सकती | जो शब्द चलन में झा गये हैं उनमें ते भी हमें श्रावश्यक शब्द लेने चाहिएँ झोर उनको श्रपनी भाषा के दढाँचे में

राष्ट्रभाषा का स्वरूप २६७

ढाल लेना वांछुनीय होगा | दूसरी भाष्वा के शब्दों के अपनाने में हमको सदा यह ध्यान रखना चाहिए कि हम अपनी भाषा की प्रकृति के विरुद्ध चले जाये। विदेशी शब्दों के अ्रतिरिक्त हमें श्रन्ये प्रान्तीय भाषाओं के शब्दों को भी जो हमारी भाषा में घुल मिल सके श्रोर जो किसी विशेष भाव को: व्यक्त करने के लिए उपयुक्त हों श्रपनाना चाहिए. जिससे कि दूसरे प्रान्त वालों को भी यह गोरव का अनुभव हो सके कि उनकी भाषाएँ राष्ट्रभाषा के निर्मांण में योग दे रही हैं। राष्ट्रभाषा केवल हिन्दी भाषियों की ही नहीं वरन्‌ सारे देश की है। शअ्रन्य प्रान्तवालों को श्रपनाने के लिए हमें अपने व्याकरण के नियमों की कड़ाई की किसी अंश में उपेज्ञा करनी पड़ेगी हम यह तो नहीं चाहते कि वह टकसाली भाषा से गिर जाय किन्तु उसको संत्कृत की भाँति श्रगतिशोल बना देना चाहिए। श्रपनी भाषा के साहित्य में हमको अ्रन्य प्रान्तों से सम्बन्ध रखने वाली प्राकृतिक दृश्यावलियों, वीर-गाथाओ्रों श्रोर परम्पराश्रों को भी स्थान देना चाहिए जिससे कि श्रन्य प्रान्त वाले हमारी भाषा के साथ अपनत्व का अ्रनुभव कर सके |

राजकाज श्रोर उच्च शिक्षा सम्बन्धी कार्यों की भाषा श्रपेत्ताकृत कुछ कठिन ह्ोगी। किन्तु इसका यह अ्रभिप्राय नहीं कि वह लोकभाषा से दूर पड़ जाय ओर त्रिलकुल दूसरी भाषा सी जान पढ़े | पारिभाषिक शब्दावली का सारे देश के लिए प्रमाणीकरण श्रावश्यक है क्योंकि जब्र तक हमारी शब्दावली सारे देश में समभी जायगी तत्र तक तो वैज्ञानिक क्षेत्रों में सहकारिता ही सम्भव हो सकेगी ओर विद्यार्थी ही यथोचित लाभ उठा सकेंगे पारिमाषिक शब्दावली के निर्माण में हमको नीचे लिखी बातों का ध्यान रखना चाहिए |

१. पारिभाषिक शब्दावली का आधार अधिकतर संस्कृत तत्सम शब्द होने चाहिएँ संस्कृत शब्दों में प्रत्यय लगा कर उनको विभिन्न रूप सुविधा के साथ दिये जा सकते हैं। यह सुविधा साधारण भाषा में कम रहती है। इसका यह श्रथ नहीं है कि साधारण भाषा के जो शब्द व्यवहार में श्रा निकले हैं, जैसे ब्रिजली के गरम श्रोर ठंडे तार, उनका नितान्‍्त बह़्ष्किर कर दिया जाय। इमको मजदूरों की भाषा को भी मान देना श्रावश्यक होगा क्‍योंकि विज्ञान को

श्द्ष्य प्रबन्ध-प्रभाकर

व्यावहाहिक बनाने के लिए, सिद्धान्त ओर व्यवह्वार के बीच की खाई को कम करना पढ़ेगा

२. पारिभाषिक शब्दों को गदने की श्रपेज्ञा वतमान साहित्य में प्रचलित शब्दों का प्रमाणीकरण अश्रघिक श्रेयस्कर होगा जो वेज्ञानिक साहित्य हिन्दी तथा अन्य प्रान्तीय भाषाश्रों में रचा जा चुका है उसको हमें एकदम निरथक नहों बना देना है जनता उन ग्रन्थों की शब्दावली से किसी अंश में परिचित भी हो चुकी है | इसके लिए हमें केवल हिन्दी के ही वैज्ञानिक ग्रन्थों का अ्रव- लोकन करना होगा वरन्‌ अन्य प्रान्तीय भाषाश्रों का भी पुस्तक भण्डार खोजना पढ़ेगा

२, तक शास्त्र, राजनीति शारत्र, गणित, ज्योतिष आदि विशानों की शब्दावली हमको यथासम्मव प्राचीन ग्रन्थों से लेनी चाहिए क्योंकि उनमें इन शार््रों से सम्बन्धित बहुत-कुछ मूल्यवान शान वतमान है

४. वैज्ञानिक शब्दावली को चलन देने से पूब प्रयोग में भीं ला कर देख लेना चाहिए कि वह प्रयोग में कहाँ तक उपयुक्त बैठती दे !

४, हमको नये शब्दों के श्रनोखेपन से घत्रराना चाहिए.। शब्द प्रचलित हो जाने पर वे अजनवी नहीं रहते ओर उनकी विरूपता भी श्रभ्यास के कारण सुडोल बन जाती है अंग्रेजी शब्दों के भी शाब्दिक अर्थ विचित्र होते हैं किन्तु चलन उनमें नये रूढ़िगत अथ उत्पन्न कर देता है।

शब्द-निर्मांण किसी व्यक्ति विशेष के बस का काम नहीं है। इसके लिए बड़ी समितियों के बनाने की श्रावश्यकता है। इन समितियों में विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व होना चाहिए हमको यह भी देखना चाहिये कि ये शब्द-कोश केवल अलमारी की शोभा ही रहें। प्रत्येक भाषा में उनका उपयोग हो और उनके आधार पर वैशानिक साहित्य का निर्मांण हो |

सक्तेप में हम यह कह सकते हैं कि हमारी राष्ट्रभाषा को, चाहे वह जन- साधारण के व्यवह्वार की हो ओर चाहे वह राजक्षीय और शिक्षासम्बन्धी व्यवहार की हो, गतिशील होना चाहिये। उसको विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं से सम्पक स्थापित करना चाहिये और बिना अ्रपनी संस्कृति ओर प्रकृति के विरुद्ध गये दूसरी भाषा

देवनागरी लिपि की भेष्ठता श्रोर उसकी कुछ न्यूनताएँ २६६

के शब्दों को श्रपनी प्रकृति के श्रनुकूल चोला पहना कर अपनाना चाहिए | यजकीय ओर शिक्षा सम्बन्धी कार्यों के लिए. उसे संस्कृत के तत्सम शब्दों का भ्रधिक सहारा लेना पढ़ेगा | फिर भी उसे दुरूइता से बचाना हमारा कतंव्य होगा राष्ट्रभाषा का क्षेत्र जितना व्यापक होगा उतना ही उसे दूसरी भाषाओं के साथ समभौता करना पड़ेगा किन्तु इतना ध्यान रखना होगा कि इस समभोते में वह श्रपना श्रसली रूप खो दे

४२, देवनागरी लिपि की श्रेष्ठ ओर उसकी कुछ न्यूनताएँ

राष्ट्र में एकसूत्रता स्थापित करने के अर्थ जाति, संस्कृति ओर घम की एकता की अ्रपेक्षा सामूहिक हित ओर भाषा की एकता अत्यन्त आवश्यक है भारतवष में ह्वितों की एकता प्रायः है ही ओर किसी अंश में सांस्कृतिक एकता भी है; हिन्दुश्रों में तो सांस्कृतिक एकता है ही, किन्तु मुसलमानों की भी बहुत सी सांस्कृतिक बातें हिंदुओं से मिलती जुलती हैं, जैसे जमीन पर बैठना, हाथ से खाना, नमाज के पहले हाथ पैर धोना तथा जूते उतार कर मल्लजिद में जाना किंतु भाषा का भेर श्रधिक है |

सांध्कृतिक भेद द्वोते हुए भी एक राष्ट्रभाषा का होना सुलभ है जत्र भिन्न भिन्न प्रांतों के लोग अंग्रेजी जेती विदेशी भाषा के द्वारा विचार-विनिमय कर सकते हैं, तन्र हिंदी जेसी व्यापक स्वदेशी भाषा द्वारा विचारों का आदान- प्रदान कोई श्रसम्भव बात नहीं हिन्दी श्रोर उदू में भाषा का विशेष भेद नहीं; सरल हिंदी ओर सरल उदू करीत-करीत्र एक रूप हो जाती हैं, मेद फेनल लिपि का रह जाता है। गुजराती, बंगला, मराटी, पंजाबी आदि की सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक प्रष्ठममि तो एक हो है ओर उनकी वर्णमाला भी प्रायः एक सी हे, किंतु उनमें भी लिपि का भेद बहुत कुछ अ्रन्तर डाले हुए है यदि लिपि का भेद मिट जाय तो इन भाषाओं का करीब-करीत्र चालीस या पेंतालीस

२७० प्रबन्ध-प्र भाकर

प्रतिशत और कहीं-कहीं उस से भी श्रधिक अंश समझ में श्राने लगे उदाहरण के लिए. शरद्‌ बाबू के 'पल्ली समाज' से एक श्रवतरण उसके हिन्दी श्रनुवाद के साथ दिया जाता है। अनुवाद के बिना भी देवनागरी श्रक्वरों में लिखे हुए बंगला के वाक्य बहुत कुछ समझ में त्रा जाते हैं

एई कुयापुरेर विषयटा अर्ज्जित हश्बार सम्बन्धे एकटा इतिहास आ्राछे, ताहा एखाने बोला ग्रावश्यक प्रायः शत पूर्वे महाकुलीन बलराम मुखुय्ये ( मुखुज्जे ) ताँहार मित्र बलराम घोषाल के सद्भे करिया विक्रमपुर हृइते एदेशे आशेन मुखुय्ये शुधू कुलीन छिलेन ना, बुद्धिमान छिलेन

“इस कुआआँपुर गाँव की जायदाद ( विषय शब्द संस्कृत में जायदाद के अथ में आता हे ) की कमाई के ( श्रज्जित हृर्बार, अर्ज्जित भी संस्कृत शब्द है ) सम्बन्ध में एक इतिहास है, जो यहाँ देना श्रावश्यक है प्रायः सो वष पहले महाकुलीन बलराम मुखर्जी अपने मित्र बलराम घोषाल को साथ लेकर (सज्ज, इसको हिन्दी वाले सहज में समझ सकते हैं) विक्रमपुर से यहाँ (एदेशे) आये थे। मुखर्जी केवल ( शुधू ) कुलीन ही नहीं थे वरन्‌ बुद्धिमान भी थे गुजराती, पंजाबी श्रोर मराठी से मी ऐसे ही उदाहरण दिये जा सकते हैं | इस प्रकार हम देखते हैं कि लिपि का प्रश्न कितने महत्त्व का है

राष्ट्रलिपि के सम्बन्ध में हिन्दी उदू का झगड़ा मिटाने के लिए कुछ लोग रोमन लिपि की शरण लेना चाहते हैं इस प्रकार देवनागरी लिपि के मुकाबले में फार्सी लिपि, जिसको उदू ने अ्रपनाया है, ओर रोमन लिपि, जिसको अंग्रेज़ी ने अपनाया है, प्रतिद्वन्द्िता में आती हैँ यहाँ पर दो प्रश्न हैं, एक वणमाला का ओर दूसरा लिपि का |

संस्कृत से निकली हुई सभी प्रांतीय भाषाओं की वणमाला एक सी है। रोमन ओर फारसी लिपि की श्रपेज्ञा वे लोग देवनागरी लिपि को सुगमता के साथ अपना सकते हैं इसके अश्रतिरिक्त ध्वनियों का संबंध भाषा से हे देश के लोगों के मुखावयवों की बनावट श्रौर उच्चारण शक्ति के ही अ्रनुकूल वरणमाला का विकास होता है। फारसी श्रोर रोमन लिपियों का जन्म इस देश की भाषाओं की आरवश्यकताश्रों के अ्रनुसार नहीं हुआ था। इसके श्रतिरिक्त

देवनागरी लिपि की श्रेष्ठता श्रौर उसकी कुछ न्यूनताएँ २७१

वे देवनागरी वर्णमाला की अ्रपेज्ञा विकास क्रम में कहीं पीछे हैं श्रोर थे इतनी वैज्ञानिक भी नहीं हैं

वर्णमाला वही विकसित समभी जायगी जिसमें ध्वनियाँ विश्लिष्ट हों, अर्थात्‌ जिसमें एक ध्वनि के साथ ओर धघ्वनियाँ मिली हों, एक ध्वनि के लिए एक ही वर्ण हो श्रौर एक वर्ण एक ही ध्वनि का द्योतक हो। शब्दों से ही वण निकले हैं। कमल, ककड़ी, कटइल, कठपुतली, कबूतर आदि शब्दों में से, क' की ध्वनि, जो सच में शामिल है, श्रलग हुई होगी | संस्कृत वणमाला ही ऐसी वणमाला है जिसमें ध्वनियाँ बिलकुल अलग हो गई हैं। फारती तथा रोमन लिपियों में एक ध्वनि के साथ कई ध्वनियाँ मिली रहती हैं और उनमें यह भी नहीं पता चलता कि पहली ध्वनि प्रधान है या दूसरी | फारसी लिपि में अर! को श्रलिफ' से लिखते हैं। 'श्रलिफ' में श्राखिरी श्र' के अतिरिक्त चार घ्वनियाँ हैं, श्र+ल+इ+फ। 'ज को जीम' से लिखा जाता है, 'ब” को बे' से ओर 'ल' को लामों से। इन तीनों व्यंजनों में भिन्‍न-भिन्‍न स्वरो ओ्रोर व्यज्ञनों का सहारा लिया गया है, जीम' में 'ई” ओर 'म का, बे में ब॒के साथ ए! का ओर लाम में के साथ और मा का अलिफ, बे, जीम यूनानी एल्फा, बीटा, गामा के ही रूपान्तर हैं। दाल में द' के साथ झा! और ल॑ हैं। यह यूनानी डेल्टा का दूसरा रूप है। अंग्रेजी में इसके अ्रनुरुप डी 0 है 'स्वाद', ज़्वादं, ते! आदि सब की: अलग-अलग बनावट है। इस प्रकार फारसी लिपि, ओर रोमन लिपि भी, उस प्रारम्मिक श्रवस्था में ही हूँ जिसमें ध्वनियों का पूरा विश्लेषण नहीं हुआ

हम संह्कृत की व्णमाला की सी एकसूत्रता इनमें नहीं देखते | संस्कृतः के व्यञ्ञनों के उच्चारण में स्वर का सहारा लिया जाता है, लेकिन वह सिफ “अर! है जो बणमाला का पहला अक्षर है। फारसी लिपि में एक ध्वनि के लिए. कई वर्णों का प्रयोग होता है 'त' के लिए ते' ओर तोये', सा के लिए सीन, सवार और से' का प्रयोग होता है

इसके अतिरिक्त जहाँ स' ओर “त' के लिए इतनी भरमार है वहाँ य, ए. और के लिए केवल “े' है श्रोर श्रो' तथा आर के लिए श्रलिफ' और

२७२ प्रतअन्ध-प्रभाकर

धाव! से काम लिया जाता है जो 'श्रव'ँ की भी ध्वनि देता है। श्रव्ध' को ओओध, श्रोध और अ्रवध तीनों ही पढ़ सकते हैं

रोमन वर्णमाला के संगठन में भी सिद्धान्त की एकता नहीं है। ? (पी), (२ (क्यू), रे (आर), 9 (एस), (टी), (डब्ल्यू) आदि सभी का संगठन भिन्‍न भिन्‍न है ? में प' के लिए. ई! की सहायता ली गई है, में आए की ओर 5 में '(ए! की। रोपन वर्णमाला में तो ओर भी गड़बड़ी है। 4, २, 5, |., ७, में आखिरी घनि की प्रधानता है ओर 2, [६, (७, 3, 79, ।, आदि में पहली ध्वनि को मुंख्यता दी गई है |

रोमन वर्णमाला में भी एक ही ध्वनि के 'लिए. कई वर्णों का प्रयोग होता है। के लिए [६ ओर ( दोनों का प्रयोग होता है, के लिए. (७ ओर | दोनों ही काम में आते हैं। (० की भी ध्वनि देता है ओर की भी। इसी प्रकार > की भी ओर की भी। इसके श्रतिरिक्त 2 और (> कीं ध्वनियों का और की ध्वनि से कोई सम्बन्ध नहों है। रोमन की जो अन्तर्नातीय लिपि बनी है उसमें ध्वनियाँ कुछ व्यवस्थित हो गई हैं। एक ध्वनि के लिए. एक ही वण निश्चित कर दिया गया है। रोमन लिपि के स्वर भी एक सी ध्वनि नहीं दैते। 2 की ध्वनि जो शा (मेन) में है वह (०7 (कार) में नहीं है | की ध्वनि ९८६ (नेट) में तो |/८॥ मेन) की सी है किन्तु [४६ (जक) ओर (67८ (क्लक) में श्र की सी है। की ध्वनि 200 (पुट) में तो की है और 30६ (बट) में श्र की सारांश यह कि रोमन लिपि में ध्वनियों की निश्चितता नहीं है |

रोमन और फारसी लिपियों में कोई क्रम भी नहीं है। इतना भी नहीं कि स्वर एक जगह हों और व्यञ्ञन एक जगह इसके विपरीत संस्कृत वणुमाला में स्वर और व्यझ्नों को द्दी अलग नहीों किया गया वरन्‌ वर्णों को उच्चारण- स्थान के स्वाभाविक क्रम के श्रनुकूल वर्गों में विभाजित किया गया है। पहले कंठ, ताछु, मूर्धा, दांत और श्रोष्ठों के स्वाभाविक क्रम से कवर, चवर्ग, टवर्ग, तबर्ग और पवर्ग पाँच वर्ग किय्रे गये हैँ | इन वर्गों में मी एक सा ही क्रम है; बुसरे और चौथे वर्ण महयम्ाण हैं, श्रथांत्‌ उनमें ह” का योग रहता है, जैसे

देवनागरी लिपि की श्रेष्ठता श्रोर उसी कुछ न्यूनताएँ २७३

ख, घ, छ, रू | पाँचवाँ वर्ण सभी का अ्रनुनासिक होता है। वर्गों का क्रम भी मुखाबयवों के क्रम के अनुकूल है कंठ्य वर्ण पहले शआ्राते हैं, दन्य आदि ओर ओष्ट्य आदि पीछे आते हैं। ऐसा सुन्दर वैज्ञानिक क्रम ओर किसी वरणमाला में नहीं मिलेगा इस वरमाला में एक ध्वनि के लिए, एक ही वर्ण है ओर एक वर एक ही ध्वनि का द्योतक है |

संस्कृत वर्णमाला में जो लिखा जायगा वही पढ़ा जायगा अगर हमारा उच्चारण ठीक हो तो लिखने में भूल हो ह्वी नहीं सकती इस में स्वरों के लिए अलग अ्रलग मात्राएँ स्पष्ट ओर निश्चित हैं। रोमन लिपि में [4० को हेश्नर डारे और हरे तीनों ही पद सकते हैं। 09॥09 के डाँका ओर डंका दोनों ही उच्चारण हो सकते हैं 29590 को प्रसाद पढ़िए चाद्दे प्रासाद #9६ को हट, हाट और हैट तीनों ही रूपों में देख सकते हैं

इन लियियों द्वारा संयुक्ताज्ञरों का भी ठीक-ठीक उच्चारण नहीं हो सकता उदू वाले प्रकाश और चन्द्र को प्रायः परकाश और चन्दर ही कहते हैँ हिंदी में ऐसी बात नहीं है हिंदी में कुरनशरीफ तक की आयतें ज्यों की त्यों उतारी जा सकती हैं। एक बार महामना पंडित मदनमोहन मालवीय ने देवनागरी लिपि में लिखी हुईं अरबी की आयतों का परिशुद्ध उच्चारण करके सुनने वालों में यह भ्रम पेदा कर दिया था कि वे अरबी जानते हैं। लेकिन फारसी श्रक्तरों में आलू बुखारे को उल्लू बेचारे ( अ्रगर नुकते लगे हों ) पटना असंभव नहीं ओर फिर अदालती कागजों की शिकध्तत लिखावट में तो अपने लिखे को आप बाँच सकने की लोकोक्ति चरिताथ हो जाती है। फारसी और रोमन लिपियों की ध्वनियों में निश्चितता लाने के लिए जो चिह बनाये गये हैं उनका छापे में चाहे प्रयोग हो सके किन्तु लिखावट में तो उनका प्रयोग अपवाद स्वरूप ही होता है

रोमन लिपि के पक्षुःसमथकों का कथन दै कि प्रामाणिक रोमन '5(शातठभात २णाब्थ लिपि में ये कठिनाइयाँ नहीं हैँ उसमें एक श्रच्षर एक दी ध्वनि का द्योतक होता है ओर प्रायः सभी ध्वनियाँ प्रकाशित की जा सकती हैं, यहाँ तक कि संस्कृत भी बड़ी सुगमता के साथ लिखी जा सकती है | प्रामाणिक

२७४ प्रबन्ध-प्रभाकर

रोमन लिपि को स्वीकार करने में तीन कठिनाइयाँ हैं पहली तो यह कि चादे प्रामाणिक रोमन लिपि में एक अक्षर की एक ही ध्वनि हो तथापि हम यह नहीं भूल सकते कि उसी रूप ओर नाम के अंग्रेजी वणमाला के अक्षर की दो ध्वनियाँ हैं। ओर इस में भ्रम हो जाने की सम्भावना है। दूसरी बात यह है कि संस्कत या हिन्दी लिखने के लिए, प्रामाणिक रोमन लिपि में जितने संकेतों की आवश्यकता पड़ेगी उनको देखते हुए रोमन लिपि का यह दावा गलत दो जायगा कि उसमें छुब्बीस अक्षरों से ही काम चल जाता है। जहाँ पर रोमन लिपि को इस बात का श्रेय दिया जाय कि उसमें वरणमाला के अक्षरों की संख्या कम है वहाँ उसके साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए, कि जहाँ देवनागरी के एक अच्तर ख' से काम चल सकता है वहाँ रोमन के तीन अच्षर (५9 ) लगेंगे। खबर! लिखने में देवनागरी में तीन अ्रक्षरों से काम चल सकता है, रोमन में (९॥998 27.) सात अक्षर लगते हैं। इस तरह से स्थान श्रौर कागज अधिक लगेगा एक उदाहरण और लीजिए--

रोमन लिपि के पक्ष में यह बात अवश्य कह्दी जा सकती है कि उसमें लिखने से योरोप वाले भी हमारी पुस्‍्तकों को समझ सकेंगे, किंतु योरोप वालों की भाषा दमारी भाषा से इतनी भिन्न है कि उनको उससे कोई लाभ नहीं। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि योरोप वाले नहीं तो मुसलमान और अन्य प्रांत के लोग समझ सकेंगे किन्तु जत्र हमारे देश में एक वैशानिक लिपि है जो अन्य प्रान्तों की लिपियों से मिलती है तो हम उसे छोड़ कर दूसरे देश की लिपि को अपना कर केवल हृठधर्मी का परिचय देंगे

देवनागरी वणमाला की वैशनिकता को सभी भाषा-विशान-वेत्ता स्वीकार

देवनागरी लिपि की श्रेष्ठता और उसकी कुछ न्यूनताएँ २३४

करते हैं | श्र प्रश्न यह होता है कि संघ्कृत वर्णमाला का प्रयोग तो गुजराती, बंगला ओर गुरुमुल्वी में भी होता है फिर देवनागरी को ही क्‍यों मुख्यता दी जाय ? इसका एक मुख्य कारण तो यह है कि प्रायः सभी प्रांतों में संस्कृत के ग्रन्थों में अधिकतर देवनागरी अक्षरों का ही प्रयोग होता है। यह एक प्रकार से संस्कृत की निजी लिपि बन गई है। मराठी में तो देवनागरी लिपि का ही प्रयोग होता है | इसके श्रतिरिक्त सौंदय, सरलता ओर त्वरालेखन की दृष्टि से भी देवनागरी लिपि और लिपियों की श्रपेज्ञा श्रेष्ठतर है इसमें श्रन्य लिपियों से मिलने वाले वर्णों का आधिक्य है। जैसे बंगला के श्र, स्वर और क, घ, ठ, थ, द, घ, न, फ, म, य, ल, स, व्यञ्न बहुत कुछ मिलते हैं। इसी प्रकार गुरुधुखी के अ, उ, क, ग, च, छ, ज, 5, ठ, ड, म, र, ल, में बहुत समानता है। गुजराती और देवनागरी अ्रक्षरों में अधिकतर शिरोरेखा का ही मेद हे। श्र, इ, ए, स्वर तथा ख, च, ज, भू, ठ, ब, ल, व्यज्ञनों को छोड़ और वर्णों में थोड़ा ही श्रन्तर है हिन्दी की शिरोरेखाएं त्वरालेखन में चाहे थोड़ी बाधा डालें किंतु सौंदय को बहुत कुछ बढ़ा देती हैं श्रोर शब्द भी अलग-अलग स्पष्ट दिखाई देते हैं। बंगला में शिरोरेखा है किन्तु ग, प, श्रादि कुछ अक्षरों में नहीं है। नागरी लिपि में बँगला लिपि की अपेक्षा संयुक्ताह्षर कम विक्ृत होते हैं श्रोर वे अ्रपने मूल रूप की पहचान लिये हुए हैं। देवनागरी अक्षरों का लिखना श्रधिक सरल है श्रोर स्वशालेखन में भी देवनागरी लिपि किसी से पीछे नहीं रहती। उसके टाइपराइटर भी बन गये हैं ओर हाथ से लिखने में भी उसमें बहुत कलम नहीं उठानी पड़ती रोमन की भाँति इसकी लिखने ओर पढ़ने की लिपियाँ श्र॒लग नहीं हैं | देवनागरो लिपि के प्रचार से भाषा की विविधता की कठिनाई बहुत अ्रश में दूर हो जायगी नागरी लिपि में जहाँ सत्र प्रकार की वैज्ञानिकता है वहाँ कुछ न्यूनताएँ भी हैं जो सहज में दूर हो सकती हैं | में प्रायः श्रोर का भ्रम हो जाता हे, पर का दूसरा चिह बन सकता है। की ध्वनि श्रोर रि में बहुत भेद नहीं है लू की तरह भी उड़ सकती है, लेकिन ऋण श्रादि शब्द जो पहले

२७६ प्रबन्ध-प्रभाकर

से प्रचलित हैं उनके सम्बन्ध में कुछ कठिनाई पड़ेगी | वे संधियों के नियमों में भी श्रागये हैं | विदेशी नये शब्दों में अनुनासिक प्रायः श्रनुस्वार से लिखा जाता है | हिन्दी में अनुस्वार से भी काम लिया जाता है ओर संध्कृत के कायदे से पश्चम अक्षर से भी संस्कृत का कायदा वैज्ञानिक अवश्य है किन्तु सरलता के लिए वह छोड़ा जा सकता है क्ष, त्र, ज्ञ, में मूल अच्चर पढचाने नहीं जाते किंतु क्ञ ओर श्ञ की ध्वनि भी अलग है। त्र को ऐसे रूप में भी लिखा जा सकता है; जिसमें मूलवर्ण विक्ृत हों | क्त को हम क्‍त के रूप में लिख सकते हैं।व ओर के लिखने में प्रायः गड़बड़ी हो जाती है, के लिए दूसरा चिह्न बन सकता है

नागरी वर्ण|माला में कुछ ध्यनियों की कमी भी है फारसी की फ़े, क़ाफ़, गन आदि की ध्वनियाँ नहीं हैं। उनकी पूर्ति फ, क, के नीचे बिन्‍्दी लगाने से हो सकती है। देवनागरी लिपि में और ऐ, के बीच की ध्वनि, जो ७, ८थ॥ में हे, नहीं है इसी प्रकार शो ओर ञ्रो के बीच की ध्वनि का, जो (0]८४८ में है, अ्रभाव दे पर इन के लिए चिह्न बन गये हैं। ओर ओर के बीच की ध्वनि के लिए. का प्रयोग होने लगा है। (८०८४८ को कॉलेज लिखेंगे और ऐ. की बीच की ध्वनि के लिए, भी मात्रा को कुछ बल दे दिया गया है|

टाइप राइटर ओर प्रेस की सुविधा के लिए कुछ और भी सुधार सुभाये गये हैं लेकिन वे अनावश्यक से हूँ | यह ठीक है कि हिन्दी टाइप-राइटर में ए, ओ, की मात्राएँ लगाने में अड़चन पड़ती है ओर प्रेत में देवनागरी के लिए बहुत से केसों' को काम में लाना पड़ता है, किंतु जब्र काम चल रहा है तब अनावश्यक परिवतन करना वाजञ्छुनीय नहीं | महाप्राण वण, जिनमें की ध्वनि रहती है, उड़ाये जा सकते हैं ओर अल्प प्राणों पर कोई चिह्न लगा कर व्यक्त किये जा सकते हैं जैसे को कई को ग5 करके लिखना सम्भव है (संस्कृत में झ्र के लोप का चिह्ु 5 आदि के श्रागे लगा कर लिखते हैं)। लेकिन यह सुधार उतना श्रावश्यक नहीं जितना कि बीच की ध्वनियों की पूर्ति

हिन्दी-भाषा श्रोर साहित्य पर विदेशी प्रभाव २७७

हू, ई, उ, ऊ, ए, ऐ. के श्रक्षरों को उड़ा कर टाइप की बचत के लिए अर पर ही इनकी मात्राएँ लगा कर काम चलाने की सलाह दी जाती है। काका कालेलकर जी इसके बहुत पक्ष में हैं श्र महाराष्ट्र में इसका प्रयोग भी होने लगा है| इस पद्धति से को थ्रि ओर को श्री लिखेंगे | सुधारकों का कहना है कि जब अ्र' पर की मात्रा लगाई जा सकती है तो इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, की मात्रा क्यों लगाई जाय ? अपरिवतनवादी लोगों का कहना है कि ओ, श्र ओर संयुक्त स्वर हैं, इ, मूल स्वर हैं; इसके अतिरिक्त के स्थान पर अं लिखने में ग्रधिक स्थान लगेगा; श्रोर कंपोज़ करने में भी हाथ दो बार उठाना पड़ेगा | अतः समय और स्थान अधिक लगेगा

नागरी लिपि पहले से पूर्ण ओर वैज्ञानिक है | थोड़े से परिवतनों से उसकी कमियों को दूर करके वह सारे भारतवष की राष्ट्रलिपि बनाई जा सकती है | इतना ही नहीं उसमें विश्व-लिपि होने की ज्ञमता है। इस पूणतया वैज्ञानिक लिपि को छोड़ कर रोमन लिपि को अपनाना मूखंता होगी | तुर्की ने यदि रोमन लिपि को अपनाया तो कोई आश्चय नहीं, क्योंकि उसकी लिपि इतनी वैज्ञानिक थी और तुर्की के योरोप में होने के कारण उसका चलन कुछ युक्तिसंगत भी हो सकता है। किन्तु भारत में तो रोमन लिपि को स्वीकार करना कच्चन के स्थान में काँच ओर हाठक के स्थान में फाठक ( फटठकन ) लेना कह्दा जायगा

४३. हिन्दी भाषा ओर साहित्य पर विदेशी प्रभाव

जब्र दो जातियाँ परस्पर संपक में आ्राती हैं तब दोनों की भाषा, भावों, विचारों तथा रीति-नीति का विनिमय ऐसी विलक्षण 'रीति से होने लगता है कि उन जातियों की भाषा, सभ्यता तथा संस्कृति में बड़े-बड़े परिवतेन हो जाते हैं। कभी-कभी तो विजयी जातियाँ शक्तिमती होती हुई भी अपनी अल्यसंख्या अथवा बबरता के कारण विजित जातियों की बहु-सख्या में बिलीन दो जांती हैं, ओर अपना संपूर्ण श्रत्तितत खो कर विजित जाति की सभ्यता आदि ग्रदण कर लेती हैँ भारत पर आक्रमण करने वाली हृण,

र्छ्८ प्रमन्ध-प्र भाकर

कुृषाण और ऋषिक आदि अनेक जातियों की ऐसी ही श्रवस्था हुई थी। पर साधारणतया त्रिजयी जातियों को विजित जातियों के ऊपर अपनी सभ्यता लादने में श्रधिक सफलता मिलती है। जिसके हाथ में सत्ता है, जिसके पास घन-चल है, वही गुण-संपन्न समझा जाता है। त्रिजेता प्रायः अपनी विजय को स्थायी बनाने के लिए. भी विजित जातियों की सरकृति और भाषा की हत्या किया करते हैं, तथा विजित जाति के कई लोग विजेताओं के कृगा पात्र होने के लिए, हर एक बात में उनका अनुकरण करना प्रारम्भ करते हैं। श्रतएव विजित जातियों की भाषा ओर संश्कृति पर विजेताओं की भाषा श्रोर संस्कृति का पयम॑प्त प्रमाव पड़ता है हिन्दी भाषा को उत्पत्ति जब से हुई तत्न से दो प्रकार की विदेशी जातियाँ भारत में श्राईइ--( ) उत्तर पश्चिम से आने वाली मुसलमान जातियाँ (२ ) समुद्र-माग से आने वाली यूरोपीय जातियाँ अ्रतएव हिन्दी पर विदेशी भाषाओं का जो प्रभाव पड़ा, उसे दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है--मुसलमानी प्रभाव, तथा यूरोपीय प्रभाव। मुसलमान तथा अंगरेज दोनों के शासक होने के कारण प्रायः एक ही ढंग का शब्द-समूह इनकी भाषाओं से हिन्दी में आया है वह शब्द-समूह या तो विदेशी संस्थाओं जैपे कचदरी, फौज, स्कूल, धर्म आदि से संबंध रखता है श्रथवा विदेशी प्रभाव के कारण आई हुई नई वस्तुश्रों के नाम हैं, जेसे नये पहनावे, खाने, यंत्र तथा खेल आदि के नाम ईसा की सातवीं शताब्दी से भारत पर पश्चिमी द्वार से मुसलमानों के आक्रमण प्रारम्भ हो गये थे श्रोर १००० ई० के लगभग जब अ्रपश्रश भाषा से जुदा हो कर हिन्दी अपनी अलग सत्ता बनाने लगी थी, 3340 0000 उस समय पंजाब के बहुत से भाग पर फारसी बोलने बाले पर (मुसंलमानी पल प्रभाव तुकों ने अपना कब्जा कर लिया था। तभी से मुसलमानों का सम्पक प्रारम्भ हुआ और हम देखते हैं कि थोड़े ही काल में अ्रनेक विदेशी शब्द हिन्दी में प्रयुक्त होने लगे यहाँ तक कि हिन्दी के सब प्रथम मद्गकाव्य कदाने वाले 'प्रथ्वोराज रासो' में अ्रनेक विदेशी शब्छ मिलते

हिन्दी-भांषा और साहित्य पर विदेशी प्रभाव २७६

कि

हैं। ई० ११६३ से भारत का शासन-सूत्र मुसलमानों के हथ में चला गया झोर उसके बाद लगभग ६०० वर्ष तक हिन्दी-भाषा-भाषी जनता पर विशेष- तया उस प्रान्त पर जो हिन्दी का उत्पत्तिस्थान कह्य जा सकता है, मुसलमानों के भिन्न-भिन्न राजवंशों का राज्य रहा | श्रतः इस समय सैकड़ों विदेशी शब्द गाँवों की बोली तक्र में घुत आये इन मुसलमान शासकों के राज्य की सीमा ज्योंज्यों बदती जाती थी, स्ॉन्यों हिन्दी का प्रचार भी बढ़ता जाता था, पर उस हिन्दी में विदेशी शब्दों का पर्याप्र समावेश होता गया। इसके श्रतिरिक्त खुपरो, कबीर, रहीम श्रादि अनेक मुसलमानों ने हिन्दी में कविता .की। उनकी कविता में स्वभावतः कुछु विदेशों शब्द आ,जाते थे। कबीर ने जहाँ “है कोई दिल दरवेश तेरा” आदि सूफी सिद्धान्तों से मिश्रित जनसुलभ गीत लिखे हें, वहाँ इसे ( लालसा ), नफ्स ( कामवासना ), अजाब-सवाब ( पाप-पुण्य ), महबूत्र ( प्रेम-पात्र ) तथा हाहूत, लाहूत, मलकूत आदि जैसे कठिन विदेशी शब्दों का भी प्रयोग किया द्ै। ऐमे ही कवयित्री ताज का निम्नलिखित पद्म इस बात को ओर भी स्पष्ट करता है कि हिन्दी कविता में विदेशी शब्दों की कितनी प्रचुरता हो गईं थी-- सुनो दिलजानी मेरे दिल की कहानी, तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी रहाँगी में। देव पूजा ठानी मैं नमाज हू भुलानी, तजे कलमा कुरान सारे गुनन गहूँगी में। स्थामला सलोना सिरताज सिर कुल्ले दिये तेरे नेह दाग मैं निदाघ हो दहूँगी मैं। नन्‍द के कुमार कुरवान ताँड़ी सूरत पे ताँड़ नाल प्यारे हिन्दुवानी हो रहूँगी में ये विदेशी शब्द केवल मुसलमान कवियों की कविता में ही नहीं पाये जाते श्रपितु श्रुति-सम्मत दरिभक्ति-पथ के प्रदशक रामधन तुलसी जैसे मह्ाकवि की विशुद्ध हिन्दी कविता भी इन विदेशी शब्दों के प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकी 'उमरदराजी' गरीब निवाज', 'गनी गरीब” 'पायमाल! आदि अ्रनेक

र्द्य० ; प्रमन्‍्ध-प्रभाकर

शब्द उसमें पाये जाते है। तुलसी ने सच्ार' शब्द का भी प्रयोग किया है, ख़र को अ्सवारो | वैसे तो खर शब्द भी फारसी का है किन्तु यह संस्कृत में भी मिलता है। 'संतन को कहा सीकरी सों काम! कह कर मुसलमान बादशाहों के निमंत्रण को अस्वीकार करने वाले अष्टछाप के कवियों में प्रमुख सूरदास की कविता में भी मसाहत', मुहकरमा, जियान! आदि विदेशी शब्द दृष्टिगोचर होते हैं। उसके बाद रीतिकाल के विलासी कवियों ने तो राजाओं की विलास- सामग्री का वर्णन करने के लिए अनेक विदेशी शब्द अपनाये | कविवर पद्माकर की निम्नलिखित पंक्तियों पर गोर कीजिए--- गुलगुली गिलमैं गलीचा हैं गुनी जन हैं, चाँदनी है चिक है चिरागन की माला है | कहें पद्माकर तयों गजक गिजा है सजी सेज है सुराही हे, सुरा है ओर प्याला है। स्वर्गीय पं० पद्मसिंह जी शर्मा के शब्दों में भाधा के परखेया” बिहारी की कविता में शभीह, चश्मा, गरूर, फानूस, इजाफा, पायंदाज आदि विदेशी शब्दों की भरमार दिखाई जा सकती है हिन्दुओ्रों के प्रतिनिधि कवि भूषण के भीम गजन में तो तसबीह, नकीत्र, कोल, जसन, तुजुक, खबीस, जरबराफ, खलक कलल, दराज, गनीम, आसान श्रादि अनेक विदेशी शब्द रसानुकूल ऐसे फिट बैठ गये हैं कि उनको जुदा ही नहीं किया जा सकता ओर तो ओर हिन्दी के हिन्दी नाम ओर इमारी मातृभूमि को हिन्दुस्तान नाम भी तो विदेशी भाषा से ही प्राप्त हुए। आधुनिक काल के हिन्दी-गद्य में इन विदेशी शब्दों की इतनी प्रचुरता हो गई है कि आज इन विदेशी शब्दों से मिश्रित भाषा को कई सज्जन हिन्दी कहने से कतराते हैं, वे उसे 'उदू” नाम दे कर हिन्दी से जुदा ही कर देते हैं किन्तु बहुत प्रयत्न करने ५र भी इलुवाई के स्थान में कान्द्विक. ओर डुराही को उद॒की नहीं कहेंगे ओर दवात को कोई मसिपात्र कहना पसन्द करेंगे | चाकू के लिए छुरी का प्रयोग पंडित लोग ही करेंगे इसी प्रकार दर्जी, दर्द, दिल, श्रादि शब्दों का बहिष्कार करना कठिन है | मुसलमानी काल में जो विदेशी शब्द हिन्दी में श्राये, वे फारसी,

हिन्दी-भाषा और साहित्य पर विदेशी प्रभाव र्८१

अरबी तथा तुर्कीं से आये कहे जा सकते हैं। हिंदी में प्रचलित इन विदेशी शब्दों में सबसे अधिक संख्या फारसी शब्दों की हे, क्योंकि समस्त मुसलमान शासकों ने, चाहे वे किसी भी नस्ल के क्‍यों हो, फारसी को दी दरबारी तथा साहित्यिक भाषा की तरह अपना रक्खा था अरबी तथा तुर्की आदि के जो शब्द हिन्दी में मिलते हैं वे फारसी से हो कर ही हिन्दी में श्राये हैं

यूरोपीय जातियाँ १५०० ई० के लगभग से भारत में आनी प्रारंभ हो गई थीं, पर १७४७ ई० तक उनका कायन््तेत्र समुद्र-तवर्तों प्रदेश में ही रहा, हिंदी-भाषा-भाषी प्रदेश से उनका विशेष संपक नहीं हुआ; अश्रतएव प्राचीन हिन्दी-पद्म में यूरोपीय शब्द शायद दृदने पर भी मिलें परन्तु १७४७ ई० के लगभग भारत का भाग्य पलटने लगा छः सो वर्षों से भारत पर शासन करने वाली मुसलमान जातियों के द्वाथ से भारत का शासन-सूत्र फिसलने लगा, उसके स्थान पर भारत का मानचित्र लाल रंग से रँगा जाने लगा; ओर कुछ दिन बाद से अंग्रेजी राज-भाषा ही नहीं हुई, अपितु हमारी शिक्षा-दीक्ञा की भाषा भी हो गई कई स्थानों पर छोटे-छोटे अबोध बच्चों की शिक्षा का प्रारंभ तक अंग्रेजी में होने लगा | अंग्रेजी पढ़ा लिखा व्यक्ति ही शिक्षित समझा जाने लगा ओर जो जितनी श्रच्छी अ्रंगरेजी बोल लेता वह उतना ह्दी अधिक शिक्षित माना जाने लगा फलतः गत सवा सौ वर्षों में हिन्दी के शब्द समृह पर अंग्र जी भाषा का पर्याप्त प्रभाव पड़ा

पढ़े-लिखों की भाषा का तो कहा ही क्‍या जाय, वह तो आधी तीतर आधी बटेर हो गई है; कितने ही अंग्रेजी-पढ़े व्यक्ति तो इस प्रकार की भाषा बोलते हुए मिलते हैं--में इस प्वायंट ( 20॥६ ) पर यील्ड ( ४८४ ) नहीं कर सकता, मेरा तो फर्म ( #॥ ) कविन्वक्शन ( ८णाशं८५०॥ ) है कि मेरी स्टेब्मेंट ( ६६४/थ८गधथा( ) ट्र ( ए५0॥ ) पर बेस्ड ( 095८0 ) है; पर श्रनपढ़ लोगों और सुदूर देह्दात की भाषा में भी अनेक अ्रंगरेजी शब्द श्राज घर कर चुके हैं। वे हमारी भाषा के ही अश्रृंग बन गये हैं। अस्पताल, अफसर, _श्रप्रेल, भ्रगस्त, श्रार्ड, इंच, इनकम टैक्‍स, एजेंट, इंस्पैक्टर,

यूरोपीय भाषाओं का हिन्दी पर प्रभाव

र्ध्२ प्रबन्ध-प्रभाकर

कलक्टर, कमिश्नर, कम्पनी, कमेटी, कापी, कंट्रोल, कांग्रेस, कालिज, कोलतार कोइला, कोट, कोंसिल, गजठ, गार्ड, गिलास, चाक, चेश्ररमैन, जज, जंपर, जेल ट्रेक, टिकिट, टेलीफोन, डबल, डिस्ट्रिक्ट बोड, ड्रिल, थड, थर्मामीयर, दर्जन दराज, नैकटाई, नोट, नम्बर, निकर, नोटिस, पलटन, प्लस्तर, पुलटिस, पुलिस प्रेत, प्लेट, प्लेटफाम, पैता, प्रेसीडेंट, फर्मा, फस्टे, फिलन, फर्लांग, फाम, फीस फुटबाल, फोटो, बटन, बैंक, बनियाइन, बुरुश, बूट, ब्रेक, बैरंग, बोर्डिंग, मशीन, मजिस्ट्रेट, मास्टर, मानीटर, मिनट, मिल, मेंबर, मैनेजर, रजिस्टर, रूल, रेल, रोलर, लैंप, लाइसेंत, लेक्चर, वारंट, वालंटियर, वोट, वायसराय, समन, संतरी स्टेशन, सरकस, सर्टिफिकेट, सूटकेस, सैकंड, सोडावाटर, सीमेंट, हारमोनियम होटल, होल्डर, दोल्डोल, शआरादि श्रनेक अंगरेजी शब्द ऐसे हैं, जो आपको शहर ओर गाँव सत्र जगह एक से सुनाई देंगे। अ्रँगरेजी के अलावा पुत्तंगाली तथा फ्रांतीसी भाषा से कप्तान, कमीज, गोभी, गोदाम, तौलिया, मेज, बिस्कुट बोतल, कारतूस, कूपन, आदि अ्रनेक शब्द हिन्दी में श्रा गये हैं |

कुछ मुहावरे भी हिन्दी में अ्रंगरेजी से आ्राये हैं, जेपते रँगे हाथों पकड़ा जाना, भाग लेना, नया अ्रध्याय खुलना

यहाँ तक तो हुआ हिन्दी भाषा पर विदेशी प्रभाव, श्रथवा हिंदी भांधा में विदेशी शब्दों के प्रवेश का वर्णन | श्रत्र हमें यह देखना है कि हिन्दी साहित्य पर विदेशी प्रभाव कहाँ तक और क्‍या पड़ा इस प्रश्न के उत्तर में हमें यह कहना पड़ता है कि हिन्दी-साहित्य पर मुसलमान काल में विदेशी प्रभाव के बराबर रहा | कारण यह कि भारतवष पर मुसलप्ानों की विजय के अनन्तर जब हिन्दू ओर मुसलमान सम्यताओं का संयोग हुआ तब हिन्दू अपनी प्राचीन तथा उच्च सम्यता के कारण हृढ़ बने रहे ओर मुसलमानों के नवीन धार्मिक उत्साह तथा विजय-गव ने उन्हें हिंदुओं में मिल जाने से रोके रक्‍्खा; अतः इस ज्षेत्र में दोनों जातियों का आदान-प्रदान बहुत कम हुश्रा तब्र भी संत कवियों की निगु ण॒ उपासना में भारतीय अ्रद्वेतवाद का आधार होते हुए भी मुसलमानी एकेश्वरवाद या खुदावाद की छाया श्रवश्य दिखाई देती है| इसी प्रकार प्रेममार्गी सूफी कवियों का भावनाजन्य रहस्यवाद सूफी मत

हिन्दी-साषा और साहित्य पर बिदेशी प्रभाव रपर

की उपज कट्दा जा सकता है। जायसी आदि ने अपने महाकाव्यों में मसनवी पद्धति को भ्रपनाया | खड़ी बोली के प्रारम्म काल में फारसी छुन्दशासत्र पर अवलंबित उदू बहरों का भी अनुकरण किया गया था। पं० अयोध्यासिंह उपाध्याय की 'बोलचाल' में इसके श्रच्छे उदाहरण मिलते हैं वत्त मान हिंदी-कविता के दुःखवाद के सम्बन्ध में विदेशी प्रभाव के बराबर रहा। किन्तु फिर भी यह अवश्य मानना पड़ेगा कि उसमें उदू कवियों के रोने-पीयने का क्षीण प्रभाव परिलक्षित है, तथा आधुनिक काल की हिन्दी कविता में हालाबाद!ं भी उमर खैयाम की रुत्राइयात के अंगरेजी अनुवादों से प्रभावित है, वतमान छायावाद और रहस्यवाद बहुत अंशों में अंग्रेजी रिजाश्ाएंटांआ। और शैं४४ंटांआ। से प्रभावित हैं अतु- कान्त कविता यद्यपि संघ्कृत छुन्दों में होती थी तथापि वर्तमान काल में जो श्रतुकांत कविता लिखी जाती है वह अधिकांश में अग्रेजी से प्रभावित है। अंग्रेजी के कुछ छुंदों का, जैसे सीनेट का, हिन्दी में अनुकरण हुश्रा है। हिन्दी में कुछ गज़लें भी लिखी गई हैँ वतमान दुःखवाद और कहीं-कहदीं जो दिल के फफोले फोड़ने का उदू कविता का सा बीमत्स कांड जाता है वह सब्र उदू फारसी का ही प्रभात्र है। इसको बचाने का प्रयत्न किया गया है किन्तु हम बचा नहीं सके हैं पर ये सत्र प्रभाव हिन्दी साहित्य पर श्रप्रत्यज्ष विदेशी प्रभाव कद्दे जा सकते हैं माक्स से प्रभावित प्रगतिबाद्‌ भी विदेश की ही देन है लय मुसलमानी शासन की अपेज्ञा अंगरेजी शासन-काल में मानसिक विकास का अ्रच्छा अवसर मिला, अश्रतएव अंगरेज़ी-साहित्य का हिन्दी साहित्य पर अत्यधिक क्रांतिकारी प्रभाव पड़ा है। जिस प्रकार गत डेढ़ सो वर्षों में भारतीय मनोबृत्ति भारतीय दृष्टिकोण, रहन-सहन, भारतीय विचार-धारा में क्रान्ति हो गई है, उसी प्रकार समस्त भारतीय साहित्य में भी क्रान्ति हो गई है। फलतः हिन्दी साहित्य भी उस क्रांति से अछूता नहीं बचा। गद्य, आख्यायिका, उपन्यास, नाटक, समालोचना, निबंध, पत्र-लेखन, विज्ञान, इतिहास, श्रथंशासत्र और जीवनी श्रादि, सब्र में हिन्दी-साहित्य का रूप ही बदल गया है

र्दड प्रबन्ध-प्र भाकर

भारत में अ्रंग्रेजों के राज्य-स्थापन के साथ पाश्चात्य सांसारिकता के भाव घर करने लगे | फलतः हिन्दी में सदियों से चली आती पद्मात्मक प्रवृत्ति का स्थान गद्यात्मक प्रवृत्ति ने ले लिया | जह्ाँ उन्नीसवीं शताब्दी से पहले हिन्दी साहित्य में गद्य का कोई विशेष स्थान नहीं था श्रोर उसकी एक शैली तक निश्चित थी, वहाँ एक ही शताब्दी में हिन्दी गद्य का रूप पर्याप्त परिष्कृत हो गया, शैली के परिमाजन के अतिरिक्त भाव-प्रदशन की अनेक प्रौद शैलियों का विकास भी हुआ ओर हिन्दी गद्य में प्रकट किये जाने वाले भावों तथा विचारों में मी परिवत्तन हुआ देश-भक्ति, राष्ट्रीया, समाज-मुधार आदि विषयों पर हिन्दी गद्य में अधिक साहित्य लिखा जाने लगा हिन्दी भाषा- भाषियों में पाश्चात्य विज्ञान, समाज-शासत्र, राजनीति श्रादि विषयों को भूख बढ़ी अंग्रेजी उच्च शिक्षा-प्राप्त व्यक्तियों में से कुछ व्यक्तियों ने नये विषयों पर भी कलम उठाई | इन नये भावों तथा नये विषयों को प्रकट करने के लिए भाषा में नये शब्दों तथा नये मुह्यवरों का प्रचलन हुआ इस तरह हिन्दी गद्य पर पर्याप्त विदेशी प्रभाव पढ़ा | आधुनिक हिन्दी-व्याकरण में सस्कृत के व्याकरण के साथ अंग्रेज़ी के व्याकरण की बातों का भी प्रवेश हो गया है। विशेषणों ओर क्रियाविशेषणों के प्रकार, पद-व्याख्या, वाक्य-विश्लेषण आदि अंग्रेजी व्याकरण की ही देन हैं। हिन्दी में कोमा आदि विराम थि तो अंग्रेजी से ही आये हैं कहानी जिसे श्राजकल गल्प नाम से पुकारा जाता है तथा आजकल के उपन्यास और एकांकी नाटक तो विदेशी प्रभाव की ही उपज हैं | यद्यपि एकांकी नाटकों का प्राचीन संध्कृत में अ्रमाव था तथापि वर्तमान काल में उनका प्रचार अंगरेज़ी साहित्य से ही बढ़ा | विदेशी प्रभाव के कारण उपन्यासों ओर नाटकों में घटनाश्रों की अ्रस्वाभाविकता का श्रभाव होने लगा, तथा चरित्र- चित्रण की स्वाभाविकता ओर मनोवैज्ञानिक प्रकृति पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा वतमान उपन्यासों में, जेसे इलाचन्द्र जोशी, नरोत्तम नागर श्रादि की रचनाओं में, जो मनोविश्लेषण शास्त्र का पुट है वह पश्चिम की द्वी देन है | मर्नाविस्लेषण «४ पार

0 कककाक 3... चमक

यद्यपि किन्‍्हीं अंशों में हिन्दी इनके लिए बंगाल की ऋणी कही जाती है, १२

हिन्दी भाषा और साहित्य पर विदेशी प्रभाव र्ध्प

अंगाल में भी ये विदेश से आये हैं, वहाँ हनका प्रचार पहले होने का एक- मात्र कारण यह है कि बंगाल में अ्रंगरेजों का शासन सबसे पहले स्थापित हुश्रा ओर बंगाली लोग ही पहले उनके संपक में आये

नाटकों की दृष्टि से प्राचीन भारतीय साहित्य बहुत उन्नत था, परन्तु हिन्दी में नाटक रचना का प्रायः अभाव था विदेशी प्रभाव के कारण नाटकों का पुन्जन्म नवीन शैली पर हुआ इस परिवतन में बँगला भाषा ने माध्यम का काम किया आधुनिक हिन्दी-ताटकों में पद्मांश की कमी, सूत्रधार आदि का श्रभाव, लम्बे लम्बे रंगमंच के संकेत लिखा जाना तथा चरित्र-चित्रण पर अत्यधिक बल दिया जाना पाश्चात्य प्रभाव के ही कारण है। इन सत्र के अतिरिक्त सबसे बड़ा परिवतन मधुरेण सम्रापयेत” के सिद्धाल्त का परित्वाग कर नाटक या कहानी का दुःखान्त होना है आज कल तो दुः्खान्त नाटक ही अधिक पसन्द किये जा रहे हैँ | कम से कम नाठक को सुखान्त दिखाने के लिए वाध्तविक कह्ानी को तोड़ा-मरोड़ा नहीं जाता

अन्न प्रश्न यह है कि विदेश का इतना ऋण-भार हिन्दी के लिए कहाँ तक

गोरव की वस्तु है। संसार में परस्पर आदान-प्रदान सजीवता का चिह्न हे जहाँ आदान-प्रदान का अ्रभाव है वहाँ जीवन का भी अ्रभाव है। ऋणी होना अर्थात्‌ दूसरों से कुछ लेना लज्जा की बात नहीं; किन्तु विदेशी पूंजी को वैसा दी रखना निर्जीवता है; निर्जीवता द्वी नहीं वरन्‌ कृतन्नता भी है। अब यह देखना चाहिए कि ग्रहण की हुई चीज को पचाने तथा उसको अपनी संस्कृति के अनुकूल बनाने की शक्ति हिन्दी में हे या नहीं ? अंधानुकरण वास्तव में निन्दनीय है। पश्चिम के वातावरण को चित्रित करने वाली कविता भी देशी वातावरण में ठीक नहीं बैठ सकती; उसको देशी रूप देना पड़ेगा

मुहावरों का शब्दानुवाद भी कहीं-कहीं द्वास्यास्पद दह्वो जाता है क्‍योंकि पूर्वी ओर पश्चिमी वातावरण में भेद है। ठंडे देशों में ठंड उदासीनता की द्योतक है और गर्मा प्रेम की। हिन्दी में छाती जुड़ाना प्रेम और शान्ति का चिह है, वहाँ ठंडक सहृदयता के श्रभाव की द्योतक होती है। भारतवष के मुद्ावरे हत्या पर निर्भर नहीं हैं ॥0॥॥76 (७४० णा05 0 जा९ 5(णा्

२८६ अ्रबन्धव्य भाकर

के स्थान पर चाहे 'एक ढेले में दो पक्ती' कह लिया जाय, किन्तु जितना आनन्द 'एक पन्य दो कारज' में मिलता है उतना उसमें नहीं 'गिश्छताहु र्ट के स्थान में याद बरफ तोड़ ना' कह्दा जाय तो अ्रनमिशता का परिचय देना होगा, इसके लिए. मोन भंग करना' ही टीक होगा सब्र स्थानों में इतना भेद भी नहीं है; भाग लेना, नया श्रध्याय खोलना, शूत्य दृष्टि, दृष्टिकोण श्रादि मुहावरे हमारी भाषा में खप भी गये हैं। मानव प्रकृति में बहुत कुछ साम्य भी है। कुछ भाव तो बिना श्रनुकरण के भी मिल जाते हैं। महात्मा सूरदास ने श्रंगरेजी के मुद्दावरे ((॥५09 0८ शशीतश॥८5५ को बिना जाने दी गोपियों के मुख से कानन को रोइबौ कहलाया है।

हमें विदेशी प्रकृतियों से प्रभावित होते हुए. यह देखने की आवश्यकता रहती है कि कोन सी प्रकृति हमारे अनुकूल पड़ती है ओर कौन सी प्रतिकूल इसका विचार करना ही अन्धानुकरण कहलाता है। हमें इस बात का गवे दे कि हिन्दी-लेखकों ने अ्रन्धानुकरण नहीं किया, उन्होंने विदेशी सामग्री को भली प्रकार पचाया है, पर फिर भी इस सम्बन्ध में सचेत रहने की आवश्यकता हे

४४. क्‍या विज्ञान का धमे ओर कविता से पारस्परिक विरोध हे ?

साधारण दृष्टि से विजशान का धर्म और कविता के साथ विरोध दिखाई देता है, ओर बात बहुत अंश में ठीक भी है। विशान के दृष्टिकोण में भेद हे विज्ञान सत्य--केवल सत्य चाहता है। वह सत्य को रोचक ओर प्रिय बनाने का उद्योग नहीं करता वैज्ञानिक केवल सत्यम! का उपासक है; धार्मिक सत्य श्रौर शिव का ; श्रोर कवि सत्यो' शिव के साथ 'सुन्दरम! को भी खोजता है कवि का ध्येय सत्य अवश्य है किन्तु वह वैज्ञानिक के ठोस बाह्य सत्य की अपेक्षा द्वदय का सत्य चाइता है

क्या विज्ञान का धरम और कविता से पारस्परिक विरोध है २८७-

वैज्ञानिक आदर्श की ओर नहीं जाता, उसके लिए. जैसा है वैसा ही कह देना सत्य है--जैसे का तैसा', चाहे शुभ हो, चाहे अशुभ, प्रिय हो श्रथवा श्रप्रिय, इसकी वैज्ञानक को चिन्ता नहीं | कवि 'सत्य॑ ब्रयात्‌ प्रिय॑ ब्रयात्‌ ब्रयात्‌ सत्यमप्रियम्‌ का पक्तुपाती है

वैज्ञानिक बावन तोले पाव रत्ती वाली यथाथता को अपना ध्येय बनाता है। कवि हृदय की ग्राहकता को अपना लक्ष्य मानता है वैज्ञानिक विश्व- वैचित्रय में अपनी बुद्धि द्वारा नियम और खला खोज कर उनके मानसिक बोध बनाता है। कवि उसी चित्र-विचित्र संसार को अपने भावों ओर मनोवेगों के रंग में रंग कर उसे ओर भी चित्ताकषक बना देता है | एक का काम बुद्धि के बोधों ( (०८८०७ ) से है तो दूसरे का काम द्वदय के भावों से है

फिर क्‍या विशान ओर कविता में नितान्त विरोध है ? नहीं जो- विरोध है वह इतना ही है जितना समान वस्तुओ्रों में होता है दोनों ही का वाड मय से सम्बन्ध है दोनों ही मनुष्य के अनुभव की व्याख्या करते हैं किन्तु दोनों की पद्धति में अंतर है पद्धति का भेद होते हुए भी दोनों को' कल्पना का सहारा लेना पड़ता है दोनों ही में आश्चय, चमत्कार, नवीनता खोज-बीन आनन्द और संलग्नता का काय रहता है दोनों का ही अन्तिम लक्ष्य मनुष्य जाति का हित साधन है फिर विरोध केसा ? जिस प्रकार कवि कल्पना के त्रिना नहीं चलता उसी प्रकार वैज्ञानिक भी कल्पना भिना पग नहीं रखता बात-बात पर कल्पना का काय है न्यूटन ने पेड़ से फल गिरते देखा। उसने सोचा जिस प्रकार फल पृथ्वी की श्रोर आकर्षित हुआ उसी तरह सौर- मंडल के पिंड एक दूसरे की ओर गुरुत्व के परिमाण में आकर्षित होते हैं वाट ने बटलोई की भाप के द्वारा ठक्‍कन के दृश्य से अपनी कल्पना के बल पर स्टोम ऐजिन का निर्माण किया

जब्र वैज्ञानिक किसी घटना से श्राश्वय-चकित होता है; तभी वह व्याख्या के लिए. कल्पना को दौड़ाता है जब वह किसी एक सिद्धांत की कल्पना कर लेता है तभी.८६ निरीक्षण श्रौर प्रयोग द्वारा उसकी पुष्टि के श्रथ सामग्री खोजता दे कवियों की कल्पनाएँ भी वैज्ञनिकों के नये-नये. श्राविष्कारों में!

प्श्ष्द अनबन्ध-प्रभाकर

"सहायक होती हैँ जो बात कल“कल्पनामात्र थी वह ञ्राज सत्य हो जाती है उड़ने की इच्छा पहले कवियों के ही दृदय में जागरित हुईं थी उसको श्राज विज्ञान ने सफल कर दिया यदि वे कल्पनाए होतीं तो वायुयान भी होते कवि मेघदूत का निर्माण करता है तो वैज्ञानिक विद्युत्‌ दूत का

कवि संसार को विचित्रता से चकित हो उसमें मानवी भावों का आरोप कर एक प्रकार का भाव-साम्य स्थापित करता है वैज्ञानिक उस विचित्नता में व्यापक नियमों की खोज कर एक बोद्ध (बुद्धि सम्बन्धी ) साम्य का प.रचय देता है दोनों दी प्रकृति देवी के उपासक हैं। यदि एक उसके सौंदय॑-निरीक्षण 'में मग्न है तो दूसरा उसकी सेवा द्वारा मेवा पाने में प्रयत्तशील रह कर प्राकृतिक नियमों को अपने लाभ का देतु बनाता है विज्ञान यद्यपि शुष्क है तथापि उसमें भी उतना ही आनन्द, उतनी ही संलग्नता जाती है जितनी कि काव्य में गगन-मंडल के तारागणों की गति में वैज्ञानिक एक अनुपम लास्य देखता है, उसी लासस्‍्य का लघुतम रूप वह परमाणुश्रों के विद्य॒त्‌ श्रगुश्रों में पाता है। मनुष्य-कंकाल, जो वैराग्य का उद्दीपन माना जाता है, वैज्ञानिक के मन में विकासवाद के रहस्यों का, जो उसके लिए. मुगल-सम्राटों के रंगमहंलों के रहस्य से भी अधिक रुचिकर होते हैं, उद्घाटन करता है। वह वीर विजेता की भाँति अंबर-चु जित भाल हिमालय के उच्चतम शिखिर तक जाने में वीर रस के स्थायी उत्साह का पू्ण परिचय देता है जो सौन्दर्य कवि को फूलों में मिलता है उसी सौन्दय को वह फूल्ञों की जड़ों में देख कर परमात्मा की बुद्धिमत्ता की सराहना करता है। यहीं पर धम ओर विज्ञान का भी समन्वय हो जाता है। विज्ञान ने हमको परमात्मा के श्रणोरणीयान्‌ महतो महीयान' रूप के दर्शन कराये हैं। गगन-मण्डल के विध्तार को देख कर कल्पना के भी पेर लड़खड़ाने लगते हैं। खगोल में दूरी की गणना मीलों से नहीं होती वरन्‌ प्रकाश की गति से, जो १८७००० मील प्रति सेकिंड है, होती है। बहुत से तारागणों के प्रकाश को यहाँ तक आने में सहस्तों वष लग जाते हैं। विज्ञान हमको परमात्मा की महत्ता के सात्षाक्तार करने में सहायक होता है। विज्ञान के भव्य भवन विश्व के नियम और “४ खला-बद्ध होने की आधार शिला पर खड़े हैं। धम के बिना

रे 'वतमान वैज्ञानिक आविष्कारों का महत्त्व श्ध६

विश्व की नियमत्रद्धता का विश्वास दृढ़ नहीं होता | विज्ञान यदि भौतिक बल देता है तो धम श्राध्यात्मिक बल दे कर जीवन में आशा का संचार करता है। सच्चा धर्म वैज्ञानिक होगा और सच्चा विज्ञान धार्मिक होगा |

वैज्ञानिक ओर कवि दोनों ही आश्चय-चकित त्रालक की भाँति सृष्टि का रहस्य जानने की चेष्या करते हैँ। दोनों एक लंच्य की ओर जा रहे हैं, किंतु भिन्न-भिन्न मार्ग से एक ने हृदय की तुष्टि की है तो दूसरे ने मस्तिष्क की। यदि एक ने प्राकृतिक शक्तियों को मनुष्य का हृदय प्रदान कर मानव का सहचर माना है तो दूसरे ने उन शक्तियों का बुद्धि-द्वारा नियन्त्रण कर उनको अपना अनुचर बनाया है कविता, धम ओर विज्ञान के समन्वय में ही मानव जाति के कल्याण की ग्राशा है। धम हमको मानवता का पाठ पढ़ायेगा, कविता उसे ग्राह्म ओर रुचिकर बनायगी ओर विशान उसे क्रियात्मक रूप दे कर ऐसा वातावरण तैयार करेगा जिसमें सच्च लोग सुव्रमय जीवन व्यतीत कर सकें |

४५. वतेमान वेज्ञानिक आविष्कारों का महत्त्व

अन्य शास्त्रों की भाँति विज्ञान का भी इतिहास बहुत प्राचीन है, किंतु वैज्ञानिक उन्नति की बढ जैसी हम थ्राजकल देखते हैं, वैसी उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तराध से ही प्रारम्भ हुई है

विज्ञान की कई शाखाएँ हूँ। प्रत्येक में भिन्न भिन्न आविष्कारों द्वारा उन्नति हुई है यद्यपि सभी विद्याएँ मनुष्य के लाभाथ हैं, तथापि कुछ वैज्ञानिक आविष्कार ऐसे हैं जिनका मनुष्य जाति के हित से सीवा सम्बन्ध हैं ओर कुछ ऐसे हैँ जिनकी क्रियात्मक उपयोगिता कम है, परन्तु जिन्होंने मनुष्य के ज्ञान में हलचल मचा दी है ओर जिनका मनुष्य की क्रियाओं पर बहुत कुछ प्रभाव है |

हम पहले प्रथम प्रकार के आविष्फारों का वन करेंगे। वाष्प-सम्बन्धी कलें, बेतार का तार, वायुयान, विद्य॒त्‌ का प्रकाश, दूर्वीक्षण यन्त्र, ऐक्स-रे ओर रेडियम पहले प्रकार के ग्राविष्कारों में हैं। इन अआविष्कारों के सहारे

२६० प्रचन्ध-प्रभाकर

मनुष्य ने देश ओर काल पर विजय पा ली है। महीनों और वर्षों का सफर घंटों और दिनों में तय हो जाता है, और बात की बात में ससार के इस छोर से उस छोर तक मनुष्य की पहुँच हो जाती है ऐक्स-रे ओर रेडियम की किरण स्थूल पदार्थों में भी प्रवेश कर जाती हैं ओर बक्स के भीतर की वस्तु हस्तामलकवत््‌ स्पष्ट प्रतीत होने लगती है। ऐक्स-रे और रेडियम ( जिसकी प्रासि का श्रेय मैडम क्योरी नाम्री एक फ्रांसीसी महिला को है ) द्वारा चिकित्सा शात्र में बहुत वांछुनीय परिवतन हो गया है मनुष्य को अपने शरीर के भीतर की बात जानने के लिए, अनुमान का सहारा नहीं लेना पड़ता, श्रत्र तो वह प्रत्यक्षे कि प्रमाणं' की बात हो गई है। शल्यचिकित्सा ( 079०८४५०ा ) अब अन्घे की टटोल नहीं रही, वरन्‌ बावन तोले पाव रत्ती की सी निश्चित बात हो गई है। रेडियम नासूरों की चिकित्सा में बहुत कुछ उपयोगी सिद्ध हुआ है।

विद्युत्‌ शक्ति ने तो एक प्रकार का कल्पवृक्ष स्वग से ला कर मत्यलोक में उपस्थित कर दिया है | एक बटन दबाया नहीं कि सारा नगर विद्य॒त्‌ की विशुद्ध निमल ज्योत्स्ना में निमझ हो गया 'तमसो मा ज्योतिगमय! की प्रार्थना कम से कम भौतिक रूप में तुरन्त ही सत्रीकृत हो जाती है। इतना ही नहीं विद्युत्‌ शक्ति आप को चाकरनी बन कर आप के घर को परिष्कृत करती है। बटन दब्ाते ही श्राश्ा का पालन होने लगता है। जाड़े में गरम वायु और गर्मियों में शीतल वायु का सेवन कर लीजिए, पवनदेव भी आप के इच्छानुवर्ती बन जाते हैं। आज विशान की बदौलत पहु लगा कर उड़ने का चिरवांछिद स्वप्न भी चरिताथ हूं गया है | मनुष्य के पर लग जाने से उसकी जल, थल ओर आकाश में समान गति हो गई है

यह विद्युत्‌ की शक्ति है जो श्राप की बात को एक क्षण में दूर देश में पहुँचा कर मनोजव॑ मारुततुल्यवेगं' वाली उक्ति को चरिताथ कर देती है। बेतार के तार और वायुयान का आविष्कार प्रायः साथ ही साथ हुआ। हम गगनविहारी हो कर भी वायरलेस ( %/॥0|८५५ ) द्वारा भूतल से सम्बन्ध बनाये रखते हैं। घर के कमरे में बैठ कर लंडन और पेरिस के गानों को सुन सकते हैं। केवल आ्रामोद-प्रमोद द्दी नहों वरन्‌ राजनीतिक भाषण और विदेश के बाज़ार

बतंमान वैज्ञानिक आविष्कारों का मद्दत्त् २६१

भाव भी घर बैठे सुनने को मिल नाते हैं। श्रत्र तो दूर देशों के शब्द के श्रति- रिक्त दूरदेशस्थ वक्ताओं के चित्र भी साथ ही देख सकते हैं। दूर-दशन (८८शंञंणा) श्रत्र स्वप्न की बात नहीं रही |

रेडियो की शक्ति के युद्ध में अनेकों आश्चयजनक प्रयोग हुए हैं। राडर द्वारा आ्राक्रमणकारी शत्र -वायुयानों का पता लगा लिया जाता है ओर वे स्वतः संचालित तोपों से नष्ट कर दिये जाते हैं

विद्यत्‌ की अनन्त संभावनाएँ हैं। ओर धीरे-धीरे वे संभावनाएँ वास्तविक होती जा रही हैं | चल-चित्रों ने मनुष्य के आमोद-प्रमोद ओर सामा- जिक जीवन में बहुत सहायता दी है चित्रों में बोल डालने की कसर रह जाती थी, वह भी सवाक चित्रों ने पूरी कर दी। चित्र-पट आमोद का ही साधन नहीं है, वरन शिक्षा का भी साधन बन गया है। किन्तु खेद इतना ही है कि भारत- में इसका शिक्षासम्बन्धी उपयोग बहुत कम किया जाता है।

दूरवीज्ञण और श्रणुवीक्षण यंत्रों ने मनुष्य के द्वित-संपादन में बहुत कुछ योग दिया है | दूरवीक्षण यंत्र खगोल के अध्ययन ओर समुद्र-यात्राओं में बढ़ा सहायक होता हे। श्रणुवीक्षण यन्त्र ने श्रणोरणीयान को महतो महीयान! करके बतला दिया है ओर नाना प्रकार के कीयाणुश्रों को आलोक में लाकर चिकित्साशाञ्र में इलचल मचा दी है। मलेरिया सम्बन्धी कीयागुओ्रों के शान से ज्वर का रोग बहुत कुछ शासन में गया हे इन कीटाणुश्रों द्वारा रोग के निदान में भी बहुत सुगमता हो गई है। अ्रब् प्रायः सभी रोगों के कीटारु अपने मित्रों या शत्रुओ्ों की भाँति पहचान लिए जाते हैं श्रोर उनसे रोग के निदान ओर उसकी चिकित्सा में बड़ी सहायता मिलती है

वैज्ञानिक आविष्कारों द्वारा केबल मनुष्य के सुख का सम्पादन नहीं हुआ दे वरन्‌ इन्होंने मनुष्य जाति के संगठन में भी बहुत कुछ योग दिया है। रेल और जहाज द्वारा देशीय श्र प्रान्तीय सीमाएँ विलीन हो गई हैं। व्यापार के लिए. अ्रनन्त सुविधाएँ उपस्थित हो रही हैं श्रोर मनुष्यमात्र की एक जाति बनने के स्वप्न देखे जा रहे हैं। डाक्टर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की विश्व-भारती संघार के विद्वानों की शान-सम्बन्धी सहकारिता का उद्योग करने में संलग्न है। भारतवर्ष

२६२ प्रचन्ध-प्रभाकर

में प्रांतीयता का भेद अपेक्षाकृत कम दिखाई देता है। हमारे विचारत्तेत्र का विस्तार बढ़ गया है। हम अन्‍्तर्जातीय समस्याओ्रों में रचि रखने लगे हैं। भौतिक सामग्री के विनिमय के साथ विचारों के विनिमय का भी अधिक सुयोग हो गया है। हमारे विद्यार्थी दूर देशों में विद्याजन कर अपने देश को उन्नत बनाने के प्रयत्न में हैं

ये सब आविष्कार एक दाशनिक महत्त्व भी रखते हैं इन श्राविष्कारों से यह सिद्ध होता है कि संसार में नियम श्र थ्रंखला है। विज्ञान-सम्बन्धी हमारी भविष्यवाणियाँ इसका प्रतक्ष प्रमाण हैं। जेसा हम सोचते हैं वेसा ही बाह्म-घटना-क्रम में भी सिद्ध होता है। नियम हमारे लाभ के साधन बनाये जा सकते हैं वे संसार में बुद्धि का विस्तार करते हैं श्रोर इस बात का भी संकेत देते हैं कि इस भीतिक संसार के पीछे एक चेतन नियंत्रण है, यदि ऐसा होता तो इसमें हमारी बुद्धि की गति होती। विज्ञान संसार को बुद्धि-गम्य प्रमाणित कर ईश्वर की सत्ता स्थापित करने में सहायक होता है

यह संसार सु त्र-दुशःवमय है। इसमें पाप पुण्य का द्वन्द् है। प्रत्येक भलाई के साथ बुराई लगी हुई है। जो विज्ञान मनुष्य जाति के सुग्र का सम्पादक है वही मनुष्य जाति की हत्या में भी सहायक होता है। वायुयान के कारण अब दुर्ग भी दुगध नहीं रहे जिन वायुयानों में बैठ कर हम देवताओं की भाँति व्योम-विहार करते हैं वे ही ऊपर से पुष्पों के स्थान में गोले बरसा कर मनुष्य जाति के निरंकुश घात के साधन बनते हैँ। जापान में एटम बम: के प्रयोग ने सहस्रों निरीह नर-नारियों का संहार कर दिया ओर वह भावी युद्धों के लिए विभीषिकरा का रूप धारण किये हुए है एटम बम ही नहीं हाइड्रोजन बम एटम बम से चार कदम आगगे रहेगा। युद्ध में कीटाशुओ्रों की घातक शक्ति का भी सहारा लिया जायगा ओर युद्ध प्राण-शासत्र पर आश्रित हो जायगा जहाँ विशान की शक्ति रक्षणाय रह कर परेषां परिपीडनाय' हो जाती है वहीं मनुष्य देवत्र को छोड़ कर राक्षस का रूप धारण कर लेता है। नाना प्रकार की विषैली गैसें ईजाद की जा रही हैं | जो दूरवीक्षण यन्त्र हमको श्राकाश में तारागणों की सैर करा कर विश्व की अनन्तता का भाव अनुभूत कराते हैं

वतमान वैज्ञानिक श्राविष्कारों का महत्त्व २६३

वे ही घातक तोपों के सहकारी बनते हैं

नवीन आविष्कारों ने मनुष्यों में आलस्य की मात्रा को भी बढ़ाया है आर उसकी शारीरिक शक्ति को कम किया है| श्सके अतिरिक्त विज्ञान ने बेकारी को भी बढ़ाया है और पूँजीपतियों का सहायक बन कर गरीत्रों और अ्रमीरों की खाई को भी विस्तृत कर रहा है। नवयुग की मशीनें अथसाध्य हैं। वे गरीत्र की श्रपेज्ञा अमीर कीं अधिक सहायक होती हैं। विज्ञान ने जहाँ आवश्य- कताश्रों की पूर्ति की वहाँ विलास के साधनों को भी बढ़ाया है। किन्तु यह सब्र विज्ञान का दुरययोग है | इसके लिए मनुष्य उत्तरदायी है, विज्ञान नहीं जिस अ्ग्मि से भोजन पकाया जाता है वही श्रम मनुष्य के घर-बार को भधन्‍्म भी कर देती है। इससे अ्रमि की उपयोगिता कम नहीं होती। यही हाल वैज्ञानिक आ।विध्कारों का हे |

दूसरे प्रकार के आविष्कारों में विकासवाद ओर विद्युत-श्रणु सम्बन्धी ज्ञान मुख्य हैं। इनको वास्तव में आविष्कार कह कर खोज ([9$5८0५८५) कहना अधिक सत्य होगा विक्रासवाद जेसा बतलाया जाता है वैता ठीक हो या हो, परन्तु उसने ज्ञान का दृष्टिकोण बदल दिया है। सच शातस्रों में क्रमोन्‍्नति देखी जाने लगी है। जानवरों का जाति-विभाग विकास के सिद्धान्तों पर हो अवलंतित हैं समाज ओर साहित्य सत्र ही में विकातवाद के नियम लगाये जाते हैं। विशेषीकरण (55८टांभाट४४णा) के साथ एकीकरण का सिद्धान्त सब कायत््षेत्रों में व्यात हो रहा है। विक्रासबाद के सिद्धान्त हमको भेद में अमेर दिखलाते हैं। भेद में अमेद देखने को ही श्रीमद्भगवद्गीता में सात्विक ज्ञान कह्या है सारे विश्व में एक नियम ओर श्छुला कौ व्याप्ति धटाई जाती दहे। यह केवल विकासवाद का ही फल नहीं है वरन्‌ सारे विज्ञान ने शान की एकाकारिता स्थापित करने में संदायता दी द्े। विद्य॒त्‌-अ्र॒णुश्रों ने भीतिकवाद को भी बहुत धक्का पहुँचाया है। श्रत्र संसार भोतिक श्रणुओ्रों से पना नहीं माना जाता, वरन्‌ शक्ति के केन्द्रों का घात-प्रतिघात बताया जाता है। बीसवीं शताब्दी का विशान हमको आ्राध्यात्मितता की ओर लिये जा (हा है। सर श्रोलीवर लाज प्रभ्ति की प्रेतवाद सम्बन्धी गवेषणाएँ भी इसमें

२६४ प्रबन्ध -प्रभाकर

बहुत सद्दायक हो रही हैं श्रणुश्रों के तोड़ने से जो शक्ति उत्तन्न होती है उसी का घातक प्रयोग एटम बम में देखा जाता है सम्भव है कि आगे चल कर उसका प्रयोग मानव हित के लिए श्रौद्योगिक कार्यों में होने लगे | श्राइनस्टाइन का सापेक्षवाद (।८9(श५(५७ सम्बन्धी सिद्धांत ) विज्ञान में हलचल मचा रहा है| विज्ञान के श्रुव निश्चय चल हो रहे हैं ये सब्न बातें हमको बतला रही हैं कि संसार कोई भोतिक दृढ़ पदाथ नहीं है; वह विद्युत-अ्र॒गुश्रों का, जो शक्ति के केन्द्र हैं, खेल है | सारा संसार ज्ञान ओर शक्ति का ही विस्तार है | समय आवेगा जन्न धर्म ओर विज्ञान में विरोध रहेगा विज्ञान के संघर्ष से धम अ्रपना अ्रन्धविश्वास छोड़ देगा और कुछ अ्रन्धविश्वास विज्ञान द्वारा सिद्ध भी हो जावेंगे, उसके फल-स्वरूप विज्ञान धर्म का आदर करेगा

'सदपााततकामक-दिकमाततडक ८०००4: फ-.. चन्चारतनामाउख,

४६, नागरिक के कत्त व्य ओर अधिकार

नगर में रहने वाले को नागरिक कहते हैं नगर में रहने के कारण

तथा नगर की शासन-व्यवध्था से लाभ उठाने के कारण नागरिक पर कुछ

उत्तरदायित्व जाता है। नगर शब्द में ग्राम भी शामिल

नागरिक हैं, उस से ग्रामों का बहिष्कार नहीं होता है | नगर से

हमारा अभिप्राय मानव समाज से है यदि मनुष्य श्रकेल।

रहे तो सिवाय पेट भर लेने के उसका कोई कतंव्य होगा श्रथवा वह अपना

समय ईश-भजन या प्रकृति के निरीक्षण में व्यतीत करेगा परन्तु समाज में

रहने के साथ उसका उत्तरदायित्व बढ़ जाता है, क्योंकि उसका कतंव्य केवल

अपने ही प्रति रह कर दूसरों के प्रति भी ह्वो जाता है | जिस समाज मे

मनुष्य उत्पन्न हुआ है उसमें शान्ति ओर साम्य स्थापित रखना और उसर्क॑ उन्नति करना उसका परम कतव्य हो जाता है |

नागरिकता एक प्रकार से मानवता और सम्यता का पर्याय बन गया

है। अ्रच्छे नागरिक को अपने सभी सम्बन्धों में श्रच्छा मनुष्य बनना होग।

क्योंकि मनुष्य के पारिवारिक, व्यापारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, श्रन्तर्राष्ट्रीय आदि

नागरिक के कत्तंव्य श्र श्रधिकार २६५४

सम्बन्ध सामाजिक दृदता और संगठन में सह्यक होते हैं | इन सब सम्बन्धों के पारस्परिक श्रविरोध के साथ निर्वाह में ही सच्ची नागरिकता है लोकतन्त्र राष्ट्र की सफलता के लिए भी जनता में नागरिक्रता के भावों का मान आवश्यक है | किसी देश की नागरिकता जन्म से ही प्राप्त होती है और श्रधिक दिन रहने से अर्जित भी होती है जिस प्रकार नागरिकता अर्जित हो जाती है उसी प्रकार वह खोई भी जा सकती है। अ्रधिक दिन बाहर रहने से वह जाती रहती है। यद्यपि राज्य के दो अंग हँ--शासक और शासित; तथापि स्वतंत्र देशों में यह भेद न्यूनातिन्यून हो जाता है शासित ही शासक होते हैं। शासकवर्ग तल से हि शासितों का प्रतिनिधि द्योता है | स्वतन्त्र देश शासकों का दी नागरिकों का होता है वरन्‌ शासितों का भी होता है | देश की समृद्धि उत्तरदायित्व ओर सम्पन्नता तथा उसके सुयश के लिए सारे ही देशवासी उत्तरदायी होते हैं। देश का बनना त्रिगड़ना उनके द्वाथ में रहता है | देश की ख्याति उनकी ख्याति है, देश की कुख्याति उनकी कुख्याति है | इसीलिए. उनके कत्त व्य और अ्रधिकार दोनों ही विशेष मह्च रखते हैं मनुष्य की उत्पत्ति समाज से हुई है समाज से भरण, पोषण, शिक्षा आदि प्राप्त कर वह पुष्ट हुआ है। समाज ही में उसकी आजीविका है अश्रतः समाज की उन्नति में बाधक होना घोर कृतप्नता ही नहीं वरन्‌ आत्महत्या है समाज की उन्नति के लिए निम्नलिखित बातें ग्रावश्यक हैं। जो बातें सामाजिक उन्नति के लिए आवश्यक हैं उनका साधन करना शोर उनके सम्पादित होने में योग देना प्रत्येक नागरिक का कत्तव्य है। समाज की स्थिति के लिए व्यिं; के कत्तव्य श्रोर श्रधिकार दोनों ही आवश्यक हैं। जो बातें व्यक्ति को राज्य के लिए करनी चाहिएँ और जिन बातों कि के लिए राज्य व्यक्ति की बाध्य कर सकता है वह उसके अधिकार व्य हैं। किन्तु कतेव्यों की महत्ता उनके स्वतः प्रेरित होने में है। अ्रधिकार वे का4 हैं जिनको कि व्यक्ति राज्य से करा सकता है। राज्य का कत्त व्य व्यक्ति का श्रधिकार बन जाता है और व्यक्ति का

२६६ प्रबन्ध-प्रभाकर

कतेव्य राज्य का अधिकार हो जाता है। प्रत्येक अधिकार अपने अनुकूल कतंव्य की अपेक्षा रखता है। कर्तव्यों की उपेज्ञा करके हम अधिकारों के अधिकारी नहीं हो सकते अपने यहाँ तो कतंव्यों को ही अधिक मद्तत््व दिया गया है। भगवान कृष्ण ने कहा है कि कमण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु. कदाचन | पाश्चात्य शिक्षा ने हमको अधिकारों के प्रति अधिक लजग कर दिया है, किन्तु कतव्यों के त्रिना अधिकारों की माँग अन्याय है; किन्तु बिना अधिकारों के भी व्यक्ति का पूर्ण विकास नहीं हो सकता पूर्ण विऊसित व्यक्ति राज्य की संपन्नता के लिए आवश्यक है | शरीर रक्षा को शात्रों में पहला धर्म-साघन बतलाया है-- शरीरमाय' खलु घधमसाधनम” यदि शरीर ही नहीं तो घम कहाँ है ? मनुष्य-शरीर धर्म, थ्रो अथ, काम, मोक्ष का साधन माना गया है। यदि वह स्वस्थ बे 5 डक : नहीं है तो सब्र साधन विफल हो जाते हैं। इसीलिए, कह्दा गया है तन्दुरुस्ती हजार नियामता। मनुष्य को स्वयं स्वस्थ रह कर दूसरों के स्वस्थ रहने में सहायक होना चाहिए.। यदि हमारे पड़ोसी स्वस्थ नहीं हैं श्रोर यदि हमारा जलवायु शुद्ध नहीं है, तो हमारे स्वास्थ्य को भी आधात पहुँचता है हमारे बिगड़ने से समाज बिगड़ता है ओर समाज के बिगड़ने से हम बिगड़ते हैं। इस प्रकार क्रिया-प्रति-क्रिया रूप से बिगाड़ का रोग बढता रहता है ओर मनुष्य की हानि होती है। इसलिए मनुष्य सबसे पहले अपने आप स्वस्थ रहने का उद्योग करे | स्वस्थ रहने के लिए अपने शरीर, अपने वस्र ओर अपने घर की सफाई अत्यन्त आवश्यक है। अधिकतर रोग सफाई के अभाव से होते हैं। सफाई रखने से केवल शरीर ही स्वस्थ नहीं रहता वरन्‌ मन भी प्रसन्न रहता है, ओर आत्म-गोरव बढता है। स्वयं अपने को स्वच्छु कर अपने मुहल्ले तथा सारे नगर को स्वच्छु और आलोकित रखने में सहायक द्वोना प्रत्येक नागरिक का कतंव्य है। मतदातागण म्युनिसिपैलिटी के मेंबरों पर जोर डाल कर इस काय में सहायक हो सकते हैं चुनाव के समय वे लोग व्यक्तिगत संबंधों, श्राकषणों प्रलोभनों को छोड़ कर कच्चे कायकर्तताओं को ही श्रपना मृत ( ४०६६) दें

नागरिक के कतव्य और अधिकार २६७

अस्पतालों के सुचारु रूप से चलाने ओर गरीत्रों को यथावत्‌ दवाई पहुँचाने में सहायक होना भी परम वांछुनीय है शिक्षा के लिए जितना लिखा जावे उतना ही थोड़ा है। शिक्षा से मनुष्य मनुष्य बनता है। प्रत्येक नागरिक का कत्तव्य है कि वह इस बात को देखे कि उसके बालकों, ओर नगर वा मुहल्ले के अ्रन्य शिक्षा बालक-बालिकाओं की ठीक-ठीक शिक्षा होती है या नहीं। यदि नहीं तो किस कारण ? यदि पाठशालाओं में सुधार की आवश्यकता हो तो उस सुधार के लिए यत्न करे और यदि लोगों की शिक्षा में अरुचि दो तो उनको शिक्षा के लाभ बतलावे ओर उनके बालकों के लिए शिक्षा सुलभ करवाने का प्रयत्न करे | शिक्षा का कार स्कूल ओर कालेज की शिक्षा में ही समाप्त नहीं हो जाता वरन्‌ वह जीवन भर चलता है। जनता को नागरिकता की शिक्षा देना प्रत्येक नागरिक का कतंठ्य है। हाँ यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि इस प्रकार की शिक्षा देने में किसी प्रकार का दम्भ ग्राने पावे | शिक्षा सेवाभाव से दी जाय सामाजिक उन्नति सहकारिता और सगठन पर निभर है। प्रत्येक नागरिक को चाहिए कि वह स्वयं अपने सद्व्यवह्वर से लोगों में प्रेम का व्यवहार .. बढ़ावे, ओर दूसरों से घुणाभाव को कम करे। अपने किसी 2० अल पल व्यवहार से वह दूसरों को अपमानित करे, क्योंकि कोई उदारता. अपमानित हो कर समाज में नहीं रहना चाहता नागरिक को चाहिए कि वह सांप्रदायिकता और मतनमेद से उठने वाले भंगड़ों को कम कर समाज को अ्ंग-भंग होने से बचावे स्वयं दूसरों के मत का आदर कर लोगों में उदारता के भावों की उत्पत्ति करे। परस्पर उदारता और आदान-प्रदान से ही सामाजिक संगठन होता है जिस प्रकार व्यक्ति का घनहीन जीवन निरथक है वैसे ही समाज का भी। जो नागरिक सम्यक्‌ श्राजीविका द्वारा धनोपाजन नहीं करता वह आशथिक उन्नति समाज का घातक है। नागरिक को चाहिए कि स्वयं बेकार न. हो ओ्रोर दूसरों को बेकारी से बचावे। जो बेकार हों उनके लिए

स्ध्द प्रअन्च-प्रभाकर

बेकारी दूर करने के साधन उपस्थित करे | नागर में उद्योग-घन्धों की बृद्धि में सहायता दे। जो लोग विद्या या श्रनु भव के श्रभाव से अपना व्यवसाय या व्यागार नहीं बढ़ा सकते उनकी श्रपनी विद्या श्रोर अनु भव से सहायता करे श्राजकल अधिक अन्न उपजाने में सहायता देना देश की आर्थिक उन्नति में योग देना है | अन्न की बचत करना ओर उसका अपव्यय करना देश को संपन्न बनाने की ओर अग्रसर होना है | यदि कोई उद्योग घन्धा किया जावे तो ऐसा क्रिया जावे कि जिससे देश की समृद्धि बढ़े अच्छा ओर ईमानदारी का व्यापार देश की आधिक उन्नति में सहायक होता है। चोर बाजारी से व्यक्ति का लाभ होता है किन्तु राष्ट्र का नुकसान होता है। चोर बाजारी में सहायक होना तथा 'उत्पादन के कार्यों में सक्रिय सहयोग देना देशसेवा का मुख्य अज्भध है | मिल- “मजदूरों और पूजीपतियों में साम्य €थापित करने में सहायक होना देश का 'उत्ादन बढ़ाना है यद्यपि रक्षा ओर शान्ति पुलिस और मैजिस्ट्रेतों का काय है, तथापि 'उसमें नागरिकों का सहयोग आवश्यक है। प्रत्येक नागरिक का कतव्य है कि वह वाध्तविक श्रपराधियों का पता लगाने में सहायता दे रक्षा और शान्ति और इसी प्रकार बेगुनाहों को पुलिस के अत्णचार से बचाने का उद्योग करे | न्याय में व्यक्तिगत संबंधों ओर प्रलोभनों को “स्थान देना उचित नहीं नागरिक को चाहिए कि वह देश की रत्चा के लिए फोजी स्वयं सेवकों ग्रथवा सेवा-समितियों में काम करे; क्योंकि नगर की रक्षा देश की रक्षा पर आश्रित है। देश की रक्षा के दो अद्भ हैं आन्तरिक ओर बाह्य | -स्वतन्त्र देश के नागरिकों का देश की बाह्य श्राक्रमणों से भी रक्षा करना परम -कतंव्य है | स्वतन्त्रता हमने प्राप्त कर ली है। स्वतन्त्रता प्राप्ति की अपेक्षा प्राप्त स्वतन्त्रता की रक्षा ओर भी महत्व रखती है क्योंकि यदि हमारी स्वतन्त्रता जाती -रहती है तो पराधीनता में हमको वर्णनातीत कष्ट भोगने पड़ते हैं | हमारी सारी योजनाएँ मिट्टी में मिल जाती हैं | हमारा स्वाभिमान चूर-चुर हो जाता है। देश ही हमारे लिए विदेश बन जाता है श्रोर हम देश को अपना कहने से वश्चित हो जाते हैं। स्वतन्त्रता के इस महत्त्व को स्वीकार करते हुए; देश की रक्षा में तन मन

नागरिक के कतंव्य श्रोर श्रधिकार २६६

घन से राज्य की सहायता करना हमारा परम कतंव्य हो जाता है |

ग्रान्तरिक रक्षा के लिए. हमको शासन-व्यवस्था में सहायक होना आवश्यक है। जिन बातों से देश की शक्ति भद्ज होती है उनके निराकरण में हमको राज्य की सहायता करनी चाहिए

अच्छा नागरिक जो कुछ काम करे--चादहे मेंबरी हो, चाहे आनरेरी मैजिस्ट्रेटी हो ओर चाहे कलेक्टरी हो--सत्न सेवाभाव से करे, केवल आत्म- गौरव बढ़ाने के लिए नहीं। नागरिक को चाहिए, कि वह समाज को केवल चोर-डाकुश्रों से ही रक्षित रक्खे, वरन्‌ उन लोगों से भी रक्तित रक्खे जो सम्यता के आवरण में लोगों को ठगते हैँ। उसको यह भी चाहिए कि आपस के लड़ाई-भगड़े के कारणों को उपध्यित होने दे। यदि नगर में शान्ति भड्ग होती है तो आपस में लड़ते तो दुजन हैं ओर हानि सजनों की होती है। जो व्यक्ति लड़ाई के कारण उपत्यित होते हुए देख कर उपेक्षा भाव से मौन रहता है, वह उस लड़ाई में सहायक होता है। हाँ, यह ध्यान रखना चाहिए कि विरोध के शमन के लिए भी ऐसे उपाय काम में लाये जावे जिनसे विरोध बढ़े, वरन्‌ शान्ति ओर प्रेम के साथ शान्ति स्थापित की जाय

राजनीति के सम्बन्ध में बड़ी सावधानी ओर घैेय की आवश्यकता है। प्रत्येक नागरिक का यह कतंव्य नहीं है कि वह नेता बने जहाँ बहुत से नेता

होते हैं वहाँ विनाश के साधन उपस्थित हो जाते हैं। थघैय राजनीतिक उन्नति हृदता ओर निश्चय के साथ किया हुआ कार्य सफल होता है। सत्य का अ्रवलंच ले कर निभयता से कार्य करना

चाहिए। जहाँ पर मताधिकार का प्रश्न हो, जहाँ उसकी राय ली जावे, वह स्वतंत्रता-पूवक दे, उसमें किसी का पक्षुपात करे | धन ओर मान के प्रलोभनों से विचलित हो और बन्धुत्व, जाति श्र सांप्रदायिकता का ख्याल करे मताधिकार का सदुपयोग ही लोक-तंत्र राज्य की सफलता का मूल साधन है। राजनीतिक उन्नति के लिए. वह इस बात का ध्यान रकखे कि वही राजनीतिक व्यवस्था उत्तम है जिससे समाज में शान्ति ओर साम्य स्थापित रहे ; सब को समान अ्रधिकार रहे ; कोई श्रपनी जाति वा मत के कारण समाज के किसी

३०० प्रचन्ध-प्र भाकर

लाभ से वंचित रहे ; सच्च को अपनी शारीरिक ओर मानसिक शक्तियों के विकास और उनके उपयोग से न्यायानुकूल लाभ उठाने के लिए समान अ्रवसर मिलें; उचित काय करने में किसी वी स्वतंत्रता में बाधा आवे ; सबका-- चाहे वह पदाधिकारी हो और चाहे साधारण पुरुष--मान ओर गोरव रहे; लोग भूखे मरें, किसानों का भार हलका द्वो ; बेकारों की बेकारी कम हो; संपत्ति की रक्षा हो ; धम के शान्ति पूरक आचरण में बाधा पड़े; देशवासी देश की उन्नति के साधनों का स्वयं निणंय कर सकें; ओर देश के सुचारु रूप से शासन का ओर उसकी रक्षा का स्वयं अयने ऊपर भार लेने की योग्यता प्राप्त कर सकें। जिस प्रकार देश में उपयु क्त रीति से व्यवस्था स्थापित होने की हृदतापूवक माँग करना ओर उस माँग की पूर्ति में सहायक होना नागरिक का कतंव्य है उसी प्रकार राज-व्यवस्था का मान करना, करों का देना ओर न्याय- पूर्ण शासन में राष्ट्र का सहायक बनना भी नागरिक-धर्म के अन्तगंत समझना चाहिए. स्वतन्त्र देश के प्रत्येक नागरिक को अधिकार है कि वह देश में जहाँ अन्याय और अव्यवस्था देखे वहाँ अधिकारियों का उस ओर ध्यान आकर्षित करे ओर उस अन्याय को दूर करावे | जहाँ राज्य की उचित आलोचना करना प्रत्येक नागरिक का अधिकार है वहाँ राज्य को अनुचित आ्षेगों से बचाना भी उसका कर्तव्य है श्रशान्ति उत्पन्न करने वाली किंवदन्तियों ओर निमू सुनी-सुनाई बातों के प्रचार को रोकना प्रत्येक देशहितैषी का कतव्य है प्रत्येक नागरिक को राज्य अपना समझना चाहिए.। राज्य की अनुचित बुराई से राज्य के काय-संचालन में बाधा पड़ती है। राज्य के कार्य की उचित व्याख्या कर अपने काय भार सम्हालने में उसका सहायक होना प्रत्येक नागरिक का पुनीत

कतंव्य है | नागरिक अपने कत्तव्यों का पूर्णतया पालन करता हुआ अपने शरीर सम्पत्ति एवं वैयक्तिक, पारिवारिक तथा जातीय स्वाभिमान की रक्ता, भाषण की स्वतंत्रता, हर प्रकार की व्यापारिक सुविधा, अस्पताल, अधिकार पुस्तकालय श्रादि सावजनिक संस्थाओं की स्थापना, नोकरियों में समानता का व्यवह्वार तथा राजकीय न्याय-विधान में

लोकतंत्र बनाम तानाशाही ३०१

अभेरभाव आ्रादि नागरिक श्रघ्रिकारों के लिए भगड़ रुकता हे | जन्र तक हम दूसरों के न्‍्याय-पूण अधिकारों में बाधक हों तत्र तक राज्य से अपनी धन सम्पत्ति तथा अपने जीवन की रक्षा चाहना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है जहाँ अधिकार का सदुपयोग हमारा कतंव्य है वहाँ उसकी माँग करना हमारा अधिकार है। यदि हमारे भेजे हुए प्रतिनिधि टीक काम नहीं करते हैं तो उनके लोथये जाने की माँग करना हमारा अधिकार है। शिक्षा शोर सफाई की माँग करना हमारा हक है | अपने अधिकारों के लिए उदासीन रहना अपने प्रति अन्याय है। जो अपने को प्राप्य अ्रधिकारों से वश्चित रखता है वह अन्याय को प्रोत्साहन देता है ओर दूसरों के लिए. बुग उदाहरण उपस्थित करता है अधिकारों के लिए जनत्न भगड़ना हो तत्र वैयक्तिक लाभ की भावना से नहीं वरन्‌ सामाजिक लाभ को अपने सामने रखना चाहिए संक्षेप में हम कह सकते हैं कि दूसरों से मनुष्योचित व्यवहार करते हुए समाज को उन्नतिशील बनाने में सहायता देना नागरिक का कतंव्य है ओर अपने साथ मनुष्योचित व्यवहार की माँग उसका अधिकार है

४७. लोकतंत्र बनाम तानाशाही

मानव सम्यता के विक्रास में पितृराज से आरम्भ करके शासन-पद्धति ने कई रूप बदले हैं एक प्रकार से हमारा इतिहास शासन-पद्धतियों का प्रयोग-भवन रहा है इन पद्धतियों में राजतंत्र ( शैंणाक्ाटी५ ), लोकतंत्र (0ल॥०८9८9), अल्पतंत्र (0४0ट29८9), नोकरशाही (ऐ८प्राएटा८५) श्रौर तानाशाही (>८(७(०५09) मुख्य हैं वास्तव में तानाशाही का किसी भी तंत्र के साथ योग हो सकता है, बयोंकि लोकतंत्र या राजतंत्र कोई भी शासन- सत्ता किसी एक व्यक्ति को कार्य करने का पूण अधिकार सॉंप सकती है तानाशाह अपना अधिकार तो प्रायः लोकमत से प्रास करता है, परन्तु अपना कार्य करने में पूण रूपेण स्वतन्त्र रहता है |

लोकतंत्र-शासन के यद्यपि कई रूप हैं. तथापि उसका सामान्य गण

३०२ प्रअन्ध-प्र माकर

यह है कि उसमें लोकमत को प्रधानता रहती है राज्य-शासन में ही क्या, किसी भी संध्या में लोकमत को प्रधानता देना उस संस्था को जनता की दृष्टि में ऊंचा उठा देता है लोकतंत्र शासन की कई परिभाषाएँ दी गई हैं, किन्तु उनमें एज देम लिंकन की परिभाषा सब से श्रधिक लोकप्रिय हुई हे वह इस प्रकार है--(०00था।रलशा( | पाट एटकॉट, ०४ पाठ ए०को०८, णि 06 9९००८, 0५ ०, /ण ४--श्रर्थात्‌ जनता द्वारा, जनता के हिताथ, जनता का शासन, सबके द्वारा सबके हित के लिए शासन मेज़िनी की परिभाषा कुछ भिन्न है किन्तु वह वास्तविक आदश के अधिक निकट है; वह है [[८ णिठद255 थी। पा०पह्ी थी परातंश पीट र्विजाए रण प्र८ 0८४ थाते 0९८ ७5८5६. श्रेष्ठतम श्रोर बुद्धिमत्तम के नेतृत्व में सब के द्वारा सब की उन्नति वास्तव रूप में तो लोकतंत्र यूनान के नगर-रज्यों ( (0४ 509८5 ) में होता था, क्योंकि इनके छोटे होने के कारण वह व्यावह्यरिक हो सकता था। वहाँ भी गुलाम लोग, जो उच्चवर्ग से प्रायः दुगनी संख्या में थे, उस शासन-सत्ता से बाहर समझे जाते थे क्योंकि उनका व्यक्तित्व उनके मालिकों के व्यक्तित्व में सम्मिलित रइता था बोद्ध-कालीन भारत में छोटे-छोटे राज्यों की परिषदों में प्रायः लोकतन्त्र प्रणाली से ही काम होता था और वह यूनानी नगर राज्यों से मिलती-जुलती थी

भगवान बुद्ध से यह पूछे जाने पर कि वृज्ि राज्य पर आक्रमण किये जाने में सफलता होगी या नहीं, उन्होंने नीचे के शब्दों में अच्छे राज्य का आदर्श बतलाया था और वह लोकतंत्र राज्य ही का था--हि ब्राह्मण | जब तक वृज्जि जाति में एकता है, जब्ब तक वे मिल कर काय करते रहेंगे, जब तक वे सदाचार और सत्प्रथाओं का आदर करते रहेंगे, जन्न तक वे लोग श्रपना काय सावजनिक सभाश्रों में विचार कर करते रहेंगे, जब्र तक वे लोग गुरुजनों की सेवा में रत रहेंगे, कुल-ख्रियों तथा कुल-कुमारियों का समुचित श्रादर करते रहेंगे,तत्र तक उस जाति के अधःपतन की सम्भावना नहीं है !! इसमें राजनीति के साथ घधमनीति भी शाप्रिल है

पहले का सा लोकतन्त्र आजकल सम्भव नहीं | श्राजकल तो लोकतत्त्र

लोकतंत्र बनाम तानाशाही ३० ३े-

राज्यों में प्रतिनिधि-शासन है। प्रतिनिधियों के चुनाव में प्रत्येक वयस्क. अर्थात्‌ होश सभाले हुए मनुष्य को श्रपना मत देने का अधिकार रहता है। बह किसी सामाजिक, धार्मिक, जातीय तथा अन्य ऐसे ही कारण से अ्रपने: मताधिकार से वश्चित नहीं किया जा सकता जनता में लोक-शासन का मान: है, किंतु तानाशाह्दी की सफलता देख कर लोगों का कुकाव उसकी ओर भी होता जाता है। आपत्‌-धम के रूप में अ्रर्थात्‌ युद्ध आदि की विशेष परिस्थिति में तो तानाशाहदी की उपयोगिता सभी स्वीकार करते हैं, कितु प्रश्न यह हो जाता है कि जो आपत्‌-धर्म हे वह क्या स्थायी धम भी बनाया जा सकता है ? वास्तव: में पोप ( 207८ ) के कथनानुधार वही शासनप्रणाली श्रेष्ठटम है जिसका पालन श्रष्ठटमम रीति से हो ( [॥90 80५शााला( $ ०८5६ जञांटा $ बता 5८८0 0८५ ) और यह बात सभी शासन-पद्धतियों के सम्बन्ध में कही जा सकती है रामराज्य राजतन्त्र में आदश रहा है। उसमें लोकमत का पूर्ण आ[दर था राजा भी अपने को नियम के बाहर नहीं समझता था। उसके सलाइकार निःस्वाथ ओर त्यागी होते थे। रामराज्य के सम्बन्ध में गोस्वामी जी कहते हैं-- बैर कर काहू सन कोई | राम प्रताप विषमता खोई। नहिं दरिद्र कोउ दुखी दीना नहिं कोउ श्रबुध लच्छुनहददीना

इस राज्य में पूर्ण मानसिक साम्य के साथ पूण भोतिक सम्पन्नता थी। ऐसे ही राज्य को दृष्टि में रखते हुए भगवान कृष्ण ने नराणाश्व नराधिप/ की बात कह्दी थी |

सभी राज्यों की बागडोर प्रायः कुडु चोटी के श्रादमियों के हाथ में होती है। यह बात अल्पतन्त्र पद्धति की भी साथंकता सिद्ध करती दै। तानाशाही में भी लोकतन्त्र के तत्त्व रहते हैं शोर लोकतन्त्र में तानाशाद्दी के दोनों के बुरे से बुरे ओर श्रच्छे से श्रच्छे रूप हो सकते हैं। किन्तु जहाँ तक सिद्धांत का प्रश्न है लोकतन्त्र राज्य जनता की विचारधारा को अ्रधिक सन्तुष्ट करते हैं, क्योंकि उनमें शासित की सब से अ्रधिक रजामन्दी रहती है औ्रोर यही श्रच्छे शासन का व्यापक गुण है

"२०४ प्रत्रन्ध प्र भाकर

लोकतन्त्र राज्य में शासन जनता के प्रति उत्तरदायी रहता है। जनता सीधे तोर से नहीं किन्तु थोड़े हेर-फेर के साथ शासन का नियंत्रण करती है। जनता के हित-साधन में सजग रह कर ही उसके प्रतिनिधि अपने पुनर्निवाचन की आशा कर सकते हैं। जनता में से चुने जाने के कारण उसके प्रतिनिधि उसके सुख-दुःख की बात जानते हैं। उनके लिए यह्द नहीं कह्ा जा सकता कि जाके पॉय फटी बिवाई सो का जाने पीर पराई! | लोक-तन्त्र राज्य में कोई अपने को नीचा नहीं समझता सब के ही स्वाभिमान की रज्ञा होती है ओर कम से कम मताधिकार प्राप्त करने के समय उनको अपने प्रतिनिधियों या उनके एजेंटों से मिलने का अवसर मिलता है ओर उस समय उनके मन में भी अपने अ्रस्तित्व का भान हो कर आत्म-भाव में वृद्धि होती हुई प्रतोत होती है। यह जनता के मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत ही श्रावश्यक है |

लोकतन्त्र राज्य जनता में राष्ट्रीय और देश-प्रेम की भावना को स्वाभा- विक रीति से जागरित करता है। इस कथन का यह अभिप्राय नहीं कि श्रन्य प्रकार के शासनों में देश-प्रेम नहीं होता, किन्तु इस में देश-प्रेम के लिए. अ्रधिक उत्तेजना मिलती है। शासित वग में मंथरा की मनोबृत्ति नहीं रहती कि 'कोठ नूप होइ हमें का हानी, चेरी छांड़ि होउत्र रानी इसमें किसी वगग विशेष का प्रभुत्व नहीं रहता यदि बहुसंख्यक समुदाय का प्रभुत्न होता है तो भी सकारण होता है फिर बहुसंख्यक वर्ग के जो प्रतिनिधि अल्पसंख्क वर्गों को अपने साथ कर लेते हैं उनको सकलता के लिए अधिक गुजाइश रहती है। इसमें सब्र के जन्मसिद्ध अधिकार समान होते हैं। कम से कम, सिद्धांतरूप से, अन्र तो भारत का प्रत्येक बालक देश का राष्ट्रपति होने के स्वप्त देख सकता है, केवल स्वप्न ही नहीं वह स्वप्न चरितार्थ भी हो सकता है। देवताश्रों की सभा की भाँति लोकतंत्र राज्य में किसी की छुटाई-बड़ाई का प्रश्न नहीं होता | इसमें क्रांति का भी विशेष भय नहीं रहता | इस प्रकार की शासन-प्रणाली में शक्ति के साथ उत्तरदायित्व का समन्वय रहता है जो कि उसको दानवी होने से बचाये रखता है |

लोकतन्त्र शासन का नैतिक और शिक्षा सम्बन्धी पक्तु बहुत प्रतल है।

लोकतंत्र बनाम तानाशादी ३०५

उसमें सब से बड़ी बात यद्द है कि जिनका धन व्यय होता है उनकी आवाज़ भी सुनी जाती है | जो वंशी बजाने वाले को धन देता है वह उसकी घुन के सम्बन्ध में भी श्रादेश दे सकता है--॥८2 0 99४5 पीट एएश' गराप5( ८णा॥॥॥9॥0 (१८ (पर यह लोकोक्ति लोकतंत्र राज्यों में बहुत श्रंश में चरिताथ हो तकती है। इसके अतिरिक्त प्रजा के प्रत्येक व्यक्ति को शासनसत्ता का अंग होने का गौरव मिलता है और उसे शासन की नीति श्रोर गति-विधि के सम्बन्ध में ज्ञान भी रहता है। मतश्रदान के समय प्रत्येक नागरिक को उत्तरदायित्र की पूर्ति की शिक्षा के साथ नागरिकता-सम्बनन्धी चरित्रनिर्माण का सुअ्रवतर भी मिलता है लोकतन्त्र शासन के जहाँ गुण हैं वहाँ दोष भी -हैं। उसमें मतों की गिनती होती है तोल नहीं होती उसमें संख्या का महत्व है, गुण का नहीं। चन्दन ओर बबूल एक बरातर हैं। धन्नू कुँजड़े का बोट उतना ही मूल्य रखता है, जितना कि डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद, पंडित जवाइरलाल, राहुल सांकृत्यायन, डा० सुनीतिकुमार चट्टोपाध्याय या श्री जयचन्द्र विद्यालंकार का। इन लोगों की वैयक्तिक योग्यता का कुछ मूल्य नहीं रहता | लोकमत प्रायः प्रगति-विरोधी होता हेई। चेचक के टीकों के सम्बन्ध में लोकमत कितना विरद्ध था ? रेलगाड़ी के प्रचार में विलायत की जनता बाधक ही सिद्ध हुईं थी। लोकमत के आधार पर हिन्दुस्तान से सती-प्रथा और बाल-विवाह को उठाने के लिए. अनेकों वष लग जाते | लोकतन्त्र शासन में व्यक्ति की गौरव-बृद्धि होती है, किन्तु उसका दुरुपयोग मी पूरा-पूरा हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने को शासक समझने लगता है। नाउश्रों की बरात में सब ठाकुर ही ठाकुर होते हैं। जनता शासकों ओर श्रथि- कारियों पर अनुचित दबाव डालने लगती है। मत का क्रय-विक्रय भी होने लगता:है श्रोर योग्यता की श्रपेज्ञा धन का मूल्य बढ़ जाता है। जब्न क्रब-विक्रय की नोत्त श्राती है तब खरीदने को बबूल ही मिलता है। योग्यतम की अ्रपेत्षा पिपुल प्रभावशाली या श्रधिक धनवान व्यवस्थापक समाओ्रों में पहुँच जाते हैं। यद्यपि किन्हीं-किन्हीं शासनों में विशेषज्ञों के मानसिक्र तथा आर्थिक भार से

०६ प्रभन्ध-प्रभाकर

जनता दब जाती है, ओर वे मूल रोग से भी श्रधिक ग्रापत्तिजनक सिद्ध होते हैं, तथापि कहों-कह्दी लोकतन्त्र में अ्रयोग्य लोगों के हाथ में शासन की बागडोर था जाने से विशेषशों की बड़ी छील्लालेदर भी होती है श्रोर उसके फलस्वरूप नये प्रयोगों में भारी द्वानि उठानी पड़ती है। विचार-विनिमय शांसन के लिए बड़ी श्रावश्यक वस्तु है, किन्तु उसके लिए, समय की श्रपेत्ञा रहती है। दो मुल्लाओं में मुर्गी हराम होती है, किन्तु जहाँ बहुत से मुल्ले हों वहाँ का अश्रल्ला' ही बेली होता है। (00 गाए ८0०४८ 5?णा पा८ ण०0॥ ) श्रर्थात्‌ रसोहयों का बाहुल्प रसोई को खराब कर देता है, यह बात प्रायः तो नहीं किन्तु कभी कभी अवश्य लोक-शासन में चरितार्थ हो जाती है। 'मुडे मुडे मतिमिन्ना' | व्यवस्थापक सभा का प्रत्येक सभासद बुद्धि कोशल ओर वाकपढुता का प्रदशन करने की धुन में बृथा समय नष्ट करता है व्यक्ति की दीघसूत्रता की अपेत्ञा समाज या सभा की दीघंसूत्रता काय-संपादन में अ्रधिक बाधा डालती है बहुमत कभी-कभी भेड़िया-घसान में पड़ कर अ्रधिक वाचाल से प्रभावित हो जाता है इसलिए क्रिया का भार थोड़े ही श्रादमियों को सौंपा जाता है श्र लोकतन्त्र अल्यतन्त्र ( >500८8८7 ) का रूप धारण कर लेता है। व्यवहार में तो लोकतन्त्र-राज्यों में मी शासन-सूत्र एक ही आदमी के हाथ में जाता है शक्ति ओर प्रतिमा का चमत्कार निष्फल नहीं होता

लोकतंत्र की उपयु क्त कठिनाइयों के कारण ही संसार में तानाशाही का जन्म हुआ है। प्राचीन रोम में भी एकाधिकारी तानाशाह नियुक्त होते ये | बहुत से तानाशाह लोक-मत से शासन-सूत्र ग्रहण करते हैं और बहुत से अपने आतझ् के कारण लोक-मत को हाथ में ले लेते हैं तानाशाही राज्य एक प्रकार से राजतंत्र ही होता है उस में नोकरशाही की सी यान्त्रिक दृदय-हीनता भी नहीं हांती और तानाशाह अवसर पर लोक-प्रिय राजा की भांति नियमों के जाल से ऊपर भी उठ सकता है राजतंत्र की भाँति तानाशाही वंशानुगत नहीं होती इसलिए वह दीपज्योति के कज्जल-स्वरूप योग्य पिता की श्रयोग्य सन्तान के कन्लुध से बची रहती हे |तानाशाइ प्रायः कीचड़ के कमल की भाँति दीन-होन परिस्थिति से उत्पन्न हो कर अपने अ्रदम्य उत्साइ, लौइ-दृढ़ता,

लोकतन्त्र बनाम तानाशाही ३०७

कष्ट-सहिष्णुता ओर पौरुष के बल पर ऊँचा उठ कर - वीरभोग्या वसुन्धरा की लोकोक्ि को साथंक करते हैं |) फिर तो चलतो का नाम गाड़ी है लोक-मत भी छायानुगामी हो जाता है वतमान युग के तानाशाहों में कमाल पाशा हिटलर, मुसोलिनी और स्टैलिन प्रमुख हैं, किन्तु ये सब एक से नहीं हैं। सबकी लोकप्रियता का श्र॒लग-अलग रहस्य है, किन्तु सभी दीन-हीन परिस्थिति से ऊँचे उठे हैं

तानाशाही में ऐसे गुण श्रवश्य हैं. जो राष्ट्रनिर्माण में सहायक होते हैं। कमाल पाशा ने टर्की की काया पलट दी किन्तु इसमें भी दोष है इसमें वाचाल की विजय होती है एकाघिकार संकट के समय में तो वरस्वरूप होता है किन्तु वही साधारण परिस्थिति में श्रभिशाप का रूप धारण कर सकता है। परम स्वतंत्र सिर पर नहिं कोई” की परिस्थिति में श्रगर सिर फिर जाय तो कोई आश्वय नहीं | 'प्रभुता पाइ काहि मद नाही' तानाशाइ एक बार शक्ति प्रात कर ऐसे साधनों को काम में लाता है कि जनता उससे श्रघिकार वापिस लेने में श्रसमथ हो जाती है तानाशाही में व्यक्ति की स्वतंत्रता न्यूनातिन्यून हो जाती है। फासिज्म में एक ही पार्टी का बोल-बाला ह्वी नहीं रहता वरन्‌ दूसरी एर्टियों का श्रस्तित्व मियासा दिया जाता है यद्यपि तानाशाही के लिए, यह जरूरी नहीं कि उसकी वैदेशिक नीति क्रर हो तथापि व्यवह्वार में ऐसा ही हुआ है इस मामले में स्टैलिन की तानाशाही श्रधिक संयत है राष्ट्र का वैभव बढ़ाना तानाशाह का मूल ध्येय रहता है ओर सदाशय भी होता है, किन्तु वह जिन साधनों को काम में लाता है वे सवथा नीति-सम्मत नहीं होते तानाशाह राष्ट्र के धरातल से ऊँचा उठ कर अ्न्तरांष्ट्रीया की ओर नहीं जाता वह नेतिक बल की श्रपेक्ञा भोतिक बल को ही महत्त्व देता है वह्दी उसका कवच है, वही उसका इृष्ट और उपास्य है मुसोलिनी श्रोर हिटलर के पतन ने यह सिद्ध कर दिया है कि जनता की तानाशाह के प्रति सदा एक सी श्रद्धा नहीं रहती

न्याय और नीति की दृष्टि से लोक-तंत्र शासन सर्वश्रेष्ठ कह्य जा सकता है। इसमें व्यक्ति ओर जनता का मान रहता है, सत्रको समान अवसर मिलने

१०८ प्रबन्ध प्रभाकर

की सम्भावना रहती है। लोकतंत्र शासन में दोष श्रवश्य हैं किन्तु जुँश्रों के भय से कथरी नहीं छोड़ी जाती, भूसी को फटक कर गेहूँ का सग्रह करना चाहिए व्यवह्ार की दृष्टि से तानाशाही श्रधिक लोकप्रिय है वह चादे तो राम-राज्य स्थापित कर सकती है, किन्तु राज्य और श्रधिकार का त्याग करने वाले ओर लोकमत को प्रतिष्ठा देने वाले राम संसार में देश के भाग्य से ही उतन्न होते हैं |

४८. इतिहास, उसकी सीमाएँ, उसके अध्ययन

का उदद श्य ओर महत्त्व

मनुष्यों की नेसर्गिक वृत्तियों में आत्मरक्षा सत्र से प्राचीन श्रोर प्रतरल है। सारी एपणाएँ--पुत्र-एषणा, दार-एपणा, लोक-एघणा, वित्त-एप्णा, प्रभुत्व-कामना आदि इसी एक वृत्ति के अन्तगत हैं

मनुष्य का सारा क्रिया-व्यवसाय इसी एक भाव से प्रेरित होता है। आत्म-रक्षा करने वाला मनुष्य भी अपनी यशःप्रधान आत्मा की रक्षा के लिए अपने सांसारिक जीवन का अ्रन्त कर देता है। देश की स्वतन्त्रता के लिए. जलती आग में कूद पड़ने वाले वीखती श्रपनी विस्तृत आ्रात्मा की रच्चा के लिए ही ऐसा कार्य करते हैं

हमारा सारा साहित्य ओर विश्ञान भी श्रात्म-रक्षा का स्वरूप है। हमारा घम हमारे वतमान और भविष्य की रक्षा करता है। काव्य भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों की ही रक्षा के उद्देश्य से प्रवृत्त होता है। विज्ञान धर्म की रक्षा की भाँति वतमान और भविष्य से सम्बन्ध रखता है। वह प्राकृतिक शक्तियों पर मनुष्य का अधिकार स्थापित कर उसकी रक्षा करता है दर्शन आत्मा ओर संसार के तत्त्व का विवेचन कर आत्मा द्वी नहीं परमात्मा की भी रक्षा करता है एक बार भ्री जगन्नाथ जी का द्वार बन्द होने के कारण प्रवेश पा सकने पर एक तार्किक ने गव के साथ लिख ही तो दिया था कि नात्तिकों से पाला पड़ने

इतिहास : आत्म- रक्षा का रूप

इतिहास, उसकी सीमाएँ, उसके अ्रध्ययन का उद्देश्य ओर महत्त्व ३०६

पर भगवान हम दी तुम्हारी रक्षा करते हैं श्रोर हमारे लिये आप द्वार बंद किये बैठे हैं--' इतिहास हमारे भूत की रक्षा कर भविष्य की श्रात्मरक्ञा और आत्मो- न्नति का मार्ग निर्धारित करने में सहायक होता है | इतिहास शब्द का श्रथ है 'इति श्रास! ऐस; निश्चय से था | इतिहास किसी प्राचीन बात को कद्ठता है। एक प्रकार से इसका त्षेत्र इतना विस्तृत है कि सारा विश्व इसके घेरे में श्रा जाता है। प्रथ्वी का इतिहास, चेत्र सूर्य का इतिहास, वनस्पतियों का इतिहास, विकास-क्रम में मनुष्य का इतिहास, विज्ञान का इतिहास, भाषा का इतिहास साहित्य का इतिहास, धम का इतिहास, समाज का इतिहास, राजनी तक सत्ता का इतिहास ञ्रादि इतिहास की शाखाए.प्रशाखाएँ हैँ। इस प्रकार विश्व का ज्ञान- भण्डार इतिहास के विभिन्न रूपों का समुदाय माना जा सकता है। किन्तु आ्राज कल श्रम-विभाजन ()४ंशञ्रणा अं |900०7) और विशेषीकरण (59९८८ - 5800) के कारण इतिहास के इन विभिन्न रूपों को अलग-अलग नाम दे दिये गये हैं और अपने-अपने विषय का स्वराज्य दे दिया गया है। जैसे--सूय, चन्द्र, प्रथ्वी आदि ग्रहों उपग्रहों का इतिहास ज्योतिष श्रथवा खगोल विद्या के सुपुदे कर दिया गया है। प्रथ्वी का इतिहास भूगभं-विद्या का विषय बन गया है। वह प्रथ्वी की तहों ओर पर्तों का अध्ययन कर उसकी आयु निश्चित करता है। मनुष्य नाम की जानवरों की उपजाति का इतिहास प्राणि- शास्त्र के अ्रन्तगंत विकासवाद का विधय बन गया है। भाषा के इतिहास को हम भाषा-विज्ञान कहने लगे हैं। समाज का इतिहास समाजशाख्रियों की चिन्ता का विषय है | फिर इतिहास का उचित क्षेत्र क्या है ? किसी जाति के राजनीतिक विकास या हास के क्रमिक लेखन को इतिहास कहते हैं इतिद्दास में केवल तिथियों का ह्वी एकत्र करना नहीं ( उदू शब्द तवारीख इसी का द्योतक है, तवारीख तारीख की जमा श्रथांत्‌ बहुवचन है। ) वरन्‌ विभिन्न घटनाओं में काय-कारण श्द्धला को भी देखना उद्देश्य होता है श्रोर शायद इससे भी कुछ अरप्निक; वह यह कि संघर्षों, श्रश्याचारों, उत्थान, उन्नति ओर ह्वास के चक्रों से

३१० प्रबन्ध- प्र भाकर

मानव जाति के कौन से हित या लक्ष्य की पूर्ति होती है। यह इतिहास की मीमांसा या दर्शन का विषय कहा जा सकता है। किन्तु इतिहास का अ्रध्ययन इससे श्रद्भुता नहीं रह सकता राजनीतिक उन्नति भी सामाजिक, श्रोद्योगिक, बौद्धिक, नेतिक उन्नति से स्वतन्त्र नहीं रह सकती इतना दी नहीं, राष्ट्रों के उत्थान, पतन और विस्तार की का्य-कारण शरखला के अध्ययन में बातावरण ओर श्रन्नजल की भोतिक परिस्थितियों को भी विचारना श्रावश्यकं होता है, क्योंकि बहुत से उपनिवेशों का निर्माण भोतिक परिस्थितियों के कारण ही हुश्रा है श्रोर बहुत से युद्ध भी श्रोौद्योगिक श्रोर आर्थिक कारणों पर ही निर्भर रहते हैं। इस प्रकार जो विषय दूसरे विशानों को सौंप दिये गये थे, वे सब इतिहास के घेरे में जाते हैं। श्रन्तर इतना ही है कि अन्य विशञान उन विषयों का विशेष रूप से कुछ-कुछ निरपेक्ष भाव से श्रध्ययन करते हैं ओर इतिहास उनका देश की उन्नति या हास के अ्रज्भ-स्वरूप श्रध्ययन करता है। इतिहास में राजनीतिक दृष्टिकोण मुख्य रहता है इसलिए उसका राजनीति से विशेष सम्बन्ध है इतिहास का राजनीति से ही सम्बन्ध नहीं है वरन्‌ श्रन्य शास्त्रों से भी है| स्कूलों में प्रायः इतिहास के साथ भूगोल का गठबंधन रहता है। इसका कारण है, ऐतिहासिक घटनाएँ भोगोलिक सीमाश्रों को बद- अं 44 लती रहती हैं। इतिहास का सम्बन्ध काल-क्रम से है तो भूगोल का सम्बन्ध देश के विस्तार से है। इस प्रकार इतिहास और भूगोल मिल कर देश और काल ( 599८८ था। गा ) के अ्रध्ययन की पूर्ति करते हैं | इतिहास का सम्बन्ध साहित्य से भी है। राजनीतिक परिस्थितियाँ साहित्य के निर्माण में साधक या बाधक ही नहीं होतीं, बरन्‌ उसकी गतिविधि भी निश्चित करती हैं | किसी साहित्य का इतिहास राजनीतिक इतिहास की जानकारी के बिना लिखा नहीं जा सकता भूषण का श्रोरज्जजेत्र के समय में होना आकस्मिक घटना नहीं थी, तत्कालीन परिस्थितियों ने भूषण का निर्माण किया हिन्दी: साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय से जो राजनीतिक धारा चलो है, वह

इतिहास, उसकी सीमाएँ, उसके श्रध्ययन का उद्दे श्य ओर मद्दत्त्व ३११

भी राजनीतिक परिस्थितियों का प्रतिफलन है। वह हम को नये काव्यों और नाटकों के लिए सामग्री देता है। उसके अ्रध्यपयन से जातीय मनोविशान में सहायता मिलती है इतिहास श्रथंशाद्नर को भी मूल्यवान सामग्री प्रदान करता हे | इतिहास का पुरातत्त्व विद्या ( 9/09८००४५ ) से भी चोली-दामन का साथ है। दोनों ही एक दूसरे के सहायक और पूरक हैं। मोहनजोदढ़ो और हड़प्पा की खुदाई इतिहास पर नया प्रकाश डालेगी ओर इतिहास का शअ्रध्ययन प्रत्येक खुदाई के मूल्याड्टन में सहायक द्वोता है इतिहास का इतने शारतरों से सम्बन्ध उसकी उपादेयता का ज्वलन्त प्रमाण है। किन्तु इतिहास के मह्त्व की इतिश्री इतने में ही नहीं हो जाती। वह भूत को वतमान में घसीट ला कर हमारे अनुभव का महत्तव विस्तार ही नहीं करता वरन्‌ हमको उन गर्तो' में गिरने से बचाता है, जिनमें कि हमारे पूवज गिर चुके हैं। वह गये वक्त को लोटा ला कर हमारे प्राचीन वैभव का चित्र हमारे सामने उपध्यित कर देता हे उससे हमारे आत्म-भाव की तृप्ति द्वी नहीं होती वरन्‌ हमको कायशील होने के लिए प्रोत्साइन भी मिलता है। भूत को भविष्य की सारिणी मान कर इम अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सकते हैं। इतिहास-प्रेम देश-प्रेम की आवश्यक सीढ़ी है| आत्म-परिचय द्वारा ही श्रपनत्व बढ़ता है इतिहास की उपादयता के विरुद्ध दो प्रश्न उठाये जा सकते हैं एक यह कि जो नश्वर है उसकी रक्षा से क्या लाभ ? दूसरा यह कि जहाँ गोरव- वृद्धि होती है वहाँ गोरव का हास भी होता है कभी-कभी इतिहास के पढने से द्दीनता-भाव की भी वृद्धि होती है इस सम्बन्ध में यह भी कहा जा सकता है कि इतिद्दास के गड़े मुर्दों को उखाड़ कर अथांत्‌ पुराने लड़ाई-फगड़ों की कटु स्मृतियों को जगा कर वतमान की सम्भावनाओं और राष्ट्रीय एकता के विचारों में क्‍यों बाधा डालें ? यह राष्ट्रीयता और मनुष्यत्व के विद्दद्ध है इन शआ्राक्षेपों में पहला तो निमूल है | यदि सब कुछ नश्वर है तो हमारा कोई भी कार्य श्र नहीं रखता स्वास्थ्य-रक्षा फे समी साधन निष्मयोजन होते हैं संसार यदि स्वप्न भी है तो

निराकरण

१२ प्रबन्ध-प्र भाकर

उस स्वप्न के भीतर भी तारतम्य है इतिहास में केवल उन्हीं चीज़ों का महत्त्व नहीं है जो- हमारे गोरव को बढ़ाती हैं बरन्‌ वे बातें भी ( यदि वे सच्ची हैं ) जो हमारे आत्म-भाव को गिराती हैं, श्रपना मूल्य रखती है प्रत्येक द्वीनता- भाव, यदि उसका सदुपयोग किया जाय, उच्चता के लिए सोपान का काम दे सकता है। हमारी भूत की असफलता भविष्य की सफलता का कारण बन सकती है। हम उन गढ़ों और खाइयों से बच सकते हैं जिनमें हमारे पूवज गिरे थे ओर जो हमें निगल जाने के लिए अत्र भी मुँइ खोले हुए हैं रही गढ़े मुर्दे उखाड़ने की बात; वैर और द्वेष उस मनुष्य के लिए. कोई अ्रथ नहीं रखता जो प्रत्येक घटना में किसी व्यापक ईश्वरीय उद्देश्य की पूर्ति देखता है विदेशी आक्रमणों से जहाँ हानि पहुँची है वहाँ जञान-विशान श्रोर कला-कोशल के प्रसार में सहायता ओर प्रेरणा भी मिली है सच्चे इतिहास से बहुत सी गलतफदमियाँ भी दूर हो सकती हैं सदृव्यवद्दार से कल के वैरी भी आज के मित्र बन सकते हैं। दीरघ दाघ निदाघर से कहलाने हुए अहि मयूर मृग बाघ अपने स्वाभाविक वैर को छोड़ सकते हैं; फिर हम तो इन्सान हैं। श्रभक्ति, महामारी, गरीबी ओर भुखमरी दीरघ दाघ निदाघ से कम नहीं हैं इतिहास में यद्यपि निष्कक्षता लाना कठिन है फिर भी उदार ओर वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने की आवश्यकता है। यह हम मानते हैं कि इतिहास वैज्ञ जातीय दृष्टिकोण से लिखे जाते हैं विजेता लोग अ्रपने अत ग्रात्म-भाव की तृप्ति के लिए विजित जातियों के इतिद्दास को गिरा कर लिखते हैँ, किन्तु यदि विजित जातियाँ अ्यना इतिहास लिखें तो शायद वे भी दुसरे प्रकार की गलती कर सकती हैं आय लोग भारतवष में बाइर से श्राये थे! इस सिद्धांत के प्रचार से विदेशी शासकों को अपना शासन कायम रखने के लिए. अ्रवश्य कुछ नेतिंक श्राधार मिल जाता है, किन्तु केवल इस कारण ही यह घारणा गलत नहीं सिद्ध की जा सकती इसके लिए स्वतन्त्र ओर श्रकास्य प्रमाणों की खोज को आवश्यकता है | ऐसे मामलों में हमें वैशनिक बुद्धि से काम लेना चाहिए, पक्ष और विपक्ष दोनों दी श्रोर की उक्तियों को तक की तुला में तोलना चाहिए पक्ष की

इतिहास उसकी सीमाएँ, उसके श्रध्ययन का उद्देश्य श्रोर मद्दत्त् ३१ हे:

उक्कियों के ग्रहण करने के लिए जैसे सजग मनोवृत्ति की आवश्यकता है वेसे ही विपक्ष की उक्तियों के लिए भी मुक्तद्वार रहना श्रमीष्ठ होगा इतिहास में भेड़ियाघसान में पड़ना या फैशन के भूत के वशीभूत होना आत्महत्या करना होगा इतिहासश के लिए केवल मानसिक श्रालस्यवश किसी प्रचलित वाद को स्वीकार कर लेना बुद्धि का दिवालियापन है इतिदहास-वेत्ता की वैज्ञानिक की-सी परीक्षा-बुद्धि होनी चाहिए,

कुछ लोग जातीयता के नशे में अंग्रेजों की सत्र धारणात्रों पर इड़ताल फेरने को तेयार हो जाते हैं ओर इसी प्रकार कुछ लोग विदेशी विद्वानों से निष्पक्षता का प्रमाण प्राप्त करने के लिए बिना सोचे समझे जातीय भावनाओं के विरुद्ध फतवा देने को प्रस्तुत हो जाते हैं | यह दोनों ही मनोदृत्तियाँ दूषित हैं।

हम को इस बात की आवश्यकता है कि निष्पक्षता के साथ हम इतिहास-निर्माण का काम अपने हाथ में लें। हमको इस बात से हतोत्साह होना चाहिए कि हमारे धमंग्रन्थ, रामायण, महाभारत और पुराण काव्यमय इतिहास हैं। इनमें से काव्य का कदम ( काव्य-प्रेमी क्षमा करें, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से काव्यांश कदम ही है ) दूर करना होगा हमारे शिला-लेख, दानपत्र, पढ्टे, परवाने प्राचीन भग्नावशेष आदि सामने गवाही देने को तैयार हैं। एक-एक इंट इतिहास कीः पोथी बन सकती है। परिश्रम ओर अ्रध्यवसाय की श्रावश्यकता है। सत्य का श्रमृत-घट ऐतिहासिक सामग्री के मन्थन से ही निकलेगा। इसके लिए. इम विदेशियों से भी सहयोग कर सकते हैं, उनके परिश्रम से लाभ उठा सकते हैं; अन्चानुकरण की भावना से नहीं वरन्‌ एक सजग निधष्यक्ष परीक्षक की दृष्टि से तभी शान के आलोक का प्रसार होगा ओर भश्रान्त धारणाएँ मिरटेंगी

इतिहास- निर्माण

४६, ग्राम-सुधार

गाँवों ओर ग्रामीयों की सेवा का काये

परमपिता परमात्मा का काय है। -महामना मालवीय जी भारतवष कृषि-प्रधान देश है। इस देश के प्रायः पचद्त्तर प्रतिशत निवासियों का जीवन खेती पर श्रवलंबित है। ये लोग तो गाँवों में रहते ह्वी हैं; इनके श्रतिरिक्त इनके दैनिक जीवन में सहायता देने वाले बढ़ई, लोहार, चमार आदि मजदूरी पेशा लोग तथा इन पर शासन करने वाले जमींदार और कुछ बनिये ब्राह्मण भी इन्हीं गाँवों की जन-संख्या को बढ़ाते हैं। गाँव शहरों से प्राचीनतर हैं। कृषि-काय-निपुण आर्यों के प्रथम उपनिवेश ग्राम ही बने होंगे ऊषि की प्राण-स्वरूपा वर्षा से सम्बन्ध रखने के कारण ही इंद्रदेव सुरराज कहलाये होंगे। ग्रामों से ही भारतीय सम्यता का उदय हुआ है। भारत-माता के गोरवगान में जो 'शस्य-श्यामला' तथा 'देश विदेशे त्रितरिछल श्रज्नों कहा

जाता है, वह आमों की ही बदोलत है। ग्राम-निवासी ही हमारे अन्नदाता हैं

ऑवड़ियों में रह कर महलों के स्वप्न देखने वाली बात चादे हास्यास्पद समभी जाय, परन्तु यह ध्रुव सत्य है कि अलकापुरी की स्पर्धा करने वाले मणि- माणिक्य-मंडित महलों की महिमा और गरिमा भॉोपड़ियों की ही श्राधार-शिला पर स्थित है ग्राम ही सच्चे देवमन्दिर हैं, क्योंकि कविसम्राद रवि बाबू के शब्दों में हम कद सकते हैं “कि यदि तुझे ईश्वर के दशन करने हैं तो वहाँ चल, जहाँ किसान जेठ की दुपहरी में इल जोत कर चोटी का पसीना एड़ी तक

नहा रहा है ग्रामों की गौरव महिमा के चाददे जितने गीत गाये जायें, ग्रामवासी हमारे पालक-पोषक होने के नाते चाहे विष्णु पद पर ह्टी क्यों प्रतिष्ठित कर दिये जाये, किन्तु उनकी दशा ऐसी नहीं जिसकी कि कोई भी स्पर्धा करने की इच्छा रक्‍्खे ग्रामवासी दरिद्रता-दानव के चंगुल में पड़ कर अश्रस्थिपंजरावशेष होते जा रहे हैं वे सदा श्रतिवृष्टि, अनावृष्टि तथा शलभ-शुक-मुषकादि ईतियों

आम-सुधार ३१५

के भय से पनपने नहीं पाते इन शात्र-प्रसिद्ध ईतियोंके श्रतिरिक्त बनिया, जमींदार, हाकिम, अफसरों के दोरे आदि और भी बहुत सी ईतियाँ उनकी जान का बवाल बनी रहती हैं। गाँव कीचड़ ओर गन्दगी के केन्द्र बने रहते हैं; उसके फलस्वरूप उनके निवासी रोग ओर मृत्यु के शिकार होते हैं

बेचारा किसान आपादमस्तक ऋण-मग्न रहने के कारण अपने घर के घी-दूध का भी पूण लाभ नहीं उठा पाता गोचरभूमि की न्यूनता के कारण बेचारा श्रधिक जानवर नहीं रख सकता और जो दो एक रखता भी है, पेसे की चाह में उनका सारा दूध ट्रकों पर लद॒कर शहरों में पहुँच जाता जाता है। भोला किसान चाहे जिस कागज़ पर अ्रगूठा लगा देता है। सोते- जागते दिन-दूने रात-चोगुने बढ़ने वात्ते व्याज से पुष्ठ हो कर ऋण उसकी संपत्ति का शोषण कर लेता है | बीज के लिए अन्न घर में रहने से बोज उधार लेना पड़ता है। वह अपने श्रज्ञान के कारण सहकारी-समितियों और तकावी का भी पूरा लाभ नहीं उठाने पाता यदि महाजन से बचता है तो छोटे-छोटे पदाधिकारियों के लालच का शिकार बनता है | मेड़ जहाँ जाती है वहीं मुंडती है | दूसरों का श्रव्नदाता-स्वयं-भूखों-मस्तम-है,-इससे-बढ़- कर विधि की विडम्बना आर क्या दो सकती है ! श्रग्न की तेजी के कारण किसानों की आर्थिक दशा अवश्य सुधरी है और जमींदारी का भी शासन और श्रत्याचार उठने वाला है, किन्तु श्रभी उनकी शिक्षा-दीक्षा में विशेष उन्नति नहीं हुई है |

ग्रामों का ऋण स्वौकार करते हुए. सरकार तथा लोक-सेवी देशभक्ों का ध्यान ग्रामों की दशा सुधारने की श्रोर गया है। कृषि-संचंधी शादी कमीशन तथा कृषि-विभाग इस बात के द्योतक हैं कि सरकार ने कृषकों की दशा सुधारना श्रपना कतंव्य सप्रका है। प्राचीन काल में भी राजा जनक आदि प्रजा-हितेषी शासक स्वयं हल ले कर खेत में जाते थे ये उपाख्यान किसान श्रोर राजा के घनिष्ठ सम्बन्ध के परिचायक हैं |

प्रत्येक प्रांत में किसी किसी रूप में ग्रामोत्थान का काये सरकार की और से श्रोर कहीं-कहीं जनता के उद्योग से जारी है। पंजाब में गुड़गाँवाँ के डिप्टी कमिश्नर मिस्टर ब्रेन का नाम कृतशता से लिया जाता है। उन्होंने

३१६ प्रचन्ध-प्रभाकर

सन्‌ १६२० से २८ तक सरकार की सारी शक्तियों को केन्द्रर्थ कर ग्राम सुधार का कार्यक्रम जारी रक्‍्खा | उन्होंने अपने समय में छुद्द फुट गहरे चालीस हज़ार खाद के गढ़े खुदवाये जिलों में कम्युनिटी कौंसिलें श्रौर सूबे में कम्युनिटी बोड कायम हुए आमसुधार शिक्षा-केन्द्र भी स्थापित हुए.। उत्तर प्रदेश में ग्रामो त्थान समितियां हैं | इनके द्वारा बहुत कुछ लाभदायक प्रकाशन का काय हुआ हैं। मेजिक लालटेनों, सिनेमा और रेडियो द्वारा स्वास्थ्यप्रद जीवन तथा देश के उद्योग धन्धों शोर कृषि-संबंधी उन्‍नति के साधनों पर प्रकाश डाला जाता है |

ग्रामोत्थान-काय में जनता और सरकार दोनों के ही सहयोग की आ्राव- श्यकता है | ग्रामोत्थान-काय, चाददे सरकार द्वारा हो और चादे निजी उद्योग से हो, तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है

(१) सफाई ओर स्वास्थ्य--यद्यपि धनाभाव के कारण गाँव में शदर की सी सफाई नहीं रक्‍खी जा सकती तथापि उद्योग से बहुत कुछ कार्य किया जा सकता है | घरों के पास के गढ़े मिट्टी से भरे जा सकते हैं। तालाबों ओर पोखरों पर मिद्री का तेल डाल कर मच्छरों का पैदा होना या बदना बन्द करने में विशेष कांटमाई होगी। मैले के दबाने के लिए खाइयाँ खुदबाई जा सकती हैं। गोबर और कूड़ा भी गढ़ों में दबाया जा सकता है ।| उत्तर प्रदेश की गोरखपुर कमिश्नरी में छः महीने में ७६७ गढ़े भरवाये गये; २००० से ऊपर खाद के गढ़े खुदवाये गये, ६००० से अधिक घूरे साफ किये गये। गाँव की सफाई के लिए ऐसे काय बढ़े उपयोगी हैं| 'कुश्नों का पानी पोटाशियम पर- मैंगनेट यानी लाल दवा से शुद्ध कराया जा सकता है। मकान अ्रधिक हृवादार बनाये जा सकते हैं | ऐसे बहुत से काम हैं, जिनके करने से थोड़े पैसे में बहुत कुछ लाभ होने की संभावना रहती है गाँव के लोगों को चेचक और कालरा के टीकों के लिए तैयार कराना, मलेरिया के दिनों में कुनीन बाँटना श्रादि ऐसे काम हैं जिनमें जनता सरकार का हाथ बंठा सकती है। यथासंभव प्रत्येक तीन या चार गाँवों के वर्ग के लिए. एक छोटा अ्रस्पताल खुलबाना चाहिए ओर ग्रावश्यक दवाइयाँ तो प्रत्येक गाँत के जमीदार या पटवारी के पास रखी जानी वांछनीय हैं गाँव की दाइयों को प्रसति-काम की शिक्षा दिलाना एक श्रावश्यक

ग्राम-सुधार ३१७

काय है। गाँव वालों को शरीर और कपड़ों की सफाई के सम्बन्ध में मैनिक-लैंटन या साधारण व्याख्यानों द्वारा शिक्षा देना बहुत लाभप्रद सिद्ध होगा

(२) आर्थिक--यह समस्या बहुत बढ़ी है। परन्तु सदुद्योग के आगे कोई कठिनाई नहीं रह जाती कृषि-सुधार के लिए उत्तम-भूमि, उत्तम खाद, उत्तम बीज और सिंचाई का सुभीता ग्रावश्यक उपकरण हैं। इन बातों में कुछ का सरकार से प्रतरन्ध करा कर और कुछ के लिए अ्रच्छी सलाह दे कर किसानों को कृषि-काय में द्विगुणित उत्साह के साथ प्रवृत्त किया जा सकता है इसके अतिरिक्त प्रत्येक लोक-सेवी का यह भी कतेव्य है कि वह किसान को अपनी उपज बाजार में श्रच्छे भाव से बेचने में सहायता दे

पशुधन की उन्नति के लिए सरकार को गोचर-भूमियों का प्रतरन्ध करना चाहिए। इसके अतिरिक्त श्रच्छी नसल के साँडों का भी प्रबन्ध होना आवश्यक है। जहाँ तक हो पशु-धन बाहर जाने दिया जाय पशुओं को बीमारियों से सुरक्षित रख कर उनको मरने से बचाया जाय | ग्राम-वासियों को बतलाया जाय कि पशु-सेवा एक धर्म है

यद्यपि किसान लोग बड़े मेहनती होते हैं, तथापि वे सारा वर्ष क्ृषि- काय में नहीं लगे रहते किसान को साल में छः मह्दीने फुरतत रहती है रस्सी बटना, डलिया बनाना, शहद पैदा करना, रुई ओठना, चरखा कातना, कपड़ा बुनना, लाख पेदा करना, गुड़ बनाना, साबुन बनाना, ईटे पाथना, इत्यादि कामों को करके किसान अपनी फुरसत के समय का सदुपयोग कर सकता है |

कज की समस्या सहयोग-समितियों द्वारा बहुत कुछ इल की जा सकती है। किंतु सश्योग-समितियों से लाभ उठाना सहज कार्य नहीं उसके लिए भी शिक्षा की आवश्यकता है सहयोग-समितियों में भी बहुत कुछ कागजी घोड़ों का काम रहता है। मेंट-पूजा भी चलती है | सुधारकों का काम है कि वे किसान को इनसे पूरा-पूरा लाभ उठाने में सहायता दें श्रौर यदि किसान का हिसान्र बनिये से हो तो वे देखें कि बनिया किसान को लूटतो तो नहीं हे

ग्रामीणों का बहुत-सा धन मुकदमेत्राजी में भी व्यथ नष्ट होता है

दश्८ प्रबन्ध-प्रभाकर

अब सरकार की ओर से पंचायत राज्य की श्रायोजना बन गई है ओर उसका विधान भी बन गया है। इस के लिए ग्राम-पंचायतों को खुलवाना तथा उनकी सफल बनाने का उद्योग करना ग्राम सुधार का आवश्यक अंग है

(३ ) शिक्षा-संबंधी--शिक्षा का प्रश्न बढ़े महत्व का है आमीण लोगों को उच्च शिक्षा की आवश्यकता नहीं; परन्तु उनके लिए प्रारंभिक शिक्षा का होना विशेष लाभदायक होगा ऐसे स्कूल खोले जाने चाहिए, जिनमें कि बच्चों को दिन में तथा प्रौढों को रात में शिक्षा दी जाय प्रोढ़ों की शिक्षा का समय ऐसा रहे. कि उनके देनिक कार्य में बाधा पढ़े गाँवों में पुस्तकालयों श्रौर वाचनालयों के खुलवाने से भी जनता की जानकारी बढ़ सकती है

ग्रामीण लोगों के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह रहता है कि यदि वे अपने बच्चों को शिक्षा प्राप्त कराएँ तो उनकी मजदूरी श्रोर खेती-बाड़ी में हानि हो। वर्धा की शिक्षा-सम्बन्धी योजना में इस ओर ध्यान दिया गया है। खेती के साथ उनको कुछ ऐसे उपयोगी धंघे सिखाये जायें जिनसे वे श्रपने अवकाश के समय में कुछ धन-उपाजजन कर सके संक्षेप में ग्रामीणों की शिक्षा में विदग्धता की अपेक्षा उपयोगिता का अधिक ध्यान रखना चाहिए, |

५०. सह-शिक्षा

इस बीसवीं शताब्दी में विरले ही ऐसे लोग होंगे जो ज्ली-शिक्षा की उपयोगिता में विश्वास रखते हों हमारी गह-लक्षिमियाँ हमारी श्रन्नपूर्णा दी नहीं वरन्‌ सहचारिणी ओर सहधर्मिंणी भी हैं। श्रशिक्षिता अ्रथवा श्रधशिक्षिता स्त्रियों के साथ रह कर वैवाहिक जीवन का सामाजिक श्रानन्द कठिनाई से ही प्रास हो सकता है ख्रियाँ चादे जीवन के अत्येक ज्षेत्र में पुरुषों के साथ प्रतिददन्द्धिता करे या करे, फिर भी उनको सुयोग्य सहधर्मिणी बनाने के लिए, उच्च-शिक्षा की आवश्यकता है

अब प्रश्न यह होता है कि वह शिक्षा किस प्रकार दी जाय बालकों के साथ-साथ अ्रथवा प्रुथक्‌ रूप से शिक्षा घर पर भी दी जा सकती है; किन्तु

सह-शिक्ता २१६

वह बहुत व्ययन्साध्य होगी एक व्यक्ति भिन्न-भित्र विषयों के लिए, भिन्न-भिन्न अध्यापक नहीं रख सकता और एक ही श्रध्यापक विभिन्न विषयों को एक सी सफलता के साथ पढ़ा भी नहीं सकता जीवन में जिन सामाजिक गुणों की आवश्यकता है श्रोर जिनके त्रिना मनुष्य श्रनुदार, दम्मी, स्वजाति से घ॒णा करने वाला और कभी रोग एवं उन्माद ग्रस्त हो जाता है, उन गुणों का विकास भी घर की शिक्षा में मुश्किल से ही हो पाता है | लड़कों की भाँति लड़कियों की शिक्षा भी घर के बाहर होनी चाहिए

लड़कियों की प्रारम्भिक शिक्षा के लिए. तो अलग स्कूल हैं, क्योंकि प्रारम्मिक शिक्षा से लाभ उठाने वाली चालिकाओ्रं की संख्या पर्यात है, शोर उन पर जो व्यय किया जाता है उसका पूरा-पूरा बदला मिल जाता है उच्च शिक्षा-प्राप्त करने वाली लड़ कियों की संख्या थोड़ी द्दोती है। उनके लिए अ्रलग योग्य से योग्य अध्यापक रखना बहुत व्यय-साध्य है भविष्य में तो चाहे सम्भव हो, किन्तु समाज की वत॑मान स्थिति में सुयोग्य श्रध्यापिकाएँ मिलन। भी कठिन है | यह कोई नहीं चादेगा कि अपनी बालिकाओं को उच्च शिक्ष। दे कर भी योग्यतम श्रध्यापकों के विशेष ज्ञान से वश्चित रक्खा जाय। यदि हमके अध्यापिकाएँ भी तैयार करना है तो उनको हमें योग्यतम अध्यापकों के सम्पक में रखना होगा | यह सम्भव है कि प्रत्येक प्रान्त में स्रियों के एक या दो उत्तम कालेज स्थापित किये जाएँ, किन्तु साधारण यहस्थ अपनी बालिकाश्रों को बोरिंग हाउस में रखने का आर्थिक भार नहीं सद्द सकते

इन आर्थिक ओर शिक्षा-सम्बन्धी कठिनाइयों के अ्रतिरिक्त एक बात यह भी है कि यदि हम चादइते हैं कि स्लियाँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में काम करके गिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर सके तो हमको उन्हें सहशिक्षा द्वारा पुरुषों के सम्पक में आने और उनसे स्पर्धा करने के लिए. तैयार करना चाहिए जो ज्रियाँ स्त्रियों के समाज से बाहर नहीं जातीं वे पुरुषों के साथ व्यवद्वार में हिच- किचाती हैं। इमारे समाज के बदलते हुए, आदरशों में पुरुषों के साथ व्यवहार की योग्यता स्त्रियों का एक आवश्यक गुण बनता जा रहा है। जो स्त्रियां पुरुषों के संपक में श्राती हैं वे पुरुषों के श्राक्रमणों श्रोर श्रत्याचारों से अ्रपनी रक्ता

३२० प्रबन्ध-प्र भाकर

उन स्त्रियों की श्रपेज्ञा, जो कभी पुरुष-समाज में नहीं श्रार्ती, अधिक सफलता के साथ कर सकती हैं श्राजकल भीझुता स्त्रियों का गुण नहीं सनभा जाता। इन्हीं कठिनाइयों और आवश्यकताओं के कारण सह-शिक्षा ग्रावश्यक सी हो जाती है

हिन्दू समाज ही क्‍या भारतीय समाज उन्नति की उस श्रवस्था में नहीं है जिसमें सह-शिक्षा एक स्वाभाविक बात सी प्रतीत हो इमारे ऊपर मध्यकाल के पर्दे के संस्कार ग्रमी तक बने हुए हैं। हम प्र। तीन और नवीन सभ्यता की संघ रेखा में खड़े हुए हैं हम नवीन संस्कारों के कारण बालिकाओं की उच्च शिक्षा को आवश्यक भी समभते हैं ओर उसी के साथ पुराने संस्कारों के कारण पीछे भी हटते हैं। ऐसी अवस्था में सह-शिक्षा का विरोध स्वाभाविक ही है ओर उसमें थोड़ा बहुत तथ्य भी है |

सह-शिक्षा के विरोध में सत्रसे पहला आक्षेप तो यह है कि यह एक नई चीज है। प्राचीनकाल में वह्मचारी लोग स्त्रियों के सम्पक से प्रथक्‌ रक्खे जाते थे हम बिलकुल निश्चयपूवक यह तो नहीं कह सकते कि गुरुकुलों में बालकों के साथ बालिकाएँ भी पढ़ती थीं किन्तु इस बात के प्रमाण अवश्य मिलते हैँ कि शिक्षा-लाभ के लिए और विशेषकर उच्च ब्रह्म-विद्या की शिक्षा के श्रथ र्नियां भी बालकों के साथ ऋषियों का शिष्पत्व धारण करती थीं | इसका एक प्रमाण हमको भवभूति के उत्तररामचरित में मिलता है। यदि उस समय सह-शिक्षा का प्रचार होता तो महाकवि भवभूति तपस्विनी झ्राच्र यी के मुख से यह कह- लाते कि वाल्मीकि जी के श्राश्रम में लव ओर कुश की प्रखर बुद्धि के कारण उनके साथ उनका पाठ नहीं चल सकता | आनेयी से यह पूछे जाने पर कि वाल्मीकि का श्राश्रमम छोड़ कर अगस्त्य आदि मुनियों से ब्रह्म विद्या सीखने क्‍यों आई, वे कहती हैंः--

उनकी ( लव ओर कुश की ) बुद्धि बढ़ी तीव्र औ्रौर घारणा-शक्ति अत्यन्त दी प्रबल है उनके साथ भला हमारा किस प्रकार निर्वाह हो सकता है क्योंकि!--

वितरन गुरू इक सम करत, बुध मूरल को शान | करत न, इरत कछुक तिन, बोध शक्ति परिमान

सह शिक्षा ३२१

किन्तु समय परिणाम के, अ्रन्तर विपुल लखात | रहत मूठ के मृदु इक, अन्य चतुर बनि जात जिमि दिनेस सम भाव सों, नभ में करत प्रकास। पूरन प्रति थल पर परत, तासु किरन आभास मनि मंजुल समरथ सदा, बिम्ब्र ग्रहन के माँहि। पै मादी के ढेल कहूँ, द्रतिमय दीसत नाँहि॥ उत्तररामचरित से यह भी पता चलता है कि महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में लव और कुश ही नहीं रहते थे वरन्‌ ओर भी ऊधमी श्रौर शैतान चालक रहते थे जिन्होंने कि जनक आदि के आने पर उन्हें दढ़ियल कहा था। दूसरा आक्षेव जो किया जाता है वह यह कि स्त्रियों और पुरुषों के काय-त्षेत्र अलग-अलग हैं। उनकी शिक्षा भी अलग-अलग प्रकार की होनी चाहिए। साधारण शिक्षा तो बालक ओर बालिकाओं की एक सी होगी साहित्य और विज्ञान तो वही होगा; किन्तु स्लियों को ललित कलाओं की अधिक आवश्यकता है ओर पुरुषों को उपयोगी कलाश्रों की। आजकल बालकों को भी ललित कलाश्ों की शिक्षा थोड़े बहुत श्रंश में देनी ही पड़ती हे बालिकाएँ उनमें विशेषता प्राप्त कर सकती हैं। बालकों को भी उनकी भिन्‍न-भिन्‍न रुचि के अनुकूल भिन्‍न-मिन्‍्न विषयों का अध्ययन करना पड़ता है। फिर यदि दो एक विषय बालिकाश्रों की खातिर बढ़ा दिये जाये तो वे साधारण विषयों कौ शिक्षा का भी पूरा-पूरा लाभ उठा सकेगी सह-शिक्षा के विरोध में जो सबसे बड़ा श्राक्षेप है वह है नेतिक ओर आचार सम्बन्धी लोगों का कहना है कि बालक ओर बालिकाश्रों के साथ पढ़ने से उनके नेतिक पतन की सम्भावना रहती दै। आग और पानी को साथ नहीं रखना चाहिए यह बात लज्जा के साथ स्वीकार करनी पड़ती है कि हमारे विद्यार्थी-समाज में श्रभी वे उच्च नेतिक श्रादर्श नहीं श्राये हैं जिनके कारण बालिआएँ उनसे सम्मानपूषंक मिल सकें; किन्तु इस दोष का अ्रति- रख़न भी बहुत होता है। बालक और बालिकाएँ जितना एक दूसरे से दूर रहते हैं, एक दुसरे के लिए श्रचम्मे श्रोर आाकषण की वस्तु बनते हैं। साथ रहने

र्रर प्रबन्ध-प्रभाकर

से वे एक दूसरे का ग्रादर करना सीख जाते हैं। अ्रच्छे स्वत्य वातावरण मैंमें बालक-बालिकाएँ निरापद रूप से एक साथ पढ़ सकते हैं। श्रामोद-प्रमोद के लिए उनके प्रथक्‌ प्रबन्ध हो सकते हैं उनके बैठने-उठने के सम्मिलित|'कक्ष ( (णागाणा रि०णा ) अलग हो सकते हैं। वाद-विवाद-प्रतियोगिता में बालक -बालिकाएँ सम्मिलित रूप से भाग ले सकते हैं

हमारे समाज की वतमान स्थिति में सह-शिक्षा में कठिनाई श्रवश्य है, क्योंकि सत्र प्रेम-सम्बन्ध वैवाहिक सम्बन्ध में परिणत नहीं हो सकते; किन्तु जैसे- जैसे वर्ण-व्यवस्था के बन्धन शियिल हद्वो जायेंगे वैसे-वैसे यह कठिनाई दूर होती जायगी

सह-शिक्षा की उपयोगिता में सन्देह नहीं, वह श्रार्थिक दृष्टि से भी अधिक सुविधाजनक है। हमारा सामाजिक वातावरण किसी अश्रंश में उसके अनुकूल नहीं है | उसके लिए प्रचार श्रोर शिक्षा द्वारा इमको उसमें अनुकूलता लानी होगी समाज की बलिवेदी पर त्तरियों के बहुत से हितों का बलिदान हो चुका हे। अ्रत्न उनके शिक्षा-सम्बन्धी हितों का बलिदान करना उनके साथ अन्याय होगा | विद्यार्थियों का इसमें उत्तरदायित्व है कि वे अपने सिर से इस लांछुन को दूर करें कि उन के कारण बालिकाएँ उच्च शिक्षा से वश्चित रहती हैं भावी समाज में जिस तरह से त्त्रियों को पुरुषों के साथ व्यवहार करने की योग्यता प्राप्त करना वांछुनीय होगा उसी प्रकार पुरुषों को भी स्लरियों के साथ सदृव्यवहार सीखने की आवश्ययकता है। थोड़े से श्रात्मसंयम ओर शिष्ट व्यव- हार से सह-शिक्षा निरापद बनाई जा सकती है। इससे पुरुष और ज्री-समाज दोनों का ही गोरव बढ़ेगा

५१, हिन्दू समाज में स्त्रियों का स्थान

अबला जीवन द्वाय, तुम्हारी यही कहानी“ आँचल में है दूध और आँखों में पानी ।” /५ 4 | ०५

हिन्दू समाज में स्त्रियों का स्थान ३२३

प्रानवता है मूर्तिमती तू भव्य-भाव-भूषण-भरडार दया क्षमा ममता की श्राकर विश्व-प्रेम की' दे श्राधार तेरी करण साधना ,का मां, है मातृत्व स्रय॑ उपहार विश्व का भरण-पोषण करने के कारण परमात्मा विश्वम्भर के नाम से पुकारे जाते हैं। इसी भरण-पोषण करने के देतु णहस्थ आश्रम को सत्र आश्रमों में श्रेष्ठता दी गई है; तस्माज्ज्येष्ठाअ्रमो णह्ीीं | यह भरण-पोषण का भार यद्यपि स्लियों और पुरुषों दोनों पर ही है तथापि उसका अधिक भार ग्रहलद्धिमयों पर ही है | प्राचीन काल में स्रियाँ केवल सन्‍्तान की जन्मदात्री ओर अन्नपूर्णा के रूप में द्वी प्रतिष्ठत थीं, वरन वे सामाजिक कार्यों में सहयोगिनी ओर सह धर्मिणी भी थीं। वैदिक युग में घोषा, लोपामुद्रा श्रादि कई ख्रियाँ मंत्रद्रष्ट हुई हैं महर्षि याशवल्क्य ने संन्यास लेने की इच्छा से जब निजी सम्पत्ति अपनी दोनों ह््रियों में ( मैत्रेयी ओर कात्यायनी में ) बाँटनी चाही तत्र मैत्रेयी ने कहा कि धन से श्रमृतत्व नहीं मिल सकता शअ्रम्ृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्ते! उसने उनके आध्यात्मिक घन में भाग लेना चाह, और खूब तक- वितक के साथ ब्रह्मश्ञान का उपदेश ग्रहण किया पत्नी के बिना कोई धर्म ओर यश पूरा नहीं होता था सती सीता के वनवास के पश्चात्‌ श्रीरमचन्द्र जी ने जो यज्ञ किया था उसमें सहधर्मिणी रूप से उनकी स्वणमयी प्रतिमा की स्थापना की थी। उत्तररामचरित नाटक से यह भी पता चलता है कि उस समय सहशिक्षा का भी प्रचार था। महर्षि वाल्मीकि के ग्राश्रम में लव श्रोर कुश की श्रलोकिक प्रतिभा के कारण जन्न झ्ाश्रम में देवी श्रात्रे यी का सहपाठ चल सका था, तत्र वे अ्रगस्त्य जी के यहाँ वेदान्त पढने गई थीं; 'तिन सों मैं वेदान्त पदन को प्रन घरि मन में, वाल्मीकि दिंग सों सिधाय विचरति या वन में ।” प्राचीन काल में स्लरियाँ विद्या-अध्ययन में ही पुरुषों के साथ योग नहीं देती थीं वरन रणाज्त्षेत्र में भी उनके साथ रहती थीं। कैकेयी ने वे दो वर.

१२२४. प्रधम्ध-प्रभाकर

जिनके आधार पर राजा दशरथ ने अपने श्राशाकारी पुत्र रामचन्द्र को वनवास दे दिया था, युद्ध त्षेत्र में ही. प्रास किये थे भवानी दुर्गा ने यह प्रण करके कि जो मुझे युद्ध में जीतेगा वही मेरा भरता होगा अ्रनेकों राक्षुसों को परास्त किया था | इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन भारत में त्रियों की दशा काफी श्रच्छी थी। वे चाहे स्वेच्छा से अ्रपने स्वातन्त्र्य का बलिदान कर देती थीं किन्तु उन में व्यक्तित्व था वे विवाहों में भी स्वयंवरा होती थीं। ऐसी अवस्था में बाल-विवाह की प्रथा सम्भव थी ब्रियाँ अपने प्रेम ओर श्रात्मबलिदान की भावना से ही पुरुषों का दासत्व स्वीकार करती थीं। वे अपने पतियों को उपदेश भी दे सकती थीं। किराताजुनीय से ज्ञात होता है कि पाण्डवों को युद्ध में प्रवृत्त होने के लिए द्रौपदी ने ही उत्तेजना दी थी। काव्यप्रकाश के कत्ता मम्मटाचाय ने कान्‍ता के उपदेश को काव्य के उपदेश का उपमान बनाया है। मदालसा का “शुद्धोडसि बुद्धो3सि निरक्षनो5सि, संसारमायापरिवर्जितो5सि” से प्रारम्भ होने वाला पुत्र के प्रति उपदेश वेदान्त शासत्र की उच्चतम शिक्षा का द्योतक है |

प्राचीन काल में स्त्रियों की जो सामाजिक दशा थी, समय के देर-फेर से वह क्रमशः गिरती गई स्त्रियों ने गहलदछुमी होने का जो भार अ्रपने ऊपर सेवा- भाव से लिया उसके कारण घर से बाहर के कार्यों में उनका बहिष्कार होने लगा श्रोर धीरे-धीरे वे अबला ओर श्राश्रिता बन गई जिस धर्म को उन्होंने प्रेमवश अपने ऊपर धारण किया था वह पुरुषों की स्वा्थं-परायणता के कारण उनके ऊपर लादा जाने लगा | ब्न्रियाँ सहर्मिणी के स्थान में दासी ओर उपभोग की वस्तु बन गई पुरुष की ईर््यां ने उनको श्रपने घर की चहार- दीवारी में बन्दिनी बना दिया, विशेषकर उस समय जब वे स्वयं बलह्दीन हो कर उनके गौरव की रक्षा करने में श्रसमर्थ हो गये। लज्जा स्त्रियों का भूषण है किन्तु जन्र इंट-चूने की दीवारों से उसकी साधना होने लगी तब वह अभिशाप बन गई खज्ियों को उनके बन्धन में प्रसन्न रखने के लिए. उसको प्रतिष्ठा का चिह्न बना दिया गया

पुरुषों को स्त्रियों का प्रेम बर-स्वरूप प्रात था, उसको पुरुषों ने श्रपना अधिकार समा; केवल जीवन में ही नहीं वरन्‌ मरणोपरास्त भी। स्री का

हिन्दू समाज में स्लियों का स्थान ३२५

मातृत्व उसके गोरव का विषय था इसी गोरब के कांरण और जाति की शुद्धता श्रक्ष एण रखने की भावना से उसके ऊपर पुरुष की अ्रपेज्ञा सदाचार का उत्तरदायित्व कुछ अ्रधिक मात्रा में लादा गया उसने उसे सहष स्वीकार भी किया, किन्तु क्रमशः उससे सारा श्रधिकार छिन गया | महर्षि याशवल्क्य ने भी स्त्री को किसी अ्रवस्था में स्वतन्त्रता का अधिकारी नहीं बतलाया है--- पिता रक्षति कोमारे भर्ता रक्षति योवने। पुत्रश्व स्थविरे भावे स्त्री स्वातन्त्रयमहति स्री का धर्म वास्‍्तव में तपोधम बन गया--“यशपरः पुरुषधमः, तपः- प्रधानों नाय्यः | हम उन महर्षियों को श्रधिक दोषी नहीं ठहराते। शायद उस समय परिस्थति ऐसी हो गई हो; किन्तु केवल ज्री होने के कारण स्वातन्त्य के श्रधिकार से उन्हें वश्चित कर देना उनके साथ अन्याय है। तथापि यह मानना ड़ेगा कि स्मृतिकारों ने उनको बढ़े आदर और पूजा-भाव से रखने का आदेश दिया है--“यत्र नाय॑स्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। मनु महाराज ने एक दुसरे को सन्तुष्ट रखने का उपदेश पति और पत्नी दोनों को समान रूप से दिया है पुरुषों की स्वाथपरायणता का प्रभाव केवल धम में ही नहीं परिलक्षित होता वरन्‌ साहित्य में भी इसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। वाल्मीकीय रामायण में वियोग की विहलता राम औ्रौर सीता में एक सी दिखाई गई है किन्तु पीछे के साहित्य में छ्लरियों में उसका आ्राधिक्‍्य हो गया। यह उनके द्ंदय की सहज कोमलता के कारण भी हो सकता है| तप और संन्यास की भावना से प्रेरित हो कर कवियों ने स्त्रियों को नरक का द्वार तक कह डाला | शायद शञ्त्रियाँ लिखतीं तो पुरुषों को ऐसा ही कहती | गोल्वामी तुलसीदास नी ने जहाँ सहज अपावनि नारि' कह्दा है वर्शा नारी-द्रोह के कारण नहीं वरन्‌ अपनी संन्यास-भावना के बश हो कर | तुलसीदा8 जी ने नारी जाति को चाहे जो कुछु कहा हो लेकिन सीता कौशलषया आदि देवियों के बड़े सुन्दर सिन्र खींचे हैं। रीति-काल में नारी केबल बिलास की सामग्री बन गई पुरुषों ने स््नियों की हीनता का राग इतना झलापा की उस आदमी की माँति जिस से कि चार ठगों ने बकरी को कुत्ता कह

३२६ प्रबन्ध-प्रभाकर

कर बकरी छीन ली थी, स्रियाँ स्वयं भी श्रपने को दीन-हीन समझने और पैर की जूती तक कहने भें संकोच को छोड़ बेठीं। कुछ लोग तो श्रत्र भी उनके भोलेपन से लाभ डठा कर उनको गिरी हुई अश्रवस्था में ही रखना चाहते हैं श्रोर कुछ लोग उनके उत्थान में सद्ायक होने लगे हैं। भारतीय समाज में स्त्रियों के प्रति जो अ्रन्याय हुआ है या हो रहा है उसके कई रूप हैं उनमें मुख्य ये हैं:--

१--पदा--बैसे तो प्राचीन काल में भी थोड़ा बहुत पर्दा था किन्तु स्वयंवर यज्ञ आ्रादि में उसका व्यवहार नहीं था। वैसे भी ल्लियाँ श्रा जा सकती थीं ओर राजकार्यों में भाग ले सकती थीं किन्तु मुसलमानी काल में यह बहुत बढ़ गया था। यह पुरुषों द्वारा ज्ियों की गोरव-रक्षा में श्रसमथता तथा उनके ईर्ष्या भाव ओर संयम के श्रभाव का प्रमाण-पत्र है। पुरुष जितने ही बलह्दीन होते गये, वे दूसरों की दासता स्वीकार करते गये और अ्रपनी हीनताग्रम्थि ( वरशिाणा५ एणाएं८४ ) को दीला करने के लिए बेचारी त्त्रियों को दबाने लगे। सोभाग्य से श्रत्र यह प्रथा उठती जाती है |

२--श्रनमेल विवाह--जब ख््रियाँ स्वयंवरा रहीं तब कम्याश्रों से छुटकारा पाने के लिए, उनको श्रयोग्य वरों के हाथ सौंप देने की प्रथा चल पड़ी कुलीनता के भूत ने इस कार्य में ओर भी उत्तेजना ही | यह बुराई भी श्रत्र॒ दूर होती जा रही है |

३--कन्या पक्ष का नीचा सममा जाना ओर इस कारण कन्या के जन्म को अभिशाप सममना--कन्या का पिता केवल विनय और शील के कारण आये हुए, श्रतिथियों के श्रगे नीचा बनता था। उस शील-जनित निम्नत्व-माव ने पीछे से वास्तविकता का रूप धारण कर लिया। दहेज, जो प्रेम ओर श्रादर का चिह्न था, कज की भाँति प्राप्य घन बन गया इन्हीं कारणों से कन्या-जन्म शोक का विषय समझा जाने लगा | श्रव यह भावना भी दूर होती जाती है।..

४--उच्च शिक्षा का अभाव--हमारे समान में उश्वशिक्षा नौकरी का साधन मात्र मानी जाने लगी थी ओर इसीलिए वह पुरुषों के विशेष अधिकार की वस्तु बन गई। शित्धा श्राजीविका उपाजन का ही साधन नहीं वरन्‌ जीवन

हिन्दू समाज में स्त्रियों का स्थान ३२७

को साथंक बनाने के लिए भी श्रावश्यक है। पुरुषों के योग्य जीवन-संगिनी बनने तथा उनके जीवन को सरस एवं साथक बनाने के लिए ख्तरियों को उशथ्च शिक्षा देना वांछुनीय है। भारतीय समाज इस सम्बन्ध में भी सजग होता जा रहा है।

५-बहुविवाह--पुन्नाम्नः नरकात्‌ त्रायते इति पुत्र/ पुत्‌ नाम के नरक से छुड़ाने वाला होने के कारण पुत्र पुत्र' कहलाता है | नरक के भय ने तथा सम्पत्ति का उत्तराधिकारी प्राप्त करने की इच्छा ने बहुविवाह की प्रथा को जन्म दिया | यह प्रथा प्रायः कलह का कारण होती है। कुलीन वर प्राप्त करने का मोह भी इसके लिए उत्तरदायी है | शिक्षा के साथ यह प्रथा भी कम होती जा रही है |

६--विधवाओं की हीन दशा--स्री के लिए वैधव्य सत्रसे बड़ा दुर्भाग्य

है। हिन्दू समाज ने उस दुर्भाग्य की चेतना को सजग कर देने के बहुत से साधन उपस्थित किये हैं | विधवाएँ यदि अ्रविवाहिता रहती हैं तो उनके लिए सादे जीवन की व्यवस्था निन्द्य नहीं कह्दी जा सकती; किन्तु उनको विवाह्यदि शुभ कार्यों में शामिल होने देना उनके प्रति अन्याय है | उनके पुनर्विवाह पर सामाजिक रोक-थाम करना श्रनुचित है | विधुर-विवाह की भाँति आपत्‌-धम के रूप में उसे स्वीकार करना न्याय ही होगा |

७--शारीरिक सम्बन्ध की प्रधानता--नारी को रमणी के रूप में अधिक देखा गया, सहचरी के रूप में कम | माता, भगिनी श्रादि रूपों का साहित्य में मी कम वणन आया है। ख्री को स्वतन्त्र व्यक्तित्व नहीं दिया गया, जड़ पदार्थों की भाँति उसे भी उपभोग की वस्तु समझा गया है

८--5त्तराधिकार से वद्ित होना--यह विन्रादास्पद दिषय है विवाहित पुत्रियाँ तो दूसरे घर की हो जाती हैं किन्तु अविवाहित और विधवा कन्याश्रों को उत्तराधिकार का कुछ भाग मिलना न्याय होगा--यद्यपि इस संबंध में वैधानिक रूप से कन्याश्रों की स्थिति खराब है तथापि व्यवह्वार में उससे अपेक्षाकृत अच्छी है। कन्याश्रों को विवाइ ओर श्रन्य अ्रवसरों पर पिता की सम्पत्ति का थोड़ा-बहुत अंश मिलता ही रहता है। हिन्दू कोड त्रिल भारतीय स्रीसमाज की उत्तराधिकार सम्बन्धी हीनताश्रों तथा अ्रन्य विषमताश्रों को दूर

श्रृष प्रबन्ध-प्रभाकर

करने के (लिए संतद्‌ में उपस्थित किया जा रहा है, किन्तु लोकमत इसके बहुत पत्त में नहीं, है | उसमें कुछ बातें, जेसे, बहुविवाइ-निषेध, श्रच्छी हैं; किन्तु सत्र बातों में पश्चिम का श्रनुकरण श्रेयस्कर नहीं है

यद्यपि हिन्दू-समाज में स्त्रियों की स्थिति वैसी नहीं जैसी कि होनी चाहिए तथापि उनकी हींन स्थिति के सम्बन्ध में श्रतिरक्षना भी अधिक हुई है। स्नी शग्रधिकांश घरों में णह की स्वामिनी है। उसका बच्चों पर ही नहीं वरन्‌ पति पर भी यथोचित अधिकार रहता है | प्रायः हिन्दू-सदृण्हिणियाँ स्वयं मितव्ययिता के पक्त में रहती हूँ; इसलिए, उन पर कोई भी विशेष नियन्त्रण नहीं रहता माता भगिनी और पुत्रियों को तथा पुत्र-चधुओ्रों को पुरुषों-द्वारा आदर सत्कार ही मिलता है। यत्रपि कभी-कभी पुत्र-त्रधुओं ओर उनकी सासों में खट-पट हो जाती है तथापि घर का मालिक उनको वात्सल्य की दृष्टि से ही देखता है। पुत्रियाँ दूसरे घर की हो कर भी पैतृक भवन में पर्यात् अधिकार रखती हैं। भाई-बहन का सम्बन्ध बड़ा पवित्र श्रोर स्‍्नेहमय माना जाता है। यद्यपि लड़कियों की शिक्षा पर उतना व्यय तो नहीं होता जितना कि लड़कों की शिक्षा पर, तथापि उनकी शिक्षा में धन-व्यय करने पर कोई प्रतित्रन्ध नहीं है। त्रियाँ समाज में तथा राजनीतिक क्षेत्रों में अपना श्रस्तित्व प्रकट करती जा रही हैं। पर्दे की प्रथा भी बहुत अंश में उठ गई है और विवाह की रीतियों में भी बहुत सुधार हो गया है। अनत्र समाज से यह भावना भी उठती जा रही है कि त्लियाँ उफ्मोग मात्र की वस्तुएँ हैं

त्लियों को बन्धन में रखने के खिलाफ हिन्दू समान में काफी हलचल श्रोर प्रतिक्रिया है कहीं-कहीं यह प्रतिक्रिया उच्छुंखलता का रूप धारण करने लगी है | परिचम का अन्धानुकरण होने लगा है। गणहलक्चिमियाँ प्रा कहलाने की अपेक्षा मेम-साहइबा कहे जाने में अधिक गोरव का अ्रनुभव करती हैं। वेशभूषा, श्रंगराग श्रोर केशविन्यास में पश्चिमी सभ्यता अ्रधिक परिलक्षित होने लगी दे मातृत्व की परवाह नहीं की जाती | यह शिक्षा का परिणाम नहीं वरन्‌ पाश्चात्य देशों के अ्रन्धानुकरण का फल है। श्रार्थिक स्वा- तन्व्य की मोंक में स्नियाँ कोमलता और कला के क्षेत्र से हट कर संघष के ज्षेत्र

हिल्यू समाज में त्त्रियों का स्थान ३२६

में प्रवेश करती जाती हैं हम उनको उच्च क्षेत्र से बह्ष्कृत करना नहीं चाहते, किन्तु संसार के हित के लिए. उनका अपने ही क्षेत्र में रह कर सौन्दय्य, साम्य आर शान्ति की शक्तियों का संचालन करना श्रधिक श्रेयस्कर होगा यदि त्नियाँ भी संहार कार्य में प्रवृत्त हो जाये तो जीवन में जो रक्षा ओर संहार का संतुलन है वह त्रिगड़ जायगा यदि पुरुषों ने नारी के श्रात्म-समपंण को उसकी दुबबलता समझ कर उसका दुरुपयोग किया है तो उसके त्याग करने की आवश्यकता नहीं वरन्‌ पुरुष को दृदृता-पूर्वंक बतला देना चाहिए, कि वह समपंण द्वृदय की स्वेच्छा से है, किसी श्राथिक विवशता से नहीं यदि नाक पर मकखी बैठती है तो नाक काट डालने की आ्रावश्यकता नहीं। इसी प्रकार पश्चिम की देखा-देखी मारतौय समाज में सम्बन्ध-विच्छेद (तलाक) की भी चर्चा होने लगी है। विवाइ-बन्धन को सुखमय ओर ककंशताशून्य बनाने की आवश्यकता है, तोड़ने की नहीं उलभी हुई गांठ को सुलझा देना उसको काट देने की श्रपेत्षा कहीं भेयस्कर है | ज्रियों की परिस्थिति सुधारने के लिए ज्ली श्र पुरुष दोनों के सहयोग की जरूरत है ज्री को केवल माता या पत्नीमात्र समझना पुरुष की भूल है | केवल पुरुष के मनोरञ्ञन की योग्यता या श्राथिक स्वतन्त्रता प्रदान करने को त्री-शिक्षा का परम लद्य समझना शिक्षा की विडम्बना है। पुरुष को यह भूलना चाहिए, कि नारी का भी व्यक्तित्व है उसका व्यक्तित्व पुरुष के व्यक्तित्व से भिन्‍न है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं श्रोर ज्री-पुरुष परस्पर श्रात्मसमपंण द्वारा एक दूसरे के भार को हलका कर सकते हैं जग जीवन मानव के सेंग हो मानवी प्रतिष्ठित [ प्रेम स्वग॑ हो धरा मधुर नारी महिमा से मण्डित , नारी-मुख की नव किरणों से युग प्रभात हो ज्योतित [पंत

५२ कया युद्ध अनिवाये हे ?

मनुष्य विकसित जीव कहा जाता है। उसने श्रपना चोला बदल दिया है ओर केवल जीव-विशान कौ विश्लेषक दृष्टि में वह बन्दरों का वंशज वा समगोत्री माना जाता है। विद्या-बुद्धि में ठसने आश्चयेजनक उन्नति की है। भोतिक चल में वह पशु-समुदाय से पिछड़ा हुआ है किन्तु उसकी कमी उसने अपने बुद्धि- बल से पूरी कर ली है। वह घोड़े के समान दोड़ नहीं सकता, किन्तु उसकी बनाई रेलगाड़ी ने तेजी और बोभा ढोने की शक्ति में घोड़ों को कहीं पीछे छोड़ दिया है| मनुष्य के पर नहीं हैं, किन्तु उसके बनाये हुए वायुयानों ने आ्राकाश- मार्ग में जल और थल से भी श्रधिक वेगवती गति प्राप्त कर ली है। उसके बेतार के संवाद 'मनोजवं मार्ततुल्यवेगं' से सारी प्रथ्वी की परिक्रमा कर लेते हैं। मनुष्य में बाघ श्रोर चीते का बल नहीं है, किन्तु उसके हाथ की बनाई हुई एक गोली भयड्ूर से भयड्भर शेर को भी चारों खाने चित सुला देती है |

मनुष्य ने नेतिक उन्नति भी पर्यात रूप में की है। उसने विज्ञान के सहारे जीवन के उपकरणों को सुलभ बना कर संघष को बहुत कम कर दिया है। जीवन-संग्राम ( 50प66८ 0 ८१($(८८८९ ) और योग्यतम की अ्रवस्थिति ( 5पाशं५४/| "८ ॥025 ) डार्विन द्वारा विकास के मूल कारण माने गये हैं। फिर भी मनुष्य ने इस जीवन-संग्राम की घातकता को बहुत अंशों में दूर कर दिया है। अब जीवन-संग्राम व्यापार में ही श्रधिकांश रूप से संकुचित हो गया है। इस संघष की कमी में ही मनुष्य की मनुष्यता है श्रोर उसका परम गौरव है। उन्नति के रक्तदीन साधन ही मनुष्य को पशु-समाज से ऊँचा उठाये हुए हैं। इतनी उन्नति होते हुए. भी मनुष्य की स्वाथ-परायणता उसको पशु-समाज से भी नीचा गिरा देती है जब्न उसके भीतर का पशु जाग उठता है तो उसके खुद्धिअल-विशिष्ट पंजों श्रोर दाँतों की संहार-शक्ति सीमा से बाइर हो जाती है

मनुष्य की सामानिक उन्नति ने व्यक्ति के संघ को बहुत कम कर दिया है। व्यक्ति का बदला व्यक्ति नहीं लेने पाता वरन्‌ समाज लेता है। इस प्रकार आजकल पुराने जमाने की सी खूनी वैर की परम्परा बहुत काल तक नहीं चलने

क्या युद्ध अनिवाय है! ३३१

पाती | समाज की सामूहिक शक्ति पारस्परिक विरोध को बहुत श्रंश में नियंत्रित रखती है किन्तु जहाँ जन-समूहों श्रौर जातियों में संघ होता है वहाँ किसी विश्व-व्यापिनी शक्ति के श्रभाव में स्वाथ का न्याय-निणय युद्ध के न्यायालय में ही होता है। उस समय अ्रस्र-शसत्र संचालन-बल ही न्याय का माप-दंड बन जाता है। जिसकी लाठी उसकी मैंस की नीति चरिताथ होने लगती है। संहार- काय व्यक्तियों के सम्बन्ध में तो दंडनीय समझा जाता है, किन्तु जब वह किसी राष्ट्र के अधीन संगठित रूप से होता है, तो वीरत्व, देशभक्ति ओर सम्यता के भव्य नामों से पुकारा जाने लगता है। उस सपय लूट-खसोट, धघोखेब्राजी ओर हत्या सभी क्षम्प हो जाती हैं (५८५ (6 5 था 077८ थात॑ ७वा) | श्रत्र सभ्यता में इतनी उन्नति श्रवश्य हुई है कि कोई केवल साम्राज्य-वृद्धि के नाम पर युद्ध नहीं छेड़ता श्रत्र युद्ध सभ्यता और संत्कृति के प्रसार, न्याय ओर शान्ति की स्थापना आदि जैसे प्रदशनीय, भव्य श्रोर विशाल उद्देश्यों से किये जाते हैं, किन्तु उनके भीतर अपने व्यापार की उन्‍नति और अपनी जाति के लोगों की सुख-समृद्धि का श्रघखुला उद्देश्य सन्निह्िित रहता है। कभी-कभी आक्रमणकारी से रक्षा के लिए भी युद्ध छेड़ना पढ़ता है | युद्ध की सब से बड़ी समस्या यही है कि शक्तिशाली श्राक्रमणकारी की स्वार्थान्धता सारे संसार को युद्ध के वात्याचक्र में डाल देती है। साम्राज्यवादी राष्ट्र अपने व्यापार को फैलाने की धुन में छोटे राष्ट्रों को धर दत्नाते हैं उस समय श्राक्रान्त राष्ट्रों के लिए दो ही रास्ते होते हैँ; या तो श्राक्रमणकारी की श्रधीनता स्वीकार कर श्रपना स्वस्व नाश करें श्रथवा प्रत्याक्मण ओ्रोर मोचे्न्दी में जन-संहार को आश्रय दें। आत्मरक्षा के लिए प्रायः दूसरी बात का ही अवलम्धन करना पड़ता है सभ्यता के इतने विकास द्वो जाने पर युद्व के श्रनेक कारण बने हुए हैं| वेशानिक उन्नति के साथ बढ़ते हुए उत्पादन की खपत और बढ़ती हुई जन संख्या के लिए. काम की खोज तो कारण हैं ही किन्तु वतमान युग में जातीय श्रेष्ठता की, भावना जैसी यूरोप ओर श्रमरीका में है, रंग भेद की नीति जेसी दक्षिण अफ्रीका में चल रही है, धम भेद की भावना जैसी पाकिस्तान में चल रही है, विचार धारा का भेद जैसा रूस और श्रमरीका में चल रहा है, निध्टित

३३२ प्रभनन्‍्ध- प्र भाकर

स्रार्ों को छोड़ना जैसे अंग्रेज और फ्रांसीसी कर रहे हैं (भारत में तो परिस्थितियों के वशीभूत हो श्रग्रेज़ों ने कृपा की है ) ऐसे सभी कारण युद्ध की आग भड़काने को सदा तैयार रहते हैं; किन्तु पिछले महायुद्धों के संहार से डरे हुए राष्ट्र एक साथ युद्ध में प्रवृत्त होने का साइस नहीं करते |

मानव जाति में युद्ध का रोग बहुत पुराना है ओर हर एक युद्ध युद्ध का अन्त करने के लिए ही होता है, किन्तु उसमें भावी युद्ध के बीज सुरक्षित बने रहते हैं, जो कि समय पा कर अह्ढ रित हो उठते हैं। यह कहना कठिन है कि मनुष्य स्वभाव से ही युद्धप्रिय है मनुष्य का द्वदय वज़् से भी कठोर हे ओर कुसुम से भी कोमल है। कुरुक्षेत्र के रणाज्ञण में बीर अ्रजुन॒ की कातर पुकार कि 'रुधिर-प्रदग्ध राज्यभोग से भिन्षावृत्ति अ्रच्छी है मानव-हृदय की कोमलता की द्योतक है ओर भगवान कृष्ण का 'कमंण्येवाधिकारस्ते' का उपदेश कत्तंव्य की कठोरता का परिचायक है | इतना जन-संहार होने पर भी पाण्डव लोग विजयश्री का बहुत दिन तक उपभोग कर सके फिर भी वह अ्रन्तिम युद्धन था। उसके बाद कितने ही युद्ध हुए ओर सबसे बुरे वे युद्ध थे जो गरह- कलह से प्रेरित हो कर आपस की मारकाट में परिणत हुए और जिनका वरणन वीर-गाथा के श्रवण-सुखद नाम से पुकारा गया | प्रथम महायुद्ध की विभीषिका से संसार ने आँख खोली ही थी कि द्वितीय महायुद्ध का दानव श्रा खड़ा हुआ श्रभी यद्द युद्ध पूरी तरह समाप्त हुआ था कि तीसरे मह्दायुद्ध की आशंका होने लगी कोरिया-युद्ध की संधिवार्ताएँ ज्ञितिज की भाँति सदा वूर हटती जा रही हैं | अ्रड़तीस अ्रक्ञांश को पार करना युद्ध को बनाये रखने की इच्छा का द्योतक था। मध्य एशिया की जाग्रति साम्राज्यवादी देशों में खलब्नली पैदा कर रही है। मिल और ईरान अंग्रेजों के सर दद के कारण बन गये हैं लाल चीन के प्रश्न पर अंग्रेजों झरोर अमरीका वालों में भी मतमेद है। जापान में संधि हो जाने पर भी अ्रमरीका श्रपना प्रभुत्व बनाये हुए है। जमेनी के सम्बन्ध में भी रूस ओर अमरीका में मतमेद है कश्मीर की समस्या अ्रभी उलभी हुई हे किन्तु भारत युद्ध के साधन को यथा-पम्मव प्रयोग में नहीं लायेगा युद्ध के लिए, श्रनेकों कारण उपस्थित हैं; युद्ध की

क्या युद्ध अनिवाय है ! १३२

तैयारियाँ भी खूब हैं एटम बम का भी दादागुरु हाइड्रोडन बम तैयार हो गया है। कीटासु युद्ध की बात चल रही है | सब्र एक दूसरे का बल तोल रहे हैं। सब एक दूसरे से भयभीत हैं | युद्ध रुका हुआ है ; किन्तु श्रभी हम उस नैतिक स्तर तक नहीं पहुँचे है जिसमें युद्ध की सम्भावना रहे | मनुष्य का वैज्ञानिक बल जितना बढ़ा है युद्ध उतना ही अधिक संहारक हो गया है कल के बल से वर्षों का काय घंटों में समाप्त हो जाता है। युद्ध की प्रचंड ज्वाला में दोनों ओर से धन-जन का स्वाह्य होता है। देश का सारा उत्पादन-कार्य जन-संह्दार के श्रथ किया जाता है युद्ध की विभीषिका के कारण कोई सुख की नींद नहीं सोने पाता शोर युद्ध के बाद अ्रकाल और महँगी जनता की जान चूस लेती हैं। किन्तु शक्तिशाली राष्ट्र अपने शक्ति-मद में युद्ध की भीषणताओं को भूल जाते हैं। अ्रमरीका आदि देशों में मानवता का इतना प्रचार होते हुए मनुष्य की जान का अधिक मूल्य नहीं। महायुद्धों में इतनी जाने गई, इतने घर बरबाद हुए, इतनी कलाकृतियाँ नष्ट हुईं कोरिया- धुद्ध में भी हताहतों की मात्रा भीषणता को पहुँच गई है, किन्तु युद्ध को विराम नहीं जिन देशों में युद्ध का ताण्डव हो रह्या था उनके द्वाह्कार ओर

करुणा-कऋन्दन से विश्व गूज रहा था। कोई ऐसा घर होगा जहाँ अपने प्रिय- जनों के लिए शोक हो शोक मनाने की भी किसी को फुसत नहीं थी। श्री सियारामशरण जी ने श्रपने उन्मुक्क नाम के खण्डकाव्य में एक काल्पनिक युद्ध का बणन करते हुए वर्तमान युद्धों के भीषण संद्वार का एक बढ़ा द्वदय- द्रवक चित्र खींचा हे | देखिए---

बरस पढ़े विध्वंस पिश्ड सो सो यानों से।

सुना सभी ने बघषिर हुए. जाते कानों से॥

उनका,-कक्‍्या में कहँ--घोष दुर्घोष भयझ्ूर।

प्रेतों का सा अ्रइ्ृदास, शत शत प्रलयह्डर

उल्काओं का पतन, वज़पातों का तजेन।

नीरव जिनके निकट--हुआ ऐसा कु गजन

३३४ बन्ध-प्रभाकर

कुछ ही क्षण उपरान्त एक श्रद्धांश नगर का, युग-युग का श्रम-साध्य साधना फल वह नरका , ध्वस्त दिखाई दिया चिकित्सालय, विद्यालय , पूजालय, गह-भवन, कुटीरों के चय के चय , गिर कर अश्रपनी ध्वस्त चिताश्रों में थे जलते , कहीं उब्लते, कहीं सुलगते, धुआञ्लाँ उगलते॥ इन रोमाश्वकारी दृश्यों के श्रस्तित्व में भी युद्ध की शड्लला अद्वट बनी हुईं देख कर यह प्रश्न उपस्थित द्वोता है कि क्‍या यह ध्वंस अनिवाय है ? क्‍या युद्ध जन-समाज की अ्रदम्य आवश्यकता है ? कोई भी इस ध्वंस के पक्त में नहीं हो सकता, किन्तु करना सभी को पड़ता है। जिन राष्ट्रों के पक्त में नीति ओर न्याय होता है, जो केवल आत्म-रक्षा के लिए हो युद्ध में शामिल होते हूँ उनको भी नीति ओर न्याय की रक्षा के लिए जन-संहार का आश्रय लेना पड़ता है। किन्तु उसके लिए जितना बलिदान ओर जन-संहार होता है, क्‍या वह श्रनिवाय है? क्‍या विश्व-शान्ति का कोई उपाय नहीं है ? युद्ध रोकने के लिए जितने उपाय सोचे गये वे सब्र निष्फल हुए | लीग आफ नेशन्स की स्थापना हुई, किन्तु उसका अधिकार किसी ने माना उसके अस्तित्व में आते ही उसके शासन से बाहर भांगने का उद्योग हुआ्रा निःशसत्रीकरण एक सुख-स्वप्न ही रह्य | संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना दूसरे महा- युद्ध के बाद हुई। किन्तु वह भी राष्ट्रीय समस्याओं को सुलभाने में अ्रसमथ रहा कश्मीर का मामला राष्ट्रसंघ को सोॉंप कर भारत ने क्‍या लाभ उठाया उसके पातत कोई शक्ति भी नहीं जिससे अपने निश्चयों को मान्य करावे उसमें शक्तिशाली राज्यों का प्रभुतव है नीच ऊँच का उसमें भी भेद हे। वीटो का अधिकार शक्तिशालियों के ही द्वाथ में है सिक्‍यूरिटी कोंसिल में बड़ों का ही अधिकार है। बड़ों ने अपने स्वाथ को पूरी तौर से सुरक्षित रक्‍्खा है। इन बातों को देख कर कुछ लोग तो यह कहने लग जाते हैं कि युद्ध जीव-विशान की एक आवश्यकता है ( १४/व 5 9 0० ०दा८9 ॥८८८५४(४५ ) | वे कहते हैं कि जीवन के उपकरणों के उत्पादन की श्रपेत्ञा जन-संख्या की वृद्धि कहीं

क्या युद्ध अनिवाय है ? ३३५

अधिक हो रही है। यदि जीवन के उपकरण १, २, रे, ४, के श्रनुपात में बढ़ते हैं तो जन-संख्या २, ४, ८, १६ के अ्रनुपात में दिन-दूनी रात- चोगुनी बढ़ती है इसलिए, जन-संहार द्वारा जन-संख्या जीवन के उपकरणों के अनुपात में बनी रहती है। इसीलिए प्रकृति बीमारियाँ उत्पन्न करती है। किन्तु अब बढ़ते हुए. विज्ञान ने माल्यस ( जैं8005 ) की इस कल्पना का खोखलापन प्रमाणित कर दिया है। विज्ञान की सहायता से जीवन के उपकरण भी उसी परिमाण में बढ़ाये जा सकते हैं। यह मानना तो ठीक होगा कि युद्ध जीव-विशान की आवश्यकता है श्रोर यह मानना सत्य-संगत है कि युद्ध से हमारे उद्योग और व्यापार में उन्नति होती है युद्ध के दिनों में आविष्कार अवश्य हुए हैं, कुछु कल-कारखानों में भी गति जाती है श्रोर लोग बेकार नहीं रहते; किन्तु युद्ध में व्यापार नष्ट भी हो जाते हैं कल-कऋरखाने बम-विस्फोटों के कारण ध्वस्त भी हो जाते हैं जन-संहार का तो पूछना दी क्या | शान्ति में जो व्यापार का विकास होता है वह बहु-जन-हिताय होता है शान्ति की विजय युद्ध की विजय से अधिक महत्त्वपूण होती है

युद्ध के सम्बन्ध में यही कहना पड़ेगा कि मनुष्य का नैतिक विक्रास उसके बोद्धिक विकास के अनुपात में नहीं हुआ साहित्य भी नीति की उपेक्षा करता है। साहित्य ने राष्ट्रीयता का प्रचार किया है, श्रन्तरोष्ट्रीयगा का नहीं राष्ट्रीयता की भावना पिछड़े हुए देशों के उत्थान के लिए आवश्यक होती है आर गुलामी की जंजीरों को काटने में भी सहायक होती है; किन्तु उसकी सीमाएँ होती हैं। उन सीमाओ्रों का अतिक्रमण करना मानव ह्वितों के प्रतिकूल जाना होता है | जी ओर जीने दो की नीति राष्ट्रों के लिए. भी उतनी ही आवश्यक है जितनी को व्यक्तियों के लिए, | राष्ट्रीयता यदि देश के लिए आवश्यक है तो अन्तर्राष्ट्रीय विश्व-शान्ति के लिए अनिवाय है। अनन्‍्तराष्रीयता के पक्त में विश्व- कवि रवीन्द्रना ठाकुर को नेशनलिज्प (५ 800ा9३्षौजा) श्ादि पुस्तकों में अवश्य लिखा गया है, किन्तु यह उद्योग समुद्र में बूद के बराचर हे। महात्मा गांधी ने मानवता का प्रचार किया उन्होंने दूसरे युद्ध के प्रारम्भ से पहले राष्ट्रों से और हिटलर से भी युद्ध में प्रवृत्त होने की अ्पीज्ञ की; किन्तु वह आवाज तोपों

रे ३े पे प्रबन्ध-प्र भाकर

के नकारखाने में विलीन हो गई धार्मिक एकता भी काम आई। इईसाई- ईसाई लड़े | स्वाथ, चाद्दे वह व्यक्तियों का हो चाहे राष्ट्रों का, बड़ी बुरी बलाय है। राष्ट्रों के दश्कोण में श्रामूल परिवरतन की आवश्यकता है। जो नीति वैयक्तिक सम्बन्ध में बरती जाती है, वह श्रन्तर्याट्रीय सम्बन्ध में नहीं बरती जाती | शक्ति के कम करने की आवश्यकता नहीं वरन्‌ उस के संतुलन की आवश्यकता है। संतुलन स्थापित करने के लिए बल-प्रयोग अवश्य करना पड़ेगा, किन्तु उसका आधार नीति और न्याय होना चाहिए. विजय के लिए, पूरा प्रयत्न किया जाय, किन्तु विजय प्राप्त होने पर दबे को इतना दबाया जाय कि उसमें प्रतिक्रिया उत्पन्न हो विजित के साथ उदारता का व्यवहार किया जाय तभी विश्व में शांति का स्वप्न देखा जा सकता है। जिन बन्धनों से विजित को बाँधा जाय उनका स्वयं तिरस्कार किया जाय

दानव को शक्ति का होना बुरा नहीं किन्तु उसका दानवी प्रयोग होना चाहिए | विश्व-शान्ति के लिए एटम बम ओर हाइड्रोजन बम की श्रावश्यकता नहीं। वे तो भय का कारण उपरिथत कर पारस्परिक श्रविश्वास की सृष्टि करेंगे | अविश्वास में शान्ति की भावना पनप नहीं सकती | पारस्परिक सहयोग ओर सुरक्ञापूण विश्वमैत्री का विचार ही विश्व में शान्ति को चिरस्थायी बना सकता है। संहार की अ्रपेज्षा रक्ता का अ्रधिक महत्त्व है। मनुष्य में प्रभुत्व की भावना अ्रवश्य है किन्तु आत्म-रक्षा की भावना उससे कम प्रबल नहीं है। संहार भी रक्षा के लिए होता है। रक्षा के कारण विष्णु भगवान को देवताओं में सर्वोच्च स्थान मिला दै। च्वति या हानि से जो परित्राण करे वही सच्चा क्षत्रिय है। राष्ट्रों में सच्चे ज्ञत्रिय की भावना उत्पन्न होनी चाहिए.। इसके लिए सत्‌-शिक्षा श्रोर सत्‌-प्रचार की ग्रावश्यकता है। हमारा दृष्टिकोण राष्ट्रीय हो कर अन्तर्राष्ट्रीय होना चाहिए राष्ट्रीयता वहीं तक क्षम्य है जहाँ तक कि श्रपने राष्ट्र को दुसरे राष्ट्रों के बराबर लाने का प्रयत्न हो | अन्तर्राष्ट्रीया के प्रचार के लिए, उन्नत राष्ट्रों का यह कतब्य द्दोना चाहिए. कि वे पिछड़े हुए राष्ट्रों को अपने बरात्रर लाने में सहायक हों | दूसरों की कमजोरी दूर करना शक्तिशाली राष्ट्रों का धम हे कमजोर जब तक कमजोर रहेंगे तम्न तक वे दूसरों की

क्या युद्ध श्रनिवाय है ? ३२७

राज्य-लिप्सा के केन्द्र बने रहेंगे ओर जन्र तक यह लिप्सा रहेगी तब्र तक विश्व- शांति एक सुख-स्प्रप्म ही रहेगी |

मनुष्य को अपने मनुष्य होने का गोरव होना चाहिए. | युद्ध मनुष्य में पशुता के प्रात्रल्य का प्रतीक है | हमें पशुता से ऊँचा उठना है। मनुष्यता इस बात में नहीं कि हमने अपना या अपनों का कितना भला किया वरन्‌ इसमें कि हमने दूसरों को कितना उठाया गोस्वामी जी ने ठीक ही कद्दा है--

ग्रापु आपु कहें सन्च भलो, अपने कहेँ कोइ कोइ तुलसी सब कहूँ जो भलो, सुजन सराहिओ्रि सोइ

दूसरों को उठाने से हम स्वयं भी उठेंगे ओर हमारा नेतिक मान बढ़ेगा आजकल शक्ति की उपासना बेत्रसी की उपासना समभी जाती है। उसका नेतिक मूल्य नहीं होता नीति की उपासना स्वातन्त्य की उपासना है राष्ट्रों में भय की प्रीति हो कर प्रीति का भय होना चाहिए। संहार ओर भौतिक बल का संघ्रष तो जानवरों में होता है, मनुष्य जानवरों से इसलिए ऊँचा है कि वह बिना संद्वार के भी विज्ञान के सहारे उन्नति करता है। मनुष्य को अपना यह गोरव अक्ष एण रखना चाहिए। यदि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में उसी न्याय और नीति का व्यवहार होने लगे जिसका वेयक्तिक संबंधों में द्वोता तो युद्ध अनिवाय नहीं है। यदि न्याय की स्थापना के लिए संद्वार का आश्रय ले कर पारस्परिक समभोते से काम लिया जाय तो मनुष्य जाति का गोरव स्थापित होगा विज्ञान के चमत्कारों को यदि मानवहित-सम्पादन के काम में लाया जायगा तो विज्ञान का नाम साथक होगा ओर मनुष्य अ्रपने बुद्धिबल पर वास्‍्तविक गये कर सकेगा

एटम शक्ति को व्यापार की उन्नति में लगाना चाहिए सत्य के उपासक वेज्ञानिकों को शिव की भी आराधना करना आवश्यक है। उनका राष्ट्रीयता के संकुचित बन्धनों से ऊँचे उठ कर मानवता का उपासक बनना वांछुनीय दे विशान का ज्ञान संकुचित होना चाहिए। अपने ज्ञान को संहारकाय में लगाना उनको अपनी विद्या का अपमान मानना होगा, तभी विश्व-कल्याण की श्राशा हो सकती है। साहित्पिकों को वैज्ञनिकों और राष्ट्र-

शेशे८ प्रमन्ध-प्रभाकर

नेताओं में अन्तराष्ट्रीय भावना जाग्रत करनी होगी यदि संहार की वृत्तियों की अपेक्षा आत्म-रक्षा की भावना को प्रोत्साहन दिया जाय और सच्चा स्वा्थ शान्ति ओर सहयोग में माने जाने का प्रचार किया जाय तथा राष्ट्रों में ऊँच- नीच के भेद मिठाये जाने का उद्योग हो तो युद्ध श्रनिवाय नहीं रहेगा |

५३. गांधीवाद, समाजवाद, साम्यवाद

मनुष्यत्व का तत्व सिखाता निश्चय इमको गांधीवाद,

सामूहिक जीवन-विकास की साम्य-योजना है अविवाद

--श्री सुमित्रानन्दन पंत संसार में जो हलचलें, क्रांतियाँ और मौलिक परिवतन होते हैं उनका मूल खोत विचारों में ही पाया जाता है भोतिक बल भी विचारों का सहायक और अनुगामी होता है फ्रांस ओर रूस की क्रान्तियाँ भी विचारों के फल- स्वरूप ही अस्तित्व में आई थीं। हिटलर और मुसोलिनी के पीछे भी विचार ही काम कर रहे थे। आजकल के भारतीय राजनीतिक विचारत्तेत्र को तीन विचार-सूत्र प्रमुख रूप से प्रभावित कर रहे हैँ। वे हँ--गांधीवाद, समाजवाद

ओर साम्यवाद ये ही वतमान आन्दोलनों कीं प्रेरक शक्तियाँ हैं

गांधीवाद

गांधीवाद कोई नया वाद नहीं है। भारत की सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, सेवा ओर क्षमा की वेष्णवी ओर जैन भावनाओ्ों का वर्तमान राजनीति के वातावरण में प्रस्तुत किया हुआ नया संस्करण है। उसको हम इन भावनाओं का राजनीतिक प्रयोग कह सकते हैं। महात्मा गांधी ने राजनीति को आध्यात्मिक आधार शिला पर प्रस्थापित कर उसका मान ऊँचा किया; उन्होंने उसको कूटनीति की कोटि से उठा कर धम-नीति के रूप में देखा है। उनका समता का भाव आस्तिकता- समन्त्रित है अनन्‍्तरात्मा को ही वे अपने सब कार्या की प्रेरक शक्ति मानते हैं

आ्राध्यात्मिक आधार

गांधीवाद, समाजवाद, साम्यवाद १३६

(इशावास्पमिदं सर्वे यत्किश्च जगत्यां जगत! की उपनिषद्‌ प्रदत्त शिक्षा उनके अपरिग्रह की भावना का मूल आधार है। 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां समा- चरेत्‌' श्रीमद्भगवद्‌्गीता की आत्मौपम्य दृष्टि का उपदेश उनके न्याय के पीछे काम करता है। इसी न्याय की भावना को ले कर वे हरिजन आन्दोलन में प्रवृत्त हुए वेष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाणे रे” का वैष्णव गीत उनकी सेवा-भावना को बल प्रदान करता है भारतीय तप और त्याग की आत्मा उनके सिद्धान्तों में मुखरित होती है हिन्दू श्रौर जैन संस्कृति के पंच महाप्रतों--सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचय, अ्रस्तेय ( चोरी करना ), अपरिग्रह ( घन- सम्पत्ति का संग्रह करना ), में श्रस्वाद ( स्वाद की परवाह करना ), अ्रभय, अस्पृश्यता-निवारण, शरीर-श्रम, सवंधर्म-समभाव और स्वदेशी जोड़ कर एका- दश ब्रत उनकी जीवनचर्या के मूल सूत्र हैं। उसमें टाल्सघ्टयाय ओर रघ्किन की सादे जीवन की पुकार प्रतिध्चनित होती है। इसी आध्यात्मिक प्रष्ठभूमि पर उन्होंने अपने सिद्धान्तों का हढ़ भवन तैयार किया है। आइए उसके विभिन्न पत्तों पर दृष्टिपात कर गांधी जी का अ्रथंशासत्र भी धम और न्याय पर अवलम्बित है। वे जानते हैं कि दुनिया इतनी सम्पन्न नहों हे कि वह सब्र की मांग को पूरा कर सके इसीलिए वे सरल जीवन ओर अ्रपरिग्रह पर बल देते आशिक हैं। आत्म-निभरता, स्वावलम्बन ओर मजदूरों के साथ न्याय के निमित्त वे ग्रह-उद्योगों के पक्त में हैं | जहाँ मशीन से काम होता है वहीं शोषण का सूत्रपात हो जाता है श्रोर मशीन से बने हुए. अतिरिक्त माल की खपत के लिए, साम्राज्यवाद की नींव पड़ती है। चर्खा उनकी अथ- नीति का मूल मन्त्र है | खादी शुद्धता और पविन्नता का प्रतीक है। उसमें शोषण की कालिभा नहीं श्रौर हाथ से बनी होने के कारण वह एक विशेष आत्मीय भाव से सम्पन्न रहती है गांधीवाद पूँजीपतियों को एकदम निमूल करना नहीं चाहता बरन्‌ वह उनको समाज में मजदूरों की सम्पत्ति के संरक्षुक रूप से बनाये रखने में सहमत है। गांधीवाद चाहता है कि पूजीपति श्रतिरिक्त लाभ रक्‍्खें किन्तु वे उसका

३४० प्रबन्ध-प्रभा कर

उपयोग मजदूरों के हित में करें गाँधीजी वर्गसंघर्ष नहीं चाहते थे वरन्‌ वे सर्वोदय के पक्त में ये वे उपदेश ओर घम-नीति से ही पू जीपतियों का हृदय- परिवतन चाहते थे | श्रहिंसात्मक प्रयोगों द्वारा यदि पूजीपति हटठाये जा सकते तो उनको कोई आपत्ति थी। गाँधी जी साध्य की उत्तमता के साथ साधनों की भी उत्तमता के पक्त में थे सामाजिक--गांधी जी सामाजिक विषमताश्रों में विश्वास नहीं करते थे। ये श्रीमद्भगवद्गीता के नीचे के श्लोक को जीवन में चरिताथ करते रहे थे-- विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मण गवि हस्तिनि शुनि चेव श्वपाके पणिडताः समदर्शिनः इसी भावना को ले कर उन्होंने हरिजन आन्दोलन को अपने कार्य-क्रम में प्रमुखता दी | वर्णु-व्यवस्था में गांधीवाद उसी अंश में विश्वास करता है जहाँ तक कि वह किसी दूसरे के लिए अपमान-जनक द्वो। राजनीतिक विषमताओं को दूर करने के लिए गांधी जी सामाजिक विषमताश्रों को दूर करना अनुल्लज्ड- नीय सोपान मानते थे | इसीलिए उनके रचनात्मक कार्यों में अस्पृश्यता-निवारण को प्रमुख स्थान मिला था उन्होंने हरिजनों के रहन-सहन को ऊँचा उठाने में बहुत कुछ योग दिया था। वे स्वयं भी वाल्मीकि बस्ती में ठहरते थे ओर हरिजनों का हीनता-भाव दूर करने को हरिजन-बृत्ति घारण करने में हिचकिचाते नहीं थे राजनीतिक--गांधी जी की राजनीति मानवता-मूलक है। गांधीवाद में उस संकुचित राष्ट्रीयता के लिए, जो दूसरों को आक्रान्त करती है, स्थान नहीं दे उसका मूल स्वर है 'जीओ ओर जीने दो! वह साम्प्रदायिक भेदों से परे हे | हिन्दू ओर मुसलमान सब्र राष्ट्र के लाभों के समान रूप से अधिकारी हैं गांधी जी यामराज्य के आदश में विश्वास करते थे गोस्वामी तुलसीदास जी ने आदश राज्य के रूप में रामराज्य का इस प्रकार वर्णन किया है :--- वयद कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥ ०५ २५ २५ सत्र नर करहिं परस्पर प्रीती | चलहिं सुधम निरत श्रुति नीती

गांधीवाद, समाजवाद, साम्यवाद शे४१

सब निर्देभ धर्मरत पुनी। नर अरू नारि चतुर सब गुनी॥ सब गुनग्य पंडित सन्च ग्यानी | सत्र कृतग्य नहिं कपट सयानी इस आदश में पूर्ण मानसिक साम्य के साथ नीति और न्याय पर अभ्रित भोतिक सम्पन्नता समन्वित है। अ्रगस्त सन्‌ १६४२ में अंग्रेजों के प्रति भारत छोड़ो! का नारा गांधीजी ने इसलिए उठाया कि वे विधषमता का व्यवहार करते थे ओर पारस्परिक फूट डाल कर शोषण करना चाहते थे। वह नारा उनकी दृढता का सूचक था। वैसे अंग्रेज, पारसी, ईसाई, हिन्दू, मुसलमान सब के लिए वे भारत में स्थान मानते थे वे श्रग्नेज जाति से वैर नहीं करते थे बरन्‌ अंग्रेजों के श्रन्याय-्यूण शासन के वे विरोधी थे वे प्रभु ओर शोषण के पक्त में थे

गाँधी जी की काय-पद्धति सत्य और अहिंसा पर अ्रवलम्बित थी। सत्याग्रह उनकी काय-पद्धति का मूल रूप था| वे सदा सत्य को स्वीकार करते थे। हठधर्मी उनमें थी। वे अ्रपनी भूल स्वीकार करने में कार्य-पद्धति सबसे पहले रहते थे ओर जो उनको सत्य जँंच जाता था उसके पालन में प्राण-पण से तैयार रहते ये उनके सत्या- ग्रह का काव्यमय रूप हमको श्री मैथिलीशरण जी के 'अनघर!' में मिलता हैः--

आग्रह करके सदा सत्य का जहाँ कहीं हो शोध करो ,

डरो कभी प्रकट करने में अनुभव जो भी बोध करो ,

उत्पीड़न अन्याय कहीं हो हृढ़ता सह्दित विरोध करो ,

किन्तु विरोधी पर भी अपने करुणा करो, क्रोध करो | गाँधी जी की श्रहिंता अन्याय को स्वीकार नहीं करती, वह श्रन्याय के आगे क्ुुकना नहीं जानती | बह निष्क्रिय प्रतिरोध का उपदेश देती है। उसमें घ॒ुणा को स्थान नहीं गाँधी जी की क्षमा निर्बेल की क्षमा नहीं वरन्‌ सबल की क्षमा है। वह अन्यायी का प्रतिरोध करते हुए. उससे प्यार करना सिखाती है। हिंसां का तारतम्य कभी खतम नहीं होता हिंसा से हिंसानल कभी शान्त नहीं हो सकता। हिंता का एक अहिंसा दी उत्तर है ।' गांधी जी मारने की श्रपेत्षा मर कर या कष्ट सह कर दूसरे के द्वदय-परिवतन में विश्वास करते थे वे मनुष्य

३४२ प्रबन्ध-प्रभाकर

की श्रेष्ठता में विश्वास करते थे ओर द्वदय-परिवतन के सम्बन्ध में दृढ़ आशावादी थे | वे सामूहिक बल के साथ-साथ वैयक्तिक झ्रात्मबल में भी विश्वास करते थे एक सच्चा सत्याग्रही समाज में परिवर्तन करने में समथ हो सकता है--इसीलिए उनको रवि बाबू का यह गीत--यदि तोर डाक सुने केउ आशे तबे एकला चल एकला चल रे बहुत पसन्द था। उनके लिए एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता की लोकोक्ति सवंथा ठीक थी

गांधीवाद मानवतावाद का ही दूसरा रूप है। उसमें मनुष्य की देवी शक्तियों में अमित विश्वास है वह किसी को देय श्रोर तिरस्कार योग्य नहीं समभता |

गांधीवाद जगत में आया ले मानवता का नव मान ,

सत्य अहिंसा से मनुजोचित नव संस्कृति करने निर्माण

गांधीवाद हमें जीवन पर देता अंतगत विश्वास ,

मानव की निस्सीम शक्ति का उसमें मिलता चिर आभास

समाजवाद

समाजवाद श्रोर साम्यवाद एक दूसरे से मिलते-जुलते वाद हैं। वास्तव में साम्यवाद समाजवाद का ही एक विकसित रूप या श्रवान्तर मेद है। इसके जन्म-दाता जम॑नी-निवासी काल माक्स थे। विशञान की उन्नति के साथ-साथ मशीनों द्वारा जो सामूहिक उत्पादन होने लगा उसी ने पूँंजीपतियों को बन्‍्म दिया उत्पादन के सारे साधन पूजीपतियों के हाथ में आगये ओर उसी के साथ उत्पादन के सारे लाभों पर उनका स्वत्व हो गया श्रमजीवी उत्पादक होते हुए. भी उत्तादन के लाभ से वंचित रहने लगे | उद्योग-व्यवसायों के सम्बन्ध में जो स्थिति पूजीपति श्रोर मणदूर की है भूमि के सम्बन्ध में वही स्थिति जमींदार अ्रोर किसान की है | किसान शञ्रत्न का उत्पादक हो कर भी जमींदार की धौंत सहते ओर बेगार करते जीवन बिताता है। इस प्रकार दो वर्ग हो जाते हैं-- एक शोषक वग ओर दूसरा शोषित वर्ग शासनः के सूत्र भी शोषक वर्ग के हाथ में रहते हैं, इसलिए वे शासन की सैनिक शक्ति के बल पर शोषित वर्ग के ऊपर श्ाने के प्रयत्नों को दबाते रहते हैं

गांधीवाद, समाजवाद, साम्यवाद ३४३३

भारत में किसानों के सम्बन्ध में अन्न स्थिति बदलती जाती है | जमींदारी ओर जागीरदारी का उन्मूलन हो रहा है सरकार का किसान से सीधा सम्बन्ध होता जा रहा है

पूंजीवाद ही साम्राज्यवाद के लिए भी उत्तरदायी है, क्योंकि मशीन के सामूहिक उलरादनों की खपत के लिए दूसरे देशों के बाजार चाहिएँ. ओर मशीन के द्र,त उत्यादन के कारण बेकार मनुष्यों के लिए. काम गांधी जी ने इन्हीं कारणों से मशीन के उत्पादन को हेय माना मशीन के बहिष्कार द्वारा वे उद्योगीकरण की बुराइयों को दूर करना चाहते थे; रहेगा बाँस बजेगी बाँसुरी समाजवाद ने मशीन को प्रोत्साइन दिया किन्तु सब आपत्तियों के मूल स्लोत पू जीपतियों को मिया कर वैयक्तिक उत्पादन के स्थान में उद्योगों के राष्ट्रीकरण का सिद्धान्त चलाया राज्य ही उत्पादन करेगा ओर राज्य ही उसके लाभ को श्रम्तियों में वितरण करेगा ओर जो लाभ बचेगा वह भी राष्ट्र के ही काम में आयगा |

समाजवाद का दृष्टिकोण भौतिक है वह भौतिक एवं आर्थिक परि- स्थितियों को ही विकास का कारण मानता है भोतिक परिस्थितियाँ दन्द्ात्मक भोतिकवाद ( 9े८्टांटक गर॥थांभाआ ) के सिद्धान्त के श्रनुकूल नई संत्थाश्रों को जन्म देती हैं पहले एक स्थिति ( ९5 ) उत्न्न होती है; जब वह पूर्णतया बढ कर श्रति को पहुँच जाती है तब उसकी प्रतिक्रिया से उसके प्रतिकूल स्थिति उत्तन्न होती है जिसको प्रतिस्थिति ( >॥0 |॥6» 5 ) कहते हैँ। उसकी भी प्रतिक्रिया होती है ओर फिर दोनों का समन्वय होता है

हेगेल 4८8र्ट ने इस सिद्धान्त को आध्यात्मिक आधार पर प्रतिपादित कया था, मावस ने उसको भौतिक झ्राधार दिया पूजीपतियों की संस्था ने श्रमजीवियों के संगठन को जन्म दिया | अ्रत्र वह संगठन समन्वय रूप से वगद्दीन समाज की सृष्टि करेगा यही दन्द्वात्मक भौतिकवाद का समाज में प्रयोग है

संक्षेप में जहाँ गांधीवाद का आधार आध्यात्मिक है वहाँ समाजवाद का आधार भोतिक है; जहाँ गांधीवाद गृह-उद्योगों में विश्वास करता हे, वहाँ समाजवाद मशीन की सहायता से उद्योगों के राष्ट्रीयकरण के पक्ष का समथन

३४४ प्रचन्ध-प्रभाकर

करता है। गांधीवाद किसी वर्ग को मिटाना नहीं चाहता, वह विभिन्न वर्गों में परस्परानुकूलता लाना चाहता है। इसके विपरीत समाजवाद वगहीन समाज के पक्त में है। गाँधीवाद व्यक्ति के आत्मिक बल में विश्वास करता है, .समाज- वाद सामूहिक बल का पाठ पढ़ाता है | साधनों के सम्बन्ध में भी ' गाँधीवाद ओर समाजवाद में अन्तर है समाजवाद लक्ष्य की उत्तमता को मानता है किन्तु साधनों की नेतिकता पर वह विशेष बल नहीं देता फिर भी साम्यवाद की अपेक्षा उसका दृष्टिकोण अधिक नैतिक है | समाजवाद कानून ओर व्यवस्थापिका सभाओं द्वारा परिवतन लाना चाहता है। गांधीवाद साधनों की नेतिकता में भी विश्वास करता है

साम्यवाद

साम्यवाद ने दिया विश्व को नव भौतिक दशन का ज्ञान, अथशासत्र ओ' राजनीति का विशद्‌ ऐतिहासिक विश्ञान ञः

साम्यवाद ने दिया जगत को सामूहिक जनतंत्र महान ,

भव जीवन के देन्य दुःख से किया मनुज्ञता का परित्राण “सुमित्रानन्दन पंत साम्यवाद समाजवाद का ह्वी एक भेद है | इसको अंग्रेजी में कम्यूनिज्म कहते हैँ यद्यपि यह संसारव्यापी संस्था है तथापि इसका केन्द्रीय गद रूस है। जहाँ तक उत्पादन के साधनों का प्रश्न हे, साधारण समाजवादी ओर साम्यवादी एकमत हैं, किन्तु उनके साधनों में मतभेद है। यत्रपि साधारण समाजवादी भी नितान्‍्त अश्रहिंसावादी नहीं हैं, तथापि वे वैधानिक आन्दोलनों ओर कानूनी सुधारों में अ्रधिक विश्वास करते हैंँ। हड़ताल उनका मुख्य अख्तर है शोर उनकी श्रद्डुलाओं द्वारा वे श्रमजीवियों की दशा सुधारना चाहते हैं। साम्यवादी सुधारों को केवल आंसू पॉछने की वस्तु समझते हैँ उनके मत से ये सुधार श्रमजीवियों को छुमाये रख कर अन्तिम लक्ष्य से भ्रष्ठ करते हैं। साम्यवादी का अन्तिम लक्ष्य हे--सशख््र क्राग्ति द्वारा पूंजीपतियों से सत्ता

गांधीवाद, सम्राजवाद, साम्यवाद ३४५४

छीन कर सवहारा श्रमजीवियों का अ्रधिनायकत्व स्थापित करना साम्य- वादियों का विश्वास है कि त्रिना सशत्त्र क्रान्ति के शक्ति नहीं मिल सकती | इतिहास इसका साक्षी है। शत्रों की शक्ति से पूंजीवाद स्थित है और शर््रों की शक्ति से ही वह जायगा। वह साधारण प्रजातन्त्र में विश्वास नहीं करता वह शक्ति को श्रमजीबियों में केन्द्रित रखने के पक्त में है ओर सब को श्रमजीवी बना कर रखना चाहता है। वास्तव में वह वर्गद्दीन समाज चाहता है ओर उसकी स्थापना हो जाने पर वह राष्ट्र की भी आवश्यकता नहीं समभता, कुछु-कुछ उसी प्रकार जिस प्रकार ज्ञान हो जाने पर वेदान्ती लोग कम को ग्रनावश्यक बतलाते हैं वह अ्रवस्था अराजकता की होगी वरन्‌ उसमें लोग स्वेच्छा से संगठित रहेंगे किसी का किसी पर दब्नाव होगा हर एक आदमी अपनी शक्ति ओर योग्यता के अनुकूल काम करेगा और हरेक अपनी आवश्य- कता के अनुकूल राज्य से पायगा

साम्यवाद राष्ट्रीय सीमाओं को नहीं मानता वह दुनिया के श्रमजीवियों की एक कर विश्व-क्रानित चाहता है। उसमें जातीयता की अ्रपेज्ञा विचार-घारा को अधिक मदर दिया जाता है। विचारधारा की समानता से साम्यवादी राष्ट्रों को बल मिलता है। वह समाजवादी व्यवस्था को सच्च देशों में उनकी इच्छा के भी विरुद्ध शत्नरों की शक्ति द्वारा स्थापित करना चाहता है। अच्छे उद्देश्य को ले कर शख्त्र-बल प्रयोग ओर नृशंत से उृशंस काय भी उसकी दृष्टि में श्लाध्य हो जाता है| यद्यपि शोषण को दूर करने का ध्येय स्त॒ुत्य है तथापि साधनों में तथा भावी समाज के संगठन-क्रम में मत-भेद हो सकता है | सब देशों की परिस्थितियाँ भी भिन्र हैं | सब्र एक लाठी से हाँक्े नहीं जा सकते साम्यवाद मत-मभेद को स्वीकार नहीं करता यही इसकी कमजोरी है। दन्द्वात्पक भोतिक- वाद गतिशील सिद्धान्त है। वह समाज को एक-सा नहीं मानता समाजवादी समाज से भी अच्छे समाज की सम्भावना भविष्य के गर्भ में छिपी हुई हो सकती है| स्वस्थ मंत-मेद को स्वीकार करना उस भविष्य के सम्मावित समाज कौ स्थापना में ब्राधक होना है |

३४६ प्रबन्ध-प्र भाकर

समन्वय

गान्धीवाद श्रोर साम्यवाद में मौलिक भेद है। पहला तो यह कि गांधीवाद प्रजातंत्र में विश्वास करता है ओर साम्यवाद तानाशाही के पक्ष में है। गांधीवाद धमप्रधान और आप्तिकवादी है किन्तु साम्यवाद घर्म की अवहेलना करता है ओर भौतिकवादी है। गांधीवाद साधनों की शुद्धि, सत्य ओर अहिंसा में विश्वास करता है किन्तु साम्यवाद हिंसा ओर रक्तरज्जित क्रान्ति के पक्ष में है। इन भेदों के होते हुए भी गान्धीवाद ओर समाजवाद का समन्वय अ्रसम्भव नहीं है दोनों ही जन-हित पर अवलम्बित हैं। गान्धीवाद किसी वर्गविशेष में सीमित नहीं है वह सर्वोद्य चाहता है, किन्तु साथ ही वह भी सब्चको किसी किसी रूप में श्रमी बनाना चाहता है। गान्धीवाद भी शारी- रिक श्रम अनिवाय मानता है। सिद्धान्ततः गान्धीवाद यंत्रों का विरोधी है श्रोर 'समाजवाद गह-उद्योगों का, किन्तु व्यवद्ार में दोनों एक दूसरे के निकट आरा जाते हैं। गह-उद्योग सारी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकते (कागज की ही - समस्या णह उद्योग से हल नहीं हो सकती ) और आत्म-निर्मरता और विशेष कर ग्रामीण सम्यता में णह-उद्योगों की श्रावश्यकता स्वीकार करनी पढ़ती है। 'रूस में भी गह-उद्योगों का नितान्त बहिष्कार नहीं हो सका है। गान्धीवादी भारतीय सरकार राष्ट्रीयकरण में विश्वास करती है किन्तु वह उसे क्रमशः चरिताथ करने के पक्त में है वह एक साथ बने-बनाये खेल को बिगाड़ना नहीं चाहती किसानों से जमीन छुड़ा कर उनमें वह असन्तोष नहीं पेदा करना चाहती है। थोड़ी-सी सावधानी की आवश्यकता है। समाजवादी व्यवस्था के लिए भी -समय अपेक्षित रहता है। धर्म के मामले में व्यक्ति की धार्मिक स्वतन्त्रता -में समाजवाद भी बाघक नहीं है यद्यपि वह स्कूल ओर कालेजों में धम- शिक्षा नहीं चाइता तथापि वह नैतिकता की शिक्षा का विरोधी नहीं कानून से धम में विश्वास हटाया जा सकता है ओर उत्पन्न किया जा सकता है | इसमें व्यक्ति की स्वतन्त्रता श्रावश्यक है इस बात को साम्यवाद को

“स्वीकार करना पड़ेगा पूजीपति देशों में श्रमियों की दशा बहुत-कुछ सुधरती जा रही है

विश्व-शान्ति के उपाय २३४७

अमरीका में बहुत से मजदूर लोग भी मोटर रख सकते हैं ओर रूस में भी सच्चके पास मोटर नहीं है हमको साम्यवाद को प्रत्येक देश की परिस्थिति के अनुकूल दालना होगा भारत की आात्मा आध्यात्मिक है। भारत के अध्यात्मवाद में साम्यवाद के लिए सुदृढ़ आधार मिल सकता है नहाँ सर्वे सुखिनः भवन्तु' का आदश है वहां मजदुर भी दुखी नहीं रह सकते यदि उस आदश का पालन किया जाय सब लोग सुखी तभी हो सकते हैं जब स्वाथ सीमित कर दिये जायें ओर शक्ति का दुस्वयोग हो शक्ति का दुरुपयोग सवहारा द्वारा भी हो सकता है; विगत काल के शोषित भविष्य के शोषक बन सकते हैं। साम्यवाद की आवश्यकता पूँ जीपतियों के शक्ति के दुरुपयोग के कारण हुई। ऐसा हो कि सबद्वारा के अत्याचार से दूसरी किसी परिध्थिति का जन्म हो। साम्यवाद के झ्राक्रमण से बचने के लिए सबसे आवश्यक वस्तु है आत्म-सुधार श्रोर स्वार्थों पर नियन्त्रण | यही गांधीवाद का मूल है | किन्तु आत्म-सुधार की भावना को लोग भूलते जा रहे हैं। यह खेद का विषय है। हम अपनी शक्ति का प्रयोग पर-पीडनाय' कर पर-रक्षणायां करें, तभी जगत का कल्याण द्वो सकता है | साम्यवाद वहीं पनपता है जहाँ शोषण का साम्राज्य होता है। न्यायपूर्ण राज्य में, जहाँ समता के साथ पूर्ण सम्पन्नता हो, साम्यवाद को स्थान नहीं। साम्यवाद के सिद्धान्त यदि शान्तिपूर्ण उपायों से चरिताथ हो जायें तो विश्व मारकाट और तोड़फोड़ की विभीषिका से बच जाय

५४. विश्व-शान्ति के उपाय

युद्ध मनुष्य की पाशविक प्रवृत्तियों का एक सामूहिक संदयारात्मक प्रद्शन है। सभ्यता के नियम-विधानों ने व्यक्तियों की पाशविकता पर तो बहुत कुछ नियन्त्रण कर रक्‍्खा है, किन्तु जहाँ तक राष्ट्रों का प्रश्न है मनुष्य अपनी पाशविक श्रव॒स्‍्था से बहुत श्रागे नहीं बढ़ा है श्रादि काल से युद्ध होते आये हैँ श्रोर मनुष्य जाति की धन ओर यश-लिप्सा की बलिवेदी पर कोटि-कोटि क्‍या असंख्य नरमेधघ होते रदे हैं | युद्ध के दिनों में घम-नीति का हास हो जाता है

३७८ प्रबन्ध-प्रभाकर

ओर वन्य हिंख पशुओं की नीति का व्यापार चल पड़ता है विशान ने राष्ट्रों के नख ओर दन्तों को सुदूर-व्यापी और तीक्षणतम बना दिया है। युद्ध के दिनों में मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क की सारी शक्तियाँ जन-संहार में केन्द्रित हो जाती हैं ओर उसके फलस्वरूप जो ध्वंस होता है वह कल्पनातीत है। प्रजातन्त्र राज्यों के स्व॒ृतन्त्रता-सम्बन्धी मूल्यों को भुला दिया जाता है हम अपनी चिर- मश्नित धर्म की घारणाओं, नैतिक मानों और मानवता-परक कोमल वृत्तियों को तिलाझलि दे बेठते हैं हमारा सोन्दर्य-नोध नष्ट हो जाता है कला ओर साहित्य की गति पन्ञ हो जाती है और स्वतन्त्र नागरिकों की ज़बानों पर ताले लग जाते हैं| चारों ओर अविश्वास, बीभत्सता, दुःख और संताप का साम्राज्य छा जाता है। सारे निर्माण-काय स्थगित हो जाते हैं ओर मनुष्य भयाक्रांत हो जाता है |

युद्ध की भयानकता रोमाथ्वकारी और वर्णनातीत होते हुए भी मनुष्य युद्ध से विराम नह लेता बीसवीं शताब्दी के पूर्वाध में संसार ने एक के बाद दूसरा प्रलयड्डूर युद्ध देखा इन दोनों युद्धों में जो घन ओर जन-संहार हुआ्रा वह अकथनीय है जाने कितनी माताएँ निःसन्तान हो गई और जाने कितमी रमणियों की सोभाग्यश्री युद्ध के रक्तप्लावन में विलीन हो गई। इन युद्धों के भीषण आअ।र्थिक परिणामों से संसार श्राज भी क्षयग्रस्त हो रहा है। मदांधता का भीषण भूत पीछा नहीं छोड़ता | इन युद्धों में हारे हुए राज्यों की तो कमर ही द्वूट जाती है ओर जीते हुए. राज्य भी म्ततप्राय हो जाते हैं। जीते हुए. राज्यों की जनता कर भार से दत्न कर द्वाथ-पैर भी नहीं हिला पाती यदि जीत होती है तो शोक, सन्ताप, विग्नह और वैमनस्य की

युद्ध की इस भयड्भरता से बचने के लिए आदि काल से प्रयत्न होते श्राये हैं। युद्ध से पहले सभी लोग युद्ध निवारणाथ दूत मेजा करते थे। महाभारत को बचाने के लिए स्वयं भवगान कृष्ण दुर्योधन के दरबार में दूत बन कर गये थे। भगवान रामचन्द्र जी ने अद्भद को दूत बना कर भेजा था। जिस प्रकार मनुष्य युद्ध चाहता है उसी प्रकार वह शान्ति भी चाहता है। युद्ध भी वह इसीलिए, लड़ता है कि भावी युद्ध बन्द हो जाये

पविश्व-शान्ति के उपाय ३४६

युद्ध रोकने के प्रयत्न चिरकाल से हो रहे हैं। हमारे यहाँ सबसे श्रधिक शान्ति-प्रिय मह्राज श्रशोक हुए हैं। कलिड्ग के जन-संहार से उनका द्वदय- परिवतन हो गया था ओर उन्होंने युद्ध से विराम ले कर शान्ति का साम्राज्य फैलाया। उन्हीं के राज्य-चिह्ों को श्राज भारत ने अपनाया है। चीन में लाओदज़ो बढ़े भारी शान्ति के प्रचारक हुए हैं। उनके ही समकालीन भगवान्‌ बुद्ध ने अक्रोघेन जयेत्‌ क्रोधम' का पाठ पढ़ाया था। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी बड़े ज़ोरदार शब्दों में युद्ध की निन्‍्दा की है-- सुमति विचारहिं परिहरहिं, दल सुमनहु संग्राम सकुल गये तनु बिनु भये, साखी जादो काम यूरोप में भी टालस्टाय आदि शान्ति के प्रचारक रहे हैँ। आजकल के युग में बटसंड रसेल ओर उनके साथी बहुत से लोग शान्तिवादी हैं। पहले महायुद्ध में शामिल होने के कारण उनको जेल जाना पड़ा था | हमारे देश के परम पूज्य बापू शान्तिवादियों में अग्रगण्य हैं। वे अपने स्वार्थ से पहले दूसरे के स्वाथ को देखते थे | बापू के ही नाम पर शान्ति-निकेतन में संसार के शान्तिवादियों की एक बृहत्‌ सभा दिसम्बर सन्‌ ४६ में हुई थी। इंगलेंड, अमरीका, शआ्रास्ट्रे लिया, फ्रांस आ्रादि प्रायः सभी देशों में शान्ति-सभाएँ हैं। किन्तु वे व्यक्तियों की हैं, अ्रन्तराष्ट्रीय नहीं हैं वे इस बात की अवश्य द्योतक हैँ कि मनुष्य शान्ति चाहता है| विश्व में शान्ति की पुकार है | अ्न्तराष्ट्रीय घरातल पर विश्व-शान्ति के दो महान प्रयत्न हुए हैं। एक प्रथम मद्यायुद्ध के पश्चात्‌ सन्‌ १६२० में वुडरों विलसन के उद्योगों द्वारा स्थापित अन्तर्राष्ट्रीय संघ और दूसरा पिछले मह्ायुद्ध के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आया हुआ संयुक्त राष्ट्रगसंघ। पहले का काय-केन्द्र जेनेवा था ओर दूसरे का है लेक सक्सेस संयुक्त राष्ट्र-संघ की स्थापना में युद्ध की भीषणता से त्रस्त मानवता की उसके प्रति प्रतिक्रिया है। मानव जाति के संरक्षण ओर राष्ट्रों के नैतिक अधिकारों की घोषणा एटलांटिक चार के नाम से सन्‌ १६४२ में हुईं। श्रन्त में प्रायः दो मास के विचार-विमश के पश्चात्‌ सन्‌ १६४४ में ४० राष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्रसंघ का विधान स्वीकार किया इसमें वे ही राज्य

३४० प्रशनन्ध-प्रभा कर

सम्मिलित किये गये ये जिन्होंने १२ मार्च सन्‌ १६९४४ तक जम॑नी श्रौर जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की थी। दोनों ही की स्थापना का उद्देश्य राष्ट्रों के पारस्परिक झूगड़ों को वैध मार्गों से तय करना और युद्धों की सम्मावना को न्यूनातिन्यून कर देना है। संयुक्त-राष्ट्रसंघ के कई श्रद्ञ हैं। उनमें साधारण परिषद्‌ के श्रतिरिक्त सुरक्षा परिषद्‌ ( 5८८पा/ (०प्रार्टी ), अन्तराष्ट्रीय न्यायालय, आर्थिक और सामाजिक परिषद्‌, ट्रस्टीशिप परिषद्‌ ( ॥052८७॥० (०एाा ) और कार्यालय, कुल मिल कर प्रमुख श्रद्ध हैं। संघ के श्रन्तंगत कई स्थाएँ ओर भी काम करती हैं उनमें संयुक्त राष्ट्रीय शिक्षा, विशान श्रोर सांस्कृतिक परिषद्‌ विशेष महत्व की है उसको अंग्रेजी में यूनेस्को (९5८0 (]॥69 बि॥४णा5 +प्रटक्लांगा्य 5टांटापीट थात (परंपराओं (0०० ॥5900ा) कहते हैं। इसका उद्देश्य हे शिक्षा, विज्ञान ओर सांस्कृतिक विषयों में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना उत्पन्न करना |

पहले राष्ट्र-संत्र ने कुछ मामलों, जैसे ग्रीस श्रोर इटली के मतभेद श्रोर ग्रीस और बलगेरिया के सोमा-सम्बन्धी झगड़े, को सुलभाया। किन्तु राष्ट्रों के स्वाथ के कारण वह विच्छिन्त हो गया। जापान और मंचूरिया के मामले में राष्ट्ुसंघ कुछु कर सका | जापान उससे अलग हो गया। फिर ग्रत्रीसीनिया के मामले पर इटली ने अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया यद्यपि वर्तमान संयुक्त राष्ट्रसंघ पहले राष्ट्रसंघ की श्रपेत्ञा अधिक सुगठित और शक्ति- शाली है, उसके उद्देश्य भी व्यापक और न्याय-संगत हैं (समान अधिकारों ओर आत्म-निणय के ठिद्धान्तों के आधार पर संसार के राज्यों में मैत्री भाव उत्पन्न करना ओर युद्ध की सम्भावनाओं को कम करना ) तथापि इसमें भी बड़ी शक्तियों का स्वाथ अधिक काम करता है। सुरक्षा-परिषद्‌ में पाँच शक्तियों ( श्रमरीका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस श्रोर चीन ) को स्थायी सदस्यता मिली हुईं हे और अस्थायी सदस्य हैं कोई काम इन बड़े राष्ट्रों की पूण सहमति के बिना नहीं हो सकता है। इनमें से कोई भी अपनी निषेध शक्ति (४८८०० 70७८) द्वारा मामले को खठाई में डाल सकता है श्रोर अपने विरुद्ध किसी कारवाई के होने को रोक सकता दे | इसमें भी दो गुट्ट हैं, एक श्रमरीकन-ब्रिटेन गुट्

विश्व-शान्ति के उपाय १५४१

श्र दूसरा रूस ( श्रव चीन भी उसमें शामिल हो जायगा )। इसके सदस्यों में वह पारस्परिक सहयोग की भावना नहीं है जो प्रारम्भ में थी। दोनों गुद्द अपने-अपने उद्देश्यों को पूर्ति के लिए विश्व को ध्वंस कर देने की धमकी देते हैं। छोटे राज्यों के हितों पर यथोचित ध्यान नहीं दिया जाता | वे बड़े राज्यों की कूटनीति का शिकार बनाये जाते हैं इसके अ्रतिरिक्त इसके पास भी अपने निणयों को मान्य कराने को कोई सैन्य शक्ति नहीं है। इसोलिए, इंडो-नीशिया, दक्षिण अश्रफ्रीका, तथा कश्मीर आदि के मामले लटके हुए हैं

निःशजस््रीकरण के भी कई उद्योग हो चुके हैं, किन्तु कोई उसमें श्रगुश्रा नहीं हो सका है। श्रगुआ कोई हो भी नहीं सकता, जब्च तक दूसरे राष्ट्र भी साथ- साथ सुधरे। कोई अगुआ बन कर हिंतक राष्ट्रों का शिकार नहीं बनना चाहता

शान्ति के जितने उपाय राष्ट्रीय धरातल पर होते हैं उनमें सचाई की श्रपेज्ञा दिखावट अधिक है। इन उपायों को सफल बनाने के लिए युद्ध के कारणों की खोज ओर उनका निराकरण आवश्यक है। उसके पश्चात्‌ जो चिकित्सा सोची जाय उसके प्रयोग के लिए भी या तो शक्ति-शाली प्रचार हो या उन निरणयों को मनवाने के लिए. श्रन्तर्राष्ट्रीय सेना हो जो अपने भोतिक बल का दबाव डाल सके |

युद्ध के कारणों में सब से प्रमुख है देशों की आर्थिक ओर व्यापारिक परिस्थिति दूसरा है संकुचित राष्ट्रीयता ओर राष्ट्रों में ऊँच-नीच का जाति-भेद इसके अतिरिक्त एक कारण यद्‌ भी है कि लोग जिस धम-नीति का वैयक्तिक व्यवह्वार में प्रयोग करते हैँ उसका वे राष्ट्रों के व्यवहार में प्रयोग करना नहीं सीखे हैँ राजनीति हमेशा कूटनीति ही रही है ( महात्मा गांधी ने अवश्य उसे धर्म-नीति का रूप देने का प्रयत्न किया था )। एक चोथा कारण यह भी है कि अभी फालतू शक्ति के निकास का कोई वैध एवं शान्तिमय माग भी नहीं सोचा गया है |

युद्ध रोकने के लिए. सबसे पहले श्रान्तरिक शान्ति ओर सम्पन्नता अपेक्षित है। आन्तरिक शान्ति के श्रभाव में दूसरे देश बन्द्र-न्याय करने के

दे४२ प्रबन्ध प्र भाकर

लिए उद्यत हो जाते हैं श्रोर फिर बन्रर-बन्दरों में भी कगड़ा होने लगता है। आ।न्तरिक शान्ति के लिए सम्प्रदायों ओर दलों में उदारता अ्रपेज्षित है जहाँ तक हो राष्ट्र आत्म-निभर होकर अपने यहाँ की बेकारी दूर करें | पूण आत्म- निभरता सम्पन्न से संपन्न राष्ट्र के लिए भी सम्मव नहीं है। अपनी श्रावश्यकताश्रों की पूर्ति के लिए बल ओर प्रभुत्व के आधार पर नहीं वरन्‌ पारस्परिक सद- भावना ओर आदान-प्रदान के आधार पर व्यापारिक समभौते किये जा सकते हैं। इनमें राष्ट्रीय परिषद भी सहायक हो सकती हैं राष्ट्रों की आथिक आव- श्यक्ताओं का सामूहिक रूप से विचार होना आवश्यक है फिर उनकी पूर्ति की आदान-प्रदान-पूण योजना बनाई जा सकती है इसके लिए राष्ट्रों को भी ग्परिग्रह भावना से काम लेना पड़ेगा इसके अथ शिक्षा ओर प्रचार की ग्रावश्यकता है छोटे राज्यों की सुनवाई का भी कोई साधन होना चाहिए | एटम शक्ति के नियंत्रण में बड़े राज्यों का ही हाथ होना चाहिए. वरन्‌ छोटे -ओऔर विजित राज्यों की भी आवाज सुनी जाने की आवश्यकता है

राष्ट्रीय एक सराहनीय गुण है, किन्तु उसकी भी सीमाएँ हैं जिस :प्रकार साम्प्रदायिकता दोष मानी गईं है, उसी प्रकार राष्ट्रीय] भी उचित सीमाश्रों का उल्लंघन कर जाने पर दोष की कोटि में आरा जाती है हिटलर ने आयत्व के गयव में यहूदियों का नाश किया यद्यपि यूरोप के लोग मारत के जाति-मेद की हँसी उड़ाते हैं तथापि उन लोगों में गोरेकाले का भेद जातिवाद से कम नहीं है। इसी कारण दक्षिण अफ्रीका ओर इंडोनेशिया का प्रश्न इल नहीं हो पाता है। श्वेत जातियाँ संवार के उद्धार का अपने ऊपर उत्तरदायित्व समझती हैं और इस उत्तरदायित्व के बहाने वे अपना प्रभुत्व स्थित रखना चाहती हैं प्रभु की भावना मनुष्य में स्वाभाविक है | यही युद्धों के लिए उत्तरदायी है इस पर विजय पाने के लिए, इसकी प्रतिकूल प्रवृत्तियों, जेसे दया, औओ्रेम श्रोर सेवा, को जाग्रत करना द्वोगा

व्यक्ति व्यक्ति के बीच झंगड़ों को मिटाने के श्रथ सरकार ने न्यायालय स्थापित कर रबखे हैं श्रोर उनके निणुय व्यक्तियों को मान्य होते हैं कोई व्यक्ति कानून को श्रपने द्वाथ में नहीं ले सकता किन्तु राष्ट्रों में

विश्व-शान्ति के उताय २५३

यह बात नहीं है। जितने वे महान और शक्तिशाली द्वोते हैं उतना ही वे अपने को दूसरों के शासन से परे समभते हैं वे स्त्रयं निर्णायक और स्वयं दंडदाता बन जाते हैं इसी बात को दूर करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय स्थापित किया गया है। लेकिन उसके निणय मान्य कराने का कोई साधन नहीं है इसके लिए अन्तराष्ट्रीय सैन्यबल चाहिए जो कि न्यायालय के निणयों को मान्य करा सके | उसमें सभी राष्ट्र योग दें इस प्रकार के सम्मिलित सैन्यबल में सच से बड़ी कठिनाई नेतृत्व की है। नेतृत्व के लिए नियम बनाने होंगे। वह भी मताधिकार से हो सकता है। सम्मिलित सैन्य भी तभी सफल द्वो सकता है जब्र सदस्य राष्ट्रों की सेन्य-शक्ति पर नियंत्रण हो, ऐटम शक्ति का प्रयोग निषिद्ध कर दिया जाय

सुरक्षा परिषद ओर संयुक्त राष्ट्रसंत्र में एक बात सत्र से दूषित यह है कि विजित राष्ट्रों को उसमें कोई स्थान नहीं युद्ध के अभियुक्तों के साथ निदयता का व्यवहार, उनको फाँसी देना आदि घ॒ुणा के बीज बोना है वे भविष्य में समय पा कर अंकुरित हो उठते हैं। राष्ट्रों के सम्बन्ध में भी जब्न तक अ्रक्रोधेन जयेत्‌ क्रोधम' की नीति का अनुत्रण होगा तब्र तक हिंसा का तारतम्य बन्द होगा। राष्ट्रों में साधारण व्यक्तियों की-सी न्याय के लिए. सिर अुकाने तथा कानून को आपने हाथ में लेने की भावना उततन्न करने के लिए हमको संसार के ऐसे संप्र-शासन का निर्माण करना होगा जिसमें राष्ट्र अपना- अपना निजी व्यक्तित्व रखते हुए भी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मिलित निर्णयों का मान करें | यही संघ राष्ट्रों की आर्थिक आवश्यकताओं का प्रेमपूवक संयोजन करे

इसके लिए बढ़े राज्यों को अपना बड़प्पन छोड़ कर साधारण धरातल पर आना होगा

इन सब उपायों के साथ-साथ हमको लोगों की फालतू शक्ति के लिए भी निकास दूं ढना पढ़ेगा | वीरता के लिए नया श्रालम्बनन देना होगा युद्धवीर के स्थान में दयावीर की प्रतिष्ठा करनी होगी। हमारे श्रभियान किसी राष्ट्र के प्रति होंगे वरन्‌ अपने ही देश की बुराइयों तथा गन्दगी को दूर करने के प्रेम- यूवक प्रयत्न होंगे। रचनात्मक काय के लिए युद्ध का सा उत्साह उत्पन्न करना

३४४ प्रचन्ध-प्र भाकर

होगा | राष्ट्रों में याद सैन्य-भर्तों श्रनिवाय की जाय तो वह सेवा ओर रचनात्मक काय के लिए हो हमारे सैनिकों में यह भावना उत्पन्न होनी चाहिए. कि वे मारने के लिए नहीं हैं वरन सेवा ओर बचाने के लिए हैं। इन भावनाश्रों के जाग्रत करने के लिए नये प्रकार के साहित्य की सृष्टि करनी होगी। राष्ट्रीय गये सेवा का गवे होगा | हमारी उच्च भावना जाति भावना से परे होगी वरन्‌ सेवा- कार्यों पर अवलम्बित होगी | राष्ट्रों का पारस्परिक मान बढ़ाने के लिए हमको सब राष्ट्रों के बुद्धिजीवियों का संगठन करना आवश्यक है | बुद्धिजीवी साहित्यिक राष्ट्रीय स्वाथ की छुद्र भावनाश्रों से प्रायः परे हुआ करते हूँ वे यदि मिल कर प्रयत् करे तो युद्ध के विरद्ध जनमत उत्पन्न कर सकते हैं। यद्यपि नक्कारलाने में तूती की आवाज कम सुनाई पड़ती है फिर भी नेतिक चेतना धीरेघीरे जाग्रत की जा सकती है इस मामले में हम यूनेस्की से बहुत कुछ आशा रख सकते हैं। दूसरों की संस्कृति और कला का मूल्य जान लेने से उसके नष्ट करने के लिए सहसा हिम्मत नहीं पड़ती है | दूसरों को बबर और असमभ्य समझने की भावना दूर करने की आवश्यकता है। हमारे साहित्यिकों का कतंव्य है कि पारस्परिक भेद-भावना को दूर करके एक ऐसी विश्व-भ्रातृत्॒ की लहर उतन्न करे जिससे सब्र लोग विश्व को एक नीड़ बनाने की भावना को चरिताथ कर सके |

५१५, हिमालय की कलक

लखनऊ से रात को साढ़े दस बजे गाड़ी छूटती थी। कुछ पहले ही स्टेशन पहुँच गया इरादा था कि कुछ अच्छी-सी जगह पा सकूँ। मित्र ने इंटर क्लास में बेठने का आग्रह कर दिया था। यह दरजा कुलीन गरीबों का दरजा है| हम जैसे अनेक दूसरे जन भी दरजा बढ़ाने की घुन में रहते हैं इसलिए भीड़ की श्राशंका थी | ताँगे से उतरते ही कुली ने बताया कि इंटर में बैठियेगा तो आगे एक जगह गाड़ी बदलनी होगी, तीसरे दर्ज का एक डिब्बा सीधा काठगोदाम तक जाता है। रेलवालों को मुझे धन्यवाद देना पड़ा किसी उद्दे श्य से यह क्‍यों प्रतरन्ध किया गया हो, उन्होंने मेरे कुछ पेसे बचा

हिमालय की कलक ३२५५

दिये तीसरे दर्ज में बैठने का ही मुझे निश्चय करना पड़ा | योग्यता की पहली परीक्षा में एक अ्रपरिचित सज्जन की कृपा से निश्चिन्तता मिल गई | टिकट की खिड़की पर किसी कंगलों की-सी भीड़ को टिकट दान किया जा रहा था। वहां से मेरे लिए, टिकट ला कर उन्होंने मुझे घायल हो जाने से बचा लिया

इमारा डिब्बा गाड़ी के अन्त में था | लोग अ्रग्रगामी होना पसन्द करते हैं इसलिए, अधिक भीड़ से अनायास ही हम लोग बच गये किसी तरह बिस्तरा लगा लेने योग्य नगह वहाँ मिल गई जब मिल गई तत्र वह अ्रपनी ही अपनी है | सब्र के सत्र हमारे देशवासोी इतने भल्ते हैं कि किसी को उसके चाहे जेसे अधिकार से वंचित करने का पाप वे नहीं लेते

आकाश बादलों से घिरा था, रात अंधेरी पता नहीं चलता था, कहाँ आ। कर गाड़ी रकी ओर फिर कहाँ के लिए रवाना हो गई है। अश्रजश्ञात और ग्रहश्य की ओर बढ़े चले जा रहे थे फिर भी निश्चिन्तता थी। सो सकते थे, पर सो नहीं सके पानी बरस जाने से लैम्प के आ्रास-पास ओर पूरे डिब्बे में पतिंगों की भरमार थी। इन भिना-टिकटों की संख्या का प्रश्न ही क्‍या? अपने प्रदीप्त प्रेमी के निकट कर आत्म-समपंण करने का श्रघिकार उनका था। खेद अर दुःख इतना ही कि हम सभी यात्रियों को उन्होंने लैंप का ही भाई-बन्धु समझ रखा था; ढेर के ढेर श्रा कर ऊपर गिरते थे। हम लोग किसी तरह उन्हें विश्वास दिला सके कि हमारे भीतर या बाहर कहीं एक कण 'नगारी नहीं, तुम धोखा खा रहे हो

पीलीभीत के आस-पास कहीं सबेरा हुआ | इस नाम के साथ किसी अ्भूत स्वर्णामा की कल्पना थी। वह पूरी नही हुईं मैदान अधिक दिखाई पड़ा, पेड़-पौधे कम | एक जगह सड़क पर देखा कि एक आदमी दुब्नले-पतले ओर हड्डी-निकले टट्टू पर सवार है। उसके पीछे कुछ अंतर पर अपने महावत को लिये एक हाथी सूंड दिलाता हुआ अपनी सहज चाल से चला आता है। बड़ी देर तक यह घटना भुलाये नहीं भूली

उत्सुकता बढती गई कि कहाँ पहले-पहल गिरिराज के दशन होते हैं। 'सश्यात्रियों को यह कुछ अजीत बात जान पड़ी | यह पेड़ कोन सा है, वह सड़क

३४६ प्रबन्ध-प्रभाकर

कहाँ को जाती है, पहले पहल द्दमालय के शैलशिखर कहाँ से दीखते हैं, ये बातें उनके लिए महत्त्व की थीं। इन प्रश्नों के साथ ही उन्होंने एक विख्यात नगर की चर्चा छेड़ दी। उस नगर का नाम बता कर मूख बनूँगा। वहीं के लोग उस तरह के प्रश्न करते हैं। अचरज की बात यह है कि सहयात्री यह केसे जान गये कि उनके उस कोतुक नगर से मेरा कुछ सम्बन्ध है। एक बार में भाग्य का मारा वहाँ पहुँच चुका हूँ। अंत में शिखर-श्रेणी ने दशन दिये, और मन ही मन मैंने गुनगुनाया-- शेलराज तुमको प्रणाम है, भूतल के पाप तापछारी हर, दशन तुम्हारा पुण्यकारी कर, पूर्ण मनःकाम है | परन्तु नहीं अभी मनःकाम पूरा हुआ कहाँ है ? श्रभी तो इतना ही देखा है कि पुञ्जलीभूत श्यामघन घरती से ऊपर उठ कर वहाँ आकाश में फेलना चाहते हैं एक नदी के निकट हो कर रेलगाड़ी आगे बढ़ने लगी। नदी थी या नाला, कोई नहीं बता सका | हिमालय का नाला भी क्या हमारे यहाँ के नालों जैसा दुबला-पतला होगा ? काले रँग की मोटी रेत का लंबा चोड़ा पाट और उसके बीच में धूप से चमकती हुई एक पतली रजत-जल-धारा। मानो बहुत अधिक माजिन दे कर छुपी हुईं कोई द्वृदयह्ारिणी कविता हो। नाम उसके मालूम नह्वों हो सका, उसकी मधुर ध्वनि कानों तक नहीं पहुँच सकी। फिर भी वह बिना परिचय के द्वदय के एक कोने में अंकित हो गई है गाड़ी काठगोदाम कर रुकी यहीं नेनीताल के लिए. मोटर लारी मिलेगी | लारी स्टार हो कर चल पड़ी जगह आगे की ओर ही मिल गई थी। गाड़ी की छत नीची थी। आस-पास का दृश्य पूरा दिखाई देता था | जब हम इध अतुल आकाश में डुचकी लेने जा रदे हैं, तत्र छुत की यह बड़ी सी पट्टी श्राँखों को बहुत क्ल शकर प्रतीत होती है

हिमालय की भकलक ३५७

पक्की सड़क चक्‍कर खाती हुईं ऊपर गई है। इधर-उधर चोटियाँ ही चोटियाँ, वृक्ष ही वक्ष हिमालय के वृक्ष बोने कम होते हैं। अपनी भूमि की ऊँचाई के प्रसाद से वे वंचित नहीं हैं। जेसे जेसे ऊँचाई पर चढ़ते गये, दृश्य की सुन्दरता बढ़ने लगी। अब्र तक भूमि पर ही यात्रा करने का अब्रसर पाया था| आज हमारी गाड़ी मानो श्राकाश पर चढ़ रही हो |

आगे या ऊपर की ओर बढ़ते चले गये | कहीं बहुत निचाई पर कुछ घरों की बस्तियाँ दिखाई दीं। आदमी बहुत कम देखने में आये। खर्त्रियाँ क्चित्‌ ही | खेत एकदम विचित्र थे। हाथ डेढ़ हाथ लंबी--ऊपर से इतनी ही लचाई जान पड़ती थी--सीदियाँ थीं। मालूम हुआ यहाँ के खेत यद्दी हैं कोई बताता नहीं, तो उन सोपान-पंक्तियों को खेत कोन समझता ?

अन्र तक निभर एक भी दिखाई नहीं पड़ा था। निभररों के द्वारा ही रसातल अपना स्नेह इस ऊचाई के प्रति अर्पित करता है। यहाँ के लिए जेसे हम सब्र रसातल के ही पड़ोसी थे इसी से निकोर देख कर तृप्त होने की

इच्छा थी। एक जगह एक नदी सी दिखाई दे गई। पर कदाचित्‌ इन दिनों

उसका कोई निजल तब्रत था आगे किसी जगह दूर से एक क्षीण जलधारा देख कर बड़ा कोतृूहल हुआ पता नहीं, क्रिस पुनीत सरिता का बाल्यकाल उसमें था। नाम-हीन, परिच्रय-द्दीन इस धारा ने आगे चल कर किस विराद्‌ गरिमा को धारण किया है, यह हमसे कोई नहीं बता सका | किसी बहुत बड़े योकनायक को, किसी वन्दनीय कविमनीषी को, लौट कर हम उसके बाल्यकाल में देखें, चित्र में नहीं प्रत्यक्ष, तत्र जो पुलक हम में उठ खड़ा हो, वही इस जलधारा से मेरे मन में हुआ

सहसा नीचे की श्रोर एक सड़क दिखाई दी। पूछा--यह दूसरा रास्ता कहाँ को है ! बताया गया-- वही तो, जिस पर चले रहे हैं ।” जान पड़ा, सड़क को दूनर करके जैसे किसी ने उसकी तह कर दी हो। यहाँ हम बहुत ऊँचाई पर गये हैं। नीचे की ओर खड़ु पर खडु, और ऊपर हमारी गाड़ी सरपट दोड़ी जाती दे, ड्राइवर ज़रा भी अ्रसावधान हुश्रा नहीं कि फिर क्‍या हो, 'कौन जाने | इन भयड्डूर गतों को देख कर चक्र आता है। मैं ही नहीं, दूसरों

र५भ८ प्रबन्ध-प्रभाकर

को भी चक्कर आते हैं, यह जान कर संतोष की साँश लिये बिना नहीं रहा गया एक जगह निचाई देख कर क्षण भर के लिए आँखें कप गईं। अपनी “मंजुत्रोष” कविता का एक अंश याद हो आया देवलोक से शंपा ( त्रिजली ) अपने स्वामी मेघ के साथ हिमालय पर जहाँ आती हे, वहाँ एक जगह की निचाई देख कर उसे भय होता द्दे। मेरी वह कल्पना कोरी कल्पना नहीं है, इस विचार से आनन्द का अनुभव हुआ इतनी ऊँचाई पर पहुँच गया हूँ कि नीचे के खड़ों में बादल दिग्बाई पड़ते हैं | श्राकाश हमारे नीचे है। दूर-दूर जहाँ तक, दृष्टि जाती है, ऐसा जान पड़ता है कि शांत समुद्र हो। उस समुद्र में ही हम तेरे जा रहे हैं समुद्र में तरंगाघात नहीं है शान्‍्त निश्चल, सुविस्तीण ऐसे समुद्र की पहले' कल्पना नहीं की थी पहाड़ हमारी दृष्टि से ओकल हो गया है। इस स्व- निर्मित समुद्र में जैसे उसने डुबकी ली हो अन्र फिर गिरिराज ओर हमारी गाड़ी एक इमारत के पास पहुँच कर रुक गई। नैनीताल निकट ही है ओर उसी का यह चुज्लीघर है। प्रकृति के विशाल क्रीड़ाक्षेत्र पर मनुष्य-कृत यह रचना रुचिकर नहीं जान पड़ी | अपने में द्रवा-ड्ूदा में गुनगुना रहा था+- “(शम्पे प्रिय शम्पे) यही पावन नगाधिराज , कर के अचंचल नयन आज कर लो निमजित पवित्र पयोद्गम में , दिवा ओर भव के इस विचित्र सद्भम में !” इस सड्भम में जैसे यह कहीं का कदम पड़ा हो। प्रत्येक यात्री को यहाँ एक रुपया कर चुकाना पड़ा आगे के मोटर स्टैंड का पहला ही दृश्य भीषण था कुलियों के एक भुंड ने कर मोटर ओर मोटर-यात्रियों पर हल्ला बोल दिया जी एकदम घत्ररा उठा। कपड़े कुलियों के शरीर पर थे, पर क्या कपड़े ही उन्हें कहना चाहिए. ? किसी मरणाततन्न वृद्ध को बालक कह सके, तो उन चिथड़ों को भी हम कपड़े कह सकते हैं “बाबू , हम आपका सामान ले चलेंगे, हमें ले चतलिये हमें ।”-.जनकी इस कातर प्राथना में जाने क्‍या ब्रात थी कि जी

हिमालय की कलक ३५६

काँप उठा उसमें कातरता थी, उसमें घिक्कार था, उसमें भत्सना थी क्‍या नहीं था उसमें ?

पहला जो कुली सामने गया, उसी से हामी भर देनी पड़ी सब के योग्य सामान मेरे पास था कुली सामान सम्हाल ही रहा था, इतने में उसका एक दूसरा भाई पहुँचा पहला कहता था कि हमीं सब् सामान ले जायेगे, दूसरा कहता था-हम ! अन्त में एक का सामान दो में बाँट देना पड़ा। दूसरे ने कोई तक सुनना पसन्द नहीं किया उनमें एक क्षत्री था दूसरा ठाकुर | दोनों लड़ झगड़ कर रवाना हुए |

यह नैनीताल है--लगमग एक मील लम्बी मील नीले रह्ञ का शान्त सरोवर इस समय तरद्भायित नहीं है शान्त है, सुस्मित है अन्य सरोवरों की भांति यहाँ स्नान और जलक्रीड़ा का उत्सव नहीं दिखाई दिया दशन से ही यह शरीर और मन को शीतलता पहुँचाता है जल-विहार के लिए कुछ नोकाएँ तट पर बँधी हैं। कील के किनारे चल कर यह पतली सड़क ऊपर चढ़ गई है, जिसे एक ओर के ऊचे! शैल को काट कर तैयार किया गया है। ऊपर सबन वृक्ष-राशि है। बड़ी-बड़ी शिलाएँ अपना अ्रधभाग कटवा कर अपनी जगह स्थिर हैं भूकम्प के कठोर हाथों से कोई अदृश्य ओर अ्रज्ञात इनमें से किसी को मचमचा दे तो क्या हो ? यहाँ इनके नीचे हम लोग जो चल रहे हैं, उनका क्या हो ? प्रश्न ऐसा है कि इसे टाल ही देना चाहिये

शीत यहाँ काफी है। गर्मी के कपड़ों से काम चलेगा | इसी समय श्रनेक महिलाएँ कुड की कुड दिखाई दीं प्राचीनाएँ भी, ओर आधुनिकाएँ भी; रंग-बिरंगे बारीक वस्र धारण किये हुए. देख कर तसल्‍ली होती है कि आक्रमण कर देने के लिए निमोनिया इस समय यहाँ सन्नद्ध नहीं खड़ा है देवियाँ देवताओं में साहस का, पौरुष का संचार करती हैं, इसका एक नया प्रमाण मिला |

अपने डेरे पर श्रा पहुँचा हूँ। काफी सुन्दर स्थान है। स्वागत करने षालों से एक द्वी शिकायत है वे श्रतिथि के रूप में मुझे ज्ञेना चाहते हैं

३६० प्रचन्ध-प्रभाकर

मैं चादता हूँ, मैं उन्हीं में का एक हो जाऊँ बाहरी जन हो कर सम्मान ओर आदर विशेष मिलता है, परन्तु घाटे में भी कम नहीं रहना पड़ता

समुद्र-तल से लगभग सात हजार फुट की ऊँचाई यह है इसका मतलब यह हुआ कि सूय के कितने निकट पहुँच गया हूँ साधारण न्याय से सूर्य का उत्ताप यहाँ अधिक होना चाहिए पर बड़ों के सम्बन्ध में साधारण न्याय से विचार करना कदाचित्‌ ठीक नहीं होता

जीवन में दो ही बार हिमालय के वणन का सोभाग्य मिला है एक बार तब, जब कि यहाँ से सैकड़ों मील कमरे में बेठ कर मझ्ञ घोष” कविता लिख रहा था। और दूसरी बार यहाँ इस समय नैनीताल में जानकार लोग यही कहेंगे कि मैंने एक बार भी दशन नहीं किया उनसे मुझे समभोता करना पड़ेगा। इस बार भले ही मैंने गिरिगज के दशन किये हों किन्तु उस बार के सम्बन्ध में प्रश्न तक नहीं उठ सकता उस कल्पना की वास्तविकता में मैं असंदिग्ध हूँ |

इस बार दशन हुए हों या हुए हों, देवतात्मा का बहुत बड़ा प्रसाद ले कर यहाँ से उतर रहा हूँ। मेरे मन में घर के लिए उत्सुक वेदना जाग उठी है। जान पड़ता है, स्व॒ग विहार करने वाली आत्माएँ पुण्य के ज्ञीण होने पर भी अनिच्छा के साथ नहीं लोटतीं | प्रथ्वी पर भी कुछ ऐसी गरिमा है, कुछ ऐसी स्नेह-माधुरी है, ऐसा आकषण है, जिसके कारण स्वेच्छा से ही उन्हें इसकी गोद में फिर आना पड़ता है। इस आकषण की गुरुता से ओर तीव्रता और शक्तिमत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं

सोच रहा हूँ, इस समय वर्दों के उस सुन्दर प्रान्त भाग में आकाश मेत्रों से भरा होगा | यहाँ की तर मेघ्र नीचे उतर कर हमारे शरीरों को वहाँ नहीं छूते, परन्तु इस कारण दूर होने पर भी वहाँ वे हमारे अधिक निकट हें। आधिकतर मनमोहक हैं, अधिकतम वांछुनीय हैँ | वहाँ घन-गम्भीर घोष होता है, वहाँ क्षण -क्षण पर बिजली कौंधती है, वहाँ रिम-मभिम बूंदें पड़ती हैँ श्र थोड़ी ही देर में श्रवण्ड ओर प्रतल घारा-पात से छोठे-छोटे नाले तक प्रखर प्रवाहिणी

हिमालय की कलक ३६१

का रूप धारण कर लेते हैं। यहाँ की तरह वृष्टि अरुचि नहीं उत्पन्न करती, वितृष्णा से मन को नहीं भर देती | इसके लिए भीतर और बाहर एक-सी जलन है, एकसी चाह है। इसी से मेघदूत का विरही यक्ष वहीं के रामगिरि पर दिन काटने के लिए उतरता है। वहाँ के मेवागम में “वष-भोग्य” शाप कौ शान्ति है | प्रिय विरहदूत का पुनर्तिलन है। इसी से इस समय वहाँ घर-घर आनन्द छाया हुआ है, घर-घर उत्सव की बाँसुरी वहाँ मेघ मुरज के ताल पर बज उठी है। वहाँ के आम, वहाँ के जामुन, वहाँ के नीम नयी वायु में चश्चल होकर दोलायित हैं त्नियों के मधुर स्वर में सावन का गीत है, पुरुषों की ध्वनि में मलार की तान है। बेतवा अपने दोनों ही कूलों पर श्रज के नवीन आनन्द में मुखरित हो उठी है | सीधे ओर टेढ़े कितने ही मार्गों के बींच में हो कर अनेक आवत्त -विवरत्तों में कहीं तो फेनोच्छु वास के द्वारा वह खिलखिलाती जाती है ओर कहीं पर जम्बु वृक्षों के श्यामायमान वनों के मध्य कठिन प्रस्तर-शिलाश्ों से टकरा कर अद्टहस करती हुई दौड़ती है। उछलती हुई, कूदती हुई, किस पुलक से भर कर आज उसने अपने किस प्रिय के लिए. अभिसार किया है। उसका यह उत्कट उत्साह आज वहाँ के गाँव-गाँव में, वहाँ के घर-घर में दूर-दूर तक फैल गया है इतनी दूरी पार करके आज उसने अपनी स्मृति यहाँ इस मेरे मन तक पहुँचा दी है हिमालय की इस यात्रा ने वहाँ की यह आनन्दानु भूति जिस उतल्कण्ठा के साथ द्वदय में अंकित कर दी है, उसे मैं कभी भूलूंगा मेरे लिए वह क्या पुरानी पढ़ेगी !

असमय में यह यात्रा की थी, इस लिए. हिमालय के श्रीमन्दिर की भलक तो दूर से दिखाई दे गई है, पर उनका रूप-दशन मुझे नहीं हुआ | वहाँ के लीला-निकेतन ने अपने पट मेरे लिए. नहीं खोले वहाँ की हिम-गंगा, वहाँ का कुसुम-हास वहाँ की रंग-बिरंगी परिधानसजा, वहाँ के क्षण-क्षण पर परिवर्तित प्रकृति चित्र, वहाँ के नि्र-प्रगात, वहाँ की सरिताओं के उद्दाम तत्य, वहाँ के पलायित प्रवाहों के ग्रीवा-भंग मेरे देखने में नहीं श्राये | खिन्‍न मन से मैं नीचे उतर रहा हूँ।

पाँच सो फुट नीचे उतर कर इस भील के किनारे खड़ा हो गया हूँ |

३६२ प्रशन्ध-प्र भाकर

पीछे की श्रोर देख लेने के लिए. एक बार गदन मोड़ कर दृष्टि डाली | इस एक क्षण में, विदा के इस एक छण में, यह मेरी दृष्टि कहाँ से कहाँ जा पहुँची है ! चारों ओर नीला कुदहरा छाया है | नीलाकाश की नीलम-रज ही यह जैसे यहाँ फैली हो उसके सौन्दर्य की श्रनुभूति ही अनुभूति होती है, वाणी उसे छू नहीं सकती | इस नीलपुञ्ञ में नैनीताल की उच्च श्रद्व- लिकाएँ अदृश्य हैं | वहाँ कुछ दिखाई नहीं देता | दिखाई नहीं देता, फिर भी यह देख क्या रहा हूँ, श्रनुभव कर क्या रहा हूँ ? किसी एक अद्टालिका की ही एक कोर अ्रस्पष्ट रूप से वहाँ जान पड़ती है | क्या वहाँ, उसी जगह कहीं वह “खतस्तगंगादुकूला” अलकापुरी है? वहाँ तक चम-चक्षुओं की पहुँच नहीं होती, फिर भी वहाँ का कोई अनुपम, कोई अलोकिक, कोई अवणनीय चित्रपट एक- 'साथ मेरे आगे खुल पड़ा है। जान पड़ता है वहाँ वे वधुए, हाथ में लीला-कमल लिये हुए हैं; अलकों में उनके बालकुन्द गुथे हैं; मुख-मंडल लोभ्र-पुष्प के पराग से रंजित हैं; करों में शिरीष पुष्प, चूड़ापाश में नवकुरबक ओर सीमन्त में उनके कदम्ब कुसुम हैं ' विद्य दन्तं ललित बनिताः' श्रादि में कवि के द्वारा उल्लिखित उन अलोकिक वनिताओं की एक भांकी से इस एक क्षण में जाने किस अतुलनीय पुलकभार से में समाच्छुन्न हो उठा हूँ। जाने वह केता है, जाने वह कितना है, जाने वह कहाँ का है, उसके सम्बन्ध में में कुछ नहीं कह सकता

--श्री सियारामशरण जी के 'भूठ सच! में संग्रहीत नित्रन्‍्धों में से पूण कृतज्ञता के साथ उद्घृत | यह वरणन-प्रधान विवरणात्मक नित्रन्ध का अच्छा उदाहरण है

५१६, ताजमहल की आत्मकहानी

अपने विधाता को मैं अपने अंक में लिये बेठा हूँ जिसने मुझे खड़ा किया वही मेरी गोद में सो रह्य है, जिसके लिए, मैं खड़ा किया गया वह तो मेरी गोद में सो ही रदी है उनके इस श्रप्रतिम स्नेह को पा' कर मैं गव से फूला नहीं समाता शताब्दियाँ बीत गईं पर उनके स्नेह का वैमव श्राज भी

ताजमहल की श्रात्मकद्दानी ३६३

मुझ में सुरक्षित है। इस वैभव को संसार जाने कब से विस्मय-विमुग्ध हो कर देख रहा है | दुनिया के महान्‌ आश्चर्यों में मेरी गणना की जाती है |

सम्राट शाहजहाँ और सम्राशी मुमताज की में प्रेमसमाधि हूँ। प्रेम की पवित्रता और तल्ज्ञीनता का मैं स्मारक हूँ भेद-भावों में पड़े मनुष्यों को में यह संकेत कर रहा हूँ कि प्रेम ईश्वरीय सृष्टि की सत्रसे बड़ी विभूति है। दो जिछुड़े हुए हृदय मेरी गोद में जुड़े हुए हैं अत्याचारियों ने समय समय पर आक्रमण किया--मुझे भी लूटा गया | मेरे आभूषणों, रत्नों ओर जबाहरों को लोग ले गये | मेरे शरीर को उन्होंने नम्न कर दिया। पर मेरे अ्रन्दर जो वैभव छिपा पड़ा है--जो दो हृदय जुड़े पड़े हें--उन्हें लूटने का साहस वृशंस से उशंस भ्त्याचारी को भी नहीं हो सका | प्रेम की लो के सामने उनकी आँखें खुली नहीं रह सक्रीं। मैं भोतिक ऐड्व्य का स्मारक नहीं--प्रेम का स्मारक हूँ मेरी नींव में उस वियोगी सम्राद के दो बू आँसू चू पढ़े थे कहते हैं आकाश का द्वदय भी उन आँसुग्रों की स्मृति में द्रवीभूत हो उठता है ओर दो बूद आँसुओ्रों से वह मेरे हृदय को सींचने का प्रतिव्ष प्रयत्न करता है। पर मेरे हृदय तक उसके सभी आँसू पहुँच जाते हैं--कल्पना जगत्‌ के विश्वासों पर में विश्वास नहीं करता उसके आऑसुग्रों से तो मेत कलेवर भी निखर उठता है।

यमुना के किनारे पर में खड़ा हूँ। आगरे के स्नेह को मैं भूल नहों सकता उसे छोड़ कर में कहीं नहीं जा सकता योगी की समाधि की तरह में आगरे में यमुना के किनारे अ्रपनी स्मृतियों को सेजोने का प्रयास करता हूँ। बावली यमुना भी मेरे अतीत वैभव के स्वर्णिम दिनों को याद कर दुख से सूख रही है | वह श्यामा हो गई है। मुझे उस पर स्वाभाविक रूप से स्नेह है | हम पुराने साथी हैं वह हिलोरे ले कर मुझे प्यार करती है। अ्रपनी सुनाती है, मेरी सुनती है

कहते हैं, में वास्तविकता का अ्रद्धितीय उदाहरण हूँ श्वेत संगमरमर से मेरा निर्माण हुआ है। मेरे निर्माण में करोड़ों रुपये व्यय हुए। हनारों आदमियों का पेट भरा एक युग में भी मेरा निर्माण-कार्य समाप्त हो सका

मृत्युशय्या पर श्रंतिम सांस गिनती हुईं मुमताज की यही तो अंतिम

३६७४ प्रचन्ध-प्रभाकर

इच्छा थी। उस स्वर्गीय देवी की बात शाइहजहाँ केसे टाल सकता था ? इसीलिए तो उसकी इच्छानुसार उसकी यह बेजोड़ कब्र अ्रस्तित्व में आई। कब्र ? पर यह कब्र श्रभागी नहीं। रात-दिन इसे देखने जाने कितने ज्ोग आते हैं| सुदूर विदेशों से यात्री कर मुझे देख कर अपना आ्राना साथक सममभते हैं मेरे पास कर उन्हें श्रद्धा से कुक जाना पड़ता है। उनके मनोभावों को पढ़ने का मुझे भी श्रवसर मिलता है। अपने सम्बन्ध में उनकी धारणाओ्ों को देख में मुसकरा उठता हूँ ।**उसने अपने पति से कह--प्रिय ! अ्रगर मेरी मृत्यु के पश्चात्‌ तुम कोई अनुपम स्मारक बनाने का वचन दो तो अभी में इस ताज के उस बुज से कूद कर अपने प्राण त्याग दूँ ।”'क्या कल्पना है ! मुझे भय है, कोई सचमुच मेरे प्रांगण में प्राणों का विसजन कर दे। मानव समाज की बबरता को देख कर आज मेरा पाषाण हृदय भी क्षुब्ध हो उठा है। मुझ सा स्मारक अब और किसी को अ्रपने अन्तर में स्थान देने में श्रपने को ग्रसमथ पा रहा है |

मुगल साम्राज्य के ऐश्वय के दिन बीत गये भारत की इस असहाय ग्रवस्था को देख कर आज मुझे दुख होता है। सिनेमा के पट पर मेरी छवि अंकित करने के लिए लोग यहाँ श्राते हैं, मेरे चित्र उतारते हैं। चित्र#र अ्रपनी तूलिका से मुझे अमर करना चाहता है। कवि अपनी रचना में मुझे . चिरजीवी बनाने का प्रयत्न करता है | पर मेरा हृदय विदीण होता जा रहा है। सम्राट ओर सम्राजशी भी भ्रपने भारत की इस दुरवस्था को देख कर म्जञान हो रहे हैं। अगर यही अवस्था रही तो दुख के बोझ से में टह जाऊँगा--श्राज नहीं, कल सही | में चाहता हूँ मुझ से प्रेम का पाठ ले कर भारतवासी एक सूत्न में बँध जायें ओर अपने देश का कल्याण करें।

मुझे किसी से प्रतिद्दन्द्रिता नहीं। आगाखाँ महल आज इस युग में मेरा एक सच्चा साथी हुआ है | कस्तूरबा उसकी गोद में है। मेरी गोद में प्रेम की देवी है | उसकी गोद में कत्त व्य की देवी है। मुझे विश्वास है, इस प्रेम और कत्त व्य के सन्देश को ले कर मानवता अ्रपना कल्याण करेगी।

५१७, भक्ति की रीति निराली हे#

भारतवर्ष में श्रादिकाल से ईश्वर-प्रात्ति के तीन मार्ग माने गये हैं, शान, कर्म और भक्ति | यद्यपि ज्ञान का पंथ कृपाण की धार! बतलाया गया है और कम की गहना गति! कही गई है, तथापि वेदों और शास्त्रों ने इन दोनों मार्गों को निश्चित रूप दिया है। भक्ति छ्वदय का विषय है; हृदय दी गति स्वच्छुन्द है, वह नियम और शासन से बाहर है | प्रेम का पाठ पदाये से नहीं पढ़ा जाता प्रेस तो बाड़ी में उपजता है और हाट में त्रिकता है।” 'प्रेम! का उदय हृदय में होता है | वेद उसका भेद नहीं जानते; पाणिडत्य उस के लिए कोई मह्त्व नहीं रखता | योग उसके वियोग में संयोग उतन्न करने में ग्रसमर्थ रहता है --ऊथो जोग जोग हम नाहिं' सूत्र उसको बाँध नहीं सकते, धर्म-शास्र उसको शासन में नहीं ला सकते, द्शन-शाखत्र भी उसके लिए कोई महत्त्व नहीं रखते -- माय कराय सके पट दरसन दरसन मोहन तेरो दिन दिन दूनों कौन बढ़ाव या हिय माँक अधेरो राज-विधान में उसके लिए स्थान नहीं घर-बार, मान- मय्यांदा, कुल की आन, सब का प्रभात विफल द्ोता है | किती गोकुल कुल-बधू काहि किहि सिख दीन। कोने तजी कुल-गली हो मुरली-सुर लीन॥

भक्त की यही दशा होती है। उसे जाति-पाँति का कुलु ख्याल नहीं रहता। “हरि को भजे सो हरि को होई', वह हिंदू रहता है श्रोर मुसलमान, ईसाई, जेन-- हाँ हम सब्र पंथन ते न्यारे, लीनो गहि अ्रत्र प्रेम-पन्‍्थ हम ओर पनन्‍थ तज प्यारे! | उसे तो अपनी ही धुन रहती है मीरा की भाँति उसको

घन-घान्य, राजपाठ, शान औ्रोर गोरव सब देय हो जाते हैं--

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो कोई

सनन्‍्तन दिंग बैठि बैठि लोक-लाज खोई भक्ति के प्रभाव से सत्र सांप्रदायिक विरोध नष्ट हो जाते हैं। हिन्दू मुसल-

& इसका दूसरा शीर्षक यह भी हो सकता था प्रेम को पेंडो ही हे न्‍्यारो'

३६६ प्र बन्धन्प्र भाकर

मान का भेद नहीं रहता | देखिये एक मुसलमान कवयित्री ताज क्या कहती है-- नंद के कुमार कुरबान ताँड़ी सूरत पे तांण नाल प्यारे, हिन्दुवानी हे रहूँगी मैं जिस प्रकार उसके लिए जाति-पाँति का ध्यान नहीं रहता उसी प्रकार उसे अपना भी ध्यान नहीं रहता उसे मुक्ति की भी चाह नहीं रहती, उसे तो केवल प्रेम' की चाह रहती है | वह यदि कुछ माँगता दे तो भक्ति | वह तुलसी- दास जी की भाँति यही कहता है कि देहु भक्ति श्रनगायिनी | उसको एक ही बल, एक ही भरोसा और एक ही आशा तथा विश्वास रहता है। वह यही चाहता है कि वह चकोर की भाँति अपने प्रियकम को देखता रहे रामचन्द्र चन्द्र तू चकोर मोहि कीजिये! | वह ह्वानि-लाभ सुख-दुख को भी कुछ नहीं सममता | वह दुख को भी सुख मानता है। वह द्रोपदी की भाँति दुखों का स्वागत करता है; क्‍योंकि दुख में भगवान की याद आतो है सच्चा भक्त कठिनाइयों से विचलित नहीं होता, प्रेम का बदला भी नहीं चाहता, प्रेम करना ह्वी उसका एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। बस उसकी चातक की सी गति हो जाती है-- उपल बरलि गरजत तरजि, डारत कुलिस कठोर | चितव कि चातक जलद तजि, कबहुँ आन की ओर धन वैभव घट जाने की उसको परवाह नहीं, भोतिक बल की उसे चिता नहीं | उसे यदि चिता है तो केवल इस बात की कि उसका प्रेम घटे-- खबन घटहु, अनि दृग घटहु, धटहु सकल बल देह इते घटे घटिदे कहा, जो घटे हइरि नेह भक्त को भगवान के मिलने पर दुख होता है वह उस दुख की भी सराहना करता है। विरह का शाप उसको वरदान हो जाता है। कबीर की भाँति वह विरह-शूत्य हृदय को मसान समझता है। विरह का काँटा उसके हृदय में खटकता है, किन्तु उसकी कसक को वह मघुर समझता है-- कहा निकासन आई उर ते काँटो अरी हटठीली। चुभ्यो रहन दे, लागति नीकी वाक्ी कसक चुभीली॥

भक्ति की रीति निराली है ३६७-

यह तो भक्त का निरालापन है कि वह कांटे को भी नहीं निकालने देता; वह उपदेश को उलटा उपदेश देता है ऊधो गोपियों को समभाने आते हैं, उन्हें योग की शिक्षा देते हैं, वैरग्य का महत्त्व बतलाते हैं, प्रेम-दुःख से गोपियों को मुक्त करना चाहते हैं, लेकिन क्या मिलता है-- श्याम गति, श्याम मति, श्याम ही हैं प्रानपति , श्याम सुखदाई सो भलाई सोभाधाम हैं। ऊधो तुम भये बौरे, पाती लैके आए दौरे, योग कहाँ राख यहाँ रोम-रोम श्याम हैं। )८ )८ ५८ कान्ह भये प्रानमय प्रान भये कान्हमय , हिय में जान परे कान्ह हैं कि प्रान हैं। योग के उपदेश ऊधो भो इस उत्तर को सुन कर दंग रह जाते हैं। अआ।त्म-विस्मृति उनको भी घेर लेती है-- लखि गोपिन को प्रेम, नेम ऊधो को भूल्यों गावत गुन गोपाल फिरत कुजन मैं फूल्यो खिन गोपिन के पग धरे धन्य तुम्हारों नेम धाइ-घाइ द्र॒म भेटही ऊधो छाके प्रेम॥ भक्त के लिए संसार की सभी बातें उलटी होती हैं वह श्याम रंग में डूबने को उज्ज्वल होना समझता है--ज्यों-ज्यों बूड़े श्याम रंग, त्यो-त्यों उज्जलु, होय' | उसके लिए. सोना ओर जागना एक दो जाता है। मरण ही उसके लिए जीवन होता है। पाने में में तुमको खोऊँ खोने में समभू पाना; यह चिर अ्रतृति हो जीवन , चिर-तृष्णा हो मिट जाना! क्‍या ही सुन्दर भाव है ! संसार के सुख ओर ऐश्वर्य को पाने में प्रियतम को खोना है और संतार को खो देने में प्रियतम को पाना है श्रतृप्ति

३ष्८ प्रचन्ध -प्र भाकर

ही जीवन है प्रेम-पिपासा मिटती नहीं, यदि उसको तृष्णा है तो बस मिट जाने की |

भक्त जन विरोधों के संत्रात बन जाते हैं कभी तो दीन से भी दीन, कभी हठी से भी इठी दिखाई पड़ते हैं कभी तो हों सच्र पतितन को टीकों,, 'प्रो सम कोन कुटिल खल कामी"*”, पापी कौन बड़ो है मोते सब पतितन -में नामी, सूर पतित को ठोर कहाँ है, सुनिए श्रीपति स्वामी, सूरदास द्वारे ठाढ़ो आँधरो मिखारी' कहते हैं ओर कभी अकड़ बैठते हैं ओर लड़ने को 'तैयार हो जाते हैं--

आज हों एक-एक करि टरिहों |

के हमहीं कै तुमदीं माधव अ्रपुन भरोसे लरिहों

भक्त के लिए, कोई नियम नहीं, कोई शश खला नहीं, कोई बन्धन नहीं वह स्वच्छुन्द है, वह उन्मुक्त है, वह अपनी घुन का पूरा है यदि उसकी कोई चीज़ स्थिर है तो उसकी लगन है, इसके सिवाय उसके मन की बात जानना कठिन है। वह कभी रोता है ओर कभी हँसता है, कभी रीकता ओर कभी खीमता दै। वह संसार में नहीं रहता, उसकी मथुरा तीन लोक से न्यारी होती है। उसके हृदय का रहस्य वही जानता है। उसके मीतरी मम को-द्द को-- सांसारिक लोग नहीं समक सकते | जाके पायें फटी बिवाई, सो का जाने पीर पराई, भक्ति की रीति भक्त ही जानता है सांसारिक लोग तो बस इतना ही "कह सकते हैं कि--प्रेम को पंडो ही है न्यारो

५८, विश्व-प्रम ओर विश्व-सेवा

“वास उसी में है विभुवर का, है बस सच्चा साधु वही,

जिसने दुलियों को श्रपनाया, बढ़ कर उनकी बाँह गद्दी

आत्म-स्थिति जानी उसने ही; पर-हित जिसने व्यथा सही ;

'पर-हिताथ जिनका वैभव है, है उनसे यह घन्य मही॥” -मैथिलीशरण गुप्त

विश्व-प्रेम श्रोर विश्व-सेवा ३६६

“जी से प्याय जगत-हित थ्रो लोक-सेवा जिसे है प्यारी ! सच्चा श्रवनितल में आत्मत्यागी वही है ।” “-प्रिय-प्रवास संसार के मनुष्य, पशु, पक्ती, कीट, पतंग इत्यादि सभी प्राणी स्वहित- साधन में तत्यर रहते हैं अपने पर प्रेम करना किसी से सीखना नहीं पड़ता अपने लिए सबके सच्र उदार ही हैं | हाँ, यह ठीक है कि मनुष्य स्वभाव से ही अपने ऊपर प्रेम करता है, किन्तु ऐसे लोगों की संख्या बहुत थोड़ी है जो अपने अतिरिक्त और किसी व्यक्ति को प्यार करते हों मनुष्य अपने हित-चिन्तन के साथ दूसरे का भी हित-चितन कर ही लेता है। क्ररातिक्रर मनुष्य के हृदयन्षेत्र में दया के कोमल बीज समूल नष्ट नहीं हो जाते कभी-कभी समय पा कर वे अंकुरित हो आते हैं | निष्ठुर व्याध दिन भर भीषण हत्या-काणइड में प्रवृत्त रहता है--किस लिए. ? अपने ओर अपने बाल-बच्चों के भरणु-पोषण के निमित्त अपने प्यारे बच्चों के लिए तो निष्करुण व्याध का भी हृदय अत्यन्त कोमल हो जाता है | ऐसे-ऐसे नर- पिशाच, जिनका हृदय कभी किसी के लिए दयाद्र और प्रेम-प्लाजित नहीं हुआ, शुष्क वैज्ञानिक अथवा अथशास्त्र विशारद्‌ पंडितों के विभीषिका-पूण मध्तिष्क में घुसते हों, तो हों, किन्तु इस प्रत्यक्ष दृश्यमान जगत्‌ में तो वस्तुतः कहीं ऐसे पामर पतित नहीं दिखाई पड़ते | भयंकर बाबर भी बाघधिनी पर आसक्त हो उसके लिए अपनी भारी भयं- करता भूल जाता है | काल-रूप सर्प अपनी प्यारी नागिन के लिए. अपनी दु्दम- नीय विषेज्ञी शक्ति भूल कर कोमल कलेवर धारण कर लेता है | ऐसा कोई नहीं, जो किसी किसी काल में श्रपना व्यक्तित्व छोड़ता हो | जहाँ व्यक्तित्व गया, वहों प्रेम की विजयध्वनि हुईं सभी विश्वव्यापी पविच्र प्रेम के अधीन हैं प्र मदेव के वशीभूत होने पर फिर व्यक्ति कहाँ ? प्रेम के प्रज्वलित, पुनीत पावक में पाथक्य का नाश हो जाता है जहाँ प्रेम है, वहीं व्यक्तित्व का नाश है। प्रेम में ही श्रात्मा के केन्द्र का विस्तार दिखाई पड़ता है। सच्चे प्रेम के साथ स्वाथ और हिंसा-बृत्ति का अस्तित्व नहीं रह सकता महर्षि २४

"२७० प्रबन्ध-प्रभा कर

कण्व के श्राश्रम में आया हुआ शिकारी दुष्यन्‍्त अ्रपनी द्िंसा-बृत्ति को भूल जाता है| उसका प्र म-प्लावित द्ृदय उन हरिणियों पर, जिनके साथ रह कर उसकी प्रिया ने भोली चितवन का पाठ पढ़ा था, तीर चलाने से विद्रोह करने लगता है ओर प्रम के कोमल प्रवाह में पड़ कर वह समस्त वन्य जन्‍्तुश्रों को अभय-दान दे देता है

वह कहता हैः--

शर चढ़ाय यह चाप, तानि सकत नहिं मृगन पे जिन सिखई प्रिय आप, भोरी चितवन संग बसि

ओर भी देखिएः--

भेसन देहु करन रेगरेली। सींग पखारि कुण्ड बिच केली

हरिण यूथ रूखन तर आवे | बैठि जुगार करत सुख पावें

सूकर बृन्द डद्दर में जाई। खोद निडर मोथा जर खाई

शिथिल प्रत्यश्वा धनुष हमारो आज त्यागि श्रम होइ सुखारो

जहाँ एक बार व्यक्तित्व का त्याग हुआ, बस कोई सीमा बाँधना बृथा है। जब अपने व्यक्तित्व का नाश हुआ, तब सारे भेद भी उसी के साथ छिन्न- भिन्‍न हो गये |

प्रेम का अथ ही है--व्यक्तित्व का परित्याग | फिर जहाँ ज्ञान हो कि सब स्थानों में एक ही पविन्नात्मा का प्रकाश अ्रथवा विकास है, वहाँ प्र म-- रुके हुए जल-खोत की माँति--सारे बन्धनों को तोड़-फोड़ कर चारों श्रोर फैलने लगता है| प्रम का शुद्ध खोत अथाह है। प्रम की स्वाभाविक वृत्ति विश्व-प्र द्वारा सम्मव है | भोतिक पदार्थों की भाँति प्र की परिमिति नहीं व्यापकता के साथ इसकी तीव्रता घटती नहीं, वरन्‌ उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है

विश्वप्र म॒ उन्हीं के लिए. कठिन एवं दुस्साध्य है, जो अपनी आत्मा को पंच महाभूतों का ही गुण मानते हैं प्रकृतिवाद व्यक्तित्व से बाहर नहीं जा सकता, किन्तु उसके मानने वाले भी व्यक्तित्व से बाहर जाने का यत्न किया करते हैं| वे भी पर-हित-स|घन के पक्षपाती हैँ। प्रकृतिवादियों की आत्मा हमारी आ।त्मा से भिन्‍न नहीं। जब विस्तार ही आत्मा का गुण है, तब फिर आत्मा के

विश्व-प्रम और विश्व-सेवा ३७१

विस्तार को कोन रोक सकता है जादू वही है जो सिर पर चढ़ कर बोले

क्या हमें प्रतिक्षण इस बात के प्रमाण नहीं मिलते कि हम इस क्षुद्र शरीर में संकुचित नहीं हैं ? हमारे आदश हमें अ्रपनी परिमितता से बाहर ले जाते हैं। हमारी देह ओर इन्द्रियाँ एकदेशीय हों तो हों, पर हमारी आत्मा में एकदेशीयता का लेश भी नहीं |

आत्मा का विस्तार जितना बढ़ाओ, उतना ही बढ़ता जाता है। जैसे जैसे हमारी ओदायमयी सद्यृदयता की मात्रा बढ़ती जाती है वैसे ही वैसे हमारी आत्मा का वृत्त भी बढ़ता जाता है | साधारण मनुष्य के लिए. उसका घर ही उसकी श्रात्मा है। जाति सुधारक के लिए, जाति ओर राष्ट्रनिमाता के लिए, राष्ट्र ही उसकी आत्मा है। देशानुरागी की आत्मा निज परिवार, कुट्ठम्नर और जाति में ही संकुचित नहीं रहती; उसकी स्वाथ-सिद्धि तो देश के परम कल्याण में हे--देश का ऐश्वय देशभक्त का गौरव है। जिस बात से देश का मुख कलंकित हो, उस बात से उसे भी दारुण दुःख होता है। जिससे देश का मुख उज्ज्वल हो, उसका लांछन छूट जाय, मध्तक उन्नत हो, वही उस देश-भक्त के परमानन्द का प्रधान कारण होता है। मनुष्य मात्र की हित-कामना करने वाले का श्रात्म- विस्तार देश-हितैषी की आत्मा के विस्तार से भी बृहत्‌ है। फिर आाणिमात्र से अविरल प्रेम करने वाले महापुरुष की आत्मा का तो कहना ही क्या ? वह तो समष्टि की आत्मा से एक हो जाती है। एक शरीर में केन्द्रीभूत श्रात्मा के वृत्त का विस्तार जितना ही बढ़ता चला जाय, उतनी ही अधिक आननन्‍्दाम्र॒त की वृष्टि होगी--यह मिट्टी को काया कंचन की हो जायगी--इसी धरती पर स्वग उतर आवेगा आत्मा का विस्तार केवल इस बात को जान लेने से नहीं बढ़ता कि हम सब एक ही हैं। यह ज्ञान विश्व-प्रेम ओर विश्व-सेवा के लिए परमावश्यक है, किन्तु इसका प्रत्यक्षीकरण अ्रथवा स्पष्टीकरण बिना प्रेम औ्रोर सेवा के नहीं होता

विश्व-प्रेम देश ओर जाति के संकुचित बन्धनों को नहीं स्वीकार करता है। उसके लिए शत्रुमित्र का भेद नहीं रहता। दीन-दुखी और दलित ही विश्व-प्रे मी के सगे-सम्बन्धी बन जाते हैं बसुधैव कुटुम्बकम! वाले उदार-चेता

३७२ प्रचन्ध-प्र भाकर

के लिए, कोई वस्तु अ्रदेय नहीं रहती ओर कोई सेवा गर्हित नहीं समझी जाती कुरूपता उसके लिए विकरषण नहीं उत्न्न करती ओर बीभमत्सता उसके लिए अथ-शून्य हो जाती है। रुधिर और पीव खबित करने वाले कुष्छी के गलित अज्भ उनकी मरहप-पद्टी करते समय उसकी घुणा के विषय नहीं बनते संक्रामक रोगों की विभीषिका उसको कतव्य-पथ से विचलित नहीं करती। शीतोष्ण के इन्द्र उसके कतंव्य-मार्ग में बाधक नहीं बनते

विश्व-प्रम की पावनी ज्वाला के प्रकाशपुञ्ञ में जातीयता की क्षीण रेखाएँ विलीन हो जाती हैं सन्न की सेवा विश्व हितैषी का धम बन जाता है। वह शत्र -दल में भी निभय भाव से प्रवेश कर जाता है। वह श्रत्याचारी के आ।गे सिर नहीं क्ुकाता किन्तु वह उससे घ॒ुणा भी नहीं करता। पाप से दूर भागता हुआ भी वही पापी को प्र म-प्रसारित बाहु-पाश में आबद्ध करने को तैयार रहता है वह सेवा-धम को अनेक रूपों में श्रपनाता है। भूखे को भोजन ओर प्यासे को पानी देना, रोगी की सेवा-शुश्रघ्रा करना, अशिक्षितों को शिक्षित बनाना, भूले-भठकों को राह लगाना, श्रत्याचारियों से परित्राण दिलाना, आश्रयहीनों को श्राश्रय देना, बेरोजगारों को रोजगार में लगाना, शत्रुओं में मेल कराना, यह विश्व-मानव देव के प्रति उसकी नवधा भक्ति के विभिन्न अज्ज हैं उसकी भक्ति के रूप नवधा ही नहों वरन्‌ शतधा भी हो सकते हैं। विश्वप्रेम का साधक सेवा के अ्रवसर पा कर उल्लसित हो उठता है ओर अपने सुख-दुख को भूल जाता है। वह उपकृत के आगे नतमस्तक हो उप्के स्वाभिमान की रक्षा करता है। वह दूसरों का तोष दान से ही नहीं बरन्‌ मान से भी करता है

विश्व-प्रेम ओर विश्व-सेवा द्वारा ही व्यक्तित का जठिल बन्धन छूट सकता है। विश्व-प्रेम से द्दी समष्टिव्यष्टि का एकीकरण हो सकता है। विश्व- सेवा द्वारा ही आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है। प्रेम ओर सेवा द्वारा व्यक्ति की परिमितता जाती रहती है। संकोच का श्रकुश्चित विस्तार हो जाता है-- संकीणंता के स्थान में सुब्यवस्थित उदारता का राज्य हो जाता है। सत्सेवा के सहारे हम सच्चे विजयी बन सकते हँ--सारे संतार को श्रपना बना सकते हँ--कलियुग को कृतयुग में पलट सकते हैं। फिर निराश क्‍यों

५६, साम्प्रदायिकता, राष्ट्रीयता ओर अन्‍्तरांष्ट्रीयता

मज़हब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना | हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा “-ईकैत्राल भारत एक स्वतन्त्र राष्ट्र है। राष्ट्र के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उसके रहने वाले एक जाति सम्प्रदाय के ही हों राष्ट्र एक राजनीतिक इकाई है। उसके निवासियों के राजनीतिक हितों की एकध्येयता ओर शासन की एकसूत्रता उनमें संगठन स्थित रखने के लिए आ्रावश्यक है सभी सम्प्रदाय ओर सभी प्रान्त राष्ट्र के अज्भ हैं। राष्ट्र का हित सब का सम्मिलित हित है ओर राष्ट्र का अहित सब के लिए. घातक है ऐसी चेतना ही राष्ट्रीय का मूल है राष्ट्र सब के हित के लिए है उसके लिए हिन्दू , मुसलमान, ईसाई पारसी, सिख सब्र बराबर हैं। वह किसी जाति विशेष का नहीं हे श्रोर किसी जाति विशेष को उसमें कोई विशेष अधिकार हैं, सभी उसके संरक्षण ओर पोषण के समान रूप से अधिकारी हैं सब के उसमें समान अधिकार ओर कर्तव्य हैं। सब पूण रूप से स्वतन्त्र हैं जच्र तक कि वे दूसरे की स्वतन्त्रता में बाधक हों श्रोर राजकीय नियमों का पालन करते रहें साम्प्रदायिकता उस सीमा तक क्षम्य है जहाँ तक कि वह अपने लोगों की सांस्कृतिक उन्नति में सहायक होती है साम्प्रदायिकता वहीं दूषित हो जाती है जहाँ पर कि वह अपने लोगों के लिए दूसरों की अपेक्षा विशेषाधिकार चाहने लगती है अपने अपने धम का अविरोध रूप से पालन करते रहना साम्प्र दायिकता नहीं | श्रपने धम को बलपूवक दूसरों पर लादना या अ्रपनी सुविधा के आगे दूसरों की सुविधाश्रों का ध्यान रखना साम्प्रदायिकता का दूषित रूप हैं साम्प्रदायिकता के इसी दूषित रूप ने देश में दो राष्ट्रों के सिद्धान्त को जन्म दिया और देश के विभाजन सम्बन्धी अ्रसंख्य यातनाएँ शोर भीषण

३७४ प्रबन्धन्प्रभाकर

मारकाटठ के दृश्य इसी के फलस्वरूप देखने में आये | इसकी प्रतिक्रिया भारत में भी हुई महात्मा गांधी घ॒णा को प्रेम से जीतना चाहते थे यह बात लोगों की समझ में आई इसीलिए, साम्प्रदायिक रोष की वेदी पर उनका बलिदान हुआ घ॒णा घृणा को ही बल देती है | घुणा का तारतम्य एक ओर से बन्द करने पर ही बन्द होता है हमारी सरकार ने साम्प्रदायिक्रता के उन्मूलन में किसी जाति का पक्ष नहीं किया इसी कारण साम्प्रदायिक दंगों का जल्दी शमन हो सका

राष्ट्र को समृद्ध ओर सम्पन्न बनाने के लिए सम्प्रदायों में अविरोध ही नहीं वरन्‌ पारस्परिक प्रेम भी अपेक्षित है पारस्परिक आदान-प्रदान में ही दोनों सम्प्रदायों की अभिवृद्धि की आशा हैं विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है। कुछ लोग स्वभाव से अ्रवश्य बुरे होते हैं किन्तु कोई इतना बुरा नहीं कि उस पर सच्चे द्ुदय से की हुई मलाई का प्रभाव पढ़े |

प्रत्येक सम्प्रदाय के लोग अपने-अपने घम और अश्रपनी-अपनी संध्कृति के अनुकूल जीवन यापन करने में स्वतन्त्र हैं। राष्ट्र कैसी के धम श्रोर संस्कृति में बाघक नहीं है ओर एक सम्प्रदाय को दूसरे सम्प्रदाय की घम और संस्कृति में बाधक होना चाहिए। धर्म एकता का द्योतक है। उसे पाथक्य का साधन बनाना चाहिए। जो सम्प्रदाय अपने धर्म का आ्रादर चाहता है उसको दूसरे के धर्म का आदर करना चाहिए. | सब्न धम मूल में एक ही हैं। सभी धम मनुष्य के साथ सद्व्यवद्वार सिखाते हैं ईश्वर किसी विशेष धर्म या जाति का नहीं सवव्यापक किसी एक सम्प्रदाय में सीमित नहीं हो सकता इसी लिए कबीर ओर गांधी जेसे उदारचेता महात्माश्रों ने राम और रहीम की एकता मानी है। ईश्वर श्रल्ला तेरे नाम, सब को सन्मति दे भगवान!

धम के मूल में पाथक्य नहीं। ईश्वर-प्राप्ति के साधनों ओर आराधना के प्रकारों में अन्तर हो सकता है किन्तु यह अंतर पाथ्थक्य का कारण नहीं बन सकता है। जहाँ तक राष्ट्रीय हितों का प्रश्न है वहाँ तक हिन्दू-मुतलमान में कोई अ्रन्तर नहीं | सब्य को अन्न-वस्र ओर रहने के मकानों की श्रावश्यकता द्दोती दे सब को झौषधालयों और न्यायालयों की श्रपेज्ञा होती है, फिर पारथक्य किस बात का !

साम्प्रदायिकता, राष्ट्रीयता ओर अन्‍्तर्राष्ट्रीयता ३७४

राष्ट्रीय विषयों में पाथक्य भावना का पोषण करना राष्ट्र के लिए घातक है। प्रथक निर्वाचन एवं काउन्सिलों में स्थान सुरक्षित रखने के परिणाम स्वरूप ही तो दो राष्ट्रों की कल्पना को प्रोत्साइन मिला और देश का विभाजन हुआ पाथक्य की मावना को दूर हटा कर संयुक्त निर्वाचन ही देश के लिए, हितकर है | संयुक्त निर्वाचन के साथ-साथ बहुसंख्यक जातियों पर इस बात का उत्तरदायित्व जाता है कि इस संयुक्त निर्वाचन के कारण अल्पसंख्यकों के हितों की हानि हो उनके योग्य व्यक्तियों को चुनाव में जाना चाहिए. | बहुसंख्यकों की अनुदारता ही पार्थक्य की भावना को जन्म देती है |

सरकारी नौकरियों में जातियों के अनुपात से स्थान सुरक्षित कराना उचित नहीं है। नोकरियों में जो चुनाव हो वह खुली प्रतिद्वन्द्विताश्रों द्वारा ही हो। उस में चुनने वाले लोगों को सम्प्रदाय ओर बिरादरी की भावना से परे होना चाहिए. | अल्पसंख्यक लोग शिक्षा में पिछुड़े हों तो उनको शिक्षा में ऊँचा उठाने का प्रयत्न करना आवश्यक है किन्तु अल्पसंख्यकों को खुश करने की खातिर अ्रयोग्य व्यक्तियों की भर्ती करना ठीक नहीं

साम्प्रदायिकता चाहे मुसलमानों में हो ओर चाहे हिन्दुश्रों में, बुरी है। राष्ट्र को तो साम्प्रदायिक्ता के विष से दूर रहना चाहिए! | साम्प्रदायिक ऐक्य के लिए सस्कृतियों का एकीकरण भी आवश्यक नहीं | सम्प्रदाय वाले अपनी- अपनी संस्कृति रखते हुए एक दूसरे के प्रति उदार रह सकते हैं। बलपूबक अपनी संस्कृति या अपना धर्म दूसरों पर लादना पाप है किन्तु शान्तिमय साधनों द्वारा सबको अपने-अपने धम के प्रचार की भी स्वतन्त्रता है। धर्म विश्वास की वस्तु है ओर विश्वास बलपूबक नहीं उत्सन्न किया जा सकता है |

साम्प्रदायिक सामझस्य के लिए पर-धम-सहिंष्णुता श्रावश्यक है। धम में कट्टर बने रहना बुरी बात नहीं है किन्तु वह कट्टरता इस हृद तक जानी चाहिए कि वह दूसरों को श्रपना धम पालन करते हुए देख सके। इस सम्बन्ध में पूज्य महामना मालवीयजी के निम्नलिखित उपदेश को सदा ध्यान में रखना चाहिए |

३७६ प्रबन्ध-प्रभाकर

विश्वासे हृदता स्वीये परनिन्दा विवजनम्‌ तितिज्षा मतभेदेषु प्राणिमात्रेषु मित्रता

अर्थात्‌ अपने विश्वास में ढद़ता ओर पराई निन्‍दा से दूर रहना मत- भेदों को छोड़ देना ( सामान्य बातों को ग्रहण कर लेना भेद की बात को उपेक्षा की दृष्टि से देखना ) ओर प्राणिमात्र से मित्रता रखना चाहिए |

साम्प्रदायिक भगड़े जो होते हैं वे इसी पर-धर्म-सहिष्णुता के श्रभाव ओर अपनी ठेक रखने के मिथ्याभिमान के कारण होते हैं धर्मों में कोई बड़ा ओर छोटा नहीं। सभी घम ईश्वर कीं प्रासि के भिन्न-भिन्न साधन हैं 'रुचीनां वैचित्याद ऋजु-कुटिल-नानापथजुषां लमेबैकः गम्यः भवसि पयसामणव इव! रुचियों की विचित्रता के कारण लोग टेढा ओर सीधा मार्ग ग्रहण करते हैं। तुम ही एक सब के गम्य स्थान हो जिस तरह से कि सत्र नदियों का एक लक्ष्य समुद्र ही है। यदि हममें यह भावना जाय तो साम्प्रदायिक भगड़े बन्द हो जायें। साम्प्रदायिक झगड़ों से देश की शक्ति क्षीण होती है ओर पारध्परिक वैमनस्य जड़ पकड़ जाता है। एक बार वैमनस्य स्थापित हो जाने पर भय ओर अविश्वास की मनोब्त्ति जाग्रत हो जाती है, जहाँ पारस्परिक भय द्दोता है वहाँ या तो पलायन वृत्ति का पोषण होता है या हिंसा का। दोनों ही मनोवृत्तियाँ जाति को पतन की और ले जाती हैं। महात्मा गांधी ने वीरों की अहिंसा का प्रचार किया है जो निभय हो कर अहिसात्मक साधनों से अत्याचार का सामना करता है, वीरों की अहिंसा में दूसरों को मारने की अपेक्षा अपने प्राणों का बलिदान करना अधिक श्रेयस्कर समझा जाता है। सब से पहले तो ऐसी परिध्थिति उत्पन्न करनी चाहिए जिसमें साम्प्रदायिक झगड़े श्रसम्मव हो जायें सबल होते हुए भी दूसरे पक्तु को धम की नीति से जीतने का प्रयत्न करना चाहिए ओर सत्य के आग्रह में त्रिना दुसरे पर हाथ उठाये आवश्यकता पड़ने पर अपने प्राणों का भी उत्सग कर देना चाहिए यही महात्माजी का उपदेश है।

राष्ट्र को सशक्त बनाने की श्रावश्यकता है। साम्प्रदायिक एकता से राष्ट्र की शक्ति बढ़ेगी ओर पारस्परिक प्रेम भाव के कारण सभी सम्प्रदाय समुत्नत श्र समृद्धिशाली बन सकेंगे हम को रविबाबू की निम्नलिखित भावना

साम्प्रदायिकता, राष्ट्रीयता श्रोर श्रन्तर्राष्ट्रीयता ३७७-

को हृदय से अ्रपनाना चाहिये | सत्य नारायणजी कृत श्रनुवाद देखिए ३-- भगवन्‌ | मेरा देश जगाना !

स्वतन्त्रता के उसी स्वर्ग में, जहाँ क्लेश नहीं पाना॥

रुचे जहाँ मन से निभय हो, ऊँचा शीश उठाना

मिले त्रिना किसी भेद भाव के, सबको ज्ञान खजाना

तंग घरेलू दीवारों का, बुना ताना-आना |

इसीलिए. बच गया, जहाँ का पएथक्‌ प्थक्‌ हो जाना ||

जिस प्रकार साम्परदायिकता राष्ट्रीयता में बाधक होती है उसी प्रकार

राष्ट्रीयता, जत्र अपनी उचित सीमाश्रों का उल्लंघन करने लगती है तब वह अन्तर्राष्ट्रीयता में बाधक होने लगती है। अपनी राष्ट्रीयता पर गये करना अच्छा हे उसकी शक्ति बढ़ाना भी किसी अंश में झ्रवश्यक होता है किन्तु शक्ति का प्रयोग परेषां परिपीडनाय होना चाहिए। उसका स्व ओर पर के रक्षण में हो उपयोग होना वाञ्छुनीय है। आजकल की राष्ट्रीयता जो महायुद्धों की मूल आधार-मित्ति रही हैं, वैयक्तिक स्वाथ साधन का एक बृहत्‌ संस्करण है। ऐसी राष्ट्रीयता धम के बन्धनों को मानती है श्रोर जाति के इसके मूल में आर्थिक कारणों के अतिरिक्त घथा जातीय अभिमान भी काम करता है। आ्रथिक कारणों में अपने माल की खपत और अपने आदमियों को रोजगार दिलाना है किन्तु इसके लिए दूसरे राष्ट्रों को अपने अधीन बनाना अन्याय है ऐसी राष्ट्रीयता मानवता की विरोधिनी ओर युद्ध को जननी होती है। हमको अपने रश्ट्र का हित-चिन्तन करते हुए दूसरे राष्ट्रों को दबा कर रखने की सोचना चाहिए.।। 'जीओर ओर जीने दो' की नीति का पालन अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में भी आ।वश्यक है| राष्ट्रीयता यदि उचित सीमा में रहे तो वह मानवता में बाधक नहीं हो सकती | विश्व के एक राष्ट्र होने की कल्पना चादे चरितार्थ हो सके या हो सके किन्तु स्वतन्त्र राष्ट्रों में पारस्परिक साम्य की सम्भावना व्यवहार के क्षेत्र से बाहर नहीं सब्र राष्ट्रों की उन्नति में सहायक होना विश्वशान्ति की: ओर अ्रग्रसर होना है। विश्वशान्ति में ही श्रपनी रक्षा ओर उन्नति है |

६०. भारतीय संघ का विधान

भारत वर्ष १५ अगस्त सन्‌ १६४७ को विदेशी शासन के कठोर बन्धनों से मुक्त हो गया था। मुक्त होने के पश्चात्‌ ही भारत की संविधान सभा ने बड़े परिश्रम ओर अध्यवसाय एवं मनन ओर विवेचन के साथ अपना संविधान बनाया, ओर सन्‌ १६४० की २६ जनवरी को जो बहुत काल से हमारे स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जाता था, बड़ी धूम धाम ओर पूर्ण विधि के साथ इसकी घोषणा कर दी यह पूर्ण स्वामित्व सम्पन्न ओर स्वतन्त्र भारत का सविधान है | स्वतन्त्र भारत में सत्र को बना किसी लिज्ञ, जाति ओर सम्प्रदाय भेद के समानता का अधिकार है | सब्च को धार्मिक, सांस्कृतिक ओर शिक्षा सम्बन्धी स्वतन्त्रता का अधिकार है सब को अपनी सम्पत्ति पर अधिकार रहेगा, ओर सत्र को न्याय का समान संरक्षण प्राप्त होगा कोई अस्पृश्य या गुलाम नहीं समका जायेगा यह धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र का विधान है। इसमें किसी के साथ पक्षयात होगा यह देश स्वतन्त्र शासन पूण इकाइयों का संघ होगा जिसके द्वारा अनेकता में एकता का आदश चरिताथ होगा इसकी एक मोटी रूप-रेखा डाक्टर सत्येन्द्र के उपयुक्त शीषक के एक लेख से दे रहे हैं

२६ जनवरी १६५० को भारत जन-सत्तात्मक रिपब्लिक द्वो गया है £ अगस्त १६४७ को भारत को ब्रिटिश पालमिेंट ने डोमीनियन के अ्रन्तगंत अपने कानून के द्वारा स्वतन्त्रता प्रदान की थी उस समय स्वतन्त्र-भारत का शासन-विघान बनाने के लिए एक विधान-परिषद्‌ स्थापित थी | इसी परिषद्‌ को स्वतन्त्र-मारतीय-संघ की धारा-सभा का काम सौंप दिया गया था इस विधान-परिषद्‌ ने २६ श्रगस्त १६४७ को विधान का प्रारूप प्रस्तुत करने के लिए. एक समिति बना दी थी उस समिति ने विधान प्रस्तुत किया वह गम्भीर विचार के उपरान्त रवीकार किया गया २६ जनवरी १६५० से वह नया शासन-विधान देश में लागू हो गया है श्रव भारत अपने निवाचित ओर विश्वस्त, श्रनुभवी नेताओं द्वारा बनाये हुए विधान के द्वारा शासित

भारतीय संघ का विधान ३७६

होता है। प्रत्येक नागरिक को इस विधान का ज्ञान होना चाहिए. यहाँ हम इस विधान की महत्त्वपूर्ण बातें लिखते हैं

भारतीय राष्ट्र का स्वरूप - नये शासन-विधान के श्रनुसार भारत सवतन्त्र स्वतन्त्र जनसत्तात्मक रिपब्लिक होगा इसका अथ यह है कि भारत को अपने सम्बन्ध में प्रत्येक बात पर स्वयं नि्शंय करने का पूण अधिकार होगा; इसके लिए, उसे किसी दूसरे कीं अपेक्षा नहीं करनी होगी प्रत्येक क्षेत्र में न्याय का बोलबाला रहेगा विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, मत तथा पूजा- अचना में सबको स्वतन्त्रता रहेगी सब में समानता का भाव बरतेगा--सबकी समान प्रतिष्ठा होगी और सबको समान अवसर मिलेंगे प्रत्येक व्यक्ति की निजी प्रतिष्ठा की रक्षा करते हुए राष्ट्र की एकता के लिए. भाई-चारे का प्रसार किया जायगा

भारतीय संघ ओर उसका क्षेत्र-भारत एक संघ है। वह कितने ही राज्यों का एक दृढ़ संगठन है इस संघ के सभी हिस्से अ्रब॒ राज्य कहे जायेंगे--प्रान्त शब्द नहीं रहेगा

नागरिकता--मारतीय संघ में वे व्यक्ति नागरिक माने जायेंगे--

१--जो नये विधान के लागू द्ोने के समय नागरिक होंगे

२--जो (श्र) स्वयं भारत की सीमा में उत्न्न हुए हों, अथवा (श्रा) जिनके माता-पिता दोनों मारत में पैदा हुए हों या (इ) जिनके बाबा-दादी में से कोई एक भी यहाँ पैदा हुए हों और (६) अप्रेल १६४७ के बाद किसी विदेशी राज्य में जिन्होंने अपने स्थायी निवास नहीं बना लिये होंगे |

३--जो १६३४ के भारतीय विधान के अनुसार मान्य भारत की सीमा में, श्रथवा, बमा, सीलोन या मलाया में स्वयं पैदा हुआ हो, या जिसके माँ-बाप दोनों पैदा हुए हों, अथवा बाबा-दादी में से कोई भी पैदा हुआ हो ओर जो भारत की सीमा में ही निवास करता हो, बशर्ते कि विधान के लागू होने की तारीख से पहले उसने किसी विदेशी राज्य में नागरिकता पा ली हो |

शासन-विधान के लागू द्वोने के उपरान्त नागरिकता उन नियमों से मिल सकेगी जिनका निर्माण संघ की घारासभा करेगी

३८८० प्रचन्ध-प्र भाकर

मोलिक अधिकार १--धर्म, जाति, फिरके श्रथवा योनि के कारण किसी भी प्रकार का भेद नहीं बरता जा सकेगा |

२--सरकारी श्रोर सावंजनिक नौकरियों के लिए सब्रको बिना भेद-भाव के समान अवसर रहेगा।

२-छुत्राछृुत बिलकुल बन्द कर दी गई है; किसी भी रूप में छुश्राछ्ृत का व्यवहार दण्डनीय हो गया है

४--प्रत्येक व्यक्ति को बोलने की स्वतन्त्रता, बिना हथियार के शान्त सभाश्रों में एकत्र होने की स्वतन्त्रता, सभा-संगठन करने की, देश भर में बिना रोक-टोक घूमने-फिरने की, भारत-भूमि में कहीं भी रहने अथवा बसने की, सम्पत्ति के पूर्ण अधिकार की, कोई भी पेशा अ्रख्त्यार करने की, कैसा भी व्यवसाय, व्यापार करने की स्वतन्त्रता है |

५- सभी व्यक्तियों को समान रूप से अपने विवेक के अनुसार रहने- सहने तथा किसी भी धर्म को मानने अथवा पौलाने का अ्रधिकार है।

६->आदमियों को बेचने अथवा बेगार या जबदस्ती किसी को दबा कर शारीरिक श्रम कराने का बिलकुल निषेध है |

७--अल्पसंख्यक जातियों की संध्कृति ओर शिक्षा की उन्नति पर ध्यान दिया जाता रहेगा

८--मौलिक अधिकारों को मनवाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को प्रेरित किया जा सकता है |

संघ की कायकारिणी--प्रधान--राज्य का श्रध्यक्ष भारत का प्रधान ( प्रेस'डंट ) होगा समस्त कायकारिणी शक्ति उसके हाथ में होगी वह अपने मन्त्रिमएडल के परामश से काम करेगा |

उसका चुनाव केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा की दोनों परिषद तथा राज्यों की धारासभाओं के निर्वाचित सदस्य करेंगे |

वह पाँच वष के लिए चुना जायगा; और केवल एक बार ओर पुनर्निबांचन के लिए. खड़ा हो सकता है

उसकी उम्र २५ वर्ष से कम की नहीं होगी

भारतीय संघ का विधान ३८८१

प्रधान पर विधान-विरुद्ध काम करने पर मुकदमा चलाया जा सकेगा

उपप्रधान--एक उपप्रधान भी होगा पाँच साल के लिए यह भी चुना जायगा |

मन्त्रिमएडल--एक मन्त्रिमण्डल प्रधान को परामश देने के लिए होगा इसका अध्यक्ष प्रधानमन्त्री होगा सप्रस्त मन्त्रिमएडल सामूहिक रूप से जन-सभा के प्रति उत्तरदायी होगा |

एक कानूनी सलाहकार भी नियुक्त किया जायगा

संघ-संसद्‌ ( यूनियन पालोमेंट ) -संघ्र की पार्लामेंट प्रधान और दो परिषदों से मिल कर बनेगी पहली परिषद्‌ राज्यों की परिषद होगी। दूसरी जन-परिषद्‌' होगी

राज्य-परिषद्‌ में दो सो पचास सदस्य होंगे इनमें से पन्द्रह तो अध्यक्ष नियुक्त करेगा, साहित्य, कला, विज्ञान थ्रादि विशेष विषयों का प्रतिनिधित्व करने के लिए, शेष दो सो पेंतीस राज्यों में चुने जायँगे 'जन-परिषद्‌' में पाँच सौ से अधिक सदस्य नहीं होंगे ये राज्यों से निर्वाचित होंगे चुनाव का आधार प्रोट मताधिकार होगा। प्रत्येक ७,४०,००० जन-संख्या के लिए एक से कम प्रतिनिधि नहीं होगा, और ५,००,००० की जन-संख्या के लिए एक से अधिक प्रतिनिधि नहीं होगा

राज्य-परिषद्‌ का कभी अन्त नहीं होगा किन्तु यथासम्भव दूसरे वष की समाप्ति पर लगभग एक तिहाई सदस्य हट जाया करेंगे और उनके स्थान पर नये जाया करेंगे।

जन-परिषद्‌' की अ्रवधि पाँच साल की होगी पाँच साल समाप्त होते ही उस परिषद्‌ का अन्त हो जायगा, नई चुन कर आयेगी विशेष संकट काल में परिषद्‌ की श्रवधि अधिक से अधिक एक साल के लिए. और बढ़ाई जा सकती है

प्रत्येक सत्र के आरम्म में प्रधान दोनों परिषदों की एकत्र बैठक को भाषण दिया करेगा

अध्यक्ष के अधिकार--प्रधान को किसी विशेष आवश्यकता में

रे८र प्रबन्ध-प्रभाकर

किसी भी समय विशेष आशा ( श्रार्डीनंस) प्रचारित करने का अधिकार हे, पर ऐसा वह उन दिनों में नहीं कर सकता जिनमें पालामेंट हो रही है | ऐसी विशेष आज्ञाओं को वह मन्त्रियों के परामश से ही प्रचारित करेगा ऐसी आशा संघ-संतद की बैठक के उपरान्त छुः सप्ताह के समाप्त होने तक लागू रहेगी

संघीय न्यायाधिष्ठान--भारत का एक सर्वोच्च न्यायालय होगा, जिसमें एक भारत का प्रधान न्यायाधीश ओर सात अन्य विचारक होंगे। विशेष अवधि के लिए. भारत का प्रधान न्यायाधीश द्वाईकोट के विचारकों में से भी कुछ को सर्वोच्च न्यायालय में बेठने के लिए नियुक्त कर सकता है

इस न्यायालय के ये काम हैंः--

१०-संघ ओर राज्य अ्रथवा दो राज्यों के पारस्परिक कानूनी श्रधिकार सम्बन्धी भगड़ों का निपटारा करना

२--भारतीय विधान की उचित व्याख्या करना

३--संघ के प्रधान को, प्रधान द्वारा पूछे जाने पर, कानूनी परामश देना

राज्य--संत्र के अ्रनुरूप ही राज्य का शासन है राज्य का प्रमुख राज्यपाल ( गवनर ) होगा राज्यपाल में ही शासन की समस्त शक्तियाँ होंगी। उसके परामर्श के लिए. एक मन्त्रि-मण्डल होगा, मन्त्रि-मण्डल का अध्यक्ष प्रधान मन्‍्त्री होगा

राज्यपाल का कार्य-काल पाँच वर्षों का होगा। विधान-विरद्ध काय करने पर राज्यपाल पर अभियोग चल सकता है।

राज्यपाल को निम्न बातों पर मन्त्रिमण्डल के परामश की आवश्यकता नहीं--इन्‍्हें वह स्वयं कर सकता है। १--घारा सभाश्रों को बुलाने अ्रथः समाप्त करने के सम्बन्ध में। २-- राज्य-लोक-सेवक कमीशन के श्रध्यक्ष तथ् सदर ही नियुक्ति पर। ३--किसी अथ-निरीक्षक की नियुक्ति के सम्बन्ध में तथा, ४--विधान को स्थगित करने के विषय में |

राज्यों की व्यवस्थापिका--राज्य की व्यवस्थापिका में राज्यपाल श्रौ

रतीय संघ का विधान रैधरे

| परिषद कुछ में, तथा एक परिषद शेष सभी में |

धारा सभा में प्रौद मताधिकार से चुन कर आये हुए. सदस्य होंगे। ये सदस्य किसी धागा सभा में ५०० से अधिक नहीं होंगे, ६० से कम नहीं एक लाख की जन-संख्या के लिए एक सदस्य होगा |

दूसरी परिषद में राज्य की धारा सभा की संख्या के २५ प्रतिशत से अधिक सदस्य होंगे | इनमें से श्राधे विविध कायकर वर्गों की सूची में से चुने जायेगे, एक तिहाई धारानसभा द्वारा चुने जायेंगे, शेष राज्यपाल द्वारा नामज़द होंगे

धारा-सभा का कार्य-काल पाँच वष होगा पाँच वर्ष बाद धारा-सभा विसर्जित हो जायगी, दूसरी चुन कर आयेगी लेजिस्लेटिव कोंसिल इस प्रकार विसर्जित नहीं होगी, प्रति तीसरे वर्ष केवल एक तिहाई के लगभग सदस्य हृट जाया करेंगे, ओर उतने ही नये चुन कर जाया करेंगे

राज्य का काय उस प्रदेश की भाषा में या हिन्दी में हुआ करेगा

राज्यवाल को विशेष आदेश प्रचारित करने का श्रधिकार है, पर ऐशा वह उस समय नहीं कर सकेगा, जब्र कि व्यवस्थापिकाओं की बैठक हो रही हो ओर ऐसा विशेष आदेश प्रचारित होने के उपरान्त से घारा-सभा के अधिवेशन के होने के बाद तिफ सप्ताह तक लागू रद्द सकेगा

सद्छुट काल में--विशेष संकट काल में राज्यपाल राज्य में विधान की किन्हीं घाराशं को स्थगित करने की घोषणा कर सकता है। यह घोषणा दो सप्ताह के लिए वैध रदेगी। इसी बीच में राज्यपाल को स्थिति की सूचना केन्द्रीय प्रधान को देनी होगी प्रधान उस घोषणा को वापिस लेगा, या फिर अपनी घोषणा प्रचारित करेगा इस घोषणा से राज्य का प्रबन्ध केन्द्र के हाथ में जायगा |

हाई कोर्ट--हाई कोट का जज ६० वर्ष की उम्र तक काम कर सकता है। धारा-साभा ६४ वर्ष तक भी इस अवधि को बढ़ा सकती है।

चीफ कमिश्नरी प्रान्त--देइली, श्रजमेर, कोडगु, और पन्‍्य पिपलोदा जैसे प्रान्त, जिनका १६३४ के कानून से केन्द्र द्वारा शासन हो

शेष प्रबन्ध-प्रभ।

रहा है प्रेसीडेंट द्वारा नियुक्त चीफ कमिश्नर, लेफ्टिनेंट गवर्नर, गवनर अ्रथ किसी राजा के प्रबन्ध में रखे जायेंगे। प्रेसीडेंट इन प्रदेशों के लिए विध, 'प्रस्तुत कर सकेगा, स्थानीय धारा समाएँ तथा कॉंसिलें बनवा सकेगा सद्ठ तथा राज्य--विधान में सड्ठः और राज्यों के द्वारा शासित हैं वाले विषयों की अलग-अलग गिनती कर दी गई है सिद्धान्त यही रहा है | जो राष्ट्रीय महत्त्व के विषय हैं, वे संव के अधिकार में रहें ओर जो स्थानी महत्व के हैं वे राज्यों के अधीन रहें। इसी सिद्धान्त पर यह भी नियम बनाय गया है कि आगे भी कभी यदि कोई विष्रय स्थानीय महत्व की श्रपेक्ष राष्ट्रीय महत्त्व भ्हरण कर लेगा तो वह भी राज्य-परिषद्‌ के दो तिहाई मत रे 'संघ का विषय बन सकेगा | श्रन्य दिये हुए विषयों के साथ पाँच वर्ष तक आवश्यक पदार्थों जैसे रुई, वस्त्र, अन्न, तिनोले आदि का व्यापार व्यवसाय, उनका उत्तादन, संग्रह तथा वितरण, स्थान-प्रष्ट मनुष्यों की सहायता तथा पुननिवास जैसे बिपय भी 'संघ तथा राज्य दोनों के अधीन रहेंगे | अल्पसंख्यकों का दित--दस साल तक मुसलमानों, दलित जातियों, भारतीय ईसाइयों के लिए संध की तथा राज्यों को धारासभाश्रों में स्थान निश्चित कर दिये गये हैं अल्यसंख्यक जातियों के हित की रक्ता के लिए. एक विशेष अ्रधिकार रहेगा दलित जातियों के शासन की स्थिति के सम्बन्ध में एक कमीशन नियुक्त किया जाया करेगा | प्रधान तथा राज्यपाल की रक्षा--प्रधान तथा गवनर के विरुद्ध जब्र तक वे पदारूद हैं कोई कानूनी कारवाई नहीं की जा सकेगी विधान में संशाधन--संघ पार्लामेंट की प्रत्येक परिषद में उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई मत से, जो पू्ण सदस्य-संख्या का स्पष्ट बहुमत हो, विधान में संशोधन किया जा सकता है | --( डा० सत्येन्रजी के निबन्ध-रत्नाकर से )

-फकककरबाए ४४८2६ पिला काजकतः अान्दशाडयााकत लक क्याहलएमकर,